Saturday, April 30, 2016

हीरोइन लग रही हो

नयी-नयी फ्राक आई है दीपा की

आज सुबह काफी दिन बाद साईकल स्टार्ट हुई। सुबह सात बजे। मेस के बाहर ही देखा एक महिला बगल में कुछ लकड़ियाँ दबाये चली जा रही थी। आगे मोड़ पर तीन-चार महिलाएं खूब सारी लकड़ियाँ इकठ्ठा किये घर वापस लौटने की तैयारी में दिखीं।


और आगे कुछ महिलाएं तालाब से नहाकर वापस लौट रहीं थीं। गीले कपड़े साथ में लिए। टोकरी जैसी चीज में धरे लपकती चली जा रहीं थीं।

शोभापुर क्रासिंग के पास का शराब का ठेका बन्द था लेकिन सप्लाई चालू थी। लोग जाली के अंदर हाथ डालकर जैसे टिकट खरीदते हैं वैसे दारू खरीद ले रहे थे और खड़े-खड़े पी रहे थे। जिन राज्यों में शराब बंद हैं वहां भी क्या पता इसी तरह बिकती हो शराब।


सीधे खड़े होकर भी फोटो अच्छी आती है
शराब की बात से याद आया कि हमारा एक कर्मचारी पीने की आदत के चलते अक्सर बीमार हो जाता है। लंबी छूट्टी पर रहता है। बहुत समझाने पर भी नहीं मानता। यह भी सोचा गया कि उसको नौकरी से निकालने की कार्यवाही की जाए। उसके पहले उसके परिवार को बुलाया गया। पत्नी और दो बेटियां हैं। बड़ी बेटी हाईस्कूल में पढ़ती है। छोटी कक्षा 6 में।


पत्नी और बेटियों ने बताया कि पीने के लिए मना करते हैं वो लोग पर ये मानता नहीं। लेकिन यह भी बताया कि पीकर मारपीट नहीं करता। हमने उनसे कहा कि तुम लोग बहुमत में हो। घर में पीने मत दिया करो। उसने भी वादा किया कि छोड़ देंगे अब पक्का।ऐसे वादे पहले भी कर चुका है वह। लेकिन एक बार और सही।
अच्छी बात यह है कि वह अपनी कमियों के बारे में झूठ नहीं बोलता। जो गलती करता है खुद सच बता देता है। बस यही है कि वादे पर अमल नहीं करता। लेकिन राजनीतिक पार्टियों से तो बेहतर है व्यवहार। वे वादे भी नहीं पूरे करती, झूठ ऊपर से बोलती हैं।


जरा इस्टाइल भी हो जाए
दीपा से मिलने गए। बोली -'कहां चले गए थे। आये नहीं इतने दिन।' हमने बताया व्यस्त थे। आज दीपा का रिजल्ट निकलने वाला है। पापा उसके नई फ्राक लाये हैं। उसको पहनकर रिजल्ट लेने जायेगी। हमने कहा पहनो नई फ्राक फोटो खींचेंगे।


दीपा नई फ्राक पहनती है। सर फंस जाता है। पीछे की चेन खुली नहीं है। हमसे कहती है खोलने को। हम चेन खोलकर फ्राक पहनाते हैं। हम कहते हैं -'हीरोइन लग रही हो।' वह हंसती है। कई तरह से फोटो खिंचवाती है। हर फोटो को बड़ा करके देखती है। कहती है -'ये अच्छी है।'


हम बताते हैं कि हम आज कानपुर चले जायेंगे। ट्रांसफर पर। मेरा तबादला कानपुर हो गया है। वह मेरा फोन नंबर नोट करती है।


एक पोज यह भी
मैंने दीपा को घड़ी खरीदने का वादा किया था। अभी तक पूरा नहीँ किया। एक खरीदी थी वह ख़राब हो गयी। सस्ती 20 रुपये वाली खिलौना घड़ी थी। ख़राब हो गयी। आज तय हुआ कि वह रिजल्ट लेकर आएगी दोपहर को उसके बाद उसको साथ लेकर घड़ी की दुकान जाएंगे। उसके लिए घड़ी खरीदेंगे। जाने के पहले अपना वादा पूरा करना चाहते हैं। मौका भी है उसके रिजल्ट निकलने का।

