Thursday, June 04, 2015

आज आफ़िस नहीं जाना क्या बाबू जी को?

आज उठे तो अचानक अम्मा की याद आ गयी। उनसे जुडी तमाम बातें भी। देर तक फोटुयें देखते रहे। यादों में डूबते-उतराते रहे। रोना भी आया।

अम्मा की याद के साथ गांधीनगर का वह कमरा हमेशा याद आता है जहां हम भाई (3)बहन (1) के साथ बड़े होने तक रहे। एक कमरे के उस घर में कन्ट्रोल अम्मा का रहा। अभाव के दिन थे लेकिन दीनता जैसी नहीं थी। एक पुराने मकान में 18 किराये दार रहते थे। रात में लोगों के कमरों को छोड़कर और कहीं रोशनी नहीं दिखती थी। तिमंजिले मकान में लोग अंधेरे जीनों में चढते-उतरते। एक नल था। पानी के लिये अक्सर लड़ाई झगड़ा होता।

प्रौढ शिक्षा के दौर में बगल में रहने वाली ’राधा जिज्जी’ ने हाईस्कूल का फ़ार्म भरा था। हम उस समय कक्षा 9 में पढ़ते थे। उनको हिन्दी पढ़ाते थे। रिजल्ट आया तो वे जिन विषयों में पास हुईं उनमें हिन्दी भी एक थी। उन दिनों हमको क्रिकेट कमेंट्री सुनने का शौक था। सुबह पांच बजे उठ जाते। जीजा जी अपना रेडियो आन कर देते। हम उनके घर में खड़े-खड़े रेडियों पर कमेंट्री सुनते।

मकान में रहने वाले सब लोग कम/अनियमित आमदनी वाले लोग थे। सामने मोतीलाल रहते थे। जो स्माल आर्म्स फ़ैक्ट्री में काम करते थे। फ़िटर थे। उनके यहां मीटर लगा था। हमारे यहां बिजली का एक बल्ब उनके यहां से तार खींचकर जलता था। शाम को बल्ब आन होता। सुबह होते ही बन्द हो जाता। 5 रुपये महीना किराया बल्ब का।

मोतीलाल फ़िटर थे। अक्सर अपनी साइकिल आंगन में पूरी खोलकर साफ़ करते। फ़िर से कसते। उनके असामयिक निधन के बाद उनके बेटे को अनुकम्पा के आधार पर उनकी जगह नौकरी मिली। जब मैं एस.ए.एफ़. में आया तब उससे मुलाकात होने पर सब बातें याद करते।

अम्मा जब हमारे साथ रहने आयीं तो अक्सर पुरानी यादों में खो जातीं। बीते दिनों को याद करतीं। हम उन दिनों के सबसे बड़े साझीदार थे। वे दिन उनके अभाव के थे लेकिन संघर्ष के भी थे। आत्मविश्वास के थे। उन यादों में उनका मन बहुत रमता था। बाद के दिनों में आर्थिक अभाव नहीं रहे लेकिन बच्चों पर निर्भरता के चलते आत्मविश्वास की वो ठसक कम हो गयी थी। होता हमेशा वही था जो वे चाहती थीं लेकिन ड्राइवर उनके बच्चे हैं यह बात उनको कभी-कभी उनको लगती होगी।

अम्मा के काम तीन तरह के होते थे। एक वे काम जो घर से जुड़े होते थे। उनको तो वे लाउड स्पीकर लगाकर बताती । गैस आनी है, सब्जी नहीं है, प्रेस के कपड़े जाने हैं ये सार्वजनिक जरूरत की चीजें वे हल्ला मचाकर बतातीं। देरी होने पर हड़काउ मुद्रा में फ़िर तकादा करतीं।

दूसरे काम वे थे जो उनसे जुड़े होते थे। दवाई आनी है, नींद की गोली खत्म है, बैंक खाता खुलना है, उनका कोई सामान आना है। यह सब वे आराम से ध्यान दिलाने वाले अंदाज में बतातीं। दफ़्तर जाते समय बाहर तखत पर बैठे जातीं। ध्यान दिलाने के लिये। दवाई के लिये खतम होने के तीन-चार दिन पहले बताना शुरु करतीं। कभी होता कि बताना भूल जातीं तो उस दिन की दवाई भी नहीं होती थी या फ़िर हम ही लाना भूल जाते थे। फ़िर हम उसी समय जाते तो कहतीं- "रहन देव कल लय आयेव।" हम ले आते। फ़िर मौज लेते -"तुम बहुत परेशान बहुत करती हो।" वह कहतीं -का करन? यादै नहीं रहत है।" दवाईयां इतनी ज्यादा थीं कि अक्सर कम-ज्यादा हो जातीं। तबियत हिल-डुल जाती। फ़िर ठीक होती दवाइयां। अस्पताल के सब डाक्टर उनसे परिचित थी। यह उनकी जिजीविषा ही थी कि 60 की उमर में उनको पैरालिसिस का अटैक हुआ तो डाक्टर आर्या के इलाज और अपनी मेहनत से 100 फ़िट हो गयीं। डाक्टर आर्या उनको मम्मी जी कहते थे। अम्मा को उनके इलाज पर बहुत भरोसा था।

