Tuesday, September 21, 2004

तीन सौ चौंसठ अंग्रेजी दिवस बनाम एक हिंदी दिवस

हिंदी दिवस आया -चला गया.पता ही नहीं चला.हम कुछ लिखे भी नहीं .अब चूंकि शीर्षक उडाया हुआ(ठेलुहा .कहते हैं कि यह हमारा है उनके दोस्त बताते हैं उनके पिताजी का है. जो हो बहरहाल यह हमारा नहीं है)याद आ गया इसलिये सोचता हूं कि हिंदी दिवस पर न लिखने का अपराधबोध दूर कर लूं.

हर साल सितम्बर का महीना हाहाकारी भावुकता में बीतता है.कुछ कविता पंक्तियों को तो इतनी अपावन कूरता से रगडा जाता है कि वो पानी पी-पीकर अपने रचयिताओं को कोसती होंगी.उनमें से कुछ बेचारी हैं:-

१.निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल.

२.मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती,
भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती.

३.जिस राष्ट्र की अपनी भाषा नहीं, वह जवान रहते हुये भी गूंगा है.

४.हा,हा भारत(हिंदी) दुर्दशा न देखी जायी.

५.हिंदी भारतमाता के भाल की बिंदी है.

६.कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.

कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक पहुंचने केलियेअपराधबोध,निराशा,हीनताबोध,कर्तव्यविमुखता,गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुजरती है कि
असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में हिंन्दी की स्थिति क्या है?

ऐसे में १९६५ में लिखी रागदरबारी उपन्यास की कक्षा का निम्नवर्णन सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होता है:-

एक लडके ने कहा,"मास्टर साहब,आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं?"
वे बोले,"आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेण्सिटी"
एक दूसरे लडके ने कहा,"अब आप देखिये ,साइंस नहीं अंग्रेजी पढा रहे हैं"
वे बोले,"साइंस साला बिना अंग्रेजी के कैसे आ सकता है?"
लडकों ने जवाब में हंसना शुरु कर दिया.हंसी का कारण ,हिंदी-अंग्रेजी की बहस नहीं ,'साला'का मुहावरेदार प्रयोग था.

हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता.सो लपके और गुरु को पकड लिये.उनके पास कोई काम नहीं था लिहाजा बहुत व्यस्त थे.हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया.

सवाल:-हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नजर में?
जवाब:-टनाटन है.

सवाल:-किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा?
जवाब:-कौनौ एक हो तो बतायें.कहां तक गिनायें?

सवाल:-कोई एक बता दीजिये?
जबाव:-हम सारा काम ,बुराई-भलाई छोडकर टीवी पर हिंदी सीरियल देखते हैं.घटिया से घटिया(इतने कि देखकर रोना आता है)-सिर्फ इसीलिये कि वो हिंदी में बने है.यही सीरियल अगर अंग्रेजी में दिखाया
जाये तो चैनेल बंद हो जाये.करोडों घंटे हम रोज होम कर देते हैं हिंदी के लिये.ये कम बडा आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का?

सवाल:-अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेजी से खतरा है.आपका क्या कहना है?
जवाब:-कौनौ खतरा नहीं है.हिंदी कोई बताशा है क्या जो अंग्रेजी की बारिश में घुल जायेगी?

सवाल:-हिंदी भाषा में अंग्रेजी के बढते प्रदूषण के बारे में(हिंग्लिश)के बारे आपका क्या कहना है?
जवाब:-ये रगड.-घसड.तो चलती रहती है.जिसके कल्ले में बूता होगा वो टिकेगा.जो बचेगा सो रचेगा.

सवाल:-लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषाहोती तो वो आज के मुकाबले बीस वर्ष अधिक विकसित होता.
जवाब:-ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं.तो क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे
है हिंदी में कंप्यूटर के विकास पर?बनाओ.निकलो आगे.झुट्ठै स्यापा करने रहने क्या मिलेगा?

