1. अच्छा साहित्य पढ़ने की और खरीदकर पढ़ने की आदत जब तक लोगों में नहीं आयेगी, लेखक की जिन्दगी कष्टमय रहेगी ही।
2. एक पीढ़ी पूज्य होती जाती है, उसे मन्दिर में बिठाना पड़ता है, कभी-कभी जल और पुष्प अर्पित करना पड़ता है।
3. अनेक छायावादी कवियों को जानता हूं, जो रात को एकान्त में बैठकर नयी कविता लिखने की कोशिश करते हैं और जब नहीं बनती, तो सबेरे उठकर लोगों से कहते हैं –’नयी कविता कूड़ा-करकट है।“
4. साफ़ बात है- काम कर सकते हो, चल सकते हो तो चलो। अन्यथा देवता बनकर मन्दिर में बैठो, हम कभी-कभी आकर अक्षत,पुष्प चढायेंगे, आरती भी कर देंगे। लेकिन अगर तुम भक्तों को इकट्ठा कर राह चलनेवालों पर पत्थर फ़िकवाओगे, तो तुम्हें कौन पूजेगा?
5. जहां असत्य है, पाखण्ड है, मिथ्याचार है; वहां कला नहीं। राजनीति और समाजनीति में समझौते की गुंजाइश है, साहित्य और कला के क्षेत्र में समझौता आत्मघात का लक्षण है।
6. आप अगर पुस्तकों की भूमिका देखें, तो आपको यह आभास होगा कि हर लेखक सर्वश्रेष्ठ है, हर कृति उत्तम और युगान्तरकारी है। सफ़ेद झूठ और काले झूठ के साथ यह भूमिका झूठ भी होता है।
7. जीवन की दरिद्रता और अभाव से तंग आकर अनेक साहित्यकार राजनीति की गोद में जाने को मजबूर होते हैं। फ़िर तो उसके स्तन-पान करके उसकी समस्त कूटनीति, अवसरवादिता, छल और प्रपंच सीख लेते हैं और उनके सत्य का स्वर ऊपर उठ नहीं पाता। कुछ सम्पन्न होते हुये भी , ऊंचे पद पर सम्मान और धन के लोभ में अपने को ’होलसेल’ बेच देते हैं।
8. मानवी अन्तर्द्वन्द की कौन कहे, बाह्य परिस्थितियों के संघर्ष की रेखाएं तक बड़े-बड़े लेखकों को खींचना नहीं आता।
9. किताबें लिखकर और साहित्य भरना और साहित्यकार कहलाने का दम्भ करना हिन्दी वालों को बहुत आता है।
10. विचारों से गांधीवादी, मार्क्सवादी तो भावनाओं से फ़्रायडियन अथवा कट्टर धर्मपारायण। राष्ट्रीयता पर लिखते हैं पर मराठी, गुजराती और बंगाली भेदों से परे नहीं। जब तक अपने आप में यह छल-कपट चलता रहेगा, तब तक ऊंचा साहित्य लिखना पत्थर पर दूब उगाना है।
11. हर साहित्य में लेखक अपने पाठकों को मूर्ख समझता है – सम्भवत: उतना ही मूर्ख जितना कोई नानी अपने छोटे नाती-पोतों को कहानी सुनाते हुए समझती है।
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