तालाब की तरफ गए। सूरज भाई गर्मी की तलवार सरीखी चमका रहे थे। पानी शांत था। लहरें थमी हुई थीं। हर तरफ रोशनी का साम्राज्य पसरा हुआ था। हमने सूरज भाई से कहा कि अब कानपुर में मुलाकात होगी। सूरज भाई मुस्कराये और बोले-' जरूर होगी मुलाकत कानपुर में। पर कभी-कभी यहाँ भी आते रहना।'


गर्मी की तलवार चला रहे हैं सूरज भाई
चाय की दुकान पर फैक्ट्री के स्टाफ से मुलाक़ात हुई। मसाला खाने की आदत है ऐसा दांत देखने से पता चला। बात हुई तो लगा कि बहुत जिम्मेदार और संवेदनशील हैं मन से। वादा भी किया कि एक महीने में एकदम छोड़ देंगे मसाला। हमने कहा जब छोड़ देना तो मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करना -'मसाला छोड़ दिया मैंने।'


बातचीत में उसने मसाला की तोहमत कानपुर वालों पर मतलब बहाने से हमारे ऊपर भी डाल दी। बोला -'वहीँ कानपुर में ही तो बनता है।आप जा भी रहे हैं कानपुर।'


बताओ शहर के लोगों के चलते क्या-क्या सुनना पड़ता है।

यह जबलपुर से सुबह की सैर की इस दौर की आखिरी पोस्ट। आज शाम को यहां से चलकर सुबह कानपुर पहुंचेगे। अब जब तक कानपुर में रहेंगे वहां के किस्से सुनाएंगे। कानपुर फिर से जाना बहुत अच्छा लग रह है। मन कहने का हो रहा है- झाड़े रहो कट्टरगंज।  :)


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Friday, April 29, 2016

तितली के दिन,फूलों के दिन

तितली के दिन, फूलों के दिन

कल सुबह पैदल टहलते हुए चाय की दुकान तक गए। पुलिया पर कुंडा के मिसिर जी के साथी अकेले बैठे थे। बताया -'मिसिर जी कुंडा गए हुए हैं।' हर साल जाते हैं। गाँव में जमीन है। बाग़-बगीचे हैं। गर्मी के मौसम में बाग़-बगीचा बेंचने जाते हैं।



सामने वाली पुलिया पर एक लड़का बैठा था। मोबाईल पर गाना बज रहा था। कोई देशभक्ति का गीत। अपने साथी का इंतजार कर रहा था।


चाय की दुकान वाले ने बताया कि उनका कोई मुकदमा चल रहा है। स्कूल में नौकरी करते थे। फैक्ट्री की तरफ से चलता था। कई हजार बच्चे पढ़ते थे। स्कूल के लेटरहेड में केंद्र सरकार द्वारा संचालित लिखा था। पैसे के लिए मुकदमा चला। जज रिटायर होने वाला था। बोला -'रिटायरमेंट के बाद हमको प्रिंसिपल बनाओ। हम तुम्हारे पक्ष में फैसला देंगे।' लोगों ने हामी भरी। कुछ फैसला दिया जिसका निस्तारण अभी सुप्रीम कोर्ट में होना बाकी है। कई करोड़ का एरियर मिलना है। 25 लोग शुरू किये थे मुकदमा। इस बीच कई लोग शांत हो गए।


झिलमिल सपनों वाले दिन
जज और सरकारी सेवा वाले लोग रिटायर होने के बाद काम के लालच में गड़बड़ निर्णय लेते हैं। कई विभागों के लोग रिटायर होने के बाद वहां नौकरी करने लगते हैं जो उनके विभाग में ठेके लेती रहती हैं।
मुंशी प्रेमचन्द की 'नमक का दरोगा' कहानी का यह पक्ष मुझे अखरने वाला लगता है कि ईमानदार दरोगा वंशीधर को जो सेठ बर्खास्त करवाता है बाद में वही सेठ वंशीधर को अपने यहां नौकरी देता है। क्या पता बाद में भूतपूर्व दरोगा जी सेठ जी के गड़बड़ कामों के सूत्रधार बन गए हों।
http://fursatiya.blogspot.in/2008/08/blog-post_3.html


'सुप्रीम कोर्ट में फ़ीस बहुत पड़ती है। मुकदमा कैसे लड़ते होंगे आप?' मेरे यह पूछने पर चाय वाले ने बताया कि संयोग ऐसा रहा कि हमको जो भी वकील मिले उन्होंने हमसे मुकदमें के लिए फ़ीस नहीं ली। और खर्च भी नहीँ मांगे।


