Wednesday, November 13, 2019

अमेरिका में ट्रेन

 

सुबह करीब ढाई घण्टे में पहुंच गए वाशिंगटन। 310 किलोमीटर है। मतलब औसत स्पीड करीब 125 किलोमीटर प्रति घण्टा। तुलनात्मक हिसाब से देखें तो कानपुर से दिल्ली की लगभग 440 की दूरी तय करने में शताब्दी ट्रेन को करीब साढ़े पांच घण्टे लगते हैं। मतलब लगभग 80 किलोमीटर प्रति घण्टा।
इस लिहाज से देखें तो भारत के मुक़ाबले ट्रेन यहां लगभग डेढ़ गुनी तेज चलती है। लेकिन किराये के मामले में बहुत अंतर है। दिल्ली से कानपुर का शताब्दी का किराया एक्जिक्यूटिव क्लास का 1920 रुपये है। मतलब 4.36 रुपया प्रति किलोमीटर। जबकि अमेरिका में खर्च लगभग 22 रुपये प्रति किलोमीटर। मतलब लगभग 5 गुना मंहगी ट्रेन है भारत के मुकाबले।
लेकिन अगर औसत आमदनी के मामले में एक अमेरिकन की औसत आमदनी एक भारतीय के मुकाबले लगभग 8.5 गुनी है। इस तरह सब कुछ मिलाकर देखा जाए तो अमेरिकन रेल भारत की रेल के मुकाबले सस्ती बैठेगी।

लेकिन रेल के नेटवर्क के मामले में भारत अमेरिका के मुकाबले बहुत आगे है। अपने यहाँ ट्रेन का नेटवर्क पूरे देश मे है। जबकि अमेरिका में रेल का नेटवर्क इतना तगड़ा नहीं है। इसका कारण शायद अमेरिका के बड़े क्षेत्रफल के अलावा यहां ऑटो लाबी का तगड़ा होना और व्यक्तिगत स्वत्रंतता की भावना रही होगी। अब तो हवाई जहाज की बहुतायत , सड़को का शानदार जाल और रेल लाइन बिछाने में खर्च को देखते हुए अमेरिका में नई रेल लाइन बिछना भी नहीं है। इस लिहाज से भारत की रेलसेवा के मामले में अव्वल रहने की हमेशा गुंजाइश है।
रेल के कुछ मजेदार अनुभव भी हुए यहां। यहां ट्रेन में पट्टी नहीं लगी होती कि कहां से आ रही कहां जा रही। इस लिए अपन ट्रेंनमें बैठने के पहले कई बार कन्फर्म करते रहे। ट्रेन में भी महिला टीटी की डयूटी भी लगती हैं। रात में भी।
एक दिन हम न्यूयार्क से न्यूजर्सी लौट रहे थे। प्लेटफार्म पर ट्रेन खड़ी थी। समय कम। छूटने वाली थी ट्रेन। रात का समय। हमने डब्बे के बाहर खड़े टीटी से पूछा कि यह ट्रेन न्यूजर्सी जाएगी क्या ? टीटी ने शायद सुना नहीं। हमें उतावली हुई। हमने टीटी के कंधे पर हाथ रखकर पूछ लिया - 'यह ट्रेन न्यूजर्सी जाएगी क्या ?'
कंधे पर हाथ रखते ही टीटी ने झटककर पूछा-' व्हाट दु यू वांट ? '
हमने सहमकर देखा कि टीटी महिला थी। हमने सकपकाकर हाथ क्या पूरा शरीर जोड़कर सॉरी बोला। और ट्रेन के बारे में पूछा। महिला टीटी हमारे चेहरे पर पसरे दैन्य भाव को देखकर पसीज गयी और बोली -'हां जाएगी? जल्दी से बैठो। हमने जितनी तेजी से सॉरी बोला था उससे कई गुना तेजी से कई बार सॉरी बोला और ट्रेनारुढ़ हो गए।
ट्रेन चल दी तो महिला टीटी हमारे ही डब्बे में खड़ी लोगों से बतियाती रही।

इस गफलत भरे घटनाक्रम पर हमको रमई काका की वह कविता याद आई जिसमें वो एक पुरुष को महिला समझकर बात करते हैं :
"म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े
तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल
'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा"
तो हमउ का ध्वाखा हुइगा अमेरिका माँ।
उसी दिन ट्रेन में सामने बैठी एक युवती मेकअप करती जा रही थी। उसको ट्रेनटन में किसी कार्यक्रम में भाग लेना था। समय नहीं मिला सलिये दफ्तर से निकलकर सीधे ट्रेन में बैठकर मेकअप कर रही थी।
ट्रेन में आने वाले स्टेशन की सूचना स्क्रीन पर दिखती रहती है। यह अब अपने यहां भी शुरू हो गया। यह सुविधा चकाचक है लेकिन इसके चलते 'भाईसाहब कौन स्टेशन आने वाला है ' से शुरू होकर 'अरे, तब तो आप हमारे भाईसाहब को अच्छी तरह से जानते होंगे' घराने की बतकही को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।
तकनीक में विकास के चलते एक तरफ तो सुविधाओ में इजाफा हुआ है। इंसान की आत्मनिर्भरता बढ़ी है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि दूसरों पर निर्भरता कम होने के चलते सामाजिकता की भावना में कमी आई है।
यहां ट्रेनों में शौचालय साफसुथरे दिखे। लगभग हर जैसे। सबमें साफ पानी। वाशबेसिन पर साबुन शीशा एकदम साफ।