सवाल:-हिंदी दिवस पर आपके विचार?
जवाब:-हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश लगती है.शिलाजीत खाकर मर्दानगी
हासिल करने का प्रयास.जो करना हो करो ,नहीं तो किनारे हटो.अरण्यरोदन मत करो.जी घबराता है.

सवाल:-हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव?
जवाब:-देखो भइया,जबर की बात सब सुनते है.मजबूत बनो-हर तरह से.देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे.पीछे रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही.हिंदी दिवस की तरह.वो क्या कहते हैं:-

इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा गगन है.

सवाल:-आप क्या खास करने वाले हैं इस अवसर पर?
जवाब:-हम का करेंगे?विचार करेंगे.खा-पी के थोडा चिंता करेंगे हिंदी के बारे में.चिट्ठा लिखेंगे.लिखके थक जायेंगे.फिर सो जायेंगे.और कितना त्याग किया जा सकता है--बताओ?

हम कुछ बताने की स्थिति में नहीं थे लिहाजा हम फूट लिये.आप कुछ बता सकते तो बताओ.

मेरी पसंद

जो बीच भंवर इठलाया करते ,
बांधा करते है तट पर नांव नहीं.
संघर्षों के पथ के यायावर ,
सुख का जिनके घर रहा पडाव नहीं.

जो सुमन बीहडों में वन में खिलते हैं
वो माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते हैं
वो दीवाली के मोहताज नहीं होते.

Saturday, September 18, 2004

ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो

हम भावविभोर हैं. हमारा स्वागत हुआ.हार्दिक.हमारा कंठ अवरुद्द है.धन्यवाद तक नहीं फूटा हमारा मुंह से.सही बात तो यह कि हम अचकचा गये.देबाशीषजी . के"मध्यप्रदेश/उत्तरप्रदेश/होली की शैली/शायद-शर्तिया/शालीनता और फिर हार्दिक स्वागत "में हम अभी तक असमंजस में हैं कि क्या ग्रहण करें-क्या छोड.दें?

काश हम सूप होते और केवल सारतत्व ग्रहण कर पाते(साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाव/ सार-सार को गहि रहै थोथा देय उडाय).

तो हम पहले भरे गले से शुक्रिया अदा करते हैं-स्वागत का.

शुरुआत मानस का सहारा लेते हुये कहूंगा---" ब्लाग विवेक एक नहिं मोरे"

पहले बात शालीनता की क्योंकि मुझे लगा कि मुखिया सबसे ज्यादा इसी के लिये चिन्तित हैं.अगर मुन्ना भाई के लहजे में कहूं तो ---"शालीनता बोले तो?"और मैं‍ कहूं तो --"ये शालीनता किस चिडिया का नाम होता है?"

शालीनताजी को तो हम नहीं खोज पाये कहीं पर पट्ठा ब्रम्हचर्य मिला एक कविता में.कविता है:-

"तस्वीर में जडे हैं ब्रम्हचर्य के नियम
उसी तस्वीर के पीछे चिडिया
अंडा दे जाती है."


वैसे भी देखें तो सबसे ज्यादा गंदगी वहीं होती है जहां ---"यहां गंदगी फैलाना मना है "का बोर्ड लगा होता है.घूस देकर काम निकलवाने वाले देखते है कि ----"घूस लेना और देना अपराध है"का बोर्ड कहां शोभायमान है.

शालीनताजी की ही शायद बडी बहन हैं- पवित्रताजी.इनके बारे में परसाईजी "पवित्रता का दौरा" में लिखते हैं:-".....पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास शराब की दुकान हटाने की बात लोग करते हैं तब पुजारी बहुत दुखी होता है.उसे लेने के लिये दूर जाना पडेगा.यहां तो ठेकेदार भक्तिभाव में कभी-कभी मुफ्त में भी पिला देता था."

