Saturday, April 27, 2019

पप्पू की दुकान और कनेर का फ़ूल


सबेरे-सबेरे पप्पू की चाय की दुकान गुलजार हो गयी है। लोग बैठे चाय -नाश्ता कर रहे हैं। एक बड़ी , सफ़ेद दाढी वाले बुजुर्ग खड़े-खड़े चाय पी रहे हैं। नमकीन दांत से कुतर रहे हैं। एकदम आहिस्ते से। शायद इस ख्याल से कि नमकीन को एकसाथ ज्यादा कटने का दर्द न हो। परदुखकातरता का भाव !

एक बुजुर्ग बेंच को टांगों के बीच फ़ंसाये अखबार बांच रहे हैं। बीच का पन्ना खुला है। अखबार किसी पक्षी के खुले डैनों सा उनके सामने पसरा है। पूरा फ़ैलाकर अखबार पढने का मजा ही और है। हर तरह की खबरें उड़ान भरती हैं।
ओला बुक कराये हैं। घरैतिन को स्कूल जाना है। पुल पर जाम लगता है। अक्सर गाड़ी जाम में फ़ंस जाती है। ओला एक दहकता हुआ शोला बन जाता है।
कई सालों से बन रहा है ओवरब्रिज। ओवरब्रिज मतलब उपरिसेतु। कई बार बनना शुरु होता है। हर बार लगता है कि अब बन ही जायेगा। लेकिन कुछ दिन बाद फ़िर से बनना शुरु हो जाता है।


ओला पर गूगल हमारे घर की लोकेशन ’जे एफ़ सेल स्ट्रीट’ बताता है। कई लोगों से पूछ चुके इसका क्या मतलब है? जेएफ़सेल कौन है, कोई महामानव हैं या कोई फ़ैक्ट्री, या कुछ और ? जितने लोगों से पूछा उनमें से किसी को पता नहीं ! लेकिन गूगल को पता है। गूगल सब जानता है। जानता क्या जो गूगल बताता है अब वही जानकारी है, बाकी सब गलत। गूगल सत्य है, बाकी सब मिथ्या।
फ़ोन देखते हैं तो कई मेसेज पासवर्ड के दिखे। किसी ने मेरे एटीएम से खरीद करने की कोशिश की है। शुरुआत १०० रुपये से। इसके बाद किसी पोओएस से खरीद की कोशिश। कार्ड ब्लॉक किया । सालों से साथ रहे एटीएम कार्ड का साथ छूटने का दर्द। कार्ड ब्लॉक करते हुये दो ही विकल्प बताता है बैंक - ’कार्ड खोया या चुराया गया।’ मतलब कार्ड फ़र्जी खरीद की कोशिश के चलते ब्लॉक कराया जा रहा इसका कोई विकल्प नहीं।
घर के बाहर कनेर के पेड़ में फ़ूल खिले हैं। अलग-अलग डालियों में अलग-अलग अंदाज में। सामने की डाली में एक फ़ूल पूरा खिला है। बाकी के सब कली हैं अभी। कल या परसों तक खिलेंगे। इस लिहाज से कम औसत आयु वाले फ़ूलों वाली टहनी है यह। युवा सबसे ज्यादा हैं इस टहनी पर। जैसे भारत है युवा राष्ट्र। बाकी की टहनियां अलग-अलग फ़ूलों वाली हैं। एक में तो सभी फ़ूल पूरे खिले हैं। पूरी टहनी वृद्धाश्रम लग रही। किसी वामपंथीे पार्टी के पोलितब्यूरो की तरह। किसी दक्षिणपंथी पार्टी के मार्गदर्शक मंडल सरीखी।
फ़ूल का नाम पहले हमने गुड़हल समझा। फ़िर कहा -’अबे गुड़हल नहीं कनेर है।’ मन को हड़काया भी कि अपने आसपास की दुनिया से इतने अनजान कैसे हो गये यार। ये लक्षण तो बड़े लोगों के हैं। खाली भुलक्कड़ और अनजान बनकर बनकर बड़े बनने की कोशिश शार्टकट है। दूसरी तमाम खुर्राट हरकते किये बिना बड़ा बनने का ख्वाब छोड़ दो।
सूरज भाई मुस्करा रहे हैं। पीली रोशनी फ़ैला रहे हैं। कनेर के फ़ूलों पर भी रोशनी की बारिश कर रहे हैं। उनको इस बात से कोई शिकायत नहीं कि कनेर ने उनकी किरणों का रंग धारण कर लिया है। बड़े लोगों का मन भी बड़ा होता है। मतलब असली बड़े वही होते हैं जिनके मन बड़े होते हैं। बाकी तो सब ’डालडा बड़े’ हैं।

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