Tuesday, November 17, 2020

एक प्यार का नगमा है....

 

इतवार की सुबह दीपावली के खुमार में डूबी थी। रात रोशनी के हल्ले में नीरज जी की कविता मूर्तिमान हो गयी होगी:
'लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग
उषा जा न पाए, निशा आ न पाए।'
इसी सड़क पर लोग कम थे लेकिन थे। एक आदमी एक हाथ में डंडा लिए दूसरे हाथ थे अकड़ मुद्रा में सिगरेट पीता हुआ चला जा रहा था। ऐसे जैसे सफेद सीको पटाखा मुंह में धरा हो, बस छूटने की देर।
दुर्गा होटल के पास सड़क पर सजावटी, लोहे के पाइप की बनी, साइकिलें धरी थी। रात खूब सजी होंगी। फूल, पत्ती, रोशनी के मेकअप में खूबसूरत लग रहीं थीं। सुबह सूरज की रोशनी में बिना मेकअप की उनींदी बुजुर्गियाती नायिकाओं सरीखी लग रही थी लोहे के जरिये से बनी साइकिल।
शहीद पार्क के पहले मंदिर पर मांगने वालों की महफ़िल जम गई थी। सड़क किनारे लाइन से बैठे लोगों को दान देकर लोग पुण्य कमाते जा रहे थे। एक भाईसाहब थर्मस में चाय लिये सबके ग्लास में उड़ेलते जा रहे थे। थर्मस से निकलती चाय भाप उड़ाती हुई उनके ग्लास में स्थान ग्रहण करती जा रही थी। चाय पीते हुए लोगों के मुखमंडल पर सुबह के संतोष ने अपना तंबू तान दिया था।
शहीद पार्क पांच मिनट देर से ,0735 पर पहुंचे। कुल जमा पांच साइकिल सवार थे। बाकी दीपावली की सुस्ती और खुमारी की भेंट चढ़ गए। नन्हे साइकिल साथी सार्थक अलबत्ता मौजूद थे। उनके दादा जी की साइकिल की ब्रेक जाम हो गयी थी। एन टाइम पर पता चला। ठीक भी न करा पाए। लिहाजा सार्थक को हमारे साथ छोड़कर वापस चले गए।
सड़कें शान्त थी। इक्का-दुक्का मजदूर दिहाड़ी की आशा में सड़क किनारे, चबूतरों पर इंतजार में थे कि शायद कोई उनको ले जाने वाला मिले। कुछ लोग ग्राहक के इंतजार में बीड़ी फूंक रहे थे। कुछ लोग बतिया रहे थे। बाकी शान्त थे।
घरों के बाहर जमा लोग अपने हिसाब से व्यस्त थे। कोई सड़क धो रहा था। कोई समसामयिक स्थिति पर बयान जारी कर रहा था। एक आदमी 'यहां भैंस का ताजा दूध मिलता है' का बोर्ड लगाए दूध बेंच रहा था। शहर अलसाया सा ऊंघ रहा था। जगने के पहले की नींद मलाई मार रहा था।
शहर के बाहर निकलकर आये। खेतों में लोगों ने फसलों को जानवरों से बचाने के लिए कांटे के तार लगा रखे थे। एक जगह तारों पर पुराने कपड़े भी लटके दिखे। आदमियों ने जंगल काटकर गांव , शहर बनाये। जंगल के बाशिन्दे जानवरों की एंट्री बैन कर दी। अब जानवर बेचारे कहां जाएं। वे कौन सा तार, कौन सी बाड़ लगाएं इंसान की घुसपैठ रोकने के लिए?
एक खेत में पाकड़ का घना पेड़ दिखा। चारों तरफ से जमीन तक झुका हुआ। ऐसे जैसे धरती ने 'पाकड़ मास्क'लगा रखा हो। एक खेत में दो नीम के पेड़ पक्की सहेलियों की तरह सटे हुए, गलबहियां सी किये खड़े थे।
आगे एक गांव पड़ा। नाम पता चला -'शहबाजनगर बड़ा'। हमने पूछा कोई छोटा भी है शहबाजनगर ? बोले -'न। बस बड़ा ही है।' आबादी पूछने पर बताई गई -एक हजार।' लेकिन आबादी बताने से ही संतोष नहीं मिला उसको। फौरन बताया 500 वोट हैं। अगले ही क्षण उसने वोटों की संख्या 750 कर दी।
एक चारपाई पर बुजुर्गवार खटिया के तख्तेताउस पर विराजमान थे। घर के बाकी सदस्य रियाया , दरबारी की तरह उनके आसपास बैठे धूप सेंक रहे थे। समय कत्तई ठहरा हुआ था। कोई हड़बड़ी नहीं किसी को। धूप भी तसल्ली में खिली हुई थी।
वहीं गायें, बछिया और बकरी के बच्चे भी धूप सेंक रहे थे। कुछ बकरी के बच्चे जाड़े से बचाव के लिए झबला-फ्रॉक जैसे कपड़े पहने हुए थे। बाकी के दिगम्बर बने घूम रहे थे।
नुक्कड़ पर एक दुकान के पास लोग खड़े थे। कुछ लोग काम पर जा रहे थे, बाकी वहीं बतिया रहे थे। दुकान वाले ने बताया कि जरूरत का सामान बेंचकर गांव का शहर जाने से रोकते हैं।
आगे ठेका देशी शराब था। 100% शुध्द शराब मिलने की सूचना थी। ठेका बन्द था। बगल में ही एक घोड़ा बोरी में मूंह डाले अपना सुबह का नाश्ता कर रहा था। हमको पूछा तक नहीं अगले ने।
