Sunday, November 10, 2019

हमारे पास फालतू की गप्पाष्टक के लिए समय नहीं है

 

फिलाडेल्फिया में टहलते हुए कई स्मारक देख डाले। हालांकि दिन में देखते तो और मजा आता। लेकिन भागते पर्यटक को बंद स्मारक ही सही। देख तो लिए।
अमेरिका समृध्दि के मामले में भले बहुत आगे हो दुनिया में लेकिन चाय/काफी और हल्के होने के मामले में अपने यहां से बहुत गरीब है। चाय/काफी की दुकाने जो हैं भी यहां वो सरकारी दफ्तरों की तरह खुलती हैं।भारत में तो हर नुक्कड़ पर चाय की दुकाने हैं। चाय की दुकान के साथ हल्के होने की व्यवस्था मुफ्त में।
फ्रेंकलिन स्कवायर के आगे चाइना टाउन होने की सूचना थी। हम उसी पर बढ़ लिये। स्मारकों वाली सड़क के मुकाबले सड़के गुलजार थीं यहां। अधिकतर खाने की दुकाने। वो भी चीनी, थाई, कोरियन। अधिकतर में नानवेज भोजन मॉडलों की तरह लटक रहा था। लेकिन हम शाकाहारी। हमको तो वह सब खाना नहीं था।
सडको पर पैदल यात्री, साइकिल और कार अनुशासित ढंग से चल रहे थे। पैदल और साइकिल सवार को बड़ी इज्जत से सड़क पर चलने की सुविधा। अपने कानपुर में तो रात को जब भी साइकिल पर चले तो हमेशा सुरक्षित पहुंचने को अजूबा ही माना। हर समय डर की कोई ठोंक कर न चला जाये। इसी डर के चलते शाम के बाद साइकिल नहीं चलाते। 🙂
मन किया काफी पिया जाए। उसमें सबसे पहले रेस्टरूम का उपयोग किया जाएगा।आसपास कोई इंडियन होटल खोजा। दिखा लेकिन वो थोड़ी दूर थे। तब तक एक काफी रेस्तरां दिख गया। घुसते ही रेस्टरूम खोजा। काउंटर पर बच्ची ने मुस्कराते हुये बताया -'मरम्मत के लिए बन्द है। आप बगल के रेस्तरां में हो जाओ।'
हमने अपनी कुदरती जरूरत को थोड़ा और इंतजार करने का आदेश देते हुए काफी आर्डर की। पेमेंट के लिए कार्ड बढाया। उसने कहा दस डॉलर से कम पर कार्ड नहीं चलता। काफी दो डॉलर से कम की थी। हमने नकद दिए और काफी ली। बढ़िया गर्मागर्म काफी । मजा आ गया।
काफी पीते हुए मन किया फोटो भी लिया जाय। बच्ची को बुलाया तो उसने खींच दिया फोटो। काफी पीकर हम बाहर निकल आये। स्टेशन पास ही था। सोचा दूसरी जरूरत वहीं पूरी करेंगे।
बाहर निकलकर याद आया कि रेस्तरां का मीनू कार्ड तो हम साथ ही ले आये। हम फौरन वापस गये। मीनू कार्ड रेस्तरां की मेज पर धरा और शराफत का सफल सर्जिकल अभियान पूरा करते हुए वापस लौटे।
बिना ज्यादा मेहनत और बिना खर्चे के शराफत दिखाने का मौका चूकना बेवकूफी है।
हम स्टेशन की तरफ बढ़ ही रहे थे कि एक आदमी व्हीलचेयर पर दिखा। इसने हमसे कहा -'क्या मैं थोड़ी दूर तक उसकी व्हीलचेयर को धक्का दे सकता हूँ?'
हमने थोड़ी दूर तक उसकी व्हीलचेयर धकिया दी। उसने कहा -'सड़क पार करवा दो। ' हमने करवा दी। इसके बाद थोड़ी दूर और धक्का देने को कहा । हमने दिया। 'ये दिल मांगे मोर ' की तर्ज पर वह 'थोड़ी दूर और, थोड़ा और' कहते हुए हमको करीब दो सौ मीटर ले आया।
व्हील चेयर धकियाते हुये हमको अपने रामफल याद आये। उनका बेटा उनका ठेला पुलिया से बाजार तक ले जाने के पैसे लेता था। वो देते थे। लेकिन यहां हम मुफ्त में धक्का लगा रहे थे।
रास्ते में उसने बताया कि वो बिना घर वाले है। होमलेस। शायद रात को रुकने के लिए किसी ठिकाने की तलाश में थे। बात करते ही उन्होंने हमको दायीं तरफ मुड़ने का आदेश दिया। हम मुड़ गए। अंदर घुसे। देखा तो यह वही स्टेशन था जहां हमको जाना था। हमने उसका नाम पूछा। उसने कुछ बताया। हमको समझ में नहीं आया। लेकिन हमने मुंडी हिला दी।
अच्छा , यह कुछ न समझने पर मुंडी हिला देने का रिवाज दुनिया भर में है। बल्कि बिल्कुल भी समझ में न आने पर मुंडी तेज हिलती है।
इसी बात पर हमको एक सच्चा किस्सा याद आया। हमारे एक मित्र को एक बार साहब की मैडम ने कुछ काम बताए। वो हर काम के लिये 'जी मैडम, एस मैडम, ओके मैडम, हो जाएगा मैडम' कहते हुए तेजी से मुंडी हिलाते गए। आदेश देकर मैडम चली गईं। हम भी साथ खड़े थे। चुपचाप सब देख- सुन रहे थे। मैडम के जाने पर भाईसाहब ने हमसे पूछा -'यार शुक्ला, ये बताओ मैडम ने क्या-क्या काम बोले हैं करने को?'
