Thursday, April 08, 2021

लम्बा मारग दूरि घर

 

आज फिर सपना दिखा। वही पुराना, सदाबहार। इम्तहान के लिए निकलना है। देरी हो रही है। समय कम। डर हावी है कि कहीं समय पर पहुंच न पाए तो पेपर छूट जाएगा। करेला ऊपर से नीम चढा यह कि अभी फाइनल रिवीजन बाकी है।
रिवीजन करना है। निकलना है। पहुंचना है। इम्तहान देना है। लेकिन हो कुछ नहीं रहा है सिवाय चिंता के। कुछ नहीं करने पर सिवाय चिंता के कुछ नहीं होता। यह भी कह सकते कि सिर्फ चिंता करने से कुछ नहीं होता।
सपना भले पुराने टाइप का है लेकिन इस बार साधन बदले हैं। पहले सपने में रिक्शा रहता था। इस बार कार है। लगता है सपने में भी प्रमोशन हो गया। सवारी मंहगी हो गई। कार के साथ जाम की भी चिंता है। जाम लगा होगा तो पहुंच नहीं पाएंगे समय पर।
रिक्शे की जगह सपने में आई। लगता है आटोमोबाइल बिरादरी ने स्पांसर किया है सपना। बाजार सपनों में भी घुसपैठ करने लगा। मंहगे होते पेट्रोल के चलते कारों की बिक्री कम हुई तो सपने में बिकने लगी।
तरह तरह की बाधाएं कबीर दास जी के दोहे की याद दिला रही हैं :
"लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।"
अब नींद खुल गई लेकिन सपना भूला नहीं है। लेकिन सुकून है कि अब इम्तहान देने नहीं जाना पड़ेगा। इम्तहान से सबको डर लगता है। यह अलग बात है जिंदगी के स्कूल में हर समय कोई न कोई इम्तहान चलता रहता है। उसमें फेल-पास की चिंता नहीं होती। पता भी नहीं चलता कि किसी इम्तहान में शामिल हैं।
यह तो हुई सपने की बात। कल नहाते हुए एक बड़ा धांसू आइडिया आया था दिमाग में। बिना पूछे घुस गया था। पहले तो गुस्सा आया कि डांट के 'गेटआउट' कह दें। लेकिन आइडिया इतना क्यूट था कि नहीं बोल पाए। उसकी खूबसूरती पर फिदा हो गए।
आइडिया एक फैंटेसी पर एक उपन्यास लिखने का था। जो फैंटेसी आई थी दिमाग में वह इतनी हसीन थी कि तय किया कि नहाना छोड़कर पहले उसको पेटेंट करा लें। लेकिन आर्किमिडीज जैसी दीवानगी के अभाव में हमने पेटेंट का काम छोड़कर लिखने की बात तय की। सोचा कि लिखकर अच्छे से कई ड्राफ्ट के बाद उपन्यास किसी प्रकाशक को दे देंगे। भले ही वह छापे , न छापे। अपन तो लिख देंगे उपन्यास। बन जाएंगे -'अन छपे उपन्यास' के लेखक। जब तक छपेगा तब तक दो-चार भाषाओं में अनुवाद भी करा लेंगे। इनाम-उनाम की बात भी कर लेंगें। इधर उपन्यास छपे, उधर इनाम मिले।
यह सब तो बड़ा हसीन ख्वाब था जो अपन ने नहाते हुए देखा। आज सुबह जगने पर जब सपने की याद की तो कल के ख्वाब को भी याद क़िया। पता चला ख्वाब तो याद है लेकिन फैंटेसी के डिटेल कहीं गोल हो गए। फैंटेसी आइडिये के साथ फरार। याद ही नहीं आ रहा कि क्या लिखने की सोच रहे थे।
बहुत गुस्सा आया। कल लिखकर रख लेना चाहिए था। एक उपन्यास का कच्चा माल जरा सी लापरवाही से गायब हो गया। मन किया पकड़ के कुच्च दें अपनी लापरवाही को। लेकिन छोड़ दिया। ले-देकर लापरवाही ही तो है जो हमेशा साथ रहती है। यह भी रूठ गई तो बचेगा क्या अपन की शख्सियत में।
लेकिन मजे की बात यह कि अपन को सोते हुए देखा सपना, जो परेशानी वाला है , तो याद है लेकिन हसीन ख्वाब की तफसील भूल गई। इससे साबित होता है कि बुरी चीजें हम शिद्दत से याद रखते हैं, अच्छी चीजें याद करने में लापरवाही बरतते हैं।
बहरहाल जो हसीन ख्वाब जागते हुए देखा था वह आखिरी नहीं था। फिर देखा जाएगा और अमल में भी लाया जाएगा- इंशाअल्लाह।
आप भी देखिए कोई हसीन ख्वाब और अमल में भी लाइये। न ख्बाब में कोई राशनिंग है और न ही उनके अमल में लाने में।

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