Monday, October 05, 2020

युवा दिखने की ललक

 

कल घर पहुंचने के पहले थोड़ा इधर-उधर भी घूमे। 'कामसासू काम्प्लेक्स' की तरफ भी गए। इतवार के बावजूद कुछ दुकाने सज गयीं थीं। एक ठेले पर 'लिट्टी-चोखा' का बोर्ड लगा था। बिक्री अभी शुरू हुई नहीं थी। 'लिट्टी-चोखा' खाये बहुत दिन हुए। जल्द ही नम्बर लगेगा।
कामसासू परिसर में कांट्रैक्ट पर सिलाई करने वालों के शेड हैं। शाहजहांपुर और आसपास के शहरों से आकर लोग सिलाई का काम करते हैं। बाहर से आये लोग काम की जगह पर ही रहते, खाते, सोते हैं। होली, दिवाली, तीज-त्योहार घर चले जाते हैं। काम न मिलने पर जहां काम मिलता है, वहां चले जाते हैं।
एक भाई जी अकबरपुर से काम करने आये हैं। 54-55 उम्र होगी। लगते अलबत्ता चालीस के अल्ले-पल्ले ही हैं। बेटियों की शादी हो गई। नाना बन गए। लड़का घर में खेती-पाती का काम देखता है। उसकी शादी करने के लिए बहू खोज रहे हैं। जल्दी ही निपटा देंगे।
लड़के की उम्र 20 साल जानकर मैंने कहा -'इत्ती जल्दी काहे शादी कर रहे। कुछ कमाने-धमाने लगे तब करना। पढ़ने-लिखने की उम्र है यह तो। बोले -'पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता। हरामी है। और खाने-कमाने के लिए खेती-बारी है। फिर शादी-ब्याह समय पर हो जाये वहै ठीक।'
ओवरऑल सिलते हैं भाई जी। बगल में उनके साथी शायद बिल्हौर की तरफ़ के हैं। सुबह से लेकर देर रात पांच-पांच ओवरऑल सिल डालते हैं। खाना बनाने , खाने के अलावा जागने का सारा समय दर्जीगिरी में लगता हैं। खाने-खर्चे से बचाकर पांच-छह हजार घर भेजते हैं हर महीने।
खा- पीकर यहीं जमीन पर सो जाते हैं। बताया -' एक रात नाग देवता फन काढ़े सर के पास खड़े हुए थे। जान सूख गई। लेकिन वो फिर अपने-आप चले गए। '
मशीन के ऊपर टमाटर और दीगर सब्जी लटकी हुई थी। नीचे रखने पर चूहे कुतर जाते हैं। चश्मा दीवार पर टँगा था। डोरी से। दूसरा चश्मा बगल में रखा था।
हमने पूछा -'दो चश्मे क्यों ?'
इसको (दीवार पर लटके चश्मे को) पहनकर बूढ़े लगते हैं। हालांकि बुढ़ा तो गए ही हन लेकिन इसको पहिन के ज्यादा बूढ़े लगते हैं इसीलिए नहीं पहनते इसे।
55 साल की उम्र के, नाना बन चुके , दर्जी का काम करने वाले इंसान की युवा दिखने की ललक खुशनुमा लगी। गुदगुदी ललक।
बगल में हजरतपुर से आये बाप-बेटे बैग सिलने का काम कर रहे थे। लड़के की उम्र 20 साल करीब। बैग के नीचे रबर के गुल्ले लगा रहा था। गुटके को बैग के ऊपर बैग को लट्टू की तरह घुमाते हुए सिलाई करता जा रहा था चुपचाप। बाप और गुरु दोनों के डबल रोल वाला आदमी लड़के को काम करते देख रहा था।
आठवीं तक पढ़ा है बच्चा। आगे मन नहीं लगा होगा। पढ़ नहीं पाया। बाप की देखादेखी लग गया सिलाई में। खाने-जीने का आसरा होगा। इसके साथ की उम्र के अनगिनत बच्चे न जाने किस-किस तरह की मस्तियां कर रहे होंगें। यह बच्चा उन सब से बेखबर दर्जी खाने में बैठा बैग सिल रहा है। न कोई दोस्त, न कोई सहेली। जिंदगी क्या अजब पहेली।
