Tuesday, November 20, 2018

सपने में सांड



मुश्किल है। अब सपने में भी आदमी नहीं दिखते। हर तरफ आदमी का अकाल चल रहा है। दिखते ही नहीं। दो दिन पहले सपने में कुत्ता काट गया। अभी उससे उबरे भी नहीं थे कि कल दो सांड दिखे सपने में।

सांड का सपना सुनाने के पहले आपको बताएं पहले हमको सपने में इम्तहान और बस स्टैंड/रेलवे स्टेशन दिखता था। दिखता था कि इम्तहान आने वाले हैं, तैयारी हुई नहीं है। बस/ट्रेन का समय हो गया है और स्टेशन पहुंच नहीं पा रहे। भटक रहे हैं।

हमारे पहले के सपने शायद तमाम अधूरे पड़े कामों के चलते आते हों। काम बाकी हैं, हो नहीं रहे हैं। सपने में आकर वे मुंडी खटखटाते हों, हमको कब हिल्ले लगाओगे। काम पूरे न होने के पीछे के पीछे कारण शायद अतिआत्मविश्वास रहता हो कि हो जाएगा, कौन प्रलय आ रही है। वो शेर है न :
मैं जिंदगी पर बहुत इतवार करता था
इसी लिए सफर न कभी शुमार करता था।
शेर याद से लिखा। शायद कुछ गड़बड़ हो। मतलब यही है कि हमको जिंदगी पर इतना भरोसा था कि कोई काम शुरू ही नहीं करते थे।

हां तो हम सपने में सांड के बारे में बता रहे। यह बात गद्य में बता रहे हैं। कविता लिखते तो 'सपन-सांड' से शूरु करते। अनुप्रास अलंकार आ जाता। अलंकार की दर्शनीय छटा आ जाती। कविता शुरू होते ही खूबसूरत हो जाती। कविता में खूबसूरती आसानी से आ जाती है। इसीलिए लोग कविता ज्यादा लिखते हैं। ख़ूबसूरती की आड़ में तमाम बदसूरती खपाते हैं।

हां तो सपने में जो सांड दिखे वे बीच सड़क पर एक दूसरे से भिड़े हुए थे। सींग भिड़ा रहे थे, ऊपर उछलकर टांगे लड़ा रहे थे। सींग भिड़ते तो देख चुके हैं पहले भी लेकिन टांगे उछालकर लड़ते सांड पहली बार दिखे। ऐसा लग रहा था कि कोई फाइटर डायरेक्टर इनको निर्देशित कर रहा है । स्टंट सिखा रहा है- 'ऐसे लड़ बे, इफेक्ट आएगा।' लड़ाई में इफेक्ट न आये तो बेकार।

सांड लड़ते देख हम डर रहे थे कि आपस में लड़ते हुए वो हम पर न आ गिरे। हमको न धकिया दें। उनके तो धक्के से ही हमारा काम हो जाएगा। वो तो शुक्र मनाये कि सपना ज्यादा देर चला नहीं। सांड लड़ते रहे, सपना खत्म हो गया। लगता है हमारे 'सपना- मन' में भी हमारी आदतें आ गयी हैं। टीवी पर कोई प्रवक्ता लड़ता देखते ही हम चैनल बदल देते हैं। सपने में भी आदत बरकरार रही। सांड भिड़ंत देखी, सपना स्विच ऑफ कर दिया।

हमने तो सपना स्विच ऑफ कर दिया। लेकिन क्या पता बाद में दोनों सांड एक ही थान पर खड़े दिखते। दोनों को लड़ाने वाला स्टंट मैन दोनों की पीठ सहलाते हुए कहता-'बहुत अच्छा लड़े तुम दोनों। गुड इफेक्ट, ग्रेट ब्वायज।'

शायद दोनों सांड जुगाली करते हुये पूंछ हिलाकर उसको आंखों ही आंखों धन्यवाद बोलते।

सपने का मतलब बताया जाए। वैसे हमारे एक मित्र जिनकी सब खिल्ली उड़ाते हैं ने बताया कि यह आने वाले समय में चुनाव का सीन है। सांड आपस में लड़ते राजनीतिक दलों का प्रतीक हैं जिनसे बाजार तरह तरह के स्टंट करवा रहा है। तुम उसमें आम जनता के प्रतीक हो जो उनकी लड़ाई से भयभीत हो। कहने का मतलब जनता चुनाव से डरी हुई है।

हमने मित्र की बात की बेवकूफी की बात कहकर उड़ा दिया। दफ्तर चल दिये।

रास्ते में एक घोड़ा दिखा। बोझ के कारण बेचारा सड़क पर बैठ गया। दुष्यंत कुमार का शेर लागू नहीं होता जानवरों पर वरना सुना देता :
"मैं सजदे में शामिल नहीं था, धोखा हुआ होगा,
ये जिश्म बोझ से दोहरा हुआ होगा।"