हमने उनको जो याद था बताया। उन्होंने कुछ किये। कुछ शायद दुबारा पूछे होने बहाने से। अंततः हमारे उस दोस्त को उसके किये काम के लिए पंद्रह अगस्त को घड़ी मिली इनाम में। हमने उस घटना का उल्लेख करते दोस्त से मजे लेते हुए 15 अगस्त, 1992 से घड़ी पहनना छोड़ देने की घोषणा कर दी। 27 साल से अपनी मजाक में की हुई घोषणा पर अमल जारी है। हमारी सारी घड़ियां हमारी कलाई पर बंधने की तमन्ना लिए लॉकर में धरी हैं। उनमें हमको शादी में मिली घड़ी भी शामिल है।
कभी-कभी अपराध बोध लगता है घड़ियों की बात सोचकर। वो सोंचती होंगी और शायद आपस में बतियाती भी हों -'जब पहनना नहीं तो लाये क्यों?'
लेकिन यह सोचा कि लोग तो घर-परिवार-जीवनसाथी तक बिना अपराध बोध के छोड़कर चल देते हैं। हमने तो घड़ी ही छोड़ी। वह भी क्रांतिकारी अन्दाज में कहकर। यह सोचते हुए अपराध बोध को दफा कर दिया यह कहते हुए -'यार तुम कोई और दूसरा दिमाग देखो। हमारे दिमाग में तुम्हारे लिए जगह नहीं। '
व्हीलचेयर वाले आदमी को छोड़ा। उसकी फोटो ली। चलते समय उसने पूछा -'do you have some change?'
मतलब दे दाता के नाम। हमने कुछ चिल्लर दिए। उसने धन्यवाद बोलकर जेब में धर लिए। कोने में व्हील चेयर ले जाकर बैठ गया। उसकी उम्र 53 साल थी। उसी कोने में एक और आदमी गुड़ी मुड़ी हुये सोया हुआ था।
स्टेशन टिकट लिया। टोरेस्डल से न्यूजर्सी तक का टिकट था मेरे पास। हमको जैफरसन से टोरेस्डल तक का लेना था। टिकट 3 डॉलर के करीब का मिला। स्टेशन थे पांच। हमे लगा कि सुबह तीन स्टेशन तक के आने के नौ डॉलर पड़े। यह पांच स्टेशन के तीन डॉलर। कुछ लफड़ा तो नहीं। वापस गए काउंटर पर। कंनफर्म किया। काउंटर वाली महिला ने थोड़ा हड़काते हुए कहा -' what do you want to ask?' ' डांट खाने पर सहम जाना सबसे बढ़िया उपाय है' वाले सहज उपाय की शरण में जाकर उसको अपनी दुविधा बताई। हमारी सहमी हुई मुद्रा पर रीझ कर काउंटर बाला ने आश्वत किया कि टिकट ठीक है। चिंता जिन करा।हम मान गए। अंदर आकर रेस्ट रूम का तसल्ली से उपयोग किया और गाड़ी का इंतजार करने लगे।
गाड़ी आने में समय था। 'समय बिताने के लिए करना है कुछ काम 'के लिहाज से वहीं हेल्प डेस्क से फिर टिकट के बारे में कन्फर्म किया। दोनों टिकट दिखाए। उसने बोला टिकट ठीक हैं। पूछने वाले अपन अकेले थे। बताने वाले वो दो। कुछ और गपियाने के लिहाज से हमने उससे पूछा -'हम आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहे।' उसने कहा -'No not at all. But we are not here for conversation' मतलब हम फालतू की गप्पाष्टक के लिये नहीं है।
काम के समय खाली होने पर भी काम के अलावा और कोई बात न करना यहां की कार्य संस्कृति में है शायद। हम लोग तो काम के समय काम के अलावा भी ढेर सारी बातें कर लेते हैं। बल्कि कई बार तो काम के अलावा ही सारी बातें करते हैं। सारी भलाई बुराई, पीठ पीछे निंदा-मुंह पर तारीफ का कोटा पूरा कर लेते हैं।
ट्रेन आने बैठ गए। 10 बजे ट्रेनटन पहुंची ट्रेन। अगली ट्रेन 11 बजे थी। उससे जाते तो रात बारह बजे घर पहुंचते। ट्रेन टाइम देखकर सौरभ Saurabh ने हमको ट्रेनटन पर अगली गाड़ी छोड़ देने को कहा। नए-नवेले पिता बने सौरभ बेचारे घर का , बच्चे का और तमाम दूसरे काम निपटाते हुए हमारी यात्रा को सुगम बंनाने में मेहनत करते रहे हैं। उनके बिना यात्रा कठिन और बवाल हो जाती। सौरभ स्टेशन समय पर लेने आ गए। हम 1030 पर घर में थे।
यह हमारा अमेरिका में तीसरा दिन था।
पोस्टिंग समय : न्यूजर्सी में 10 नवम्बर की सुबह 5 बजकर 26 मिनट
कानपुर में 10 नवम्बर की शाम के 3 बजकर 54 मिनट
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218056907667700

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