Sunday, September 20, 2020

परसाई के पंच-41

 1. जिसकी बात के एक से अधिक अर्थ निकलें वह सन्त नहीं होता, लुच्चा आदमी होता है। सन्त की बात सीधी और स्पष्ट होती है और उसका एक ही अर्थ निकलता है।

2. किराये के मकान ’कमर्शियल बेसिस’ (व्यावसायिक आधार) पर बनवाये जाते हैं। व्यावसायिक आधार का सूत्र है – कम लागत, घटिया माल, अधिक दाम।
3. मकान भी दो तरह के होते हैं, रहने के लिये और किराये पर देने के लिये। एक प्रकार के मकान से दूसरे प्रकार का काम नहीं लिया जाता। रहने का मकान किराये पर नहीं दिया जाता, और किराये के मकान में रहा नहीं जा सकता है।
4. आदमी बेमजा बात खुलकर करता है और बामजा को छिपकर। याने सुख शर्म की बात मानी जाती है।
5. हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं।
6. स्कूल प्रार्थना से शुरु होता था –’शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन!’ क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं –कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षरज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढीं और आंखों को उनमें जड़ दिया।
7. हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरु को अंगूठा काटकर दे देता था और दोनों ’धन्य’ कहलाते थे।
8. हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढा दी गयी थी , जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिये आदमी और कद्दू में कोई फ़र्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं।
9. जीवन से कट जाने के कारण एक पीढी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढी के ऊपर लद जाती है। अन्धी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है – हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिये पुण्य का एडवांस देना है।
10. आंख वाले की जवानी अन्धों को ढोने में गुजर जाती है। वह अन्धों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आंखे रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ़ राह के कांटे बचाने के काम आती हैं।
11. कितनी कांवड़े हैं – राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अन्धे बैठे हैं और आंख वाले उन्हें ढो रहे हैं।

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