लौटते हुए देखा दो बच्चियां एक बच्चे के साथ सड़क पर बात करते हुए चली जा रहीं थीँ। अचानक दोनों में से एक बच्ची और बच्चे में सड़क पर ही रेस हो गयी। थोड़ी दूर दौड़ में बच्ची ने बच्चे को पीछे छोड़ दिया। फिर तीनों लोग हंसते-खिलखिलाते आगे चले गए।


बच्ची को बच्चे के साथ दौड़ते और आगे निकलते मैंने सोचा कि कुछ दिन बाद जब यह बच्ची बड़ी होगी तो इस तरह बराबरी से लड़के के साथ घूमना, दौड़ना और आगे निकलना पीछे, बहुत पीछे छूट जाएगा। वह
मात्र बरास्ते लड़की होते हुये स्त्री में बदल जायेगी।


मेस में कुछ बच्चे खेल रहे थे। झूला झूल रहे थे। गोल झूले पर दो बच्चियां बैठी थी। झूला स्थिर था। हमने उनको झुला दिया। थोड़ा तेज किया तो एक बच्ची बोली -'मुझे तेज झूलने में चक्कर आते हैं।डर लगता है। ' दूसरी बोली--'तेरे को तो हर बात में डर लगता है।'


कक्षा 3 में पढ़ने वाली ये बच्चियां कंचनपुर में रहती हैं। झूला झूलते हुए बात करते हुए बताती हैं -'पहले भी आती थी। पापा आते थे साथ में। वो झुलाते थे। अब हम बड़े हो गए। सहेलियों के साथ आते हैं।'

बगल के दूसरे झूलों में दो बच्चियां झूल रही थीं। ऊँचे-ऊँचे पींग मारते हुए। हाईस्कूल में पढ़ती हैं बच्चियां। आजकल स्कूल बंद हैं। अब जून में खुलेंगे।


बच्चियों के फोटो खींचते हैं। एक में एक आगे है, दूसरे में दूसरी। दिखाते हैं तो बच्चियां खुशी का इजहार करती हैं। मुझे अनायास सुमन सरीन की कवितायेँ याद आ जाती हैं।

1. तितली के दिन,फूलों के दिन
गुड़ियों के दिन,झूलों के दिन
उम्र पा गये,प्रौढ़ हो गये
आटे सनी हथेली में।
बच्चों के कोलाहल में
जाने कैसे खोये,छूटे
चिट्ठी के दिन,भूलों के दिन।

2.नंगे पांव सघन अमराई
बूँदा-बांदी वाले दिन
रिबन लगाने,उड़ने-फिरने
झिलमिल सपनों वाले दिन।
अब बारिश में छत पर
भीगा-भागी जैसे कथा हुई
पाहुन बन बैठे पोखर में
पाँव भिगोने वाले दिन।

आपको भी कुछ याद आ रहा है क्या ये फोटो देखकर

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207962446232473

Wednesday, April 27, 2016

नीरज बधवार को अट्टहास सम्मान

"सब लोग वाकई में फ़ेक हैं"कभी-कभी तकनीक भी आपको चिरकुटई के काम करने से रोकती है।

हुआ यह कि आज सुबह पिछले हफ्ते लखनऊ में 'अट्टहास सम्मान समारोह' पर लोगों की पोस्टों, सुनी-सुनाई बातों और इन सबसे बढ़कर अपने पूर्वग्रहों के आधार पर एक लंबी पोस्ट लिखी।

पूर्वाग्रह का बहुत बड़ा योगदान रहता है किसी भी घटना पर अपनी राय कायम करने में।

पोस्ट की टोन खिंचाई की थी। लेकिन पोस्ट करने से पहले ही फायर फॉक्स बन्द हो गया कहते हुये -'माफ़ करो भाई। दुबारा स्टार्ट करो।'

दुःख हुआ एक 'क्रांतिकारी' पोस्ट के मिट जाने का। पर सुकून भी मिला यह सोचकर -'अच्छा ही हुआ फालतू की पोस्ट पोस्ट नहीँ हुई।'

पोस्ट तो मिट गयी। अच्छा हुआ। लेकिन एक बात कहना चाहता हूं। कह देना जरुरी है क्योंकि बार-बार मेरे मन में वह बात हल्ला मचा रही है। नहीं कहेंगे तो इसी बारे में सोचते रहेंगे। टाइम बर्बाद होगा।