बहरहाल घोड़े ने बीच सड़क अपने ऊपर लदे वजन से समर्थन वापस ले लिया। तांगे की सरकार बीच सड़क बैठ गयी। बाद में घोड़े को सहला, फुसला और जोर लगाकर खड़ा किया गया। घोड़ा अनमने मन से उठा और बेमन से चल दिया।

हम चुपचाप कार में बैठे घोड़े का गिरना, उठना और चल देना देखते रहे। बाद में फ़ोटो खींच लिए। आम नागरिकों की तरह हरकत किये जो सड़क पर सब कुछ होता देखता है । कुछ बोलता नहीं है। डरता है कि बोला तो निपटा दिया जाएगा। निपट जाएगा।

इसकी व्याख्या क्या करें। आप खुद समझिए। आप खुद समझदार हैं। आप देश की जनता हैं। जनता को समझदार होना लाजिमी है।


Saturday, November 17, 2018

शराफत का लालच


अठारह रुपये की चाय। बताओ भला।
सबसे पहले बाहर की चाय पीना शुरु किये थे 1981 में। इलाहाबाद में। 30 पैसे की एक चाय। कल बनारसी टी स्टॉल वाले ने 18 रुपये धरा लिए। 37 साल में 60 गुनी मंहगी हो गयी है चाय। मोटा मोटी हर साल क़ीमत दोगुनी हो रही।
लेकिन यह तो बनारसी टी स्टॉल की बात हुई।
शहर में अभी भी कई जगह 5 रुपये की एक चाय मिलती है। उतना भी मिलती तो कई जगह 100 रुपये की भी है। उससे तुलना करेंगे तो समझ लो आग ही लग जायेगी।
कहने का मतलब चाय के दाम के दाम सही में कितने बढ़े इस पर कुछ कहना मुश्किल काम है। हर अखबार अपने हिसाब से अलग दलों की सरकार बनने वाले सर्वे दिखाता है वैसे ही चाय के दाम दुकान के हिसाब से बदलते हैं।
बनारसी टी स्टॉल पहले मोतीझील के पास था। सुनते हैं सेल्स टैक्स वालों से कुछ लफड़ा हो गया , शायद लेनदेन में। वह दुकान अंततः बन्द हो गई। लब्बोलुआब यह निकला कि सरकारी मशीनरी से पंगा नहीं लेना चाहिए।
लेकिन बाद में अस्सी फ़ीट रोड पर दुकान खुली। एक जगह और भी खुली। एक कि जगह दो दुकान हो गईं। इसका लब्बोलुआब यह निकला कि बढ़ोत्तरी के लिए पंगा फायदेमंद होता है।
अब आगे पीछे दो लब्बो लुआब हो गए। दोनों में कौन ज्यादा फायदेमंद है यह कहना मुश्किल। आप जिसको ठीक समझें ग्रहण कर लें। हम किसी की गारंटी नहीं लेते। वैसे भी फैशन के दौर में गारंटी की बात करना बेवकूफी की बात है। करनी नहीं चाहिए लेकिन अब तो सबको पता चल गया कि बेवकूफी का सौंदर्य अद्भुत होता है इसलिए अगर कर भी ली गारंटी की बाद फैशन के दौर में गारंटी की बात तो कोई आफत नहीं आ जायेगी।
चलते चलते सोचते हैं कि व्यंग्य की कोई बात कर डालें। बात बहुत ऊंची सोची थी कहने के लिए लेकिन फिर याद आया कि सुरक्षा मानकों के हिसाब से 3 फ़ीट से ऊपर काम करने के पहले संरक्षा उपकरण का इस्तेमाल करना चाहिए। सुरक्षा अधिकारी की अनुमति ले लेनी चाहिए। अब सुबह-सुबह यह सारा तामझाम कहाँ से किया जाए।
व्यंग्य के बारे में ऊंची बात कहने में सुरक्षा का तामझाम की बात तो हमने ऐसे ही कही। असल बात यह है कि कल आलोक पुराणिक ने टेढ़ी बात कहते हुए कहा -'व्यंग्यकार मूलतः हरामी होता है।'
आलोक पुराणिक अक्सर मंचीय मजबूरी के चलते साथ में मौजूद व्यंग्यकारों को ऊंचा व्यंग्यकार बताते हैं। लोगों को खुश होने की बजाय समझना चाहिए कि वे मूलतः उनके बारे में कह क्या रहे हैं। हमारे प्रति आलोक पुराणिक का खालिश प्रेम भी देखिए कि उन्होंने हमको कभी व्यंग्यकार नहीं कहा , हमेशा वृत्तान्तकार कहा।
लेकिन अब मान लो हम व्यंग्य के बारे में कोई ऊंची बात कह डालें तो हमको कुछ लोग जो शरीफ माने भले न लेकिन लिहाज के मारे कहते हैं उनको बड़ा खराब लगेगा। उनको कष्ट होगा कि जो बात उनकी समझ में सिर्फ उनको पता थी वह वास्तव में सबको पता है।
ये मुआ शराफत का लालच हमको ऊंचा व्यंग्यकार बनने से रोकता है।

