Tuesday, December 15, 2020

कहीं का सामान कहीं पर डिलीवरी

 दो-तीन दिन पहले हम घर पर थे। लंच पर आए थे। फोन आया -'आपका कोरियर है।'

हमने पूछा -'किधर हो ? कहां से आया है कोरियर?'
'फैक्ट्री गेट पर हूँ। डीटीडीसी से आया है कोरियर'-उधर से बताया गया।
कुछ किताबें मंगाई थीं। हमने सोचा वही होंगी। कह दिया -'फैक्ट्री गेट पर दे दो।'
कोरियर वाले ने दरबान से बात कराई। हमने कहा -'ये कोरियर ले लो। फैक्ट्री आएंगे तो गेट पर ले लेंगे या मेरे आफिस भेज देना।' नाम नहीं पूछा दरबान का। इसलिए कि नाम अक्सर गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। दूसरे यह तसल्ली भी रहती है हमेशा कि सामान इधर-उधर नहीं होगा। यह सहज विश्वास बनाये रखने के लिए किसको शुक्रिया अदा करूँ , समझ नहीं आता।
शाम को चलते समय कोरियर की याद आई। पूछा -'कोरियर आया होगा। किधर है?'
'कोरियर तो कोई नहीं आया।' -दफ्तर में बताया गया।
हमने कहा-' गेट पर पता करो। दोपहर को आया था। तीन बजे करीब।'
पता चला गेट पर कोई कोरियर नहीं आया । हमने कहा कोरियर वाले से पूछो किसको दिया।
कोरियर वाले को फोन किया तो उसने कहा -'गेट पर दे आये थे। दरबान को।'
इधर कोरियर वाला कह रहा गेट पर दे आये। गेट पर कह रहे कोई कोरियर नहीं आया। तो गया किधर?
बाद में बात खुली कि सामान जबलपुर की व्हीकल फैक्ट्री में डिलीवर हुआ है। फैक्ट्री जहां हम साढ़े चार साल पहले थे (जनवरी 2012 से अप्रैल 2016 तक)। हमको लगा कि किताब आर्डर करते समय जबलपुर का पता डाल दिये होंगे।
फोन किया जबलपुर। गेट पर जिसकी ड्यूटी थी उसने कहा -'ये गेट नम्बर एक है। आपका सामान गेट नम्बर छह पर आया होगा। अभी वह बन्द है। सुबह पता करके बताएंगे।'
हमने कहा -'ठीक है। पता करके बताना।'
इस बीच उस स्टाफ ने यह भी कहा -'आपकी पोस्ट नियमित पढ़ते रहते हैं।'
हमको सुनकर अच्छा लगा। ऐसा अक्सर हमसे लोग कहते हैं। कुछ लोग तो किसी पोस्ट का जिक्र भी करते हैं। इससे लगता है कि सही में लोग पढ़ते हैं भले ही प्रतिक्रिया न व्यक्त करें। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं -'आपकी कविताएं आपके ब्लाग पर पढ़ते रहते हैं। बहुत बढ़िया कविताएं लिखते हैं आप।' हम कविता लिखते नहीं फिर भी लोग पढ़ लेते हैं मेरी कविताएं ऐसे पाठक कितने अच्छे होते हैं। 🙂
बहरहाल अगले दिन पता किया तो मालूम हुआ कि पत्र था फैक्ट्री का। उसमें मेरा फोन नम्बर लिखा था क्योंकि मैं पहले था वहां। इसीलिए कोरियर ने मुझे फोन किया। इसके बाद , इसी बहाने जबलपुर में और लोगों से बात हुई। पुरानी यादें ताजा हुईं।
इस सिलसिले को दुबारा सोचा तो लगा कि कोरियर वाले ने मुझे जबलपुर में ही मानकर फोन किया। मैंने उसे शाजहाँपुर में समझा। इसके बाद मुझे यह भी याद नहीं रहा कि जिस किताब की बुकिंग मैंने की थी वह 15 के बाद डिलीवर होनी है। जबलपुर में भी पता आफिसर्स मेस का दिया होता है। फैक्ट्री का नहीं। बिना कुछ कन्फर्म किये इधर-उधर फोनियाते रहे। सहज विश्वास और अतिआत्मविश्वास के सहज साइड इफेक्ट हैं यह।
यह तो हुई कोरियर की बात। कहीं का सामान कहीं डिलीवर हो जाता है।
दुनिया में भी कुछ ऐसा ही घाल मेल चलता होगा। किसी की मेहनत किसी और के खाते में जमा हो जाती होगी। किसी के हिस्से का दुख किसी दूसरे के खाते में चढ़ जाता होगा। किसी के हिस्से की खुशी का कोरियर कोई दूसरा छुड़ा लेता होगा।
कई बार ऐसा भी होता होगा कि कुछ सुख इसलिए डिलीवर नहीं हो पाते होंगे हमको क्योंकि उनपर पता गलत लिखा होगा होता होगा।
दुनिया को दुरुस्त करने के लिए इसका डिलीवरी सिस्टम ठीक करना होगा। इसके लिए हमको खुद को दुरुस्त करना होगा। पते सही लिखने होंगे और याददाश्त दुरुस्त रखनी होगी। 🙂

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