शहबाजनगर रेलवे स्टेशन पर फोटोबाजी हुई। वहां खड़े शख्स ने बताया कि यहां का ग्राम प्रधान कोरोना में मर गया। पहले किसी स्कूल में चपरासी था। प्रधान बन गया लेकिन कुछ काम नहीं करवाया। उसके पहले वाले ने अलबत्ता कुछ काम करवाया था। दो बीघा खेत के मालिक छिद्दन मियां रिक्शा चलाते हैं। और कोई काम ही नहीं मिला। 200 रुपये कमा लेते हैं रोज के। चार बच्चे थे। एक खत्म हो गया। दो लड़कियां हैं। शादी करेंगे खेत बेंचकर।
परसाई जी याद आ गए -'इस देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है।'
लौटते हुए दो बच्चे एक पुलिया पर कौड़ी खेलते दिखे। देखा तो प्लास्टिक के गोल बेतरतीब सिक्के टाइप दिखे। उनका दांव लगा थे। एक तरफ ऊंचा , दूसरी तरफ़ कम ऊंचा। ऊंचा-चपटा का दांव लगा रहे थे बच्चे। एक रुपये के दस के हिसाब से मिलते हैं प्लास्टिक के सिक्के। भाई हैं दोनों। जुआं खेलना सीख रहे हैं। आगे चलकर महाभारत करेंगे। महाभारत की शुरुआत भी तो भाईओं के बीच जुए से हुई थी।
एक झोपड़ी के पास एक बुजुर्ग तराजू में बांट धरे ईंटे तौलते दिखे। बाद में पता चला कि ईंटों के बांट बना रहे थे। आधा किलो से एक मानक बांट से आधे किलो की ईंट तौली। उसका मिलाकर एक किलो बनाया। फिर ईंट और बांट मिलाकर दो किलो का और फिर चार किलो का बनाया। वजन संतुलन के लिए गोभी के डण्ठल और दीगर सब्जी के टुकड़े भी प्रयोग करके ' गठबंधन बांट' बना लिया।
स्कूल के दिनों में एक किलोग्राम की मानक परिभाषा पेरिस की किसी प्रयोगशाला में प्लेटिनम-इरीडियम की एक रॉड के वजन के बराबर पढ़ी थी। आज कोई एक किलोग्राम की मानक परिभाषा पूछे तो हम कहेंगे -'शाहजहांपुर से शहबाज नगर जाने वाली सड़क किनारे 15 नवम्बर, 2020 दिन इतवार की सुबह करीब साढ़े दस बजे गुनगुनी धूप में एक बुजुर्ग के हाथों हिलते-डुलते तराजू के पल्ले में रखे आधे किलो के बांट , ईंट के टुकड़े और गोभी के हरे ठंडल के संयोग से बने वजन को मानक किलोग्राम कहते हैं। '
शहर पहुंचकर साइकिल साथी विदा हुए। हम पंकज की दुकान पर चाय पीने पहुंचे। पंकज ने चाय बनाईं। पिलाई।इस बीच वहीं फैक्ट्री के कुछ लोग मिल गए। एक विजय शुक्ला पिछले साल दिसंबर में रिटायर हुए थे। एम टीएस। बोलने , सुनने से लाचार इशारों से बताया -'चार मंजिल का मकान है सामने वाला हमारा।'
पता चला शुक्ल जी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन रोज तीन पैकेट सिगरेट खरीदकर फैक्ट्री वालों को पिला देते थे। ऐसे दिलदार के पास लोग मुफ्तिया सिगरेट पीने आते थे। मुफ्त माल सबको आकर्षित करता है। रिटायरमेन्ट के बाद भी सिगरेट पिलाने का सिलसिला जारी है।
वहीं एक तिपहिया साइकिल रिक्शे पर एक आदमी एक पैर सीधा किये बैठे चाय पी रहा था। एक एक्सीडेंट में पैर का घुटना टूट गया। तारीख बताई 16 अगस्त , 2006। हर जगह इलाज करवाया। ठीक नहीं हुआ। बड़े-बड़े अस्पतालों के नाम गिना डाले जयपाल ने जहां के डॉक्टरों ने जबाब दे दिया। बताने का अंदाज ऐसा मानो सकी टूटी हुईं टांग गर्व का विषय है उसके लिए जिसे बड़े-बड़े डॉक्टर ठीक नहीं कर पाए।
एक्सीडेंट मोटरसाइकिल से हुआ था। पीछे बैठे थे जयपाल। आगे जो बैठे थे उसके भी चोट लगी थी। लेकिन वह पैसे वाले थे। उनकी चोट ठीक हो गयी। जयपाल की चोट गरीबी के कारण अभी भी ठीक नहीं हो पाई। 30 साल की उम्र है। समाज वाले ही घर वाले हैं। वही खिला-पिला देते हैं। जहां आड़ मिलती है, वहीं सो जाते हैं।
चाय पीने के बाद पंकज से गाने की फरमाइश हुई। पंकज ने सुनाया -'एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है' गाना सुनने में हम इतने मशगूल हो गए कि रिकार्ड नहीं कर पाये। दुबारा कहा तो पंकज ने सुनाया -'आया रे खिलौने वाला , आया रे'। हमने 'एक प्यार का नगमा है' गाने की फिर से फरमाइश की। पंकज ने दुकान के पास रखे तख्त पर बैठकर गाना शुरू किया। लेकिन थोड़ी देर में ठहर गए। रुकावट के लिए खेद हो गया। शायद कुछ और सोचने लगे। भूल गए। खुरदुरी जिंदगी में भी ' प्यार के नगमें 'ऐसे ही पाज होते रहते हैं।

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