Friday, March 02, 2007

तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली

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तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली


रवि रतलामी
तीन दिन से जीतेंद्र पीछे पड़े हैं होली पर लिखो, होली पर लिखो।
हम बोले लिखेंगे। हड़बडा़ते काहे हो। होली कहूं भागी थोड़ी जा रही है। आने दो होली को। उस पर भी लिखेंगे।
आज जीतेंद्र फिर कहने लगे-लिखो न जी जल्दी से। लिखते काहे नहीं। लिखोगे नहीं तो हम बोलेंगे नहीं तुमसे। खुट्टी कर लेंगे दो-तीन घंटे के लिये। बिल्कुल बात नहीं फिर चाहे जो हो जाये। तुम टिप्पणी भी करोगे तब भी हम हेंहेंहें तक नहीं करेंगे।
हम बोले-सोच रहे हैं। लिखते हैं।
ये बोले- तुम बड़े वो हो। अपने मन से न जाने क्या ऊट-पटांग लिखते हो। बिना सोचे-समझे। अब जब मैं कह रही हूं तब तुम नखरे मार रहे हो। तुम कितने निष्ठुर हो गये हो। तुम जैसा कठकरेजा हमने नहीं देखा आज तक। मैं भी बाबरी कैसे बौड़म पर रीझ गयी।

संजय बेंगाणी
हम बोले- अबे जीतू, तुम्हारे ऊपर से ई अमेरिकन महिला का भूत कब उतरेगा। वो दिन अब भूल जाओ जब तुम हमसे घंटों अमेरिकन महिला बनकर बतियाते रहे। अब वह बीती बात हो गयी। वो दिन वापस नहीं आ सकते। तुम खाली गाना गा सकते हो लम्बी सांस भरते हुये- कोई लौटा से मुझे बीते हुये दिन। कुछ तो शरम । तुम कइयों के ताऊ हो। इस उमर में ‘अमेरिकन बाई’ बनने की कोशिश मत करो।
जीतेंन्द्र हेंहेंहें करते हुये अपनी अमेरिकन महिला वाली आत्मा को झाड़-फूंक के फिर अपने उछल-कूद वाले अन्दाज में आ गये।
बोले- अच्छा यार अब कुछ लिखो। हमने तो अपना सारा पुराना होलियाना अपने पन्ने पर सजा दिया है।

अनूप शुक्ला
हम बोले-हां वो देख रहे हैं। जैसे गली मोहल्ले के चौराहे पर लोग कूड़ा-कचरा इकट्टा करके होलिका बनाते हैं ऐसे ही तुमने सारा माल जमा कर लिया होली तापने के लिये। तुमने तो कर लिया। अब हमें बताओ तो सही क्या लिखा जाये?
कुछ पुराने किस्से लिखो। न हो तो इश्क-फिश्क की कुछ लिख डालो। तुमने अभी तक अपना कौनो किस्सा नहीं सुनाया। तुम पता नहीं काहे इतना डरते हो? हमने देखो सुना दिया अपने इश्क का किस्सा चाहे बाद में कितना ही डांट खाये हों।
हमने कहा- यार किस्सा हो तब न सुनाया जाये। सागर ने पूछा भी था-लगता है आपने वेलेंटाइन डे वाले दिन भाभी को प्रपोज किया था।
हमने जवाब दिया था- भैये यही तो रोना है कि हम बिना प्रपोज किये ही डिस्पोज हो गये।

