Sunday, November 17, 2019

सैनफ्रांसिस्को में सुबह


सबेरे के 6.35 हुए हैं अभी। सैनफ्रांसिस्को में सुबह हो रही है। बेटे के घर में हैं हम लोग। सब सो रहे हैं। केवल सूरज भाई जाग रहे हैं। आसमान में अपना दरबार लगाये बैठे हैं। हमेशा कहीं न कहीं उनका दरबार लगा रहता है। मोबाइल दरबार है उनका। भारत से उठे तो अमेरिका में गद्दी जमा ली। अमेरिका में शटर गिराया तो भारत मे दुकान खुल गयी। इस बीच दुनिया भर में टहलते हुए मौका मुआयना करते रहते हैं। वो नन्दन जी की कविता है न :

"जिसे दिन बताए दुनिया, वो तो आग का सफर है
चलता है सिर्फ सूरज, कोई दूसरा नहीं है।"
हमने सूरज जरा बाहर टहल के देखा जाए। लेकिन बाहरवीं मंजिल से नीचे सड़क एक दम नींद में सोई हुई है। अंगड़ाई तक नहीं ले रही। इतवार का दिन है। लगता है पूरा शहर जी भर कर सो लेना चाहता है।
यह भी सोचा कि जरा बाहर टहल के आएं। देखें किसी नुक्कड़ पर चाय की दुकान खुली हो तो पीकर आएं। लेकिन याद आया कि यहां कोई नुक्कड़ पर दुकान नहीं लगती। जो दुकाने हैं भी वो भी दफ्तर की तरह दस - ग्यारह के बाद खुलतीं हैं। ये भी कोई शहर है यार जहां आदमी सड़क पर चाय पीने को तरस जाए। कानपुर में तो इतनी सुबह सैंकड़ों जगह गुमटियां गुलजार हो चुकीं होंगी। लोग हज्जारों कप चाय पीकर कुल्हड़, ग्लास सड़क पर फेंक चुके होने। लाखों मक्खियां कुल्हड़ पर बची चाय पर टूट पड़ीं होंगी।
कल यहां मोतीलाल के लोगों का दिवाली मिलन हुआ। जिस जगह हम रहते हैं वहां से करीब 60 मील दूर। मतलब नब्बे किलोमीटर। 33-34 साल पुराने दोस्तों से मिलने का लालच हमको वहां ले गया। बहुत दिन बाद तमाम लोगों से मिलना हुआ।
देबाशीष राय Debu Roy मिलन के आयोजक हैं। हमारे घुसते ही उन्होंने घोषणा की -'अनूप शुक्ल अपने परिवार सहित आ गए हैं। उनका स्वागत है। लेकिन इस बार वे साइकिल से नहीं आये फ्लाइट से आये हैं।'
कई लोगों को हमारी साइकिल यात्रा की बात याद है। हम 1983 में साइकिल से इलाहाबाद से कन्याकुमारी गए थे। कालेज के कई साथियों ने आर्थिक सहयोग भी दिया था। कई लोगों के यहां ठहरे भी थे हम लोग। तीन महीने कालेज गोल करके घूमना भी मजेदार अनुभव था।
देबाशीष से मिलकर याद आया कि जब हम कालेज से निकल रहे थे तो उसने मुझे जान रीड की किताब भेंट की थी। किताब का नाम था -'दस दिन जब दुनिया हिल उठी।'
देबाशीष ने किताब भेंट करते हुए लिखा था -' To the genious who does not realize his worth.'
मतलब ऐसे प्रतिभावान के लिए जिसको अपनी कीमत नहीं पता।
हमको पढ़कर अच्छा लगा कि कोई हमको जीनियस भी समझता है। लेकिन हमको फिर याद आया कि विदाई के समय इस तरह की बातें कहना- लिखना शिष्टाचार होता है। यह याद आते ही हम सहज हो गए। वैसे भी देबू अंग्रेजी के बढ़िया वक्ता थे। शानदार बातें लिखना उनके लिए कौन कठिन काम।