तीसरे तरह के अम्मा के काम दूसरों से जुड़े होते थे। अक्सर किसी की सहायता के लिये। उनको बताने के लिये अम्मा मौका देखती थीं। अक्सर अकेले में बात करतीं थीं। मौका ताड़कर। लेकिन उनके हाव-भाव देखकर हम समझ जाते कि अम्मा किसी के लिये कुछ बताने वाली हैं। वो कोशिश करती थीं कि ऐसे समय हमारे और उनके अलावा कोई न हो। काम उनके अक्सर हमारी क्षमता के अनुसार ही होते थे। वे ऐसे किसी काम का बयाना नहीं लेती थीं जो हम कर न सकें। लेकिन जब उनकी बात सुनते ही हम फ़ौरन हां कह देते या यह कहते कि ’अरे तुम खुद हां कर देती’ या ’अब तक काहे नहीं बतायेव’ तो खुश हो जातीं। कोई ऐसा काम जो वे करवाना चाहती हों अगर हम उनके कहे बिना कर देते तो और खुश हो जातीं। कहती-ये तुमने राजा बेटा वाला काम किया।’

कहने को हम भले राजा बेटा रहे हों लेकिन अम्मा का ख्याल सबसे ज्यादा हमारी पत्नी ने रखा। सच तो यह है कि हम सभी भाई इतने घामड़ रहे कि एहसास ही नहीं होता कि अम्मा का भी ख्याल रखा जाता है। बहू सास को हमेशा चकाचक रखतीं। अम्मा को कहीं जाना होता तो उनको तैयार करतीं। एकदम फिट करके भेजती। बहू को हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि उसकी सास की कोई तमन्ना अधूरी न रह जाए। इस मामले में हमारे परिवार के सब लोग घामड़ सरीखे रहे। हम यह महसूस ही नहीं कर पाते कि एक बुजुर्ग हो चुकी स्त्री की भी कुछ तमन्नायें हो सकती हैं। सबसे पहले हरगांव में उनके लिये दांत बनवाये। अम्मा के लिए सोने की चेन,पायल,कील और न जाने क्या-क्या इस पराये घर की लड़की ने अपनी कमाई से ख़रीदे। बाहर जाते समय हम उनकी सेहत के चलते उनको साथ ले जाने में हिचकते लेकिन उनकी बहू कहती-"नहीं, अम्मा जी साथ चलेंगी।" अम्मा के न रहने के दो महीने पहले हम सब साथ पिक्चर गए थे। अम्मा को लगभग उठा-उठाकर एस्केलेटर से ले गये।

अम्मा अक्सर कहती थीं -’ गुडडो नहीं होती तो हम इतने दिन जी नहीं पाते।’ अम्मा भी गुड्डो का जैसा ख्याल रखतीं वैसा सास-बहू के रिश्ते में कम होता है। जब तक गुड्डो स्कूल से वापस न आ जायें तब तक खाना नहीं खाती थीं। अब यह अलग बात है कि गुड्डो के आते ही वे सास में भी तब्दील हो जातीं और खाना गुड्डो को ही लगाना पड़ता। बहुरिया जब माइग्रेन के दर्द से परेशान होती तो उसके ठीक होने तक सर दबातीं। सेवा करतीं। उस समय वे फ़ुल मां में बदल जातीं। जरूरत पड़ने पर बिना बताये बहुरिया के कपड़े भी धोने लगती।

जब वे साथ थीं तो घर की किसी भी परेशानी से सबसे ज्यादा बेचैन वे ही रहतीं। हम उनको समझाते कि चिन्ता न करो। परेशान मत हुआ करो। सब ठीक हो जायेगा। इसी बहाने खुद को भी दिलासा मिलता। आज अम्मा नहीं हैं। अकेले रहने के चलते अक्सर उनकी याद आती है याद के साथ ही उनके न होने का एहसास और फ़िर रोना।
अकेले और घर से दूर होने के चलते कई दिनों से अम्मा की बहुत याद रही थी। कुछ भी करने बैठते तो किसी कमरे से खरामा-खरामा टहलते हुय बिस्तर पर बैठकर कुछ कहने का मौका ताड़ती अम्मा की शक्ल याद आ जाती। पता नहीं कहां होंगी वे। जहां होंगी वहां से पता नहीं हमको देख पा रही होंगी कि नहीं। पास होतीं तो अब तक एक बार और चाय देते हुये जरूर कह देतीं -’आज आफ़िस नहीं जाना क्या बाबू जी को?’

अम्मा को अपनी समझ के हिसाब हमने ठीक तरह से ही रखा। जैसा वो चाहतीं थीं उसी हिसाब से। लेकिन अब उनके न रहने पर अनगिनत बातें याद आती हैं कि ये ऐसा होना चाहिये था वो वैसा करना चाहिये थी। कभी कुछ छूट गया तो उसकी टीस महसूस होती है। इसलिये यह लगता होता है कि जिसके प्रति प्रेम हो, लगाव हो, अपनापन हो उसके लिये कुछ भी करने का काम कभी स्थगित नही करना चाहिये।

रमानाथ अवस्थी जी फ़िर याद आ रहे हैं:
"आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते,
जिन्दगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।"


जिन्दगी की नदी में हम सब अम्मा के साथ जितना बहे वह सब याद आ रहा है। लहरें भी, भंवर भी। डूबना, उबरना सब। यादें ही हैं अब साथ में।

1 comment:

  1. मां तो बस मां ही है। पढ़ कर मुझे भी अपनी अम्मां की याद आयी।

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