मुझे लगा आपको सिंकारा लेने का सुझाव दूं(शालीनता के बोझ का मारा इसे चाहिये हमदर्द का टानिक सिंकारा)पर फिर डर लगा कि कहीं यह अशालीन न हो जाये.बता दीजिये न क्या होती है शालीनता ताकि उसका लिहाज रख सकूं.

हिंदी ब्लाग जो अभी "किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत"की शैशवावस्था में है को"मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश"में बंटवारे की बालिग हरकतों में क्यों फंसारहे हैं?

"ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो कोई नाम न दो"

अब एक बात कहने के लिये गंभीरता का चोला ओढना चाहता हूं.जब आप किसी नवप्रवेशी . का स्वागत (चाहे वो जितना हार्दिक करें)शालीनता का ध्यान रखने की चाहना के साथ करते है तो दो बातें तय हैं:

1.आप पहले से जुडे लोगों को बता रहे हैं कि इनसे संभल के रहना ये बडी "वैसी"बातेंकरते हैं.परिचय के साथ आलोचना का यह अंदाज उस कम्प्यूटर रिपेयर करने वाले का अंदाज हैजो कोई भी पीसी सूंघ के बता सकता है कि इसकी तो हार्डडिस्क खराब है.यह अंदाज दूसरों की अकल परभरोसा न होने का भी है.

2.नवप्रवेशी को आप बता रहे हैं कि शालीनता पर यहां पहले भी बुरी नजर डाली जा चुकी है सो कहीं प्रथम होने के लालच में कुछ न करना.वैसे जो मन आये करो.

बकिया शैली के बारे में तो हम यही कहेंगे:-

हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.

हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.
--वीरेन्द्र आस्तिक

Monday, September 13, 2004

गालियों का सांस्कृतिक महत्व

"आयाहै मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का"हास्टल के दिन.पढाई की ऊब को निजात पाने के लिये लडके अपने-अपने कमरों से बाहर निकल कर कुछ पुरानी और कुछ नयी ईजाद की गयी मल्लाही /बहुआयामी गालियों का आदान-प्रदान करते थे.कुछ और हास्टलिये भी इस यज्ञ में अपनी आहुति देते. जब गालियां,ऊब और फेफडे की हवा चुक जाती तो दोनो गले में हाथ डाल कर ---"ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे" गाते हुये चाय की दुकान का रुख करते(यह अलग बात है कि उनके गाने से ज्यादा कर्णप्रिय उनकी गालियां होती थीं)

यह भूमिका इसलिये कि हमारे प्रवासीठलुहा . मित्र पीछे पडे हैं कि लालूजी-अमरसिंह वार्ता का विवरण उनको विस्तार से बताया जाये.अब इसमें बात सिर्फ इतनी है कि लालूजी बोले---अमरसिंह दलाल और लौंडियाबाज हैं. अमरसिंह जी ने सोचा कि रिटर्नगिफ्ट जरूरी है सो वो बोले--लालू यादव लौंडेबाज हैं.
अब मुझे समझ नहीं आ रहा है इतनी सी बात को कितना विस्तार दिया जाये?

बहरहाल हम एक मित्र को भेजे विस्तृत समाचार के लिये.वो एक ऐसे जीव से बतियाये जो सभी राजनीतिज्ञों का प्रतिनिधित्व करते हैं.बातचीत सवाल-जवाब के रूप में प्रस्तुत है:-

सवाल:-आजकल नेता लोग गाली-गलौज की भाषा में बातचीत करते हैं.क्या विचार है आपका इस बारे में?
जवाब:-विचार क्या है जी.यह तो जनता से जुडने की कोशिश है.जब हम जनता के नुमाइन्दे हैं तो आम जनता की भाषा नहीं बोलेंगे तो जनता हमारा बायकाट नहीं कर देगी?