नीरज बधवार को युवा अट्टहास सम्मान से सम्मान से नवाजा गया। इस बात से कुछ व्यंग्यकार साथी खुश नहीं थे। कुछ नाराज भी थे। कुछ इतने खफा थे कि उन्होंने समारोह का सम्पूर्ण बहिष्कार भी किया। उनकी नजर में 'नीरज बधवार' सिर्फ वनलाइनर हैं -व्यंग्यकार नहीँ।

नीरज को मात्र वनलाइनर कहकर खारिज करने वालों की सुविधा के लिए नीरज के व्यंग्य संग्रह में ज्ञानचतुर्वेदी जी द्वारा लिखी भूमिका यहाँ पेश है। ज्ञान जी ने नीरज को व्यंग्य लेखक बताते हुए उनकी खूबियों और खामियों की तरफ इशारा करते हुए आगे की चुनौतियाँ भी बताई हैं।


मैं नीरज बधवार का प्रवक्ता नहीँ। सच तो यह है कि नीरज की लोकप्रियता से ’काम भर की जलन’ ही रखता हूँ। मेरा नीरज से कोई लाभ-हानि का सम्बन्ध है। न ही व्यंग्य के क्षेत्र में मैं कोई आधिकारिक बयान देने की हैसियत में हूँ। पर एक आम पाठक की हैसियत से मुझे लगता है कि नीरज को मात्र वनलाइनर कहकर खारिज करना उनके साथ अन्याय है। उनकी प्रतिभा के साथ अन्याय है।

Neeraj Badhwar






https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207948351200106

शिकायत नहीं करेंगे


आज भी सुबह उठ गये। रोज की तरह। लेकिन टहलने नहीं गये। कई दिन से यही क्रम चल रहा। एक बार सिलसिला टूट जाता है तो जोड़ना मुश्किल हो जाता है। है न !

जब टहलने नहीं गये तो बैठे-बैठे बाहर का नजारा देखते रहे। चिडियां चहचहा रही हैं। शायद कह रही हैं - क्या हो गया इस नामुराद को। बैठा हुआ है सुबह-सुबह । ऐसे जैसे बनारस में शिववाहन जमा हो किसी चौराहे पर। किसी मेज पर फ़ाइल की तरह पड़ा है निठल्ला जिसको निस्तारित करने वाला अफ़सर हफ़्ते भर की छुट्टी पर निकल गया हो। ये नहीं कि जरा बाहर निकले। देखे सुबह के नजारे।

टहलने निकलने की सोचते हैं तो जो दिखेगा पूछेगा-’कहां चले गये थे? दिखे नहीं इत्ते दिन।’ दूसरे की बात छोडिये साइकिल ही उलाहना देगी -’तुम आये इतै न कितै दिन खोये।’ हो सकता है पहियों की हवा निकल जाने का रोना रोये। रोयेगी तो हम भी कह देंगे- ’हवा तो आजकल पूरे देश की निकली हुई है।’ जहां देश की बात की नहीं कि साइकिल की बोलती बंद हो जायेगी।

जैसे कभी बेलबाटम , जीन्स, साधना कट बाल और अन्य तमाम तरह के फ़ैशन का चलन रहा वैसे ही आज किसी भी बात को देश की बात से जोड़ने का फ़ैशन है। अपनी कोई परेशानी किसी ने बताई तो अगला कोई फ़ौरन हड़काने आ जायेगा -’शरम नहीं आती देश की चिन्ता छोड़कर अपना दुख बयान कर रहे हो।’

देश की बात से याद आया कि आजकल सूखा पड़ा हुआ है कई हिस्सों में। पानी नहीं है पीने के लिये लोगों के पास। चिडियों के लिये पानी रखने की बात भी कही जा रही है। पिछले साल हम दो ठो मिट्टी के बरतन मंगाये थे चिडियों के लिये पानी रखने के लिये। कुछ दिन रखे भी पानी। कोई चिडिया आयी नहीं। कुछ दिन बाद बंद कर दिया सिलसिला। आज फ़िर से रखना शुरु किया। शायद कोई प्यासी चोंच आये पानी पीने।

पानी धरकर वापस आये। बिस्तर पर बैठ गये। इस बीच अखबार वाले ने नीचे से अखबार फ़ेंका। दरवाजे की चौखट से टकराया अखबार। न जाने किस खबर का सर फ़ूटा होगा। अखबार में कुछ घपले-घोटालों का जिक्र है। कुछ जालसाजी का। एक खबर कुंभ मेले में सुविधायें न मिलने से नाराज त्रिकाल भवंता द्वारा भू समाधि लेने की धमकी देने से संबंधित है। हम अखबार उठाकर लाते हैं। लेकिन किसी हिस्से में चौखट की चोट के निशान नहीं मिलते।

