Monday, November 11, 2019

वाशिंगटन डीसी की ओर


अमेरिका में सातवां दिन है आज। इतने समय में न्यूयार्क, न्यूजर्सी, फिलाडेल्फिया (पेंसिल्वेनिया) टहल लिए। मतलब चार प्रदेश। सात दिन में चार प्रदेश निपटा लिए। आज दो प्रदेश और नप जाएंगे। एक वाशिंगटन डीसी और दूसरा वर्जिनिया।
हिंदुस्तान से चले थे तो वाशिंगटन और वर्जिनिया नहीं था प्लान में। था तो फिलाडेल्फिया भी नहीं। लेकिन हो गया। वाशिंगटन डीसी राजधानी है अमेरिका की। ढाई घण्टे की दूरी पर। हमने सोचा कि आये हैं तो इसे भी देखते चलें। नहीं देखेंगे तो दुखी बेचारा । क्या पता गाना गाने लगे -'हमसे का भूल भई , जो ये सजा हमको मिली।'
अब जब वाशिंगटन डीसी जा रहे हैं तो लगा कि बगल में वर्जिनिया में जान एफ केनेडी सेंटर है । उसको भी देखते चलें। फिर न जाने कब आना हो।

तय होने के बाद टिकट कराया। एमट्रेक की ट्रेन जाती है। सुबह 6.56 पर चलकर साढ़े नौ पहुंचना। शाम को 6.05 पर चलकर 8.37 वापसी।
पहले इतवार को जाने का प्लान था। लेकिन उस दिन लौटने की टिकट मिली नहीं। आज की मिली। आने-जाने की टिकट पड़ी $380 मतलब करीब 28000/- आने-जाने का समय बराबर लेकिन लौटने का किराया मुकाबले सवा गुना। मतलब समान दूरी के भी किराये अलग-अलग। ट्रेन के किराए यहां हवाई जहाज की तरह बदलते रहते हैं।
ट्रेन के हिसाब से सुबह सवा छह पर चल दिये। बाहर निकलते ही सूरज भाई मिल गए। गुड मॉर्निंग हुई। जब से अमेरिका आये हैं सूरज भाई हमेशा साथ रहते हैं। उनको लगता है कि कोई भी परेशानी हो तो फौरन हल करें। सूरज भाई की नजदीकी का फायदा यह कि परेशानियां पास आने में हिचकती हैं।
रास्ते में एक जगह मुड़ना था। सौरभ ने गाड़ी एक मोड़ पर ले गए और सिग्नल का इंतजार करने लगे। अब हमको मुड़ना नहीं था । सिगनल होने पर सामने जाना था। ऐसे मोड़ को यहाँ 'जग टर्न' कहते हैं। मुड़ने के लिए सड़क पर इंतजार करने में जाम लग सकता है। गाड़ियों की आवाजाही बाधित हो सकती है। 'जग टर्न' इन सब असुविधाओं से बचाता है।
हमको अपने कानपुर के कई चौराहे याद आये। लोगों की लापरवाही की बात भुला भी दें तो इनसे गुजरने की कोई ट्रैफिक नियम के हिसाब से भी कोई व्य्वस्था नहीं। पण्डित होटल के पास शिवनारायण टण्डन सेतु पर कैंट से आने वाले भी चल देते हैं। फूल बाग की तरफ के लोग भी गाड़ी हांकते हुए निकल लेते हैं। ऐसे में एक्सीडेंट न होना भी एक चमत्कार ही है। फूलबाग सब्जी मंडी के तिराहे के पास भी ऐसी ही सुंदर अव्यवस्था है।

