Monday, November 02, 2020

मुंह छिपाता देश का भविष्य

 

शाम टहलने निकले। सूरज भाई अपनी किरणों का शटर गिराकर आरामफ़रमा हो गए थे। बिजली के लट्टू जगह-जगह जल गए थे। हवा कुछ और ठंढा गयी थी। शाम के धुंधलके ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी।
एक नुक्कड़ पर इडली डोसे की दुकान दिखी। डोसा तवे पर अकेले लेटा था। ऐसे जैसे उसको कोरोना हो गया हो और वह आइसोलेशन में हो। अकेले लेटे-लेटे अकड़ गया था। डोसे के पेट के आलू ठंडे हो गए होंगे।
'अब इसको गाय को खिला देंगे' - ठेलिया वाले ने कहा।
नई दुकान खुली है। शुरुआत में बिक्री कम है। सड़क से थोड़ा दूर है। दिखती भी नहीं। बल्ब भी धीमा। शाम से चार डोसे बिके। पांचवा ठंडा हो गया। दस-पन्द्रह डोसे से शुरू किया गया है काम। इतने का ही सामान तैयार किया गया। क्योंकि अगले दिन खराब हो जाता है।
दुकान पर काम करता लड़का दिल्ली में सिलाई का काम करता था। लाकडाउन में काम बंद हो गया। घर आ गया। वहां 500 रुपये रोज उठाता था। यहाँ दो सौ मुश्किल से जुटते हैं। इसीलिए शाम को ठेला लगा लेता है। क्या पता चल ही जाए काम।
आगे तिराहे पर पुलिस तैनात थी। देखकर हम डरे। पुलिस को देखकर हमेशा डर लगता है। क्या पता किस बात पर ठोंक दे। हेलमेट क्यों नहीं पहने, लाइसेंस दिखाओ, मास्क ठीक से क्यों नहीं पहने। कुछ भी हो सकता है। मन में सोचा भी कि टोंकेगा कोई तो फोन करेंगे एस. पी. साहब को। हमारे परिचित हैं। कालेज सीनियर होने के नाते सर कहते हैं। इसके बावजूद डर गया नहीं मन की जमीन खाली करके। भू-माफिया की तरह मन में ही बना रहा। लेकिन संयोग कि किसी ने टोंका नहीं। सिपाही जी किनारे खड़े होकर दिहाड़ी वालों से कुछ गुफ्तगू और उससे भी ज्यादा शायद कुछ आदान-प्रदान कर रहे थे। हम सफलता पूर्वक तिराहा पार कर गए।
पुल पर एक आदमी सिगरेट पी रहा था। गंदे कपड़े पहने। सिगरेट क्या मोटा सिगार टाइप था कुछ। हमने मन में सोचा कि कोई ऊंचा नशा कर रहा होगा। हम लोग इसी तरह सोंचते हैं। गरीब आदमी के बारे में खराब धारणा बनाकर ही शुरू होते हैं। हमने मन को डपट दिया। बिना पुष्ट प्रमाण के कोई बात मत बताओ। यह हरकत दफ्तरों के बाबुओं, अफसरों पर ही जँचती है अपने कामचोरी के बड़े छेद अनदेखे करते हुए दूसरे के सूराखों पर सर्च लाइट मारते रहते हैं।
पुल पार सड़क पर रजाई गद्दे की दुकानें खुली थीं। सर्दी के मुकाबले के लिए हथियार तैयार हो रहे थे। रजाई-गद्दे , जाड़े के दुश्मन से मुकाबले के लिए बनाये गए, बंकर होते हैं जिनमें छिपकर इंसान अपने को महफूज समझता है।
लौटकर एक पेड़ के नीचे कुछ मोटर साइकिल सवार दिखे। पता चला वे खाना डिलीवर करने का काम करते हैं। मोबाइल पर आर्डर आता है डिलीवरी का। उसको होटल से लेकर ग्राहक तक डिलीवर करते हैं। डिलीवरी पर पैसा खाते में आ जाता है।
कैसे काम होता यह जानने के लिए पूछताछ की तो उसी समय एक बच्चे के मोबाइल में डिलीवरी आर्डर आ गया। उसने मुझे मोबाइल दिखाया। पास के होटल से पांच किलोमीटर दूर एक जगह खाना देना था। 30 रुपये मिलने थे। पेट्रोल का खर्च अलग। उसने मेरे सामने आर्डर लिया और चला गया।
40-50 बच्चे लगे हैं इस काम में। 400-500 रुपये तक कमा लेते हैं। कोई भविष्य नहीं। लेकिन कुछ नहीं तो यही सही।
एक लड़का और आया धड़धड़ाते हुए। 50 रुपये की डिलीवरी करके आया था। बगल वाले ने बताया सीनियर है। बड़ी डिलीवरी ही लेता है। मेरे सामने उसके पास 20 रुपये की डिलीवरी का आर्डर आया। उसने मना कर दिया। आर्डर उछलकर बगल वाले के मोबाइल में आ गिरा। उसने किक मारकर मोटर साइकिल स्टार्ट की और चल दिया।
डिलीवरी ब्वॉय से उनके धंधे की बात की तो उसने सामने खेलते बच्चों की तरफ इशारा करते हुए कहा -'देखिये वो सामने देश का भविष्य बर्बाद हो रहा हो रहा है।'
सड़क पर चार छोटे-बच्चे, तीन लड़के - एक लड़की, सिक्के उछालते हुए चित-पट खेल रहे थे। उनके हथेलियों में बहुत सिक्के थे। हमको देखकर बिना पूछे सफाई देने लगे -'ऐसे ही खेल रहे हैं। जीत-हार के बाद सब पैसे वापस कर देंगे।' सबसे ज्यादा पैसे बच्ची ने जीते थे।
हमने पूछा -'पैसे का खेल तो जुआ होता है।'
वो बोले-'जुआ नहीं है। हम लोग भाई-बहन हैं।'
हमने सोचा -'महाभारत का जुआ तो भाई लोगों के बीच ही तो हुआ था।'
बच्चे स्टेशन के पास मतलब कम से कम एक किलोमीटर दूर रहते थे। उनके घरवालों को शायद पता भी न हो कि बच्चे कहां , क्या खेल रहे हैं।
फोटो खींचने पर बच्चों ने मुंह छिपा लिए। हमने कहा -'मुंह छिपा रहे हो इसका मतलब तुमको पता है गलत काम कर रहे हो।'
बच्चे मेरी बात का जबाब दिए बिना भाग गए। हम लौट आये। पलटकर देखा तो बच्चे फिर खेलने में जुट गए थे।
यही बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं।

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