लेकिन ट्रेनों के शौचालय में इश्किया शायरी और मोबाइल नम्बर लिखकर बात करने के आह्वान नहीं दिखे। अभी बहुत पिछड़ा है भारत से इस मामले में अमेरिका।
शौचालय अपने यहां की ट्रेनों के लगभग दुगुने आकार के होते हैं। एक बार मजेदार हादसा हुआ। एक जगह हम रेस्टरूम गए। रेस्टरूम के बाहर किसी के अंदर होने पर जल जाने वाली बत्ती नहीं जल रही थी। हम हैंडल घुमाकर अंदर घुसने को हुए। देखा एक महिला कमोड पर बैठी थी। किसी को अंदर आता देख दरवाजे की तरफ लपकी। उससे तेज हम बाहर की तरफ लपके। जीभ बाहर निकालकर जोर से सॉरी बोला। महिला ने भी अंदर से सिटकनी बहुत जोर से लगाई। बाहर लाल बत्ती जल गई। हम लपककर सामने वाले रेस्टरूम में घुस गए।
लम्बी दूरी की गाड़ियों में पैंट्री कार भी रहती है। वाशिंगटन डीसी वाली ट्रेन में भी थी। पैंट्री कार के दोनों तरफ केबिन ' ट्रेन कैफेटेरिया ' की तरह रहते हैं। मेज कुर्सी लगी । बढ़िया चकाचक व्यवस्था। लोग खाने-पीने का सामान लेकर कैफेटेरिया में बैठकर अपना काम करते दिखे।
एक मेज पर चार लोग काफी पीते हुए ताश के पत्ते फेंटते हुए दिखे। उनमें दो महिलाएं भी थीं। दूर से पता नहीं चल पाया कि वे कटपीस खेल रहे थे कि दहला पकड़। हो सकता है कि वे कोई अपना स्थानीय खेल खेल रहे हों।
हमने पूछा भी नहीं कि क्या खेल रहे हो। जो मन आये खेलें , हमसे क्या मतलब।
कैफे में चाय लेने पहुंचे। हमने चाय का ऑर्डर देने की कोशिश की। उसने बोला -'प्लीज़ कम इन क्यू।' हमने सोचा लाइन किधर? लाइन तो कहीं दिखी नहीं। लाइन हो तब तो लाइन में आएं। लेकिन फिर ध्यान से देखा तो सामने कुछ लोग बिखरे-बिखरे खड़े थे। हमको लगा ये कैसी लाइन जिसमें लोग एक दूसरे से एकदम सट कर न खड़े हों।
मन किया कि डायलॉग मार दें कि हम जहां खड़े हो जाते हैं लाइन वहां से शुरू होती हैं। लेकिन फिर यह सोचकर कि कोई डायलॉग पर ताली तो बजायेगा नहीं , हमने कोई डायलॉग नहीं मारा। चुपचाप लाइन में लग गए।
जब हम लग गए लाइन में तो हमारे बाद एक महिला आई । उसको भी भरम हुआ कि लाइन है कि नहीं ? उसने पूछा भी कि क्या हम लाइन में खड़े हैं। हमने 'लाइन अनुभवी' होने के नाते बता दिया कि हां बहन जी, लाइन ही लगी है। इसके बाद उदारता का परिचय देने की मंशा से उसको लाइन में अपने से आगे आ जाने की पेशकश की। लेकिन उसने मेरी पेशकश मुस्करा कर ठुकरा दी। हम चुपचाप खड़े काउंटर पर अपनी बारी आने का इंतजार करने लगे।
चाय लिप्टन की ली। दूध क्रीमर के रुप में छोटी टुइंया सी डिबिया में । चीनी भी अलग। चाय के साथ यात्रा का आनन्द लेते हुए आगे बढ़े।
अमेरिका में अंडरग्राउंड (सब वे) ट्रेन का भी चलन है। न्यूयार्क में जमीन के अंदर रेल का जाल बिछा है। ताज्जुब होता है देखकर कि लगभग सौ साल पहले इतना बड़ा नेटवर्क बनाया इन लोगों ने। वह भी ऐसी व्यवस्था वाला नेटवर्क कि आज भी धड़ल्ले से चल रहा है। गज्जब की प्लानिंग और गज्जब का प्लानिंग पर अमल।
बताते हैं कि न्यूयार्क में सब वे ट्रेन की सुरक्षा व्यवस्था ऐसी है कि ट्रेनों की टक्कर वाली दुर्घटना होने की कोई गुंजाइश नहीं। किसी गलती से अगर दो ट्रेन एक ही पटरी पर आ जाएं तो सुरक्षा व्यवस्था ऐसी है कि एक किलोमीटर पहले ट्रेंने अपने आप रुक जाएगी।
वाशिंगटन डीसी का रेलवे स्टेशन बहुत भव्य है। धूप बहुत शानदार थी जिस दिन हम वहां पहुंचें। हमको सूरज भाई पर बहुत प्यार आया कि हम जहां भी पहुंचे , सूरज भाई ने हमारे लिए धूप की शानदार व्यवस्था कर दी।
सूरज भाई को धन्यवाद देते हुए हम शहर घूमने निकल गए।

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