1. अजब चस्का होता है दुख का ! फ़ोड़ा बड़ा दर्द होता है। पर फ़ोड़े को दबाकर, छेड़कर भी तो दर्द का मजा लेते हैं। इसे ’मीठा दर्द’ कहते हैं। कहते हैं दाद खुजाने का आनन्द, ब्रह्मानन्द की कोटि का होता है।
2. जब हम अनुभव करते हैं कि हम औरों से अधिक कष्ट भोगते हैं, तब हमें गर्व होता है । दूसरों की दृष्टि में भी हम गौरवशाली बनना चाहते हैं। दर्द का ताज सिर पर रखे घूमते हैं।
3. दुख पूज्य माना गया है और दुख को पूज्य बनाने वालों में सबसे बड़ा हाथ दुख देने वालों का है।
4. ’दीन धन्य है क्योंकि वही स्वर्ग के अधिकारी होंगे’ ,ईसा ने कहा । ईसा तो कहकर निपट गये, पर उनके अनुयायियों ने इसका अक्षरश: पालन किया । स्वर्ग का राज्य दीनों के लिये अलग छोड़कर, पृथ्वी का राज्य खुद भोगने लगे। पर स्वर्ग के राज्य के अधिकारी भी तो बनाना चाहिये। यही सोचकर ईसा के भक्तों ने कितनी ही कौमों को , करोड़ों आदमियों को दीन बना दिया।
5. सम्पन्नता दिखाने की जितनी तीव्र हविस होती है, उससे कहीं अधिक गरीबी दिखाने की होती है।
6. जो दुख की केवल जय बोलते हैं, कहते हैं कि दुख आदमी को महान बनाता है , ये सरासर धोखा देते हैं। दुख आदमी को ’बड़ा’ भी बना सकता है और नीच भी। मन को उजला भी कर सकता है, और काला भी।
7. वे घोर निराशा से ग्रस्त होते हैं, जो दुख का हाथ जोड़कर स्वागत करते हैं –’पधारो महाराज ! हम तो कृतार्थ हो गये।’ दुख तो त्याज्य है, घृणित है।
8. कुछ पेशेवर ’सहानुभूति-प्रदर्शक’ होते हैं । पता लगाते रहते हैं किस पर क्या विपत्ति पड़ी है। किसी-किसी का तो चेहरा ही ऐसा होता है कि मालूम होता है , इन्हें सरकार से मातमपुर्सी के लिये वेतन मिलता है।
9. दया का पात्र होना कोई सुखदायक अनुभव नहीं है, समर्थ होकर भी करुणा जैसी मूल्यवान , लोक कल्याणकारी भावना को खींचना , सरासर चोरी है, धोखा है।
10. इस जमाने में दोहरा शोषण चल रहा है – आदमी की रोटी तो छीनी ही जाती है, उसके हिस्से की करुणा भी छीन ली जाती है।
11. स्त्रियां दो प्रकार की होती हैं –ध्यान देने वाली और न ध्यान देने वाली। अगर आप किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, तो नतीजा इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पड़ोस में ध्यान देने वाली रहती है या ध्यान न देने वाली।
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