Sunday, October 04, 2020

कोरोना काल में साइकिलबाजी

 

आज बहुत दिन बाद साइकिलबाजी हुई। घर से निकलकर आईबी होते हुए स्टेशन की तरफ जहां तक सड़क दिखी वहां तक गए। सड़क खत्म होने के बाद रेल लाइन शुरू हुई। लौट आये।
मंदिर के पास चौराहे पर कुछ लोग तम्बाकू फटकारते हुए खड़े थे। बिना मास्क। कोरोना कहीं होगा भी तो तम्बाकू की फटक से भाग लिया होगा। ये दिहाड़ी कामगार थे। जिसको जरूरत ले जाये रोजनदारी पर। हमको लगा कि कहीं हमको भी कोई दिहाड़ी पर काम के लिए न ले जाये। ऐसा लगते ही थोड़ा बगलिया के खड़े हो गए। निठल्ले से कुछ कमाई हमेशा अच्छी पर बिना नाश्ते पानी के काम नहीं होता अपन से।
पास ही सड़क खुदी पड़ी है। बनना है उसको। पता चला ठेकेदार सड़क खोदकर गिट्टी, सीमेंट के लिए पैसे का इंतजाम करने गया है। पैसे के इंतजाम के बाद काम आगे बढ़ेगा। इस 'गरीब ठेकेदार' के पास कई काम हैं। हर जगह देरी और साधन का रोना। ठेकेदारों के आजकल ऐसे ही हाल हैं -'चाहे वो मरम्मत के काम का ठेकेदार हो या समाजसेवा का या देशसेवा। सेवा का हिसाब पूछने पर साधन का रोना।'
मेन रोड के पास एक नौजवान 50-60 सिलिंडर लिए खड़ा था। बताया कि गैस एजेंसी से लेकर डिलीवरी करते हैं। 20-30 रुपये हर सिलिंडर पर मिल जाते हैं। बीएससी किये हैं दीपक निगम। कोई काम नहीं मिला तो सिलिंडर बेंच रहे हैं। हमने पूछा -'डिलीवरी चार्ज तो दस रुपये होते हैं। तुमको 20-30 कौन देता है? बोले -'दे देते हैं लोग। 400-500 मिल जाते हैं रोज के।'
डिलीवरी की मोटरसाइकिल पर शिक्षा विभाग लिखा है। शिक्षा विभाग की गाड़ी गैस सप्लाई कर रही है। पता चला बाइक इनके पिता की है। पिता स्कूल में प्रिंसिपल हैं। आजकल स्कूल बंद हैं तो उनकी गाड़ी गैस बेंचने में सहायक हो रही है।
अपने देश की शिक्षा नीति और रोजगार नीति दोनों की साझा उपलब्धि है यह कि अपने ग्रेजुएट सड़क पर खड़े गैस सिलिंडर बेंच रहे हैं।
आगे निकलते देखा। बाउंड्री वाल जगह-जगह टूटी हुई है। जितने बार बनवाई जाती है उससे ज्यादा बार टूट जाती है। लोग भैंस, घोड़ा, गधे लाकर चराते हैं। लीद, गोबर करके चले जाते हैं। निवासी भी उसी टूटी दीवार से बने रास्ते से आते-जाते हैं। शार्टकट हर एक को सुगम लगता है।
स्टेशन की तरफ के रास्ते में चहल-पहल पूरी थी। बस वाले खुले मुंह शाहाबाद, पीलीभीत , पलिया की सवारियों के लिए आवाज लगा रहे थे। दूरी, मास्क और कोरोना का भय नदारद। हमीं अकेले मास्क लगाए थे। लोग हमको अजूबा समझ रहे होंगे।
स्टेशन के पास की दीवार से सटा हुआ फल वाला ग्राहक के इंतजार में खड़ा था। उसके पीछे सन्देश लिखा था :
कोरोना को हराना है,
मास्क जरूर लगाना है।
मास्क नारे की तरफ पीठ हुए फलवाला बिना मास्क खड़ा था। नारे की तरफ पीठ करके उसने नारे को भी छिपा लिया था ताकि बिना मास्क वाले ग्राहक को असुविधा न हो।
एक मास्क और कोरोना नारे के ऊपर 'नामर्दी का शर्तिया इलाज' का पोस्टर लगा था। नामर्दी के इलाज के पोस्टर ने कोरोना से बचाव के नारे को ढंक लिया था। नामर्दी सदियों पुरानी बीमारी है, कोरोना की उम्र अभी साल नहीं हुई। दूध के दांत भी नहीं टूटे अभी कोरोना के। जबकि नामर्दी बाबा आदम के जमाने की, बहुत सीनियर बीमारी है। कोरोना के बचाव की लिखाई के ऊपर नामर्दी के इलाज का पोस्टर ऐसी ही बात है जैसे किसी जूनियर ने सीनियर खलीफा के लिए अपनी कुर्सी छोड़ दी हो।
आगे जहां सड़क खत्म हुई वहां रेल लाइन पड़ रही थी। लोग सीमेंट की बोल्डर कंधे पर लादे हइस्सा करते हुए पटरी बिछा रहे थे। बगल में कीचड़ भरे रास्ते किनारे मेड़ पर पैर रखते हुए एक आदमी सर पर कुछ लादे चला आ रहा था। उसी के बगल में एक महिला सड़क किनारे गोबर के ढेर से कंडे पाथ रही थी।
सड़क की परात पर गोबर को आते की तरह मांडते हुए कंडे पाठ रही थी महिला। कंडे पर खाना बनाती होगी महिला। सरकार की उज्ज्वला गैस योजना इस महिला को बगलिया कर निकल गयी होगी। कल्याण योजनाएं भी बड़ी मनचली और नखरीली होती हैं। जहां मन होता है केवल वहां जाती हैं, बाकी जगह मटिया जाती हैं। कोई पूछता भी नहीं।पूछने पर क्या पता हड़का दें -'हम गए थे तुम्हारे पास। तुम मिले नहीं। हम लौट आए। हमारे पास फालतू टाइम थोड़ी है तुम्हारे इंतजार का।'