Monday, November 12, 2018

लेखन एक संजीवनी की तरह है

समय को पहचानिये। खराब समय को बदलिए। खराब हालत बहुत दिन तक हम पर हावी न हो सकें हमें यह देखना होगा। उसके लिये मेहनत करनी होगी। वक्त को नजरअंदाज मत कीजिये। नजर अंदाज करेंगे तो वक्त आपको छोड़कर आगे चला जायेगा। उसके बाद वक्त आपका होगा या नहीं , अच्छा होगा या बुरा , यह कहा नहीं जा सकता।
ये बातें कल प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर जी ने कथाकार गीतांजलि श्री Geetanjali Shree के उपन्यास ’रेत समाधि’ पर हुई चर्चा के अवसर पर अध्यक्षीय संबोधन देते हुई कही। चर्चा मर्चेन्ट चेम्बर हाल में हुई।
चर्चा का समय साढे तीन था। हम ठीक समय पर पहुंच गये। वहां अमरीक सिंह दीप, अनीता मिश्रा और अन्य कुछ लोग आ गये थे। कम लोग लगे। लगा कि ज्यादा लोग आयेंगे नहीं। अनीता मिश्रा को संचालन करना था। हमने उनसे किताब के बारे में पूछा तो उन्होंने पर्चा आउट करने से मना किया लेकिन सार संक्षेप बता दिया कि इस उपन्यास में लड़की और उसकी मां की कहानी के जरिये आज के समय पर बात की गई है।
हमने वहीं हाल के मौजूद स्टॉल से किताब खरीद ली। राजकमल की पुस्तक मित्र योजना का हवाला देकर २५% छूट सहित। साथ में गीतांजलि श्री जी की अन्य किताबें माई और प्रतिनिधि कहानियां भी लीं। ३७६ पेज का उपन्यास ’रेत समाधि’ २९९ रुपये का है। ९९ मतलब बाटा प्राइस। छूट मिलाकर २२४ का पड़ा।
कुछ देर में हाल भर गया। सभा के अध्यक्ष गिरिराज किशोर जी आ गये। उनका कस्तूरबा गांधी पर लिखा उपन्यास हाल ही में कानपुर विश्वविद्यालय के पाढ्यक्रम में शामिल किया है। कथाकार राजेन्द्र राव जी भी आ गये। धीरे-धीरे करके हाल भर गया। नीलाम्बर कौशिक जी भी आये। करेंट बुक डिपो के अनिल खेतान जी ने मुझे इस कार्यक्रम की जानकारी दी थी वे भी आ गये। कुछ देर में गीतांजलि श्री जी भी आईं। हमने राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी जी की कलम उधार लेकर गीतांजलि श्री जी के ऑटोग्राफ़ ले लिये।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुये अनीता मिश्रा ने गीतांजलि श्री के बारे में बताते हुये किताब का संक्षिप्त परिचय देते हुये अशोक माहेश्वरी जी को आमंत्रित किया। अशोक जी ने राजकमल प्रकाशन का परिचय देते हुये बताया कि इसकी स्थापना के ७० साल होने वाले हैं। गीतांजलि श्री जी के लेखन के बारे में भी बात करते हुये उन्होंने कहा – ’उनकी सिग्नेचर टोन एक अजीब तरह का फ़क्कड़पन, एक अजीब तरह की दार्शनिकता, एक अजीब तरह की भाषा और एक अजीब तरह की रवानी। लेकिन ये सारी अजीबियतें ही उनके कलाकार को व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। यहां सब परम्परा से हटकर भी है और परम्परा में समाहित भी।’
उपन्यास पर बात करने के लिये सबसे पहले दिनेश प्रियमन जी को बुलाया गया। अपनी साफ़गोई का ठीकरा अपने शहर पर फ़ोड़ते यह कहते शुरुआत की – ’ उन्नाव का आदमी हूं इसलिये साफ़ बात कहता हूं।’
आगे अपनी बात कहते दिनेश प्रियमन जी ने कहा- “यह थोड़ा ऊब का उपन्यास है। आज समय कम है। जिस कथा भूमि को लेकर गीतांजलि जी ने उपन्यास लिखा है उसका फलक बहुत व्यापक है। इसने स्त्री विमर्श की नई खिड़कियां खोलता है। यह उपन्यास एक अफसर परिवार की विधवा की कहानी है। मैंने उनका उपन्यास माई नहीं पढ़ा अतः कह नहीं सकता कि उससे यह कैसे रिलेट करता है। इसमें आज का बाजारवाद, भूमंडलीकरण दार्शनिक तरीके से चित्रित हुआ है।
