Friday, December 25, 2020

बिस्मिल की शहादत के बाद उनके परिवार की स्थिति

 बिस्मिल के न रहने के बाद उनकी मां का समय कैसे व्यतीत हुआ हुआ, यह जानने के लिए माँ के साथ गोरखपुर जेल में बिस्मिल से मिलने गए क्रांतिकारी दल के शिव वर्मा की डायरी का एक पृष्ठ पढ़ना पर्याप्त होगा। 23 फरवरी, 1946 को उन्होंने लिखा था -

"मां फिर रो पड़ी"
"अशफाक और बिस्मिल का यह शहर कालेज के दिनों में मेरी कल्पना का केंद्र था। फिर क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य बनने के बाद काकोरी मुखबिर की तलाश में काफी दिनों तक इसकी धूल छानता रहा था। अस्तु, यहां जाने पर पहली इच्छा हुई बिस्मिल के मां के पैर छूने की। काफी पूछताछ के बाद पता चला। छोटे से मकान की एक कोठरी में दुनिया की आंखों से अलग वीर प्रसविनी अपने जीवन के अंतिम दिन काट रही है.....
"पास जाकर मैने पैर छुए। आंखों की रोशनी प्रायः समाप्त-सी हो चुकने के कारण पहचाने बिना ही उन्होने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और पूछा, "तुम कौन हो?" क्या उत्तर दूं , कुछ समझ में नहीं आया।
थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर पूछा, "कहां से आये हो बेटा?"
इस बार साहस करके मैने परिचय दिया, गोरखपुर जेल में अपने साथ किसी को ले गईं थीं अपना बेटा बनाकर।" अपनी ओर खींचकर सिर पर हाथ फेरते हुए मां ने पूछा, "तुम वही हो बेटा। कहां थे अब तक। मैं तो तुम्हे बहुत याद करती रही, पर जब तुम्हारा आना एकदम बन्द हो गया तो समझी कि तुम भी कहीं उसी रास्ते पर चले गए।"
मां का दिल भर आया। कितने ही पुराने घावों पर ठेस लगी। अपने अच्छे दिनों की याद, जवान बेटे की जलती हुई चिता की याद और न जाने कितनी यादों से उनके ज्योतिहीन नेत्रों में पानी भर आया। वह रो पड़ीं। बात छेड़ने के लिए मैने पूछा ,"बिस्मिल का छोटा भाई कहां है?"
मुझे क्या पता था कि मेरा प्रश्न उनकी आंखों में बरसात भर लाएगा। वे जोर से रो पड़ीं। बरसो का रुक बांध टूट पड़ा सैलाब बनकर।
कुछ देर बाद अपने को संभालकर उन्होंने कहानी सुनानी शुरू की... आरम्भ में लोगों ने पुलिस के डर से उनके घर आना छोड़ दिया। वृध्द पिता की कोई बंधी आमदनी न थी। कुछ साल वह बेटा बीमार रहा। दवा-इलाज के अभाव में बीमारी जड़ पकड़ती गयी। घर का सब कुछ बिक जाने पर भी इलाज न हो पाया। पथ्य और उपचार के अभाव में तपेदिक का शिकार बनकर एक दिन वह मां को निपूती छोड़कर चला गया।
पिता को कोरी हमदर्दी दिखाने वालों से चिढ़ हो गयी। वे बेहद चिड़चिड़े हो गए। घर का सब कुछ तो बिक ही गया था। अस्तु, फाकों से तंग आकर एक दिन वे भी चले गए, मां को संसार में अनाथ और अकेली छोड़कर। पेट में दो दाना अनाज तो डालना ही था। अस्तु, मकान का एक भाग किराये पर उठाने का निश्चय किया। पुलिस के डर से कोई किरायेदार भी नहीं आया और जब आया तब पुलिस का ही एक आदमी था। लोगों ने बदनाम किया कि मां का सम्पर्क तो पुलिस से हो गया है।
"उनकी दुनिया से बचा हुआ प्रकाश भी चला गया। पुत्र खोया, लाल खोया, अंत में बचा था नाम , सो वह भी चला गया।"
"उनकी आंखों से पानी की धार बहते देखकर मेरे सामने गोरखपुर फांसी की कोठरी घूम गयी। तब मां ने कितनी बहादुरी से बेटे की मृत्यु (फांसी) का सामना किया था। उस दिन समय पर विजय हुई थी मां की और मां पर विजय पाई है समय ने। आघात पर आघात देकर उसने उनके बहादुर हृदय को भी कातर बना दिया है। जिस मां की आंखों के दोनों ही तारे विलीन हो चुके हों उसकी आँखों की ज्योति यदि चली जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। वहां तो रोज ही अंधेरे बादलों से बरसात उमड़ती होगी।
"कैसी है यह दुनिया, मैने सोचा। एक ओर 'बिस्मिल जिंदाबाद' के नारे और चुनाव में वोट लेने के लिए 'बिस्मिल द्वार' का निर्माण और दूसरी ओर उनके घर वालों की परछाई तक से भागना और उनकी निपूती बेवा मां पर बदनामी की मार। एक ओर शहीद परिवार फंड के नाम पर हजारों का चंदा और दूसरी ओर पथ्य और दवा दारू के लिए पैसों के अभाव में बिस्मिल के भाई का टीबी से घुटकर मर जाना। क्या यही है शहीदों का आदर और उनकी पूजा।
फिर आऊंगा मां,कहकर मैं चला गया। , मन पर न जाने कितना बड़ा भार लिए।"
Sudhir Vidyarthi जी की पुस्तक 'मेरे हिस्से का शहर' के
लेख 'एक मां की आंखें' से।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221380770522194

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