नीरज दीवान
आज ही मैंने अखबार में पढ़ा कि कैसे सरोद वादक ‘अमन अली खान’ ने ऐन वेलेंटाइन डे वाले दिन घुटने के बल झुक कर ‘अवंतिका’ को प्रपोज किया- तुम मुझसे शादी करोगी? वह मुस्करायी और बोली हां। हमें मन किया तब न सही अब हम झुक जाये। हसरत पूरी कर लें। लेकिन झुकने में दर्द होने लगा। तन के खड़े हो गये। तो भैये हमारे भाग्य में कहां इश्क। हम तो पंकज बेंगाणी की तरह जिससे जुड़ गये उसी में इश्क की सम्भावनायें तलाश रहे हैं।
जीतू बोले- धिक्कार है तुम्हारे जीने पर। बिना इश्क के जीना भी कोई जीना है? हमें तुम पर बहुत गुस्सा आ रहा है। मन तो करता है नारद पर तुम्हारा ब्लाग बैन कर दें। फुरसतिया को कैटेगरी एक से उठाकर कैटेगरी पांच पर पटक दें। फिर तुम दुनिया भर में ई-मेलियाते रह जाओगे- “हमरी पोस्ट पढ़ो, हमरा ब्लाग पढ़ो!”
चिट्ठाचर्चा में रोते रहोगे -हमारी कोई पोस्ट देख नहीं पाता। नारद के खिलाफ़ गाना गाते रह जाओगे। अब तुम कोई मानसी जैसे वी.आई.पी. ब्लागर तो हो नहीं कि झट से तुम्हारे कैटेगरी फिर से एक कर देंगे।

अनूप
हमने मिमियाते हुये विरोध प्रकट किया- भाई अगर हम किसी से आंख नहीं लड़ा पाये तो इसमें हमारा क्या दोष! हमारी आंख का क्या दोष?
जीतेंन्द्र दहाड़ते हुये बोले-क्या बात करते हो! तुमको यह तक पता नहीं कि-

पत्थर है वो आंख जो किसी से लड़ी न हो,
वो इश्क क्या है जिसमें खटिया खड़ी न हो।
इसलिये दादा, ये जीवन अकारथ मत जाने दो। दुर्घटना युक्त जीवन घटना विहीन जीवन से श्रेयस्कर है। कुछ करो। ‘ब्लाग मंडूक’ बन बने रहो। कुछ इश्क-विश्क करके अपने जीवन को सार्थक बनाओ। जीतेंन्द्र की आवाज में एक सच्चे ब्लागर का दुख टपक रहा था।
हमने कहा- यार अब इस उमर में क्या खाक मुसलमां होंगे। हमारी ये कोई इश्क फरमाने की उमर है।
अरे क्या बात करते हो। तुम कहां पुरानी बातें करते हो। इश्क का ये जुगाड़ी लिंक देखो-


न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन
जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन।
इसमें रजिस्टर करो और शुरू हो जाओ। इट्स कूल। और जहां तक उमर के लिये हिचक रहे हो तो ये देखो खास तुम्हारे लिये नया फार्मूला मिला है-


कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता।

जीतेंद्र
हमने कहा- चलो अच्छा हम देखते हैं। अभी तो हमें जाना सृजन शिल्पी को दर्शन देने स्टेशन। वो आने और जाने वाले हैं सपत्नीक।
जीतू बोले- जाओ हमारी तरफ़ से झप्पी ले लेना।
हम बोले- शरम नहीं आती पप्पी लेने के लिये कह रहे हो।
जीतू बोले -अबे बहिरे बाबा, हम झप्पी लेने के लिये कह रहे हैं, झप्पी। जादू की झप्पी। जैसी वाली संजू लेता है नकल करके स्कूल में जाने के बाद।
बहरहाल कल फिर हम राजीव टंडन के साथ मिलने गये सृजन शिल्पी से स्टेशन। उनको हम कई बार ‘सृजन शिल्पी’ की जगह सिर्फ ‘शिल्पी‘ लिखते रहे काहे से कि हमें बारहा में ‘सृजन‘ लिखना आता नहीं था। इस लिंग परिवर्तन पर एक बार चैटियाते हुये ‘सृजन शिल्पी’ ने आपत्ति भी की। तब हमें मजबूरन ‘सृजन‘ लिखना सीखना पड़ा। मजबूरी क्या-क्या नहीं कराती।