शुरुआत में मुझे लगा कि क्या निराला की किसी कविता से ली गयी पंक्ति है। उपन्यास का शीर्षक पढ़कर निराला की कविता पंक्ति याद आई:
स्नेह निर्झर झर गया है
रेत ज्यों तन रह गया है।
मुझे प्रो जीडी अग्रवाल भी याद आये। रेत समाधि से उनका निधन भी याद आया। उन्होंने 112 दिन उपवास करके देह त्यागी। अपने समय की बात कहता हुआ आने वाले समय का संकेत देता है ’रेत समाधि’। भविष्योन्मुख है यह उपन्यास।
भाषा और शब्द संयोजन में बहुत तोड़ फोड़ की है गीतांजलि जी ने। हिंदी पट्टी के अनेक भूल से गये शब्द तद्भव रूप में दिखते हैं। भूले बिसरे शब्दों को जीवित किया है।
चीजों की नई प्रस्तुति इस उपन्यास की उपलब्धि है।“
दिनेश प्रियमन जी के बाद दया दीक्षित जी ने अपनी बात कही। उन्होंने उपन्यास के प्रकाशन के लिये राजकमल प्रकाशन के प्रकाशकीय विवेक को सलाम करते हुये बात की शुरुआत की।
दया जी ने अपना लिखा हुआ वक्तव्य पढते हुये कहा-
“इस कायनात में अनेक नेमतें अपनी विशेषताओं के साथ विद्यमान हैं। लेकिन विडंबना है कि सभी विशेषतायें हरेक को एक तरीके से नहीं प्रभवित कर सकती। सब पर अलग-अलग प्रभाव छोड़ती हैं।
यह बहुपाठीय उपन्यास है। लेखिका ने यह सुविधा प्रदान की है कि अपने हिसाब से हम इसका पाठ कर सकते हैं।
इसकी भाषा विलक्षण है। शब्दों की प्रयोग शीलता ऐसी है जिनमें आकर्षण भी हैं, विकर्षण भी है।
सफ़ल लेखक वह है जो अपने लेखन के माध्यम से समकालीन समस्याओं को उठाये। गीतांजलि इसमें पूर्णत: सफल हैं।
प्रेम का उद्दात स्वरूप इस उपन्यास का प्राणाधार है।“
खान अहमद फारुख साहब ने अपनी बात कहते हुये कहा- “जब बहुत बुरा वक्त आता है तो बशारतें (खुशखबरी) आती हैं। बुरे वक्त के लिए यह उपन्यास बशारत है।“
आगे खुलासा करते हुये फ़ारुख साहब ने कहा –“ यह उपन्यास मुश्किल है यह अफवाह मेरी ही उड़ाई हुई है। गीतांजलि का उपन्यास माई मैंने उर्दू में पढ़ लिया था।
इंतजार हुसैन ने माई का द्विवाचा उन्होंने किया है। सरहद की दोनों तरफ गीतांजलि उतनी ही पापुलर है।
माई से जोड़कर मैंने इसे पढ़ना शुरू किया। लगा कि माई की रूह उपन्यास में आ गई है।
कहानियां कभी मरती नहीं। बड़ी ढीठ होती हैं। सबने इस नेवले की कहानी सुनी होगी जिसके मुंह में खून देखकर उसके मालिक ने यह सोचकर उसे मार दिया कि उसने उसके बेटे को मार दिया है जबकि वह नेवला सांप से बेटे को बचाने के लिए उसको मार दिया है। दुनिया की तमाम भाषाओं में यह अलग अलग तरह से पढ़ी गयी है।
इस उपन्यास की खासियत है कि यह लाउड नहीं है। सहज है। इस उपन्यास की इस समय बहुत जरूरत थी। मोहब्बत की कहानी है यह उपन्यास।
जब बहुत बुरा वक्त आता है तो बसारत भी होती हैं। बुरे वक्त के लिए यह उपन्यास बसारत है। “
फ़ारुख साहब के बाद कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी जी ने उपन्यास के बारे में अपनी राय रखी।
उन्होंने बताया कि उनका वक्तव्य पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान का है। युध्द भूमि में लड़ते सैनिक का बयान। उन्होंने बताया कि इस उपन्यास पर लिखने वाले लेख का शीर्षक होगा - 'हद सरहद के आईना खाने में' ।
उपन्यास की दुरुहता पर किसी आलोचक को उद्दरित किया –’शेक्सपियर ने दस शक्तिशाली लगातार वाक्य कहीं नहीं लिखे।’
