आज दो अक्टूबर है। गांधीजी का जन्मदिन। जित्ती खुशी उससे ज्यादा गम है कि इस बार इतवार को पड़ा दो अक्टूबर। (चार साल पहले की बात) एक छुट्टी मारी गयी। लेकिन कुछ लोगों को गांधी जयन्ती मनाने के लिये छुट्टी के दिन भी तैयार होते देख दुख कम हो गया। दूसरे का फ़ूला दुख देखकर अपना दुख पिचक जाता ।
गांधी जी की याद साल में दो बार करी जाती है। एक बार 2 अक्टूबर को जब वे पैदा हुये और फ़िर 30 जनवरी को जब वे निकल लिये। लेकिन छुट्टी केवल 2 अक्टूबर को होती है। 30 जनवरी की छुट्टी नहीं होती। इससे पता चलता है आदमी के न रहने पर, भले ही वह गांधी जी ही क्यों न हो, उसका जलवा कम हो जाता है।
गांधीजी का खुद का जलवा भले कम हुआ हो लेकिन उनके नाम का भौकाल बना हुआ है। उनकी फ़ोटो लगा हुआ नोट फ़ुल जोरदारी से चलता है। बल्कि सही कहा जाये तो सिर्फ़ वही चलता है। बस ’नोट नाम सत्य’ है। सब तालों की चाबी है गांधीजी की फ़ोटो लगा नोट। इसीलिये जिसको भी गांधीगिरी करनी होती है वह पहले नोट का जुगाड़ करता है। नोट से वोट। उसके बाद फ़ाइनल चोट।
गांधीजी कहा करते थे कि उनका जीवन ही उनका दर्शन है। इस मामले में गांधीजी काफ़ी यूजर फ़्रेंडली हैं। लोग अपने-अपने हिसाब गांधीजी की शिक्षाओं पर अमल करते हैं।
गांधीजी ने निर्णय लेने में दुविधा की स्थिति होने पर मंत्र बताया था कि आप विचार करो कि आपके काम से समाज के अंतिम व्यक्ति को क्या फ़ायदा होगा। उसके हिसाब से निर्णय लो। आज लोग इस ’गांधी निर्णय मंत्र’ का पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। वही निर्णय लेते हैं जिससे उनके समाज के अंतिम व्यक्ति को फ़ायदा पहुंचता हो। यह बात अलग है कि उनका समाज उनकी सोच के हिसाब से तय होता है। किसी का समाज उसके धर्म वाले हैं, किसी का उनके जाति वाले, किसी का उनके गांव वाले। ’छोटा परिवार, सुखी परिवार’ के हिमायती लोगों के लिये उनके परिवार का व्यक्ति ही समाज का अंतिम व्यक्ति होता है। इस लिहाज से देखा जाये तो परिवारवादी सच्चे गांधीवादी हैं।
गांधीजी का प्रिय भजन था – “वैष्णवजन ते तेते कहिये, जे पीर पराई जाने रे।“ आज लोग सच्चे वैष्णव की तरह अच्छी तरह से दूसरे की पीड़ा का अंदाज कर लेते हैं इसके बाद चोट पहुंचाते हैं। कोशिश करते हैं कोई कमी न रह जाये कष्ट देने में। आज के बाहुबली तक इस भजन पर अमल करते हैं। उनको अच्छे से पता होता है कि जिसने उनको ’गुंडा टैक्स’ से मना किया उसको सबसे अधिक पीड़ा तेजाब से नहलाने पर होगी। वे अपने विरोधी को सबसे क्रूर तरीके से निपटाते हैं। आज के गुंडे, बाहुबली इस मामले में गांधीजी के सच्चे अनुयायी हैं।
गांधी जी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग को लोगों ने जितना अपनाया है उतना शायद उनकी किसी और शिक्षा पर अमल नहीं किया होगा। दिन दहाड़े लोग किसी भी उमर की बच्ची, स्त्री पर अपना प्रयोग कर डालते हैं। दिन प्रतिदिन यह प्रयोग बढ़ते जा रहे हैं। गांधी जी ने तो अकेले किया, बुढापे में किया। लेकिन लोगों को यह इतना अपील करता है कि कई लोग तो जवान बाद में होते हैं, यह प्रयोग पहले कर डालते हैं। और तो और लोग उनकी सामूहिकता वाली बात को जोड़कर ’सामूहिक ब्रम्हचर्य के प्रयोग’ कर डालते हैं। सरकारें भी इस मामले में इसीलिये कुछ बोल नहीं पातीं। क्या करें, कैसे अंकुश लगाये लोगों की इस ’नपुंसक गांधीगिरी’ यह न कानून को समझ में आता है न व्यवस्था को।