गिरिराज जोशी
हम राजीव टंडन के साथ तमाम बातें करते रहे, सृजन शिल्पी का इंतजार करते रहे। इस बीच हमनें प्रत्यक्षा जी की ‘कविता रचना प्रक्रिया’ पर भी तवज्जो दी। हमारा मत है कि वे प्रेम कवितायें बहुत अच्छी लिखती हैं। उनकी कुछ प्रेम कविताऒं की रचना प्रक्रिया का अध्ययन करके हमने तुकबंदी की वे अपनी कवितायें किस तरह लिखती हैं-

पहले एक लाया जाये मोटा सा सिगार,
उसमें फिर लगाया जाये लाइटर शानदार
उससे फिर होगा जो धुंआ सा तैयार
उसमें फिर मिलायी जाये खुशबू जानदार
सबको फिर हिलाया जाये कई-कई बार
इससे जो बनेगा वही होगा सच्चा मेरा प्यार!
हालांकि राजीव जी बोले कि ऐसा लिखना ठीक नहीं होगा क्योंकि सिगार, सिगरेट अब प्रतिबंधित भी हो गये हैं और मंहगे भी। लिहाजा अब प्यार की कविताऒं के लिये वैकल्पिक उपाय खोजने पड़ेंगे। हमने उनकी बात मानते हुये ये ऊपर वाली लाइनें लिखने का विचार स्थगित कर दिया।
प्यार की बात चले और प्रियंकरजी छूट जायें कैसे हो सकता है भला ऐसे। राजस्थानी खून गर्म हो जायेगा। उनकी पहली प्रेम पाती बकरी चबा गयी। क्या हाल हुआ होगा हम कल्पना कर सकते हैं-

बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल
जो बकरी चिट्ठी खा गयी उसका कौन हवाल।

समीर लाल
चलते-चलते बात उड़नतश्तरी की होने लगी। कल ही उन्होंने कल गुलगुले बांटे अपनी पहली वर्षगांठ के उपक्ष्य में।
बेचारे समीरलाल अब किसी काबिल नहीं रहे। पहले लोगों ने साजिश करके इनको तरकश का इनाम जिता दिया। ‘उड़न तस्तरी को वोट दो’ की तख्ती ये सोते में लगा के सोते रहे। सपने में जो भी आता/ आती उससे कहते हमको वोट दो या अपना ईमेल का आईडी/ पासवर्ड बताओ नहीं तो हमारे सपने से बाहर चली जाओ। यहां हमारे वोटर के सिवा और किसी का भी प्रवेश वर्जित है। अब बाहर कनाड़ा में गजब की ठंड। आंख से निकला पानी तक पलक के नीचे आते ही जम जाता। ऐसे में कौन हिम्मत करे बाहर निकलने की लिहाजा जो लोग इनके अपने में आये उन्होंने इनको जिताया। सबको अपनी जान प्यारी होती है भाई! लेकिन अब बताओ समीरलाल जी का कोई भविष्य है? हिंदी चिट्ठाजगत के दोनों इनाम वह जीत चुके। अब कौन सा इनाम जीतेंगे? ले-देकर शब्द युग्म बचा है लेकिन वहां कापी जंचती हैं ऐसे खाली वोटिंग से इनाम नहीं मिल जाता। और फिर भैया उड़नतश्तरीजी, उड़ने वाली चीजों को हल्का होना चाहिये लेकिन आप अपने पर वजन लादते जा रहे हैं कभी ये इनाम, कभी वो इनाम। ये भी कोई बात हुयी भला! हम इनके लिये तो यही कह सकते हैं-
लिखत,पढ़त, विंहसत रहत, इधर-उधर टिपियात,
हंसत-फंसत, खिलखिल करत पाठक सब इठिलात।
पाठक सब इठिलात, मुदित ये पुलकित इनका गात
‘आप सभी का आभारी कह’, विनवत झुकि-झुकि जात
कह ‘अनूप’ कविराय ‘समीरकी’ ऐसेइ चलती रहे जुगत
पाठक सबरे मगन रहें पढ़ि-पढ़ि इनकी लिखत-पढ़त!