पाब्लो पिकासो के हवाले से कहा – ’दुनिया ही बेमतलब है।’
उपन्यास पर बात करते हुये पंकज चतुर्वेदी ने कहा – “मतलब भर की कविता के श्रेष्ठ अंश इस उपन्यास में मिले।
यह बहुत सारी विधाओं का संश्लेषण है। इसमें इतिहास है, दार्शनिकता है, संस्मरण है।
आज भारत का मध्यवर्ग आक्रामक है, मदमस्त है, तमाम समस्याओं की अनदेखी देखी करके मेरा भारत महान का नारा लगाने में लगे है।
जिसके ऊपर बीत रही है उसकी कथा कहने वाला उपन्यास है।
वामपंथियों की विफलता रही कि वे अपने समाज को शिक्षित कर पाए। आम लोगों को कहिये की फासीवाद आ गया तो लोग समझेंगे की कोई त्योहार आ गया है।
उपन्यास में ठहराव है, भुलभुलैयापन है, इसमें गद्य कब कविता हो जाये और कविता कब लौट आए कह नहीं सकते।
आप इसे कहीं से भी पढ़ सकते हैं। कहीं खत्म कर सकते हैं। पूरा पढ़कर भी लगेगा कि अधूरा है। आधा पढ़कर भी लग सकता है अधूरा है।
राजेन्द्र यादव की आत्मकथा मुड़ मुड़ कर देखता हूँ की तर्ज पर इस उपन्यास के बारे में कहा जा सकता है – ’रुक रुक कर देखता हूँ।'
उपन्यास में उन कई लेखकों के नाम हैं जिन्होंने विभाजन की त्रासदी पर लिखा है। विभाजन की त्रासदी पर उन्ही लोगों ने लिखा जिन्होंने इसे सबसे ज्यादा भोगा है। लेकिन कुछ नाम छूट भी गये हैं जैसे –’अज्ञेय, यशपाल आदि।’
पंकज जी ने उपन्यास के कुछ अंश भी पढे। ’ हर कहानी होती ही है पार्टीशन स्टोरी।’- यह एक समुद्र जैसा वाक्य है जिसमे मेरे जैसा पाठक बहुत दिन तक उतराता रहेगा।
राजेन्द्र राव जी ने उपन्यास पर अपनी राय जाहिर करते हुये कहा-’ यह उपन्यास अद्भुत है, अलग है, मुश्किल है। कोई जरूरी भी नहीं कि कोई उपन्यास चन्द्रकान्ता की तरह आसान लगे।’
उन्होंने आगे आह्वान किया –’ पढने में भी मेहनत करनी चाहिये। पढिये कसरत कीजिये। पहलवान की तरह। पढिये इसे। आनन्द उठाइये।’
प्रियंवद जी के आने तक समय काफ़ी हो चुका था। उन्होंने अपनी बात की शुरुआत इस शुरुआत इस शेर से की
’कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई ।’
उपन्यास के शिल्प पर बात करते हुये प्रियंवद जी ने कहा-’भाषा के स्तर पर इस उपन्यास के पहले भी बहुत प्रयोग हो चुके। जेम्स जायस ने लिख है - शब्द सब कुछ कह सकते हैं।’
कृष्ण वलदेव वैद्य के उपन्यास ’नर नारी’ में भी कोई पूर्णविराम नहीं है। जब कोई सोचता है तो वह व्याकरण में नहीं सोचता। कामा फूल स्टॉप में नहीं सोचता।
पंकज चतुर्वेदी की बात ’ विभाजन पर उन्होंने लिखा जिन्होंने भोगा’ पर सवाल उठाते हुये प्रियंवद जी ने पूछा –’ गंगा जमुनी सभ्यता पट्टी के लोगों ने क्यों नहीं लिखा विभाजन। निराला, महादेवी और अन्य के यहां यह त्रासदी कहां है? किसने लिखा है इस बारे में बताइये आप ? आप तो अध्यापक हैं।
पंकज चतुर्वेदी जी ने यह कहते हुये अपना पल्ला झाड़ लिया – ’अध्यापक सबसे मूर्ख होते हैं।’
लेकिन प्रियंवद जी ने इस पर अपनी राय रखते हुये कहा-’हिंदी पट्टी का आदमी हमेशा से साम्प्रदायिक सोच का रहा है इसीलिए यहां के लोगों ने विभाजन पर नहीं लिखा। आप तब भी साम्प्रदायिक थे, आज भी साम्प्रदायिक हैं।’
आगे अपनी बात कहते हुये उन्होंने कहा-’ किसी दूसरे की रचना पर हम कैसे टिप्पणी कर सकते हैं। लिख जाने के बाद उस पर हम बोलें यह ठीक नहीं लगता। ’