सवाल:-पर गाली-गलौज की भाषा जनता की भाषा कैसे हो सकती है?
जवाब:-काहे नहीं हो सकती ?अरे भाई जो चीज जनता तुरन्त समझ ले वो उसकी भाषा.अब देखो " लौंडियाबाजी-लौंडेबाजी "किसी को समझाना पडा?आराम रहती है थोडा बात समझने-समझाने में .इसीलिये आजकल इस जनभाषा का पैकेज थोडा ज्यादा पापुलर है.

सवाल:-पर एक बात समझ में नहीं आती कि लोग नकारात्मक चरित्रों से तुलना क्यों करते हैं लोगों की?जैसे किसी को धृतराष्ट्र कह दिया,किसी को शिखंडी.ऐसा क्यो है?
जवाब:-देखिये इसके पीछे दो उद्देश्य रहते है.पहला तो कि इस बहाने हम अपनी संस्कृति से जुडे रहते हैं.अपने पौराणिक चरित्रों की याद ताजा करते हैं.दूसरी बात जो ज्यादा जरूरी है कि हम आज के महापुरुषों की तुलना पुराने नकारात्मक चरित्रों से इसलिये करते है क्योंकि हमें लगता है कि वो उतने बुरे थे नहीं जितनी बुरी उनकी छवि है.क्या आपको लगता है कि धृतराष्ट्र इतने बुरे थे जितना उनको बताया गया है?देखा जाये तो एक बाप की हैसियत से जो उन्होंने किया वो आज का हर बाप करता.तो यह एक तरह का प्रयास है पौराणिक महापरुषों को नये बेहतर नजरिये से देखने का.

सवाल:-पर आरोपों की कोई संगति तो होनी चाहिये.कुंवारे बाजपेयी जी की तुलना १०० बच्चों के बाप से करना कहां तक उचित है?मनमोहनजी जैसे व्यक्ति की तुलना शिखंडी से कैसे उचित है?
जवाब:-देखिये अब जो काम करेगा उससे कुछ गलतियां स्वाभाविक हैं.इसमें यही हो सकता हैकि जितनी जल्दी हो सके हम भूलसुधार कर लें और सही आरोप लगा कर बात आगे बढायें.जैसे देखिये मनमोहनजी के लिये हमने बेहतर उपाधि चुन
ली.उनको विदुर बता दिया.उनकी विद्धता की तारीफ भी कर दी और आरोप भी लगा दिया.उनकी भी इज्जत रह गयी,अपना भी काम हो गया.


सवाल और भी थे पर नेताजी को कहीं जाना था किसी प्रेसकान्फ्रेन्स में कुछ आरोप लगाने लिहाजा वो बिना विदा लिये चले गये.

अपने इस ब्लाग में इतना ही लिखकर कुछ अपने पसंदीदा दोहे दे रहा हूं.

मेरी पसंद

कुरुक्षेत्र में चले थे, दिव्यवाण ब्रम्हास्त्र
अब संसद से सड.क तक चलते हैं जूतास्त्र.

सभी जयद्रथ बन गये ,आज माफिया डान
चक्रव्यूह में फंस गया , पूरा हिन्दुस्तान.

जरासंध जरखोर बन ,रहे आज ललकार,
शिखण्डियों का हो गया,सत्ता पर अधिकार.

पहले शकुनी एक था , जुआबाज सरताज,
पर अब मामा हर गली , हुये लाटरीबाज.

--- डा.अरुणप्रकाश अवस्थी

Wednesday, September 08, 2004

हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?

ब्लाग क्या है?इसपर विद्घानों में कई मत होंगे.चूंकि हम भी इस पाप
में शरीक हैं अत: जरूरी है कि बात साफ कर ली जाये.हंस के
संपादकाचार्य राजेन्द्र यादव जीकहते हैं कि ब्लाग लोगों की छपास
पीङा की तात्कालिक मुक्ति का समाधान है.खुद लिखो-छाप दो.मतलब
आत्मनिर्भरता की तरफ कदम.