पंकज बेंगाणी
यह मुंडलिया सुनते ही ट्रेन ऐसे ही अचानक हमारे बगल में आकर खड़ी हो गयी जैसे कोई नई पोस्ट लिखते ही समीरजी के काबिल चेले गिरिराज जोशी उस पर टिप्पणी करने को कहने के लिये कब आकर खड़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। बहरहाल, लंबे इंतजार के बाद ट्रेन का आना सुखद अनुभव रहा। ट्रेन के डिब्बे से सृजन शिल्पी उतरे। मिला-भेंटी हुयी। फिर कुछ देर वे लखनऊ जाने वाली ट्रेन में बैठे रहे। बाद में ट्रेन को आगे बढ़ता न देखकर हम लोग बस स्टेशन की तरफ़ बढ़े। करीब एक घंटे की मुलाकात के बाद हमने उनको लखनऊ जाने वाली बस में जमा कर दिया। आशा के अनुरूप उनकी आगे की ट्रेन छूट गयी थी और वे कानपुर और लखनऊ दोनो जगह आधा-आधा किराया कटाकर आज शान से ससुराल पहुंचे होंगे।
ससुराल के नाम पर ही एक किस्सा पुराना है लेकिन सुनानें में कोई हर्जा नहीं है। अभी होली में न सुना पाये तो कब सुनायेंगे।
एक नव विवाहित दूल्हा पहली-पहली बार अपनी ससुराल गया। वहां आव-भगत देखकर वह इतना खुश हो गया कि एक दीवार पर टिप्पणी लिखी-
ससुरारि सुख की सार ( ससुराल सुख की खान है) । उसकी सलहज समझदार थी। उसने देखा तो नीचे लिख दिया- पर रहै

धुरविरोधी
दिना दुइ चार (लेकिन वहां दो चार दिन ही रहना चाहिये।) दामाद ने अगले दिन जब देखा तो उसका माथा ठनका और उसने प्रतिप्रश्न किया- और जो रहै माह पखवारा ( अगर महीन पन्द्रह दिन रहे तो)। सलहज ने अगले दिन जवाब दिया- तौ हाथ मां खुर्पी औ बगल मां खारा मतलब तब घास छीलने और जानवर चराने के काम में लगा दिये जाओगे।
इसका किसी नये ससुरालिये से संबंध नहीं है। ‘सृजन शिल्पी’ से तो बिल्कुल्लै नहीं काहे से कि वे पहली बार नहीं जा रहे हैं और दो दिन बाद ही लौट रहे हैं।
ये रही हमारी आज की होली की पहली किस्त। अब आगे सोमवार तक यही माहौल रहेगा यहां।इस बीच कोई हमसे गम्भीरता की अपेक्षा न करे। हम मौज-मजे के मूड में हैं। यहां सिर्फ़ और सिर्फ मौज होगी और कुच्छ नहीं। आखिर हम अपने जीतू का दिल कैसे तोड़ दें। वो हमारी अनजाने ही सही चैट दोस्त जो रह चुकी हैं। माफ़ करियेगा रह चुके हैं।
आज की फोटो-कार्टून तरकश से लिये गये हैं। कार्टून का पूरा मजा लेने के लिये और होली के टाइटिल देखने के लिये तरकश देखिये। मेरी पसंद में आज आपके लिये भारत के प्रख्यात शायर ‘ प्रोफेसर वसीम बरेलवी’ का गीत खासतौर से तमाम टेपों के बीच से खोजकर यहां पोस्ट किया जा रहा है। हमारी पिछले साल की होली से संबंधित पोस्टें यहां देखिये:-
बुरा मान लो होली है
भौंरे ने कहा कलियों से
आइडिया जीतू का लेख हमारा
आप सभी को सपरिवार होली की मंगलकामनायें।
मेरी पसंद

तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
तन से सारे रंग भिखारी मन का रंग सोहाया
बाहर-बाहर पूरनमासी अंदर-अंदर आया
अंग-अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहुत पर मैं कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहाना रंग जमाना रंग बड़ा दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!

-वसीम बरेलवी

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