इसके बाद गीतांजलि श्री जी ने अपनी बात कही। उन्होने चर्चा पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये कहा – ’मैं सन्नाटे में हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या कहूं?’
गिरिराज किशोर जी से अपने जुड़ाव की बात करते हुये गीतांजलि जी ने बताया-’ पहला गिरमिटिया पढ़कर मेरे पिताजी जिगर से लगाये घूमते थे। उन्होंने उसे न जाने कितनी बार पढ़ा। वे ऊबे हुए थे। जब भी मन करता पढने लगते। बार-बार पढते।
बाद में मेरी माँ ने बा पढा। वे उसी तरह उससे जुड़ी जिस तरह पिताजी पहला गिरमिटिया से जुड़े थे।
अपने उपन्यास के बारे में बात करते हुये गीतांजली श्री ने कहा- ’छह सात साल लग चुके इसे लिखे। जब इतना डूबकर लिख चुके होते हैं तो कुछ इम्यून से हो जाते हैं। अलग से हो जाते हैं। समझ नही आता कि कैसे इसे ग्रहण किया जाए। ऐसे आयोजनों की उपलब्धि है कि संवाद बनता है। आप सबने मेरी किताब को पुर्नजीवन दिया है। यह एक विनम्र अनुभव है। यही कहकर अपनी बात खत्म करती हूँ।
अपनी बात खत्म करने के बाद गीतांजलि श्री जी ने उपन्यास के एक अंश का पाठ किया।
गिरिराज किशोर जी ने अपने संबोधन में गीतांजली श्री का अपने पिताजी से जुड़ी यादें साझा करने के लिये आभार व्यक्त करते हुये कहा –’यह मेरे लिये सुखद अनुभूति है कि मेरी रचना से कोई इस कदर जुड़ाव महसूस करे।’
उन्होंने गीतांजलि श्री जी के पिताजी के साथ की यादें साझा करते हुये करते बताया- ’चालीस साल पहले वो मेरे बॉस थे। हम साथ बैठते थे। वे अच्छे लेखक थे।’
गिरिराज जी ने अपनी बात कहते हुये कहा-“रचना होने के बाद वह उससे बाहर हो जाता है। वह खूब डूबकर लिखता है। उसके बाद बाहर हो जाता है। हो जाना चाहिए।
लेखन एक संजीवनी की तरह है। रचना लिखना बच्चों को पालना जैसा है।
आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या अपने समय को जीने की है। इतनी घटनाएं हो रही हैं, इन पर कैसे लिखें लेखक को समझ नहीं आ रहा। हमारी बात दूर दूर तक कैसे पहुंचे यह सोचना होगा।
अगर लेखक डरता है तो लिख भी नहीं सकता ।
गीतांजली की कहानियां मैंने पढ़ी हैं। उनमें भी वही सम्वेदना है जिसका जिक्र उपन्यास में हुआ है।
आज समय कठिन है। लेकिन कुछ रोशनी बची हुई है। हमको पहले से संम्भलना होगा। अभी उतना अंधियारा नही हुआ। कुछ किरणें बाकी हैं। हमें अपने समय को पहचानना होगा।
आज राजनीति में बहुत गड़बड़ है। जिस भाषा में वे राजनीतिज्ञ संवाद करते हैं उससे साफ लगता है कि उनको जनता से कोई मतलब नहीं। वे अपने मतलब के लिए जनता का उपयोग करते हैं।
हमारी आवाजें उन तक नहीं पहुंचती जहां तक पहुंचनी चाहिए। आज पाठ्यक्रम सरकारें तय कर रही हैं।
समय को पहचानिये। खराब समय को बदलिए। खराब हालत बहुत दिन तक हम पर हावी न हो सकें हमें यह देखना होगा। उसके लिये मेहनत करनी होगी।
वक्त को नजरअंदाज मत कीजिये। नजर अंदाज करेंगे तो वक्त आपको छोड़कर आगे चला जायेगा। उसके बाद वक्त आपका होगा या नहीं यह कहा नहीं जा सकता।“
अध्यक्षीय संबोधन के बाद अनीता मिश्रा सभी को धन्यवाद किया। बोलते रहने का आह्वान भी कर दिया यह कहते हुये –’बोल कि लब आजाद हैं तेरे।’
इस तरह एक खूबसूरत शाम रही। किताब की चर्चा उससे किस कदर जोड़ती है हमको इसका एहसास हुआ। इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिये। हों तो उनमें जाते रहना चाहिये। जिन्दगी को नया एहसास मिलता है। संजीवनी मिलती है।