हमारे ठलुहा .
मित्र फरमाते हैं कि ब्लागरोग से ग्रस्त प्राणी की स्थिति
मानसिक दस्त से ग्रस्त होती है लिहाजा इसे "मानसिक डायरिया"कहा
जा सकता है.मध्यमार्गी लोग 'डायरिया'का मतलब डायरी लिखने से
भी लगा सकते हैं.

कुछ विचारक .
ऐसी बातें तक पूंछते हैं ब्लाग में मानो कोई मास्टर साहब बच्चों से वो सवाल पूंछे जो उनको
खुद नहीं आते.


यह कालेज की मेस के दरवाजे का नोटिसबोर्ड है जिस पर
कोई भी बेवकूफी की (जिसे लिखने वाला हमेशा समझदारी की
बात समझने की गलतफहमी पालता है)बात चस्पां की जा सकती है
बिना किसी की परवाह किये-क्योंकि एक तो कोई इसे पढेगा नहीं
और अगर किसी ने पढ.। भी तो क्या कर लेगा?सिवा कमेंट करने
के जो कि ब्लाग लिखने वाले की सफलता मानी जायेगी.

ब्लाग लिखने के लती का नारा हो सकता है:-

"हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?"

कुछ ब्लाग लिक्खाङ तो अपना रोजनामचा इस मुस्तैदी और तफसील से
लिखते है गोया कोई बैट्समैन बैंटिग करते-करते स्कोरर का काम
भी कर रहा हो.धन्य है इतनी मुस्तैदी .

अगर ब्लागर के परिवारीजन इस कुटेव से दूर रहते हैं तो ब्लागर के
इस शौक से त्रस्त रहना उनकी नियति होती है.

इस कुटेव के बारे में मेरे पुत्र का कहना है:-"आजकल पापा को ब्लागिंग
का भूत सवार है.घर का पीसी बूढा हो चला है इसलिये वो देर तक आफिस
में बैठते हैं जो कि मम्मी को पसन्द नहीं है.मुझे लगता है कि पापा को
नया पीसी ले लेना चाहिये (ताकि मुझे भी मजा आये) और घर में ही ब्लाग
लिखना चाहिये.अगर ऐसा न हुआ तो गरज के साथ छींटे पङने की आशंका है."

बहरहाल आज तो सूरज अस्त-मजूर मस्त.

आप बतायें क्या राय है आपकी इसबारे में.

Saturday, September 04, 2004

नहीं जीतते- क्या कर लोगे?

कल लखनऊ में कानून और व्यवस्था का भरत मिलाप हो गया.
काफी खून बह गया.पुलिस खुश कि गोली नहीं चली.बेचारा जो
दरोगा समझाने की कोशिश में था वो पहले पिटा फिरनिलम्बित.
काम का तुरन्त ईनाम.आपसी मेलजोल बनाये रखने के लिये इस
तरह के सम्बंध कितने जरूरी हो गये है यह इस बात से भी
पता चलता है कि पहले आप-पहले आप वाला शहर भावुकता
त्यागकर पहले हम(पीटेंगे)-पहले हम(पीटेंगे) की क्रान्तिकारी
मुद्रा अपना लेता है.

कल इधर वकील-पुलिस पिटा-पिटौव्वल खेल रहे थे वहीं उधर
भारतीय क्रिकेट टीम अकेले पिट रही थी----ये दिल मांगे मोर
(पिटाई) कहते हुये.

अगर कोई पूंछता तो शायद वो कहते ---नहीं जीतते क्या कर
लोगे?वास्तव में भारतीय "वसुधैव कुटुम्बकम् "की भावना से
इतना भीगे रहते है कि दूसरे की जीत भी अपनी लगती है.ऐसी
उदात्त भावना के सामने जीत जैसी भौतिक चीज इतनी तुच्छ लगती
कि उसके बारे में सोचने में ही अपराधबोध लगता है.

ईश्वर हमें इतना ही महान बनाये रखे.