Sunday, November 01, 2020

सुरेन्द्र मोहन शर्मा

 Surendra Mohan Sharma जी से मेरा परिचय 6-7 पुराना था। जबलपुर के दिनों की मेरी फेसबुक की पोस्ट्स से मेरे लेख पढ़ने का सिलसिला शुरू किया था उन्होंने। उन दिनों वे बिस्तर पर थे। बीमारी के दौरान मेरी पोस्ट्स पढ़कर उनको सुकून मिलता था ऐसा उन्होंने मुझे बताया। कहते तो वे यह भी थे कि उनको पढ़कर उनका हौसला बनता था और उसी के चलते वे ठीक भी हुये। दोस्तों की तारीफ करने का उनका यही अंदाज था। अगले को उसकी विशिष्टता का एहसास कराते रहते थे।

शुरू में उनकी टिप्पणियां मेरी खिंचाई के अंदाज में लगीं। मजे लेने, चुहल करने वाली यह टिप्पणियां बाद में उनके व्यवहार के चलते आत्मीय लगने लगीं। फोन पर बात होने लगी। अपने किस्से सुनाए उन्होंने। शुरू में उनकी फेसबुक प्रोफाइल मुकेश कुमार शर्मा के नाम से थी। गायक मुकेश के मुरीद होने से जुड़े किस्से के चलते उनका घरेलू नाम मुकेश पड़ा। बाद में उन्होंने अपनी फेसबुक प्रोफाइल में नाम सुरेंद्र मोहन शर्मा कर लिया। लेकिन मेरे फोन में उनका नाम मुकेश कुमार शर्मा, मथुरा के नाम से ही सेव रहा। आज भी । कभी तो मैं उनको फोन करने के लिए सुरेंद्र मोहन शर्मा का नाम खोजता मोबाइल में। नहीं मिलने पर ध्यान आता कि अरे उनका नाम तो मुकेश शर्मा के नाम से सुरक्षित है।
मेरे 'वृत्तांत लेखन' को वो बहुत पसंद करते थे। अतिशयोक्ति वाले अंदाज में । इसमें भी वो लेखन जो लोगों से मिलने-जुलने वाले थे। मेरे सारे चरित्रों से वे वाकिफ थे। रामफल, दीपा, पंकज बाजपेयी और तमाम दीगर नाम। उनसे जुड़ी हर बात उनको याद रहती थी। एक बातचीत में दीपा का जिक्र छूट गया तो बोले -'दीपा का नाम कैसे भूल गए आप?'
पंकज बाजपेयी जी से मिलने जाने के लिए उकसाते रहते। कई बार उनसे बात भी करवाई। सुबह आराम से उठने वाले शर्मा जी को सुबह पंकज बाजपेयी जी से बात करवाने के लिए लगा फोन नहीं उठा तो बाद में अफसोस करते। फिर दुबारा बात करवाने पर खुश होते।
खुद शर्मा जी ने तो नहीं बताया लेकिन उनसे जुड़े लोगों ने बताया कि ,वे वकील होने के बावजूद, लोगों के आपसी झगड़े अदालत के बाहर निपटवाने के हामी थे। इसके लिए प्रयास भी करते थे और सफल भी होते थे।
मेरे लेखन में लोगों से मिलने जुलने वाले लेखन को ही वे असली लेखन मानते थे। तमाम बड़े व्यंग्य लेखकों को खारिज करते हुए कहते -'अरे छोड़िए उनको, हमे तो आपका यह लेखन पसन्द है। इसके सामने वो बेकार। इसी बहाने हमारा व्यंग्य लेखन भी खारिज कर देते।'
हमारी लगभग हर पोस्ट वे पढ़ते। हमारे बेटे के कवितापाठ की खूब तारीफ करते। उसको हमसे बेहतर बताते हुए आशीर्वाद देते। हमारे पोस्ट्स के जरिये वे हमारे घर के हर सदस्य से परिचित थे। अक्सर कोई बात निकाल कर टिप्पणी भी करते।