Wednesday, November 07, 2018

त्योहार बाजार की गोद में बैठकर आता है


कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा झालर बनाने में लग गया। कूदते हुए कहीं चोट लग जाये तो कौन जिम्मेदार होगा। बालश्रम का सरासर उल्लंघन है यह कानून।
दीपावली एक बार फ़िर आ गई ! पूरे फ़ौज फ़ाटे के साथ आई है। साथ में बाजार को लाई है। आजकल हर त्योहार बाजार के साथ ही आता है। हर त्योहार का बाजार से गठबंधन हो रखा है।
जैसे लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों ने चैनल , अखबार खरीद रखे हैं वैसे ही बाजार ने त्योहार खरीद लिये हैं।
त्योहार आजकल बाजार पर पूरी तरह आश्रित हो गये हैं। उसने अपनी सारी ताकत बाजार को सौंप दी है।त्योहार बिना बाजार के आने से डरता है। उसको लगता है कि बाजार के बिना उसको कोई पूछेगा नहीं। आजकल त्योहार बाजार की गोद में बैठकर आता है। सारे त्योहार बाजार-बालक सरीखे हो गये हैं। लोकतंत्र में सरकारें कारपोरेट के इशारे पर नाचती हैं। त्योहार बाजार की धुन पर थिरकते हैं।
जैसे बिना पैसे चुनाव नहीं लड़े जाते वैसे ही बिना बाजार त्योहार नहीं मनता। बिन बाजार त्योहार है सून।
राजा महाराजाओं की सवारी निकलती थी तो सबसे पहले हरकारे हल्ला मचाते हुये निकलते होंगे - ’होशियार, खबरदार, शहंशाहों के शहंशाह, बादशाहों के बादशाह जिल्लेइलाही, महाराज पधार रहे हैं।’
बाजार आज का बादशाह है। शहंशाहों का शहंशाह है। जिल्लेइलाही है । महाराज है। हर त्योहार पर उसकी सवारी निकलती है। अपना जलवा देखने के लिये वह निकलता है। जहां-जहां से उसकी सवारी निकलती है , वहां-वहां रोशनी की बौछार हो जाती है। उसके रास्ते की हर सड़क चमक जाती है।
लोकतंत्र में मंत्रियों के दौरे की सूचना के पोस्टरों से शहर पट जाते हैं। त्योहारों पर बाजार का दौरे होते हैं। इसकी सूचना हर आम और खास को शुभकामना संदेशों के जरिये दी जाती है। त्योहारों पर दिये जाने वाले शुभकामना संदेश बाजार के हरकारे होते हैं। वे घोषणा करते हैं-’ होशियार, खबरदार, शहंशाहों के शहंशाह, जिल्लेइलाही बाजार जी पधार रहे हैं।’
शुभकामना संदेश आपको त्योहार के मौके पर लुटने के लिये तैयार करते हैं। संदेश पाकर आप खुशी से उत्तेजित हो जाते हैं। इन्ही उत्तेजना के क्षणों में बाजार आपसे मनमानी करता है। आपको लूट लेता है। लूटकर फ़ूट लेता है। आप लुटने के बाद ’मीटू’ घराने की शिकायत भी नहीं कर सकते। करेंगे भी तो बाजार यह कहकर बच जायेगा-’ये सहमति से बने संबंध थे।’
शुभकामना संदेश भी बाजार अपने हिसाब से बनवाता है। इस बार जो संदेश टहल रहे हैं उनमें से एक में एक नल से गिन्नियां निकल रही हैं। सारी गिन्नियां हाथ में समाती जा रही हैं। बगल में कमल खिला हुआ है। मतलब कमल देख रहा है, नल से गिन्नियां निकल रही हैं। किसी अनजाने के हाथ में समाती जा रही हैं। हाथ हिल तक नहीं रहा है। निठल्ला है। बिना मेहनत की कमाई निठल्ले हाथ में समा रही है। कोई कुछ बोल नहीं रहा है।
कायदे से यह मामला आय से अधिक संपत्ति का बनता है। जीएसटी चोरी का बनता है। काली कमाई का बनता है। लेकिन कोई कुछ बोल नहीं रहा है। बोले भी कौन ? सीबीआई , रिजर्व बैंक ईडी सब अपने लफ़डों में फ़ंसे हैं। लोग भी एक दूसरे को भेज रहे हैं यह बिना मेहनत की कमाई। लेकिन यह आभासी कमाई है। इसके झांसे में बाजार आपकी जेब से क्या लूट ले गया आपको हवा तक नहीं लगेगी।
कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
बिना मेहनत, बिना रसीद के गिन्नियां गिरकर समा रहीं हैं हाथ में। कोई शिकायत नहीं कर रहा है। सब चुपचाप देख रहे हैं।
दूसरा संदेश आज ही चलन में आया है। एक स्केच बनता है। स्केच से एक बच्चा निकलता है। निकलते ही वह बच्चा बेचारा बल्ब और उसकी झालर बनाने निकल लेता है। झालर बनाते हुए जब कूदता है बच्चा तो मेरा जी यह सोचकर दहल जाता है कि कहीं गिर गया तो चोट लग जायेगी। झालर बनाकर बच्चा उसके शुभकामना संदेश बनाता है। घर-घर बांटता है।
भले ही एक स्केच हो लेकिन है तो अभी-अभी पैदा हुआ दुधमुंहा बच्चा ही। पैदा होते ही बिना सोहर सुनाये बच्चे को काम में जोत दिया गया। उसकी अम्मा अपने बच्चे को दूध भी न पिला पाई। पक्का उसका दूध भी बिक गया होगा डब्बे में बन्द होकर। क्या पता बच्चे का बनाया ग्रीटिंग कार्ड और दूध का डिब्बा किसी माल में एक साथ बिक रहा हो।
एक दुधमुंहे बच्चे को उसकी मां के दूध से वंचित करके झालर और बल्ब सजाने , शुभकामना संदेश बनाने के लिये लगा देना कहां की इंसानियत है भाई। बजर गिरे ऐसे बाजार पर। नठिया कहीं का।
बाजार तो जो कर रहा है वह कर ही रहा है। वह तो है बदमाश। अपनी बढोत्तरी के लिये वह हर जायज-नायाजज हरकते करता ही है। लेकिन हम भी तो बिना जाने-बूझे उसको बढावा दे रहे हैं। हाल ही में पैदा हुये बच्चे से ग्रीटिंग कार्ड बंटवा रहे हैं। यह बालश्रम कानून का भयंकर उल्लंघन है। वो तो कहिये सुप्रीम कोर्ट अभी सीबीआई, राफ़ेल, राममंदिर में उलझा हुआ है वर्ना इस मसले का स्वत: संज्ञान लेकर नोटिस दे देता तो आप ग्रीटिंग भेजना भूलकर मेसेज कर रहे होते -’ भाई साहब, सुप्रीम कोर्ट के किसी वकील से जान पहचान हो तो बताइये।’
इसीलिये हम इन सब फ़र्जी और मुफ़्तिया शुभकामना संदेशों के झांसे में नहीं आते। अपने मन के कारखाने में बनी शुद्ध बधाइयां भेजते हैं। शुभकामनायें साथ में नत्थी कर देते हैं। बधाइयां और शुभकामनायें पक्की सहेलियां हैं। साथ -साथ खुशी-खुशी चली जाती हैं।
आपको भी भेजी हैं, बधाई और शुभकामनायें। दीपावली मुबारक हो, मंगलमय हो।

