Wednesday, April 03, 2019

फुटपाथ पर अंगौछे




इतवार को फुटपाथ पर अंगौछे दिखे। फुटपाथ पर नहीं पेड़ पर लटकते। दिहाड़ी दुकानदार पेड़ की टहनियों पर अंगौछे लटका रहा था। प्राकृतिक शो रूम। टहनियों में लटके अंगौछे हवा की संगत पाकर इठला रहे थे। लहरा रहे थे। बक्से से आजाद होने की खुशी उनके पूरे बदन को हिलाए डाल रही थी।
पेड़ की टहनी से लटके नागिन डांस टाइप कर रहे थे अंगौछे। वे बिकने के लिए लटक गए थे। अपने खरीददार के इंतजार में थे। सब अपने-अपने। भाग्य फल देखकर आये थे। किसी को पसीना पोंछने का संयोग बताया गया था, किसी को नहाने के बाद बदन पोंछने का। एक के भाग्य फल में दूध का छन्ना बनने का संयोग बताया गया था। उसका मूड भन्नाया हुआ था। बचपन से उसकी दिली तमन्ना किसी सद्यस्नाता स्त्री पदार्थ के गीले जूड़े में लिपटने की थी। लेकिन सबका मनचाहा कहाँ होता है।
आगे वाला अंगौछा सफेद रंग का। बाकी रंग-बिरंगे। सफेद वाला बाकी के मुकाबले शरीफ लग रहा था। गुंडों से लबरेज राजनीतिक पार्टियों में दिखावे के लिए साफ-सुथरे को आगे करके वोट मांगने वाले अंदाज में सफेद अंगौछा सबसे आगे लटका था।
ऐसा लगा की रंगीन तबियत लोगों ने अपनी नुमाइंदगी के लिए साफ सुथरे लगने वाले को चुना है। जैसे तमाम घपले-घोटाले वाली बहीखाते पर सिंदूरी कपड़े की जिल्द चढ़ी होती है। जैसे अवैध शराब के ठेके थानों के आसपास चलते हैं। जैसे ज्यादातर लेनदेन 'घूस लेना अपराध है' लगे साइनबोर्ड के नीचे होता है। जैसे सबसे ज्यादा गन्दगी उस नुक्कड़ पर होती है जहां दीवार पर लिखा होता है -'आप द्वारा फैलाई गंदगी को आप जैसा ही आदमी साफ करता है।'
उत्सुकता से हमने दाम पूछे। सफेद वाला 70 रुपये का था, रंगीन वाले 50 के। सफेदी और शराफत के 20 रुपये। दुकान वाला थोड़ी नाराजगी में हमें देखता रहा। निगाह में जबान होती तो मुझे सुनाई पड़ता -'लेना देना कुछ है नहीं, खाली दाम पूछ रहे।'
उसकी निगाह ने हमको घायल कर दिया। मन किया एक खरीद लें और गले मे लपेट के एक ठो फोटो खींचकर डीपी बनाये। 100 लाइक और पचास कमेंट आएंगे कम से कम। 'अंगौछा गुरु' कहेगा कोई। कोई कुछ और मजे लेगा। लेकिन तब तक व्यवहारिक बुद्धि ने हमला कर दिया -'फालतू की खरीदारी की क्या जरूरत?'
व्यवहारिक बुद्धि के हमले से अकबकाये हम लौट आये। घर ही आये। आपको तो पता ही है कि लौट के कौन आता है घर। ज्यादा क्या बताएं आपको। आप खुद ही समझदार हैं।

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