बगल के शेड में कानपुर से आये तीन दर्जी बैग बना रहे हैं। कानपुर में बकरमण्डी के पास रहते हैं। दो बेटे साथ आये हैं। फरमान और फैसल। बेटियां अपनी अम्मी के पास घर मे हैं। खुद की बैग की दुकान है कानपुर में। काम की कोई कमी नहीं। लेकिन 'भाईजान' के कहने पर काम पर आ गए। भाईजान मतलब सिलाई का काम लेने वाले कांट्रेक्टर। बताया भाईजान हर मुसीबत में ख्याल रखते हैं। उनकी बात मना नहीं कर सकते। बाकी लोगों ने भी इसी तरह की बात कही -'पैसा हमेशा टाइम पर मिल जाता है।'
दिन भर में दस बैग सिल लेता है एक टेलर। हमारे यहां यह काम कठिन मानते हैं लोग। करने में हिचकते हैं। जिस काम को हमारे यहां कठिन माना जाता है,बाहर उसी को करने के लिए दूर-दूर से कारीगर आते रहते हैं। सुरक्षित और असुरक्षित, संगठित और असंगठित का अंतर है यह। सुविधा और सुरक्षा इंसान की क्षमता में कमी लाती हैं।
कानपुर से और कई काम करने वाले आये थे लेकिन लैट्रिन की ठीक व्यवस्था न होने के कारण वापस चले गए। हमको बड़ी शर्मिंदगी लगी। इतनीं दूर से आये लोग व्यवस्था की कमी के चलते वापस चले गए। हमको हवा ही नहीं। फौरन तय किया कि जल्द से जल्द इसे ठीक कराना है।
लौटते में फिर कालोनी होते हुए आये। तमाम घरों के लोग घर छोड़कर जा चुके हैं -अपने-अपने घरों में। घर उजाड़ हैं। लोग-बाग हाउस बिल्डिंग एडवांस लेकर मकान बनवा रहे हैं। पहले घर रहने पर एच आर ए मिलने में समस्या होती थी। घर छोड़ने की अनुमति लेनी होती थी। अब बिना अनुमति घर छोड़कर एच आर ए ले सकने के नियम के बाद से घर तेजी से खाली हो रहे हैं। इलाके वीरान हो रहे हैं।
वहीं कुछ लड़के घूमते दिखे। हमने बिना मास्क घूमते टोंका तो एक ने हंसते हुए मास्क लगा लिया। बात करने पर पता चला फिजियो का काम करता था। अभी छूट गया। यह भी कि कुछ दिन गलत संगत में पड़ गया था। दारूबाजों के चक्कर में। उसके चलते ही एक्सीडेंट भी हो गया। पैर में चोट लग गयी। अब गलत संगत छोड़ दी। 6 महीने हुए दारू नहीं छुई।
कोई लड़का खुद बताये गलत संगत में पड़ने और उसे छोड़ सकने के बारे में यह सुनकर लगा कि मजबूत इरादे हों तो सुधरना सम्भव है। उसके बाद उसी बच्चे ने लगातार बहने वाले नल को दिखाया, बताया कि लोग किधर से आते हैं, चोरी करके चले जाते हैं।
वापस लौटते हुए दो बच्चे दिखे। साइकिल पर खड़े बतिया रहे थे। हम भी खड़े हो गए। बतकही में शामिल हो गये। दोनों हम उम्र बच्चे 20 साल के करीब। रिश्ते में मामा-भांजे। अलग-अलग कारणों से पढ़ाई छोड़कर काम मे लग गए।
दिन भर काम में जुटे बच्चों के मनोरंजन की बात करने पर सिफर मिला। बातचीत के दौरान सवाल-जबाब:
सवाल : कोई दोस्त हैं , उनसे बात होती है ?
जबाब : दोस्त हैं लेकिन बात-मुलाकात नहीं होती। टाइम ही नहीं मिलता।
सवाल: कोई सहेली ?
जबाब: वही तो 'काम' नहीं किया आजतक।
यह देखकर झटका नहीं लगा कि युवा पीढ़ी का यह नुमाइंदा विपरीत जेंडर से दोस्ती को 'गलत काम' मानता है। अपने समाज के बड़े हिस्से की सहज सोच है शायद। तमाम 'गलत कामों' की जड़ भी।
हम कुछ और पूछें-कहें तब तक हमको याद आया बहुत देर के निकले हैं हम। याद आते ही फौरन पैडल किक मारकर साइकिल स्टार्ट की और खरामा-खरामा चलते हुए घर में जमा हो गए।

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