1. निन्दा में अगर उत्साह न दिखाओ, तो करने वालों को जूता-सा लगता है।
2. कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ’किक’ की तरह चढती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ’फ़िट’ आते हैं –मिरगी की तरह। सुना है कि मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फ़िट भी आ जाता है।
3. लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिये बनवाते हैं मगर वास्तव में खिड़की झांकने के लिये होती है।
4. कितने लोग हैं जो ’चरित्रहीन’ होने की साध मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ’चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलती होगी और पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका किससे सम्बन्ध चल रहा है।
5. हर साल ऐसा होता है –जनवरी में दीवार पर चमकीली तसवीरों का एक कलेण्डर टंग जाता है और दिसम्बर तक तसवीर की चमक उड़ जाती है। हर तसवीर बारह महीनों में बदरंग हो जाती है।
6. अफ़सर के इतने बड़े मकान बन जाते हैं कि वह राष्ट्रपति को किराये पर देखने का हौसला रखता है।
7. सुभाष बाबू ने कहा था –’तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’ खून तो हमने दे दिया, मगर आजादी किन्हें दे दी गयी।
8. देश एक कतार में बदल गया है। चलती-फ़िरती कतार है- कभी चावल की दूकान पर खड़ी होती है, फ़िर सरककर शक्कर की दूकान पर चली जाती है। आधी जिन्दगी कतार में खड़े-खड़े बीत रही है।
9. छोटा आदमी हमेशा भीड़ से कतराता है। एक तो उसे अपने वैशिष्ट्य के लोप हो जाने का डर रहता है, दूसरे कुचल जाने का। जो छोटा है और अपनी विशिष्टता को हमेशा उजागर रखना चाहता है, उसे सचमुच भीड़ में नहीं घुसना चाहिये। लघुता को बहुत लोग इस गौरव के साथ धारण करते हैं, जैसे छोटे होने के लिये उन्हें बड़ी तपस्या करनी पड़ी है। उन्हें भीड़ में खो जाने का डर रहता है।
10. इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफ़ी लोग भुखमरी से।
11. टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाये वह कहता है –हाय हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है –हाय हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं जिनकी महत्वाकांक्षा होती है कि वे टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से।
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