Friday, June 11, 2021

क्रांति के रास्ते की कठिनाइयां

 

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिन पर उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके क्रांतिकारी जीवन की कठिनाइयां का वर्णन देखिए।
उन्होंने जैसे-तैसे क्रांतिकारी कार्यो का संचालन किया। क्रांतिकारी पर्चे आये तो उन्हें भी वितरित कराया। पर समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी। वे बताते हैं कि चने मिलना भी कठिन था। " सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था। किसी के पास सबूत कपड़े तक न थे। कुछ विद्यार्थी बनकर धर्मक्षेत्रों तक में भोजन कर आते थे। चार-पांच ने अपने-अपने केंद्र त्याग दिए थे। पांच और रुपये से अधिक रुपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था। यह दुर्दशा दे मुझे बड़ा कष्ट होने लगा। मुझसे भी भरपेट भोजन न किया जाता था। सहायता के लिए कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किंतु कोरा उत्तर मिला। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। कुछ समझ में न आता था। कोमल हृदय नवयुवक मेरे चारों तरफ बैठकर कहा करते पंडित जी, अब क्या करें? मैं उनके सूखे-सूखे मुंह देख बहुधा रो पडता कि स्वदेशसेवा व्रत लेने कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही थी। एक-एक कुर्ता तथा धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबुत होती। लँगोट बांधकर दिन व्यतीत करते थे। अंगौछे पहनकर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे। मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था। इन लोगों की ऐसी देखकर मुझे दूध पीने का साहस न होता था। मैं भी सबके साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था। मैंने विचार किया कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्ट करके उन्हें कहाँ भेजा जाए। जब समिति का सदस्य बनाया था तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बंधाई थीं। कइयों का पढ़ना-लिखना छुड़ाकर काम मे लगा दिया था। पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता। बुरा फंसा ! क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता था। अंत में धैर्य धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने का निश्चय किया।"
सुधीर विद्यार्थी जी की किताब-' मेरे हिस्से का शहर' से साभार।

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