Friday, August 28, 2020

आओ आलसिया जायें

 

रोज की तरह आज फ़िर पांच बजे जाग गये। जाग गये लेकिन उठे नहीं।
जागने का तो ऐसा है कि अलार्म लगा है। रोज घनघनाता है। वो मोबाइल के हाथ में है। उसको क्या? जबका लगाओ, बज जायेगा। लेकिन अलार्म बजने और उठने में फ़र्क है। उठना मुश्किल काम है जी।
जागने के बाद सोचते रहे लेटे-लेटे कि अब उठ जायें। टहल के आयें। जल्दी उठने और टहलने का गाना गायें। लेकिन फ़िर आलस्य ने हाथ पकड़ लिया- रुको यार। उठ जाना। कहां भाग रहे हो बिस्तर का साथ छोड़कर। कौन चुनाव हो रहे हैं जो दलबदल करो। दो मिनट बाद उठना।
हम आलस्य के बहकावे में आकर दो मिनट लेटे रहे। ऐसे न कित्ते दो मिनट हो गये। फ़िर जब पानी सर के ऊपर होता दिखा और समय घड़ी के पार तो झटके से उठ गये। आलस्य ने लपक के पकड़ने की फ़िर कोशिश की लेकिन हम फ़िर फ़ूट लिये उसकी पकड़ से। झट से कमरे का ताला लगाकर नीचे आ गये। लगे टहलने धांय-धांय। जल्दी-जल्दी। जैसे कोटा पूरा करना हो।
आलस्य के चक्कर में हमारे तमाम काम स्थगित पड़े हैं। जरूरी और गैरजरूरी दोनों। जैसे सिस्टम की संगति में अच्छी योजनायें भी वाहियात अमल में बदल में जाती हैं वैसे ही आलस्य की संगति में जरूरी काम भी गैरजरूरी लगने लगते हैं। अंतत: स्थगित हो जाते हैं। आलस्य जरूरी और फ़ालतू का भेद मिटाता है। सबको समान भाव से देखता है। सबको स्थगित करता है। उसके यहां घपला नहीं चलता कि ले-देकर किसी काम को करवा दे और किसी को स्थगित करवा दे।
आलस्य का वात्सल्य अद्भुत होता है। ऐसे प्रेम से व्यवहार करता है कि उसकी संगति से अलग होने का मन नहीं होगा। लगता है कभी उससे जुदा न हों। लगता है वो हमेशा ये गुनगुनाता रहता है – यूं ही पहलू में बैठे रहो, आज जाने की जिद न करो।
आलस्य को लोग बुरा गुण मानते हैं। न जाने कितने उदाहरण बताकर इसको बदनाम करते हैं। आलस्य को मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु बताते हैं। वे तस्वीर का एक पहलू बताते हैं। दूसरा पहलू नहीं दिखाते।
आलस्य का सौंदर्य अद्भुत होता है। इसकी संगति में व्यक्ति परम आशावादी होता है। अपनी क्षमताओं में असीम वृद्धि महसूस करता है। जो काम महीनों तक टालता रहता है उसके बारे में यही सोचता है अरे दो मिनट का काम- हो जायेगा।
आलस्य व्यक्ति को बुरे काम करने से भी रोकता है। आप किसी को सजा देने की सोचते हैं, नुकसान करने की सोचते हैं, सोचते हैं गड़बड़ करके ही रहेंगे लेकिन आलस्य मुस्कराते हुये आपको बरज देता है- अरे छोड़ो यार फ़िर करना। जान देव। मटियाओ।
सोचिये त जरा अगर हम आलसी न होते तो आज अमरीका और न जाने किसको पछाड़ के कित्ता आगे हो गये होते। लेकिन आगे हो जाने के बाद फ़िर करेंते क्या अकेले आगे खड़े-खड़े। अमेरिका की तरह ही कुछ ऊल-जलूल हरकतें न। इसीलिये आराम से खड़ें हैं। खरामा-खरामा प्रगति करते हुये। हड़बड़ाते हुये प्रगति करने से क्या फ़ायदा? उस प्रगति का क्या सुख जिसको फ़ील न किया जा सके। रास्ते में जो मजा है वो मंजिल में कहां?
देखिये इस बात को कवि किस तरह कहता है:
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
आलस्य की जब कोई बुराई करता है तो बड़ा गुस्सा आता है। मन करता है पकड़कर हिंसावाद कर दें। लेकिन आलस्य बरज देता है। छोड़ यार। हिंसा कमजोर का हथियार है। आलसी को हिंसा शोभा नहीं देती।
दुनिया में जित्ते भी सुविधाओं के आविष्कार हुये हैं वे सब आलस्य के चलते हुये हैं। सुविधा पाना मतलब आलसी हो जाना। अलग आलस्य की शरण में जाने की भावना न होती तो लिफ़्ट न होती, जहाज न होता, कम्प्यूटर न होता।
और तो और अगर आलस्य न होता तो न घपला होता, न घोटाला न करप्शन न स्विस बैंक ने। न मंदी न बंदी। सब आलस्य के उपजाये हैं ये प्रगति के उपमान। आदमी अरबों इकट्ठा करता है सिर्फ़ इसीलिये कि वो और उसकी औलादें आलस्य का संग सुख उठा सकें।
आलस्य की महिमा अनंत है। अविगत गत कछु न आवै की तरह इसके बारे में बहुत कुछ कहते हुये भी सब कुछ कहना संभव नहीं है। उसमें भी आलस्य आड़े आ जाता है। रोक देता है मुस्कराते हुये -बस,बस बहुत हुय़ी चापलूसी। अब बंद करो ये खटराग। आओ आलसिया जाये।
लेकिन आलस्य न होता तो क्या ये लेख हम पोस्ट कर पाते? बताइये।

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