Monday, September 28, 2020

सुनने की कला

 आजकल कोरोना का हल्ला मचा हुआ है। आना-जाना सीमित। लोगों से मिलना-जुलना स्थगित। कभी अजनबियों से भी बतियाने का हिसाब बनता रहता था। आज हाल यह है रोजमर्रा के काम से जुड़े लोगों से भी बातचीत फोन तक सिमट गई है। मीटिंग भी वीडियो कांफ्रेंस में बदल गई हैं।

इंसान से मिलना-जुलना, बोलना-बतियाना मानव जीवन की नियामतों में से एक है। जहाँ मिलन-जुलना , बोलना-बतियाना कम हो रहा है, वहां लोगों के दिमाग की वायरिंग गड़बड़ाने लगी है। तनाव और अवसाद बढ़ रहे हैं। इंसान को इंसान बने रहने के लिए मिलना-जुलना, बोलना-बतियाना जारी रखना चाहिए।
लोगों से बातचीत के अपने अनुभव से मैंने पाया इंसान खुलने के लिए बेताब रहता है बशर्ते उसको कोई सुनने वाला मिले। दो मिनट की बातचीत के बाद ही कुछ लोग अपना मन स्वेटर की ऊन की तरह उधेड़ने लगते हैं। अपनी सब परेशानी कह डालते हैं।
ऐसे ही एक दिन पुलिया पर एक सज्जन मिले। 50 के आसपास उम्र। जुखाम हो रखा था। नाक सुड़कते, बीड़ी पीते, धूप सेंकते पुलिया पर बैठे थे। पता लगा मिस्त्रीगिरी करते हैं। काम कभी मिलता है, कभी नहीं भी मिलता है।
परिवार के नाम पर अम्मा हैं। कुंवारे हैं अब तक। लड़कियों का तो समझ में आता है कि दहेज के चलते शादी नहीं होती। लेकिन लड़के तो निखट्टू भी सेहरा बंधवा लेते हैं। यहां 50 होने तक शादी नहीं हुई।
कुंवारे रहने का कारण पूछने पर पता चला कि रहने के लिए अलग ठिकाना नहीं है। जब हो जाएगा तब कर लेंगे।
'इतनीं उम्र हुई शादी नहीं हई अब तक। किसी से बातचीत , बोल-बतियाव , देखा-दिखौव्वल , छुवा-छुववलतो हुई होगी?' पूछने पर बोले बताया भाई जी ने -'बातचीत होती थी। और कुछ नहीं। अब तो उसकी भी शादी हो गयी। रहने का ठिकाना होता तो अब तक हमारी भी शादी हो जाती।'
'शादी भी पास ही हुई है। इसलिए अभी भी कभी-कभी बातचीत हो जाती है। कभी-कभी वो चाय भी पिला देती है।' -आगे बताया भाई जी ने।
दिहाड़ी के बारे में बताया -'कभी काम मिल जाता है। कभी नहीं। अभी तबियत खराब है इसलिए कई दिन से काम नहीं मिला।' कहते हुए खासने लगे भाई जी।
बातचीत का समय कोरोना काल शुरु होने के पहले का था। उस समय खांसी इतना आतंककारी नहीं हुई थी।
ऐसे अनगिनत लोग हमारे आसपास होते हैं जिनके किस्से होते हैं। हम उनसे जुड़े नहीं होते इसलिए हमको एहसास नहीं होता उनकी कहानियों का। हर इंसान अपने में एक महाआख्यान होता है। हमको पढ़ना नहीं आता या फिर हमको सुनने का समय नहीं होता।
हम अपनी कहकर मुक्त हो जाते हैं। हमको सुनना भी आना चाहिए। सुनना भी एक कला है।
हम सुनना सीखना चाहते हैं। ककहरा सीख रहे हैं। आप भी सीखो, मजा आएगा।

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