1. यह गद्दार है ! यह शब्द खूब जबान पर चढा है। यदि कोई सौदा लेने जाय और दुकानदार कम तौले, तब यदि ग्राहक कहे , ’यार, पूरा तौलो। डण्डी क्यों मारते हो?’ तो दूकानदार हल्ला मचा सकता है, ’यह गद्दार है।’ भीड़ इकट्ठा हो जायेगी। जगह-जगह डण्डी मारी जा रही है और इसकी तरफ़ इशारा करने वाला गद्दार कह दिया जाता है।
2. एक तो भारतीय साहित्यकार और, विशेषकर हिन्दीवाला बहुत ही भोला होता है। उसके पास ’आत्मा’ नाम की ऐसी चीज होती है, जो सब कुछ सहज कर देती है। उसकी आत्मा में जो सहज उठ आता है, वह सत्य होता है।
3. कभी-कभी अशिक्षा ही आत्मा बन जाती है –कभी स्वरक्षण का छिपाव भी आत्मा का रूप ले लेता है, कभी-कभी आत्म-छल आत्म ज्ञान बन जाता है। कभी अवसरवाद भीतर बैठकर बोलता है और हम समझते हैं कि यह हमारी शुद्ध आत्मा बोल रही है। यह ’आत्मा’ बहुत अविश्वसनीय चीज है। एक तो यह बाहर नहीं देखने देती है और भीतर , न जाने क्या-क्या बातें सुझाती रहती है।
4. धर्म के नाम पर अपना देश न्योछावर होता है। धर्म के नाम पर विधवाओं को बेचने से लेकर दंगे तक हम कर लेते हैं।
5. भारत में अच्छी नौकरी लगने तक बुद्धिमान क्रान्तिकारी होता है। इसके बाद वह अंग समेटने में लग जाता है। आधी जिन्दगी क्रान्ति का बिगुल फ़ूंकने में काम आती है और शेष आधी कैफ़ियत देने में कि नहीं, मैं वैसा नहीं हूं।
6. जब तक कोई आन्दोलन अपने को लाभ पहुंचाये, तब तक उसमें रहना चाहिये। और जब उस विश्वास के कारण थोड़ा नुकसान उठाने का मौका आ जाये, तो झट दूर होकर उस सबको बुरा कहना चाहिये।
7. जिस अखबार पर दो-चार मानहानि के मुकदमें न चलते रहें वह अखबार नहीं सिनेमा का पर्चा हुआ !
8. हिन्दी में कोई किसी को तब तक साधु नहीं मानता जब तक वह पाठ्य-पुस्तक समिति का सदस्य न हो जाये।
9. नया लेखक बाजार में अपना माल खपाना चाहता है, इसलिये जमे हुये व्यापारियों के माल को घटिया कहता है। यह साहित्यिक विवाद नहीं , आर्थिक स्पर्धा है।
10. कवि में राजनीतिज्ञ और नेता उसी तरह छिपे रहते हैं जिस तरह मरी भैंस के चमड़े में जूते और सूटकेस।
11. अच्छा सफ़ल लेखक वही है, जो दिल्ली की तरफ़ मुंह करे और चला जाये बम्बई। ऐसे सफ़ल लेखकों की एक लम्बी सूची बन सकती है जिनकी दशा कुछ दिखती है पर वे जा रहे होते हैं किसी और दिशा में।
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