Wednesday, December 23, 2020

पंडित को फांसी, मुझे सिर्फ सजा

 6 अप्रैल, 1927 को हेमिल्टन फैसला सुनाने वाला था। इसलिए एक दिन पहले 5 अप्रैल को जिला जेल लखनऊ के ग्यारह नम्बर बैरक में रात के भोजनोपरांत क्रांतिकारियों ने एक दिलचस्प बैठक आयोजित की। दृश्य अद्भुत था। मृत्यु सामने फांसी का क्रूर फंदा लिए खड़ी थी लेकिन वे सरफरोश खिलखिलाकर हंस रहे थे, अट्टहास कर रहे थर। आदमी होकर मौत से न डरने वाले इन क्रांतिकारियों की एक झलक उस दिन जिस किसी ने देख पाई, वह धन्य हो गया।

........उन्होंने एक अदालत बनाई और एक जज मुकर्रर किया। उस नकली जज से कहा गया कि वह प्रत्येक क्रांतिकारी का जुर्म देखते हुए अपना फैसला दे। वैज्ञानिक यदि किसी ऐसे यंत्र का आविष्कार कर पाते जिससे अतीत की घटनाओं को देखा जा सकता तो मैं एक बार क्रांतिकारियों की बनाई इस अदालत को जरूर देखना चाहता जिसमें वे मौत को अंगूठा दिखाकर मस्ती से झूमते हुए भारतमाता के रंगमंच पर अपना पार्ट अदा कर रहे थे।
पहला नाम आया पं. रामप्रसाद बिस्मिल का। जज ने जुर्म बताते हुए कहा कि वे भारत देश को दयालु ब्रिटिश साम्राज्य से छीनना चाहते थे, इसलिए उन्हें फांसी की सजा दी जाती है।
दूसरा नाम शचीन्द्रनाथ सान्याल का पुकारा गया। सान्याल जी ने जुर्म कबूल करते हुए जज से प्रार्थना की कि उनके प्रति अदालत नर्म रुख अपनाए क्योंकि उनकी गृहस्थी कच्ची है। उनके इस निवेदन को देखते हुए उन्हें काला पानी की सजा दी गयी।
इसी तरह और दूसरे नाम आये और उन पर लगे अभियोगों के आधार पर उन्हें सजाएं दी गई।
सबसे बाद में पुकारा गया ठाकुर रोशनसिंह को। जज ने कहा कि चूंकि आप बमरोली डकैती में शामिल नहीं थे, लेकिन उस स्थान की जानकारी अपने सबको दी, इस कारण आपको पांच साल की सख्त सजा दी जाती है।
रोशनसिंह चिल्लाए-"ओ जज के बच्चे, फैसला सुनाने की तमीज भी है। मैं तो कोदो बेचकर आया हूँ न, जो मुझे पांच साल की सजा सुना रहा है। पंडित(रामप्रसाद बिस्मिल) को फांसी और मुझे सिर्फ सजा। बेवकूफ।"
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
फिर उनमें से किसी ने रोशनसिंह को थोड़ा और छेड़ने की गरज से पीछे से कहा-"जज साहब से निवेदन है कि अदालत की मानहानि के आरोप में ठाकुर साहब को पन्द्रह दिनों की सजा और दी जाए।"
सब लोग हंस पड़े। रोशनसिंह गुस्से में उठकर अपने बिस्तर पर जाकर लेट गए। अदालत भंग हो गई। सभी ने जाकर ठाकुर साहब से माफी मांगी। उम्र में वे सबसे बड़े जो थे। बिस्मिल और दूसरे क्रांतिकारी उनकी बहुत इज्जत करते थे।
'मेरे हिस्से का शहर' -लेखक सुधीर विद्यार्थी से।
क्रांतिकारी ठाकुर रोशनसिंह पर लिखे लेख -जिंदगी जिंदादिली' का अंश।


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