फोन पर अक्सर बात होती। कभी छोटी, कभी बहुत लंबी। बातचीत के दायरे में साझे दोस्त, उनके अपने दोस्त, मेरी पोस्ट्स और तमाम किस्से रहते। कभी कोई बात पूछने के लिए बस एक मिनट के फोन भी आये। ये एक मिनट के फोन किसी बात की पुष्टि के लिए होते। उस पोस्ट्स में ये लिखा था , यह वही हैं न, इनकी बात का यही मतलब था आदि-इत्यादि। अदालती मसले की जानकारी भी देते रहते कभी-कभी।
लेखकों में पुराने लेखकों के मुरीद थे। उर्दू के लेखकों की हास्य लेखन में तारीफ करते। 'पतरस के मजनून' उनकी पसंदीदा रचना थी।
फेसबुक के दोस्तों के किस्से मजे लेकर साझा करते। शंभूनाथ शुक्ला जी, संतोष त्रिवेदी और अन्य तमाम लोगों की फेसबुक पोस्ट के मजे लेते हुए टिप्पणी करते। शम्भूनाथ शुक्ला जी जिस तरह लिखते हैं, अपने पाठक दोस्तों को झिड़क भी देते हैं उसके किस्से भी सुनाते। कहते -'शुक्ला जी कहते हैं अरे सब मजे के लिए लिखता हूँ शर्मा जी।' सारे किस्से सुनाने के बाद समेटते हुए कहते -'बहुत भले आदमी हैं शुक्ला जी, सज्जन पुरुष।' संतोष त्रिवेदी की टिप्पणियों पर मजे लेते -'आज फिर भन्नाए हुए हैं मास्टरजी।' Alok Puranik आलोक पुराणिक जी के लेखन पर भी राय देते रहते। हिंदी व्यंग्य से जुड़े लोगों पर मजेदार टिप्पणी करते। सभी के बारे में जानकारी थी उनको। अर्चना चतुर्वेदी, यामिनी और मथुरा से जुड़े अन्य लेखकों के बारे में विस्तार से बतियाते हुये आत्मीय टिप्पणी से बात खत्म करते -'भली लड़की है, हुशियार है, अच्छा लिखती है।'
अपने से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए उनके मन में हमेशा आत्मीय भाव ही पाया मैंने।
मेरे से जुड़ी हर उपलब्धि को अपना मानकर वे प्रसन्न होते थे। खुलकर तारीफ करते थे। चाहे वो लेखन में कोई इनाम मिलना रहा हो या शाहजहांपुर में महाप्रबन्धक बनना। हर अवसर पर आत्मीय, शुभकामना पूर्ण पोस्ट्स लिखी। ऐसा वे अपने से जुड़े हर व्यक्ति से करते थे। उनके उदार, आत्मीय व्यक्तित्व का सहज रूप था यह। उनसे जुड़े लोगों को लगता कि यह खास उसके लिए है , लेकिन शायद ऐसे भाव अपने से जुड़े हर व्यक्ति के लिए थे।
कानपुर में ससुराल होने के किस्से बताते हुए भी मजे लेते। पुराने न जाने कितने किस्से साझा किए उन्होंने। वकालत के किस्से, समाज के किस्से और भी हर तरह की बातें।
ऐसे बतरसिया शर्मा जी अपने कष्ट बताने के मामले में बहुत कंजूस थे। माखनचोर के मुरीद शर्मा जी अपने मामले में 'कष्ट चोर' थे। कैंसर की बात पता चलने पर फोन किया मैंने तो कहने लगे -'अरे कुछ नहीं। बस जरा चेकअप के लिए आये हैं। ठीक हो जाएंगे। कुछ दिन की बात।' आखिरी समय तक द्वारिकाधीश की फोटो भेजते थे। अपने कष्ट छिपाते रहे। बाद के दिनों में फोन अक्सर बन्द रहना शुरू हो गया। बिगड़ती तबियत के हाल पता चलते रहे। लेकिन यह भी लगता रहा कि -' कष्ट में हैं , लेकिन ठीक हो जाएंगे।' यह भरम था, छलावा था। लेकिन जब कुछ कर सकने के हाल में न हों तो यही छलावा उचित लगता है। कल वह भरम भी टूट गया।