चौखट की चोट से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता याद आ गयी अनायास-

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों में कुछ
समझ नहीं पाया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गये से एक संस्मरण याद आया। मेरे मामा स्व. कन्हैयालाल नंदन जी ने कहीं जब धर्मयुग में कई साल काम करने के बाद दिल्ली में पराग के संपादक बनकर आये तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी थे स्टाफ़ में। सर्वेश्वर जी नंदन जी से सीनियर थे काम-काज, उमर, अनुभव में। उनको नंदन जी का संपादक बनाया जाना पसंद नहीं आया होगा। नंदन जी ने उनको बुलाया होगा अपने केबिन में तो वे गये नहीं यह कहकर कि संपादक के केबिन का दरवाज मेरे कद से छोटा है। वहां सर झुकाकर जाना मुझे पसंद नहीं है। यह बात जब नंदन जी को पता चली तो उन्होंने चौखट छिलवा दी ताकि सर्वेश्वर जी सर उठाकर अंदर आ सकें। बाद में वे उनके संबंध बहुत अच्छे रहे।

चाय एक कप पीने के बाद फ़िर मन किया और पी जाये। लेकिन सीधे कैसे कहें? सीधे कहने चलन कम होता जा रहा है आजकल। फ़ोन करके कहा - चाय में चीनी ज्यादा डाल देते हो यार तुम। कम चीनी की एक चाय ले आओ। चाय आ गयी। पीते हुये पोस्ट लिख रहे हैं। इसमें भी चीनी कम नहीं है लेकिन अब और पीने का मन नहीं इसलिये

शिकायत नहीं करेंगे।

इत्ती लिख लिया। अब सोचते हैं पोस्ट कर दें। लेकिन फ़िर सोचा कि फ़ोटो भी सटा दें एक। फ़ोटो किसकी लें सोचा। अस्त-व्यस्त मेज की, चाय के कप की, सड़क पार जाते साइकिल सवार की। फ़िर सोचा कि जो पानी धरा चिडियों के लिये उसकी ही ले ली जाये। बाहर जाकर फ़ोटो लिया। अब कोरम पूरा हो गया। पोस्ट कर देते हैं जो होगा देखा जायेगा।

Sunday, April 24, 2016

’शिकारी का अधिकार’ की भूमिका


कल लखनऊ में आरिफ़ा एविस के व्यंग्य संग्रह ’शिकारी का अधिकार’ का विमोचन हुआ। उस किताब की भूमिका अपन ने लिखी थी। बांचियेगा ? लीजिये पेश है। :)
’शिकारी का अधिकार’ की भूमिका
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आरिफ़ा एविस से कुछ दिन पहले ही फ़ेसबुक पर मित्रता हुई। उनकी दीवार पर खूब सारे लेख लगे हुये देखे। लगा कि धड़ाधड़ लेखिका हैं। नियमित लिखती हैं। मुझे लगा ऐसे–कैसे कि कोई नियमित व्यंग्य लिखता हो और हम उससे परिचित न हों। लेकिन यह सच ही था।

पहले भी कई बार ऐसा हुआ कि हम सालों से व्यंग्य लेखन में जुटे बड़े-बड़े पहलवानों को बहुत देर में जान पाये। पर अपनी काहिली और अज्ञानता के लिये दूसरे को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है, हम कोई जनसेवक तो हैं नहीं तो जो अपनी सारी घामड़पने का ठीकरा दूसरों के सर पर ठोंक दें।

मैंने Arifa के कुछ लेख देखे तो सहज सवाल किया- “अच्छा तो तुम व्यंग्य लेखिका हो?”


इस पर उनका कहना था आपने मुझे ’व्यंग्य लेखिका’ कहा तो मेरे ’पहले व्यंग्य संग्रह’ की भूमिका लिखिये। मने अपराध किया, तो सज़ा भुगतो। हमने भी झट से स्वीकार कर लिया सोचा कि कहने में क्या हर्ज? जब लिखना होगा तब देखेंगे। अपने कई दोस्तों की किताबों की भूमिका लिखने के लिये हामी भरकर हम गोली देते रहे हैं फ़िर उन्होंने मजबूरी में ख्यातनाम की लेखकों से भूमिका लिखवाकर अपनी किताबें छपवाईं।

