Tuesday, September 29, 2020

किताब पर कीड़ा

 किताब पर कीड़ा

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कल रात की बात ! कोई कहेगा कि सुबह-सुबह रात की बात भाई ! क्या कोई सपना देखा ? सुनाओ फ़टाफ़ट !
रात की बात सपने से ही जुड़ जाती है। कुछ गाने का भी दोष – ’कल रात मैंने सपना देखा, तेरी झील सी गहरी आंखों में।’
अब बात यहां यह भी आ गयी कि सपने रात में ही क्यों देखे जाते हैं? शायद इसलिये इंसान रात को सोता है। नींद में निठल्ला रहता है। सपने में भी कुछ करना नहीं पड़ता है, सिर्फ़ देखना होता है। इसीलिये सपनों की खेप रात में ही सप्लाई होती है।
बाद बाकी, हम सपने की बात नहीं कर रहे। रात हम लेटे-लेटे सोने के पहले की दवाई की खुराक ले रहे थे मल्लब किताब पढ रहे थे।सोते समय पढने से बेहतर कोई दवाई नहीं होती। किताबें तमाम अलाय-बलाय से बचाती हैं। समय के चलते अब पढना भले कुछ कम हो गया है लेकिन हसरत जरूर होती है। किताब दिखते ही जिगरी यार की तरह चिपटा लेने का मन करता है –इस कोरोना काल में भी।
और हमीं कोई अनोखे पुस्तक प्रेमी न हुये। एक से एक खुर्राट पढैया हुये हैं दुनिया में। हमारे विकट पढाकू और बेहतरीन लिख्खाड़ दोस्त अशोक पांडे Ashok Pande ने एक वजीर का किस्सा बयान किया है जो पढने का इतना शौकीन था कि सफ़र में भी चार सौ ऊंट भर किताबें साथ लेकर चलता था। पढकर हमारे तो होश बेहोश होने को हुये। कहां तो हम लैपटॉप वाले बस्ते में दो ही किताबों पर अपने पढने के शौक पर इतराते वाले हुये और कहां ये बन्दा चार सौ ऊंट किताबें साथ लिये चलता था।
बहरहाल बात किताब की हो रही थी। पढते हुये नींद आने लगी तो किताब बगलिया कर करवट लेते हुये पढने लगे। देखते क्या हैं कि एक छोटा कीड़ा , भुनगा कहना ज्यादा मुफ़ीद होगा उसे किताब के पन्ने पर टहल रहा था। वो कोई भी हो अब नाम तो हमें मालूम नहीं था उसका , पता होता तो नाम के आगे ’जी’ लगाकर गरियाते उसे। आजकल यही चलन है। जिसको खूब हमारी और खराब टाइप बताना होता है उसके आगे ’जी’ लगाकर बात शुरु करते हैं। हमें इसीलिये सरेआम इज्जत करने वालों से बहुत डर लगता है। जैसे ही कोई कहता है –’हमारे लिये आपके मन में बहुत इज्जत है’ सच्ची बता रहे हैं आसन्न बेइज्जती के डर से मन दहल जाता है।
लेकिन खैर बात कीड़े जी की हो रही थी। भाईसाहब बिना मास्क लगाये टहल रहे थे किताब के पन्ने के बीचोबीच। बिना मास्क के उनकी सूंड़ मूंछ की तरह लहरा रही थी। हमने सोचा कि टोंक से मास्क के लिये लेकिन उनके चेहरे पर तो –’कोरोना-फ़ोरोना कुछ नहीं होता’ का भयंकर आत्मविश्वास साइनबोर्ड की तरह चमक रहा था। हम चुप हो गये। चुपचाप देखते रहे –कीड़ा लीला।