शर्मा जी के न रहने पर उनके बारे में लोगों ने जो लिखा उससे उनके व्यक्तित्व के अनेक और उजले पहलू पता चले। बेहद लोकप्रिय , आत्मीय , मिलनसार और उदार व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। उनका जाना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। इसके पहले ब्लॉग जीवन से जुड़े डॉ अमर कुमार थे जो मेरे लेखन की तारीफ करते हुए कहते थे -'मैं तुम्हारे हाथों को छूना चाहता हूँ जिससे तुम ऐसी बातें लिखते हो।' डॉ अमर कुमार अन्य लोगों की भी ऐसे ही हौसला अफजाई करते थे। तमाम लोगों के बेहद अपने थे। वे कैंसर से गए। अब शर्मा जी।
शर्मा जी के मन में मेरे लिए अथाह प्रेम था। यह एहसास मेरे अकेले का एहसास नहीं है। उनसे जुड़े हर शख्स को ऐसा लगता रहा होगा हमेशा कि शर्मा जी उनको बहुत मानते हैं, बहुत लगाव है उनसे, बहुत प्यार करते हैं उनको। जैसे सूरज की रोशनी सबके लिए एक जैसी होती है लेकिन धूप सेंकते हर इंसान को कभी-कभी लगता है कि यह धूप सूरज खास उसके लिए भेज रहा। शर्मा जी का व्यक्तित्व ऐसा ही था जिसमें सबके लिए प्यार था, लगाव था, शुभकामनाएं थीं, आशीर्वाद था।
शर्मा जी के न रहने पर जो अभाव है उसकी पूर्ति न हो सकेगी। भले ही कुछ दिन बाद हम यह कम याद करें लेकिन आज यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं। नंदन जी की एक कविता है जिसका भाव है कि मरने वाले के साथ हमारा कुछ हिस्सा भी हमसे विदा लेता है। थोड़ा हम भी मर जाते हैं। शर्मा जी से जुड़ी तमाम यादें मुझको उमड़-उमड़ कर याद दिला रही हैं कि कहां-कहां हम नहीं रहे। दीपा की याद दिलाने वाले, पंकज बाजपेयी से मिलने जाने के लिए कहने वाले शर्मा जी हमारे बीच नहीं रहे। कभी भी बात करने के लिए खुला फोन हमेशा के लिए शांत हो गया।
शर्मा जी के न रहने पर उनके परिवार के दुख की कल्पना करना भी मुश्किल है।उनकी पत्नी और बेटी कैसे इस अपूरणीय दुख से पार पा सकेंगी यह कल्पना भी नही कर पा रहा मैं।
छह-सात साल के सम्पर्क में ही हमारे अभिन्न हो गए थे शर्मा जी। उनसे जुड़ी बातें दोहराते हुए कई बार आंसू आये। आंखे भर आईं। रमानाथ जी बात ही याद आती है :
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
शर्मा जी मैं कभी मिला नहीं , उनको पूरे से जाना नहीं। स्वार्थी होते हैं हम लोग। जानने की कोशिश भी कहां करते हैं। लेकिन उनके साथ से ऐसा लगता था कि एक ऐसा इंसान है हमारे लिए जो हमेशा हमारे लिए शुभ सोचता है, सुंदर सोचता है। हमेशा हौसला आफजाई करता है। हमारे व्यक्तित्व के उजले पहलूओं पर रोशनी डालकर हमको खास समझने का एहसास दिलाता है। सच तो यह है कि खास हम नहीं होते बल्कि वह होता है जो हमारे बारे में ऐसा सोचता है।
शर्मा बेहद खास, प्यारे बेहतरीन इंसान थे। उनकी यादें हमारा सहारा रहेंगी। हौसला बढ़ाएंगी। हमारे बीच से कभी जुदा नहीं होंगे वे।

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