लेकिन आरिफ़ा ने बताया कि भूमिका फ़ौरन लिखनी है। संग्रह तुरन्त आना है। हमने टालने के लिये चालू हथकंडे अपनाये जैसे हमारी तो कोई किताब आई नहीं , हम कोई व्यंग्य लेखक के रूप में कुख्यात तो हैं नहीं, Subhash Chander जी के व्यंग्य संग्रह की समीक्षा लिखी है तुमने, उनसे लिखवा लो , वे लिख देंगे। वे मूड बनाकर हफ़्ते भर में उपन्यास लिख मारते हैं तो किताब की भूमिका तो आधे घंटे में लिख देंगे।

लेकिन आरिफ़ा मानी नहीं और कहा- ’भूमिका आपको ही लिखनी है।’ आगे धमकी भी दे दी- ’नहीं लिखेंगे तो कोई बात नहीं व्यंग्य संग्रह तो छपना ही है।’

अब जब जिम्मेदारी आ ही गयी तो हमने कई भूमिकायें पढीं। सोचा उनमें से कुछ टीपकर लिख देंगे। यह भी मन किया कि मौके का फ़ायदा उठाकर व्यंग्य के बारे में झन्नाटेदार बयानबाजी करते हुये कुछ लिख दें। जैसे कि – ’आज व्यंग्य के नाम पर सपाट लेखन हो रहा है, सरोकार के नाम पर पठनीयता की गर्दन रेती जा रही है, व्यंग्य को लोग लफ़्फ़ाजी मसखरी समझते हैं, व्यंग्य के नाम पर खिलवाड़ कर रहे हैं लोग, व्यंग्य के नाम पर मठाधीशी कर रहे हैं चुके हुये लेखक, अमां ये व्यंग्य लिखते हैं या वीररस की कविता, इनसे न हो पायेगा व्यंग्य लेखन आदि-इत्यादि। लेकिन यह सोचकर नहीं लिखा कि अगर हम यह लिखेंगे तो कोई न कोई टप्प से कहेगा- ’इसमें नया क्या है? यह तो हम पहले ही कह चुके हैं।’

व्यंग्य पर बातचीत करते हुये कहा जाता है कि व्यंग्य विसंगतियों को उद्घाटित करता है। आज का समय बीहड़ विसंगतियों का समय है। समाज के हर हिस्से में विसंगतियों की भरमार है। इस लिहाज से देखा जाये तो व्यंग्य लेखन के सबसे शानदार मौका है आज के समय में। इस मौके का फ़ायदा उठाते हुये लोग दनादन व्यंग्य लिख रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकायें नियमित व्यंग्य लेखकों को मौका दे रहे हैं। इसके अलावा ब्लॉग, फ़ेसबुक और अन्य साइट में लोग व्यंग्य लेखन के जौहर दिखा रहे हैं।

विसंगतियों को उद्घाटित करने वाले व्यंग्य के साथ एक विसंगति यह भी दिखती है कि आदर्श व्यंग्य क्या है , कौन व्यंग्य लेखन आदर्श व्यंग्य लेखक है इस पर व्यंग्य लेखकों में काफ़ी मतभेद हैं। हरेक के अपने-अपने पसंदीदा लेखक हैं। जिसको एक घराने के लोग बेहतरीन व्यंग्यकार मानते हैं उसको दूसरे घराने के लोग चलताऊ और चुक गया बताते हैं। दूसरे घराने के लोग पहले घराने के शानदार लेखक को पुराना और एक पीढी पहले की बातें लिखने वाला बताते हैं। शायद ऐसा पहले भी रहा होगा। पहले भी लोग एक-दूसरे को खारिज करते, तारीफ़ करते, झेलते सराहते लिखते रहे होंगे।

साहित्य की अन्य विधाओं की तरह हिन्दी व्यंग्य में भी महिला लेखक अल्पसंख्यक हैं। आज के समय Shefali Pande, Archna Chaturvedi , Indrajeet Kaur , Niraj Sharma , Veena Singh और अब ये आरीफ़ा के लेख नियमित दिखते हैं। इसके अलावा परसाई जी की बात ’व्यंग्य एक स्पिरिट है, विधा नहीं’ के हिसाब से देखें तो तमाम लेखिकायें सोशल मीडिया पर जैसे Anita Misra , सुनीता सनाढ्य पाण्डेय, Kanupriya , Manisha Pandey आदि हैं जो सामाजिक विसंगतियों, स्त्री पुरुष गैर बराबरी और राजनीतिक धतकर्मों पर अपनी बहुत प्रभावी तरीके से चोट करती रहती हैं। ये तो वे हैं जिनसे हम परिचित हैं। इनके अलावा और भी अनगिनत होंगी जो व्यंग्य लिख रही होंगी। पर उनसे हम परिचित नहीं हैं।