बाद में उस किताब को कानपुर की अलमारी में जमी दीमकों ने अपना भोजन बनाया। हमारे लिए लिखा एक हसीन जुमला इस कायनात से विदा हुआ।
मिलने का दूसरा लालच मेरे लिए ज्योति पांडे जी Jyoti Pande से मिलना था। ज्योति जी हनसे एक साल सीनियर थे। कॉलेज से निकलकर वे टेल्को , जमशेदपुर गए थे। हम वहां एक महीने की ट्रेनिंग के लिए गए पहुंचे तो रहने का कोई ठिकाना नहीं। पांडेय जी की भी नई ज्वाइनिंग थी। कोई जुगाड़ नहीं। अंततः हम उनके हॉस्टल के कमरे में बिस्तरबंद जमा के रहे। उनके साथ उनके ही बैच के कमलजीत जी थे। हॉस्टल की महिला वार्डन की निगरानी से बचते-बचाते कैसे वहां रहे यह फिर से याद करना मजेदार रहा ।
पांडेय जी गाना बहुत बढ़िया गाते हैं। लेकिन उससे अच्छी उनकी मिमिकरी और स्किट है। लोगों की हूबहू नकल उतारने में उनको महारत हासिल है। 33 साल बाद मिलना हुआ था उनसे। मिलते ही बीच का समय मिलने की गर्मजोशी में कपूर सा उड़ गया। इसके बाद तो हम लोग थे थे हमारी यादें थीं। बाकी सबको हमने तखलिया कह कर फुटा दिया।
दिवाली मिलन में मोतीलाल के तमाम लोगों से मिलना हुआ। सीनियर बैच के पंकज माथुर जी से मिले। उनके बैच के प्रदीप गुप्ता जी हमारे यहां हमारे सीनियर है। जो भी मिला उसने अपने हिस्से की यादें साझा कीं। एक ने मोबाइल पर कालेज के पीछे की सड़क पर बना फ्लाई ओवर दिखाया और कहा - 'यहां हम चाय पीते थे। अब यह सब बन्द हो गया।'
हिंदुस्तान के भी सबके अपने-अपने हिस्से के किस्से हैं। लोगों ने उनको फिर से साझा किया। पुरानी यादें लोगों के लिए इनहेलर की तरह होती हैं। सूंघते ही हाल चकाचक हो जाते हैं।
हमारे पहुंचते ही वहां हाउजी शुरू हो गयी। लेकिन अपन उस लफड़े में नहीं पड़े। ज्योति पांडे जी से तमाम यादें साझा करते रहे। हमसे जूनियर बैच की गीतू कानपुर की थी उनसे और उनके पति से गप्प लड़ाते रहे। उनके बाद के बैच की प्रीति ने बताया कि उनके पापा 87 साल की उम्र में एम टेक करने लिए गेट का इम्तहान दे रहे हैं। सुनकर बहुत अच्छा लगा। लगा कि पढ़ने सीखने की ललक का उम्र से कोई ताल्लुक नहीं।
हाउजी के बाद लोग खाने पर टूट पड़े। खाने के बाद बचा हुआ घर के लिए भी पैक करवाया गया। अन्न की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। हमको आज कहीं निमंत्रण है इसलिए हम बांधकर नहीं लाये खाना।
खाने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम था। पांडे जी का भी गाना था। लेकिन देर हो रही थी इसलिए हम लौट आये। पांडे जी ने बाहर तक साथ आये। यह भी कहा कि वे गाना भेज देंगे।
रात लौट के आये। सो गए। सुबह हुई। उसके बारे में बताया ही। अब साढ़े सात बजे गए हैं। सूरज भाई का जलवा और बढ़ गया है। उन्होंने पूरे आसमान पर कब्जा कर लिया है। कह रहे हैं -'उठो, कब तक पड़े रहोगे काहिलों की तरह।चाय - वाय बनाओ। हमको भी पिलाओ।'
हम जाते चाय बनाने। तब तक आप मजे करिये।

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