Saturday, November 09, 2019

आजादी के स्मारकों के बीच

कानपुर से चले थे तो फिलाडेल्फिया कहीं नहीं था प्लान में। लेकिन Ghanshyam C. Gupta जी से बात होने के यह भी जुड़ गया घुम्मकड़ी डायरी में।
फिलाडेल्फिया में अमेरिकन आजादी के कई स्मारक हैं। अमेरिका का संविधान यहां बना। पहली राजधानी थी अमेरिका की। महिलाओं और गुलाम लोगों की आजादी की मशाल जलाने में अहम भूमिका रही इस शहर की।
पेनसेल्बेनिया राज्य में स्थित फिलाडेल्फिया का सबसे प्रमुख आकर्षण है यहां की 'लिबर्टी बेल'। अभी तक 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' और 'लिबर्टी बाइक' देख चुके थे। फिर 'लिबर्टी बेल' ही क्यों छूटे।
'लिबर्टी बेल' से जुड़े किस्सों ने इसको देखने की इच्छा की आग में घी का काम किया। लगा इतने पास आकर भी इसे नहीं देखा तो आना बेकार है अमेरिका। सो निकल ही लिए इसे देखने।
शहर पहुंचते-पहुंचते शाम के सवा छह बजे गए थे। टैक्सी ने स्मारक के एकदम पास उतारा। लिबर्टी बेल का म्यूजियम और स्मारक बन्द हो चुका था। लेकिन खुले में शीशे के कवर में देखने को 24 घण्टे उपलब्ध है यह आजादी की घन्टी।
इस घन्टी का इतिहास बड़ा रोचक है। बनते ही इसमें दरार पड़ गयी। फिर गलाकर दुबारा बनाया गया। फिर से चिटक गयी। फिर दरार बढ़ने से बचाने के लिए इसको हल्का काट दिया गया। अब तो घन्टी बजती ही नहीं। धरोहर के रूप में संरक्षित है।
लिबर्टी बेल के बारे में कई कहानियों में से एक यह है कि अमेरिका की इंग्लैंड से आजादी (4 जुलाई, 1776) के बाद 8 जुलाई , 1776 को यह बजाई गयी। लेकिन यह भी कहा जाता है कि यह 1751 में इंग्लैंड से बनकर आयी थी।
शुरू में यह घन्टी 'स्टेट हाउस बेल' के नाम से जानी जाती थी। फिर 1830 में गुलामों की आजादी के प्रतीक के रुप इसको 'लिबर्टी बेल' नाम मिला। इस बेल को कई महत्वपूर्ण अवसरों पर बजने के किस्से हैं। आख़िरी बार यह घन्टी 1915 में बजाई गयी। इसके बाद शांत होकर इतिहास बन गयी।
इतिहास बनने के लिए शांत होना ही पड़ता है।
वहीं राष्ट्रपति भवन के अवशेष हैं। नीव का लेआऊट है। लगातार चलते वीडियो गुलामी के खात्मे की दास्तान बताते हैं।
लिबर्टी बेल के पास हम खड़े सेल्फी लेने की कोशिश में कसमसा रहे थे। ठीक से फोटो आ नहीं रही थी। यह देखकर वहीं मौजद एक महिला दर्शक ने पूछा -' Do you want me to take your photograph ?' हमने हां कहते हुए कैमरा थमाया। उसने फोटो खींचकर कैमरा वापस किया। हम जब तक उसको कायदे से धन्यवाद देते तब तक वह अपने दोस्तों के साथ आगे बढ़ गयी।
लिबर्टी बेल के बाद वहीं मौजूद नेशनल कांस्टीट्यूशन सेंटर बाहर से देखा।' we the people ....' से शुरुआत करके संविधान की शुरुआती पक्तियां दीवार पर उत्कीर्ण थीं। वहीं विजिटर सेंटर भी। सब बन्द लेकिन बाहर से बहुत कुछ दिखाई देता हुआ। अफसोस हुआ कि सुबह आना चाहिए था। लेकिन अफसोस को हमने ज्यादा उभरने नहीं दिया। यह कहकर टिपिया के बैठा दिया -'न आने से बढ़िया देर से ही सही आना तो हो गया।' अफसोस बेचारा मुंडी दबा के बैठ गया।
तापमान बहुत कम हो गया था। तेज हवा चल रही थी। शरीर और सर तो जैकेट और टोपी से ढंके थे। लेकिन तेज हवा में हाथ ठिठुर रहे थे। बार-बार जेब में डालकर गरम करने पड़ रहे थे।
आजादी के स्मारकों को देखकर हमारे अंदर इकठ्ठा पानी भी आजाद होने को मचलने लगा। लेकिन कहीं भी कोई 'रेस्ट रूम' न दिखा। जो दिखा वह भी बंद। हम सड़क पर तेजी से इधर-उधर होते हुए स्मारकों को देखने से भी ज्यादा गम्भीरता से उनमें मौजूद 'रेस्ट रूम' देखने में लग गए।
पास ही फ्रेंकलिन स्क्वायर पार्क था। पुरानी धरोहरों की कड़ी में एक और शानदार धरोहर है यह पार्क। शुरुआती समय में घोड़ों के चरागाह, नीलामी स्थल और कब्रगाह के रूप में था यह पार्क। बाद में मशहूर वैज्ञानिक बेंजामिन फ्रेंकलिन के नाम पर जगह को फ्रेंकलिन स्क्वायर नाम दिया गया।
पार्क में भी कोई मौजूद नहीं था। एक ठो रेस्टरूम दिखा भी तो धकियाने पर दरवाजा बंद मिला। ऐसे समय में वतन की बहुत याद आई। वहां होते तो कहीं किसी गली में, पार्क के कोने में हल्के हो लिए होते। लेकिन यहां ऐसी आजादी कहाँ।
बहरहाल, घूमते हुए नजारे देखते हुए टहलते रहे। जितना देख पाए देख लिया। बाकी बाद में देखने की सोचते हुए वापस लौटने की सोचते हुए आगे बढ़ते गए।
आगे कुछ ही देर में एक जगह चायना टाउन की तरफ जाने का निशान लगा दिखा। हम चयासे/काफ़ियासे हो गए। चाय/काफी के साथ यह भी सोचा कि किसी रेस्टोरेंट में हल्के भी हो लेंगे।
फिर क्या। हम बिना कुछ विचार किये चायना टाउन की तरफ बढ़ लिए।

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