आरीफ़ा नियमित लिखती हैं। समसामयिक विषयों मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करती हैं। समीक्षा भी लिखती हैं। उनके लेखन से समाज के वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति और समाज की दुर्गति के लिये जिम्मेदार संस्थानों के प्रति धिक्कार भाव साफ़ नजर आता है।

आरिफ़ा का पहला व्यंग्य लेख मैंने पढ़ा – ’भारत माता की जय।’ इस लेख से उनकी पक्षधरता का अंदाज लगता है। इसमें इस बात पर व्यंग्य किया गया है कि किस तरह जनता के नुमाइंदे नारेबाजी करते हुये समाज की बेहतरी से जुड़े मूल मुद्दे दायें-बायें करने में जुटे हुये हैं। वे लिखती हैं:

“वो बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल की शक्ल नहीं देखी और वो बच्चे जो स्कूल सिर्फ एक वक्त के खाने के लिए भिखमंगे बना दिए गये है अगर वे भारतमाता कि जय नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा।“

इस लेख के बाद और लेख भी पढे मैंने आरिफ़ा के। शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार की ये पंक्तियां यह बताती हैं कि शोषक वर्ग समाज में यथास्थिति बनाये क्या-क्या हथकंडे अपनाता रहता है:

“जंगलीकानून को जन्मजात माना जाये .....शेर बकरी को खाता है, बकरी घास को खाती है.....यही सच है.... यह सदियों से चला आ रहा है। अतः इसको कोई भी राजा के रहते छीन नहीं सकता। सियार और भेड़ियों को अपने इलाके में शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।“

अधिकतर व्यंग्यकारों की तर्ज पर परसाई जी उनके पसंदीदा व्यंग्य लेखक हैं। परसाई जी को पसंद करने का कारण उनका दृष्टिकोण, पुराने ढांचे की टूटन और नए समाज की बेजोड़ संकल्पना है।

आज जहां सोशल मीडिया के चलते लोग अपनी अभिव्यक्ति को मनचाहा स्वर दे रहे हैं वहीं ऐसा भी हो रहा है कि खिलाफ़ अभिव्यक्ति को देशद्रोह बताकर देशबदर करने की बाते कहना भी बहुत आम हो गया है। इसी बात को अपने लेख ’हरेक बात पर कहते हो घर छोड़ो’ में इस तरह व्यक्त किया है आरीफ़ा ने:-

“इस घर में उठने वाली हर आवाज को बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगेगी। समस्या को सहन करो पर चूं न करो। गर चूं करी तो बिना लिए दिए आपको दूसरे घर की नागरिकता मिल जाएगी। इसीलिए घर छोड़ो अभियान चलाने के लिए पूरी टीम बना दी गई है जो घर का भक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।“

आरीफ़ा के व्यंग्य लेख के शीर्षक ही पूरे लेख का लब्बो-लुआब बयान कर देते हैं। कलकत्ते का पुल गिरने पर व्यंग्य करते हुये आरीफ़ा के लेख का शीर्षक ही अपने में एकलाईना व्यंग्य है – ’पुल में दबकर मरने वाले जिंदा ही कब थे।’

आज के समय में दुनिया भर में बाजार की ताकत के सामने में लोकतांत्रिक सरकारों के समर्पण करने के रवैये को बयान करते हुये आरीफ़ा लिखती हैं- “अगर किसी को ज्यादा प्यास सता रही है तो कोका कोला पी लो। देश की प्यास बुझाने के लिए सभी नदियों को एक-एक कर बेचा जा रहा है जब पानी ही देश का नहीं होगा तो पानी की लड़ाई भी अपने आप खत्म हो जाएगी।“

आरिफ़ा के इस संग्रह की अच्छी बात यह है कि उन्होंने अपने 15 व्यंग्य लेख ही इसमें शामिल किये हैं। इसके पीछे किताब की कीमत कम रखते हुये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना मुख्य उद्देश्य है। उम्मीद करते हैं कि वे अपने उद्धेश्य में सफ़ल होंगी और उनकी देखा-देखी और लोग भी अपने संग्रह छपवाने के लिये बुढापे तक इंतजार न करेंगे जैसा परसाई जी के समकालीन लेखक साथी रामानुज प्रसाद श्रीवास्तव ’ऊँट’ की सुपौत्री साधना उपाध्याय को करना पड़ा। साधना जी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे व्यंग्य लेखों का संग्रह ’बोया गुलाब उगा करेला’ जब छपा तो उन्होंने लिखा- ’जीवन के चौहत्तरवें वर्ष प्रवेश पर अब यह प्रकाशन करना उसी मुहावरे को सिद्ध करता है- बुढापे में लड़कौरी।’