यहाँ कल मैंने सड़क पर पैडल यात्री का जलवा देखा। एक महिला सड़क के एक तरफ कुछ देर तक खड़ी थी। ट्रैफिक को देखते हुये पार करने का मूड बनाती हुई। एक सिपाही ने उसे देखा। बीच सड़क पर आकर उसने दोनों तरफ़ की गाड़ियों को रुकने का इशारा किया। गाड़ियां फौरन रुक गई । महिला यात्री ने मुस्कराते हुए सड़क पार की। सिपाही से हेलो-हाउ दु यू डू किया। धन्यवाद बोलते हुए सड़क पार करके चल दी। गाड़िया भी स्टार्ट तो थीं ही, चल भी दीं।
स्टेशन टाइम पर पहुंच गए । दस मिनट बाद ट्रेन थी। लेकिन कोई बताने वाला नहीं कि ट्रेन किस पटरी पर आएगी। अपने यहां तो एक पूछने वाला हो तो पचास बताने वाले लपकते हैं। कभी-कभी तो बिना पूछे ही बता देते हैं लोग।
ट्रेन का समय नजदीक आते देख धुकुर बढ़ी । पुकुर में भी इजाफा हुआ। दो मिनट और हुए तो धुकुर-पुकुर ने मिलकर गठबन्धन सरकार बना ली। हमको लगा कि सही ट्रेक पर न पहुंचे तो दो प्रदेशों की यात्रा से वंचित हो जाएंगे। $380 का चूना-कत्था लगेगा सो अलग।
हमने वहां से गुजरते एक अमेरिकी नागरिक से ट्रेक के बारे में पूछा तो उसने बताया। लपककर पहुंचे प्लेटफार्म। वहां फिर एक से पूछा। उसने भी बताया। हम सही ट्रेक पर थे। तब तक सामने से सौरभ ने भी किसी से कन्फर्म करके बताया कि इसी से जाएगी ट्रेन।
ट्रेन आयी। चढ़ने से पहले हमने फिर पक्का किया एक से कि यह ट्रेन वाशिंगतन जाएगी? उसने बोला -यप्प। हम सुनते ही चढ़ लिए ट्रेन में।
ट्रेन में हर लाइन में दो-दो यात्रियों की सीट थी। बीच में कॉरिडोर। हर दो की सीट में एक पर कोई न कोई बैठा था। हम अगल-बगल , अलग-अलग बैठ गए। बैठने के पहले एक लड़की का बड़ा सा बैग ऊपर रखवाने में सहायता किये।
हमको साथ-साथ चढ़ते और अलग-अलग बैठते देख महिला कोच अटेंडेंट पास आई। पूछा -'आप लोग साथ-साथ हैं?' हम किस मूंह से न कहते? हमने भी अमेरिकी स्टाइल की नकल मारते हुए 'यप्प ' बोल दिया। वह हमको साथ लेकर पीछे आई। ऐसी सीट में बैठा दिया जो साथ-साथ थीं।
ट्रेन में बैठते ही हमने कुछ फोटो लिए। हमको फोटो खींचते देख पास में बैठा एक नौजवान आया और पूछा -'हम आपकी फोटो खींच दें?'
फ़ोटो खींचकर कैमरा वापस करते हुए उसने पूछा -व्हेयरफ्राम ?
हम बोले - इंडिया
उसने पूछा - व्हेयर इन इंडिया?
हमने बताया - कानपुर
इसके बाद उसने बताया कि एक दिन पहले वह भारत से आया। दिल्ली में रुका था। किसी शादी में शिरकत की। उसके फोटो दिखाए। बोला- 'केवल तीन दिन के लिए रुके थे वहां बहुत अच्छा लगा। लंबे समय के लिये जाना है।'
हमने पूछा -'भारत में क्या ऐसा था जो पसंद नहीं आया?'
उसने कुछ सोचते हुए बताया -'मेरी समझ में भाषा की समस्या थी थोड़ी। किसी से कहीं जाने के बारे में कुछ पूछो तो वहां जाकर पता चलता उल्टा आ गए।'
यह मेरी समझ में, मेरे ख्याल में एक आम अमेरिकन का सहज अंदाज है। उसने भारत के बारे में राय जाहिर करते हुए शुरुआत इस बात से की कि मेरी समझ मे ऐसा है।
सौरभ ने बातचीत में बताया कि अमेरिकी लोग आपको अपनी राय बता देंगे लेकिन अंतिम निर्णय आपको ही लेना होगा। कार खरीदने के बारे में पूछेंगे किसी से तो वह सब कारों की अच्छाई बुराई बता देगा। यह नहीं कहेगा कि आंख मूंदकर फलानी कार खरीद लो। बहुत हुआ तो बता देगा कि अगर हम तुम्हारी जगह होते तो ये वाली खरीदते।
डेम नाम बताया अमरीकी नौजवान ने। वह फलों के प्रोसेसिंग का काम करता है। घर न्यूयार्क में। हमने बताया कि हमने ये जगहें देखीं न्यूयार्क में। उसने ताज्जुब किया औऱ बोला इतना न्यूयॉर्क तो हमने भी नहीं देखा।
इस बीच टीटी आया। टिकट मांगा। हमारे मोबाइल में इंटरनेट का गोला घुमता ही रहा। उसने मेरा नाम पूछा। टिकट अपने मोबाइल में देखा। हमको दिखाया। बोला -हैव ए नाइस दे। इंज्वाय।
हम टीटी की बात मानकर आंनद उठा रहे हैं। कुछ ही देर में वाशिंगटन पहुंचने वाले हैं।

#अमेरिकायात्रा 


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