गांधी जी की ’पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’ वाली बात को राजनीतिक पार्टियों ने अच्छी तरह से अमल में लाया है। वे अपराध से घृणा करते हैं, अपराधी से नहीं। गुंडई से घृणा करते हैं, गुंडो से नहीं। उनको अपने बटलहोल में गुलाब की तरह सजाकर रखती हैं। काली करतूतों का विरोध करती हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिये जरूरी कालेधन से नहीं।
गांधीजी की शिक्षाओं पर जित्ता अमल सरकारों ने किया है उतना किसी और ने नहीं किया होगा। सरकारों को पता है कि बिना गांधीजी के रास्ते पर चले देश का उद्धार नहीं होगा। इसलिये जगह-जगह ’महात्मा गांधी रोड’ बनावाये हैं। इमारतों बनवाई हैं गांधीजी की नाम पर। योजनायें चलायी हैं। मनरेगा जैसी सबसे बड़ी पैसा खैचू योजना तक उनके नाम पर चलाई है।
लेकिन सरकारों को पता है कि देश का काम एक अकले गांधी जी से नहीं चलना इसलिये सरकारें यह व्यवस्था करने की कोशिश करती हैं कि देश में अनगिनत गांधी बनें। इसीलिये सरकारें इस तरह की योजनायें बनाती है और बनाने से अमल करती है कि लोग गांधीजी की तरह अधनंगे रहें। गांधी जी की तरह उपवास करें। भूखें रहें। गांधी जी जिस तरह का जीवन अपनी मर्जी से जिये उस तरह का जीवन जीने का इन्तजाम करती हैं सरकारें। भूखों नंगों की आबादी बढती जा रही है। हर साल करोडों लोगों को जबरियन गांधी बना रही हैं सरकारें।
गांधी जी के ’दरिद्रनारायण’ की अच्छी तरह से सेवा के इरादे से ही सरकारें समाज में दरिद्रों की संख्या बढाती जा रही हैं। इस चक्कर में चंद लोग अगर अमीर बनते जा रहे हैं तो कोई बात नहीं। बड़े उद्धेश्य को हासिल करने में थोड़ा-बहुत हेर-फ़ेर तो चलता है।
गांधी जी स्वच्छता के तगड़े हिमायती थे। अपनी गंदगी खुद साफ़ करने पर जोर देते थे। सरकारें उनकी इसी शिक्षा का प्रसार करने की मंशा से तमाम गंदगी सार्वजनिक जगहों पर छोड़ देती है। सड़कों और सार्वजनिक जगहों की सफ़ाई करके सरकारें लोगों की खुद सफ़ाई करने के गांधीजी के तरीके को खतम नहीं करना चाहती।
यह अच्छा हुआ कि आज गांधीजी नहीं हैं। केवल उनकी शिक्षायें हैं। हम अपने हिसाब से उन पर अमल कर लेते हैं और काम भर के संतुष्ट हो जाते हैं। आज गांधी होते तो बड़ा बवाल होता। आज अगर वे होते तो शायद उनका भी फ़ेसबुक खाता होता, ट्विटर हैंडल होता। हर तरह की हिंसा के खिलाफ़ वे अपनी आवाज उठाते और जहां देखो वहां अनशन पर बैठ जाते। आज वे होते तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की तनातनी के खिलाफ़ बाघा बार्डर पर हड़ताल पर बैठे होते। उनकी इस ’हरकत’ पर दोनों देशों के लोग उनको गरिया रहे होते। हिन्दुस्तान वाले उनको पाकिस्तान भेजने का आह्वान करते। पाकिस्तान वाले कहते इनको अफ़गानिस्तान पठाओ। बवाल है यह आदमी इसको फ़ौरन निपटाओ। गांधी अपनी अहिंसा की सीख देते हुये एक बार फ़िर हिंसा का शिकार हो जाते।
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