Tuesday, November 19, 2019

यहां सब कुछ एटटोमैटिक है


कल टहलते हुए शाम हो गयी। मन किया कुछ चाय-काफी हो जाय। मन करते ही एक काफी की दुकान दिख गयी। दुकान नहीं गुमटी। रोबोट गुमटी। न बैठने को बेंच न पढ़ने को फटा हुआ अखबार। काफी बनाने और सर्व करने वाला भी रोबोट था।

रोबोट था तो बोल भी नहीं सकते कि भइया जरा कड़क काफी बनाना। दूध थोड़ा कम , पत्ती ज्यादा। उसको तो तय तरीके के ऑर्डर ही समझ आते हैं। दाएं-बाएं कुछ नहीं। चाय की दुकानों के स्थाई ग्राहक और दुकानदार के बीच तो उनकी अपनी भाषा और संकेत चलते हैं। ग्राहक गया और ऊँगली दिखाकर आर्डर उछाल दिया। चाय वाला भी ग्राहक के हिसाब से मूड के हिसाब से बतियाते हुए पूछ भी लेता-'क्या बात है कुछ उखड़े-उखड़े लग रहे हो?'
काफी आर्डर करते ही रोबोट हवा में डांस सा करने लगा। अपनी बाहें उठाकर भांगड़ा सा करता हुआ। क्या पता उसके मन में कैसेट बज रहा हो -'ये देश है वीर जवानों का , अलबेलों का मस्तानों का।'
डांस करते हुए रोबॉट इधर-उधर घूमता रहा। हर बार मुड़ते हुए बांहे ऊपर करता। मानों यो-यो कर रहा हो। काफी देर हो गई। रोबोट इधर-उधर घुमते हुए डांस ही करता रहा। काफी का कहीं अता-पता नहीं। सच कहूँ कि वह मुझे लोकतंत्र के किसी झांसेबाज नेता सा ही लगा। जो कोई वादा करके भूल गया और खुशी के मारे नाच रहा हो।
कुछ देर बाद लगा कि यह काफी ला क्यों नहीं रहा। रोबोट है कोई आदमी थोड़ी जो पैसे मार जाए। देखा तो पता चला कि जो टोकन नम्बर आया वह भरना था। भरते ही काफी सर्व कर दी। पीते हुए टहलने लगे हम।
रोबोट काफी की दुकान से आगे बढ़ते हुए यही सोचते रहे कि यहां सब कुछ एटटोमैटिक है। इंसान लगातार अनुपस्थित होता जा रहा है। आम चाय वाला तो किसी को मुफ्त में भी चाय भी पिला सकता है। पंकज बाजपेयी को उनके मोहहले के चाय वाले पिलाते ही हैं। इन रोबोट में भी जुगाड़ हो जाएगा कि गरीब लोगों को मुफ्त चाय पिलाएं।लेकिन और न जाने कितने लफड़े हैं जिनका हिसाब होना है अभी।
सबसे बड़ी बात तो यह कि अभी नाबालिग बच्चों के दुकानों पर काम करने की मनाही है। लेकिन रोबोट बेचारा पैदा होते ही दुकान पर काफी बेंचने लगा। न स्कूल का मुंह देखा, न खेल के मैदान गया। किसी गरीब के बच्चे सा पैदा होते ही दुकान में बैठ गया। क्या पता आने वाले समय में रोबोट संगठित हों। अपने लिए अधिकार मांगे। न्यूनतम शिक्षा, न्यूनतम सुविधा का। अभी तो वो अल्पसंख्यक हैं। और आज की दुनिया में बहुसंख्यक लोग सारे तर्क और उदारता बिसराकर कम संख्यक लोगों की ऐसी-तैसी करने पर जुटे हैं। आशा है कि रोबॉट बहुतायत में होने के बदले की भावना से काम करने की बजाय उदारता से आदमियों का ख्याल रखेंगे।
रोबॉट आदमी की सुविधा के लिए बनाए गए। लेकिन वो आदमी को ही ठिकाने लगा रहे हैं। उनकी नौकरियां खा रहे हैं। उनका मुकाबला करने को आदमी उनसे बड़ा रोबोट बनता जा रहा हैं।हंसना-मुस्कराना-बोलना-बतियाना भूलता जा रहा है।
इतने दिन हमने यहां किसी को जोर से बोलते नहीं सुना, हल्ला मचाते नहीं देखा। लोग थैंक्यू-वेलकम के अलावा इतना आहिस्ते बोलते हैं जैसे डरते हों कि जोर से बोलने पर एफबीआई जांच न हो जाये। दुनिया भर में हल्ला मचाने वाले देश के नागरिक ध्वनि प्रदूषण को लेकर बहुत संजीदा हैं।
अमल ने बताया कि उसके एक दोस्त के पार्टी में ताली बजाने की आवाज को भी लोगों ने ध्वनि प्रदूषण मानकर ताली बजाने से परहेज किया। ताली न बजाकर हाथ के पंजे हवा में हिलाकर ताली बजाई।
कुछ खरीदने के लिए माल गए। वहां भी आदमी नदारत। खुद सामान उठाओ, बिल बनाओ, कार्ड हिलाओ, भुगतान करो, सामान लेकर निकल आओ।
ऐसे एटटोमैटिक होते समाज में आदमी दिखना सुकून का हिसाब है। कल यहां दो रिक्शेवाले दिखे। वो शायद सवारी के इंतजार में थे। कनपुरिया रिक्शे वालों की तर्ज ओर बीड़ी पीते नहीं दिखे। न ही गुटखा खाते। न ही रिक्शे को चारपाई बनाकर सोते दिखे। तने बैठे थे रिक्शे पर। मुस्तैद-चुस्टैद। मन किया कि पूछें -'घण्टाघर चलोगे?' लेकिन दूरी की बात सोचकर फिर पूछे नहीं।
उबर करके घर आ गए। उबर भी तो एटटोमैटिक है।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218136962189013

No comments:

Post a Comment