लौटते हुए एक संकरी फुटपाथ पर तीन बुजुर्ग बैठे दिखे। उम्र के चौथेपन को चुपचाप गुजरते देखते बुजुर्ग। दो लोगों की उमर 75 से ऊपर , तीसरे नब्बे पार। बताया - 'पल्लेदारी करते थे।' पल्लेदारी मतलब बोझा ढोने का काम। जिस जगह का नाम बताया उसके बन्द होने की सूचना भी दे दी साथ में।
75 पार वालों से हमको बतियाते देख 90 पार वाले बुजुर्ग ने आंखे खोलकर हम देखा। तकलीफ शुदा स्वर में पूछा -'आपको पहचाना नहीं।' पहचानते कैसे -'पहली बार तो मिल रहे थे।'
साथ के लोगों ने बताया -'ऊंचा सुनते हैं।'
हमने ऊंची आवाज में पूछा -'कैसे हाल हैं।'
सुनते ही बुज़ुर्गवार ने अपने हाथ खोलकर , पैर के पंजे दिखाते हुए दास्तान-ए-दर्द बयान करना शुरू किया। पोर-पोर का दर्द दिखाया, सुनाया। सारे दर्द की फोटोग्राफी चेहरे पर भी करते गए। तसल्ली से अपना दर्द बयान करके चुप हो गए। थकान या फिर दर्द के मारे आंख मूंद ली। हम कुछ देर और उनसे बतिया के आगे बढ़ लिए। क्या करते भी। बुजुर्गों के अकेलेपन और दर्द की कहानी सुनने के अलावा फिलहाल कुछ समझ भी नहीं आया।
बगल में ही एक छोटे कमरे में कुछ लोग कैरम खेल रहे थे। कैरम नया लगा, गोटिया पुरानी। कुछ गोटियों को तो देखकर पहचानना कठिन कि काली है या सफेद। एकदम दलबदलू जनप्रतिनिधि सरीखी जिसको देखकर जनता को पता नहीं चलता कि आजकल किस पार्टी के प्रति वफादार है। लेकिन खिलाड़ियों को गोटियों के रंगों का बखूबी अंदाज है। वे उनका रंग पहचानते हैं। वे सही गोटी पर ही निशाना लगा रहे थे। मन किया हम भी हाथ खेलने लगें कैरम लेकिन किसी ने 'लिफ्ट' नहीं दी हम वापस चल दिए।
स्टेशन के पास एक छोटा बच्चा एक छोटी बच्ची को अपनी जेब से निकाल कर चॉकलेट सरीखी कोई चीज खिला रहा था। बहुत प्यारी फोटो बनती अगर ले पाते। लेकिन हम उसको देखने में ही इतना तल्लीन हो गए कि फोटो लेने का ध्यान ही नहीं रहा।
रास्ते में एक बाबा जी अपने चेले के साथ निठल्ले बैठे बतकही में मशगूल थे। बगल की एक बछिया पर हाथ फेरते जा रहे थे। बछिया बाबागिरी के लाइसेंस की तरह लगी मुझे। आज जब हर तरह की नौकरियां छूट रही हैं ऐसे में बाबागिरी की नौकरी ही ऐसी है जो एक बार लगने के बाद कभी छूटती नहीं। इसकी कोई रिटायरमेंट की उम्र भी नहीं होती। शुरुआत हो जाए फिर जिंदगी भर टनाटन आराम।
लौटते समय दीपक फिर मिले। बताया 20-30 सिलिंडर निकाल चुके हैं। 400-600 कमा चुके होंगे। इतने समय में हम सिर्फ साइकिलियाते रहे।
घर के पास बुजुर्ग मिले। अक्सर मिलते हैं। बहुत करुण स्वर में , कभी रोते हुए भी, बताते हैं कि उनका लड़का उनको घर-खर्च नहीं देता। जबकि कानून के अनुसार उसको ऐसा करना चाहिए। कोई कानून की धारा भी बताते हैं जिसके अनुसार उसके खिलाफ कार्यवाही होनीं चाहिए। पता करने पर यह भी मालूम हुआ कि लड़का अपनी मां को खर्च देता है। मिलता है। लेकिन पिता को नहीं देता क्योंकि वो मां के साथ मार-पीट करते हैं। उनके शुरुआती बयान से मैं बहुत द्रवित हो गया। लेकिन किस्से के दूसरे पहलू सुनकर ताज्जुब भी हुआ और अफसोस भी कि आजकल बाप-बेटे के सम्बंध ऐसे हो गए हैं।
आज फिर बेटे के बारे में शिकायत बुजुर्ग ने। मुझे याद आया तो मैंने कहा -'हमें तो पता चला है कि आप अपनी पत्नी से मारपीट करते हैं। इस पर उन्होंने बिना किसी अपराध बोध के दुविधारहित अंदाज में कहा -'मियां-बीबी में आपस में लड़ाई-झगड़ा तो होता ही रहता है।'
सच क्या है मुझे नहीं पता लेकिन हर हफ्ते बुज़ुर्गवार मुझको अपने बेटे के खिलाफ कार्यवाही के लिए उकसाते हैं। कानून की धारा भी बताते हैं। हम फिर से उनको समुचित कार्यवाही का आश्वासन देकर पैडलियाते हुए घर में घुस जाते हैं।

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