देखा कि अगला अपने आगे के दो पांव उठाकर वर्जिश टाइप कर रहा था। तेजी से जवान होते लड़के जैसे गलियों में मोटरसाइकिल का अगला पहिया उठाने की कोशिश करते हुये बाइक दौड़ाते हैं वैसे ही वह भुनगा पूरी किताब पर टहल रहा था। एक बार तो उसने अपने आधे शरीर को हवा में उठा भी लिया। बैलगाड़ी की तरह अगला हिस्सा ’उलार’ हो गया उसका। एकदम दिगंबर भुनगा इतना तल्लीन होकर अलग-अलग पोज में टेढा-मेढा हो रहा था कि एकबारगी मुझे लगा कि कहीं यह कीडों को योग तो नहीं सिखा रहा। जिस तरह आधे शरीर को ऊपर उठाया उसको वह अपने टीवी चैनल पर बता रहा हो- ’यह उत्तानपादासन है। इसको करने से खाया-पीया सब हजम हो जाता है।’
वह भुनगा ऐसे टहल रहा था किताब के पन्ने में जैसे कोई तानशाह अपने महल में अकेले टहलते हुये अपनी रियाया को हलाकान करने की तरकीब सोचते हुये टहल रहा हो। इस कल्पना से हमकों हंसी आ गयी। ये भुनगा तानाशाह कैसे हो सकता है। साइज में आंख से कभी-कभी बरामद होने वाले कीचड़ से भी कम दिखने वाला कीड़ा था वह। एक इन्सान से साइज से तुलना करें तो पलक झपकते तमाम कारपोरेटियों के राइट ऑफ़ किये जाने वाले कर्जों के मुकाबले बड़ी मशक्कत और माकूल घूस के बाद हासिल किये गये ' मुद्रा लोन' से भी कम आकार का होगा वह कीड़ा। लेकिन टहल ऐसे रहा था मानो शेषनाग का बाप हो जिसके जरा सा हिलने-डुलने से धरती में हाय-हाय मच जाती है। भुनगे टाइप के लोगों की सोच शायद ऐसी ही होती हो।
इस समूची कायनात में बड़े से बड़े तीसमार खाँ की औकात एक भुनगे से बहुत बहुत कम होती है। शायद इतनीं कम कि उसकी एंट्री ही न होती हो कायनात के रजिस्टर में। चिल्लर को कौन गिनता है कुबेर के खजाने में।
अकेला टहल रहा था पट्ठा। शायद अपने साथ के लोगों को निपटा के आया हो। किताब के पन्ने पर चढना उसको एवरेस्ट पर चढने जैसा लगा हो। उसकी ऐंठ देखकर मुझे गुस्सा आया। मन किया किताब बन्द कर दें। इतने में ही कीड़े का टेटुआ क्या वह पूरा का पूरा दब जायेगा। दो मिनट में राम नाम सत्य हो जायेगा। लेकिन गुस्सा जल्द ही विदा हो गया। गुस्से के विदा होते ही प्यार ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। हमें लगा कि क्या पता कीड़ा इत्ता खतरनाक और बौढम न हो जित्ता हम समझ रहे। क्या पता वह भी हमारी तरह पुस्तक प्रेमी हो और हमारी ही तरह सोने के पहले किताब पढता हो। हम सीने में धरकर किताब पढते हैं। वह किताब के सीने पर चढकर पढता हो।
यह सोचते ही कीड़े के प्रति हमारे सारे भाव बदल गये। हम उसकी हर हरकत पर फ़िदा होते हुये कब सो गये पता ही नहीं चला। सुबह उठकर अभी जब सूरज भाई से यह बात बताई तो सूरज भाई मुस्कराते हुये बोले -’ तुम भी बौढम हो यार। बिना जाने ही किसी के बारे में कुछ धारणा बनाना ठीक नहीं होता।’
अब हम क्या कहते? चुपचाप सुनते रहे। सूरज भाई भी हमारे लॉन में रोशनी की चित्रकारी करते हुये चाय चुस्कियाते हुये मुस्कियाते रहे।

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1 comment:

  1. बहुत बढ़िया कीड़ा लीला।

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