Sunday, November 04, 2018

मुश्ताक़ अहमद युसूफी

1.ऐसा लगता है मनुष्य में अपने आप पर हंसने का साहस नहीं रहा। दूसरों पर हंसने में उसे डर लगता है।
2. व्यंग्यकार को जो कुछ कहना होता है वो हंसी-हंसी में इस तरह कह जाता है कि सुनने वाले को भी बहुत बाद में खबर होती है।मैंने कभी किसी ठुके हुए मौलवी और व्यंग्यकार को लिखने-बोलने के कारण जेल में जाते नहीं देखा।
3. बिच्छू का काटा रोता और सांप का काटा सोता है। इंशाजी (इब्ने इंशा)का काटा सोते में मुस्कराता भी है। जिस व्यंग्यकार का लिखा इस कसौटी पर न उतरे उसे यूनिवर्सिटी के कोर्स में सम्मिलित कर देना चाहिए।
4. समाज जब अल्लाह की धरती पर इतरा-इतरा कर चलने लगते हैं तो धरती मुस्कराहट से फट जाती है और सभ्यताएं इसमें समा जाती हैं।
5. मुस्कान से परे वो विपरीतता और व्यंग्य जो सोच-सच्चाई और बुद्धिमत्ता से खाली है, मुंह फाड़ने , फक्कड़पन और ठिठोल से अधिक की सत्ता नहीं रखता।
6. धन, स्त्री और भाषा का संसार एक रस और एक दृष्टि का संसार है, मगर तितली की सैकड़ों आँखे होती हैं और वो उन सबकी सामूहिक मदद से देखती हैं। व्यंग्यकार भी अपने पूरे अस्तित्व से सब कुछ देखता, सुनता, सहता और सराहता चला जाता है। फिर वातावरण में अपने सारे रंग बिखेरकर किसी नए क्षितिज, किसी और रंगीन दिशा की खोज में खो जाता है।
-मुश्ताक़ अहमद युसूफी
अपने उपन्यास 'धन यात्रा' की भूमिका में