आरीफ़ा ने अभी लिखना शुरु किया है। उनकी तुलना किसी ख्यातनाम लेखक से करना उनकी संभावनाओं की सीमित करने जैसा होगा। लेकिन अभी तक उनके जितने भी लेख मैंने पढ़े हैं उनसे लगता है उनकी समझ साफ़ है, संवेदना विराट है। समय के साथ उनके लेखन में निखार आयेगा। व्यंग्य विधा की नयी-नयी कसीदाकारी सीखेंगी।

यह भी लगता है कि इसी तरह लिखती रहीं तो आगे चलकर बड़ी लेखिका बनेंगी और हम भी फ़क्र से कहते फ़िरेंगे- ’इनकी पहली किताब की भूमिका मैंने लिखी थी।’

आरिफ़ा को उनके पहले व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन के लिये बहुत-बहुत मुबारकबाद, शुभकामनायें।
अनूप शुक्ल
जबलपुर।

Saturday, April 23, 2016

पाठक तक गए बगैर कोई भी लेखन पूरा नहीं होता

कल लखनऊ में अट्टहास सम्मान समारोह में शुरु हुआ। जाने की इच्छा के बावजूद जा नहीं पाया। वहां जाता तो तमाम लोगों से मिलता और समारोह की लाइव रिपोर्टिंग करता। मजे लेते हुये। अभी तो वहां की फ़ोटुयें देखकर ही आनन्दित हो रहे हैं।

व्यंग्य से मेरा जुड़ाव एक पाठक की हैसियत से रहा है। काफ़ी दिनों से। ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई तो मुफ़्त की सुविधा का इस्तेमाल करते हुये छुट-पुट लिखते भी रहे। दोस्त लोग तारीफ़ करते। मजे लेते। कभी-कभी किसी को ज्यादा मजे लेने का मन होता तो लिखता- ’ तुम्हारे लेख में परसाई की छवि है, ऐसा लगता है श्रीलाल शुक्ल पढ रहे हैं।’

ब्लॉग और सोशल मीडिया का यह फ़ायदा है। आज के समय में सैकडों, हज्जारों लोग ऐसे होंगे जिनके लिखे को पढकर उनके मित्र बदले की भावना से उनके लेखन को परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी आदि के बराबर बताकर बेवकूफ़ बनाते हुये परेशान करते हैं। तमाम हैं जिनको इस तरह बेवकूफ़ बनना सुहाता भी है। उनमें से कुछ अखबारों और पत्रिकाओं में छपने लगते हैं उनकी तो तबियत और गड़बड़ा जाती है।

लेखन के बारे में श्रीलाल शुक्ल जी ने एक लेख में लिखा था:

"लेखन-कर्म महापुरुषों की कतार में शामिल होने का सबसे आसान तरीका है। चार लाइने लिख देने भर से मैं यह कह सकता हूं कि मैं व्यास, कालिदास, शेक्सपीयर, तोल्सताय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रेमचन्द की बिरादरी का हूं।

इसके लिये सिर्फ़ थोड़े से कागज और एक पेंसिल की जरूरत है। प्रतिभा न हो तो चलेगा, अहंकार से भी चल जायेगा- पर इसे अहंकार नहीं लेखकीय स्वाभिमान कहिये। लेखकों के बजाय आप किसी दूसरी जमात में जाना चाहें तो वहां काफ़ी मसक्कत में करनी पड़ेगी; घटिया गायक या वादक बनने के लिये भी दो-तीन साल का रियाज तो होना चाहिये ही। लेखन ही में यह मौज है कि जो लिख दिया वही लेखन है, अपने लेखन की प्रशंसा में भी कुछ लिख दूं तो वह भी लेखन है।"

चूंकि मेरे कुछ लेख अखबार में भी छपे हैं इस लिहाज से मैं परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी जी की बिरादरी का हूं। लेकिन व्यंग्य की मेरी समझ उतनी ही है जितनी किसी वकालत की पढाई करके स्वास्थय विभाग का मंत्री की समझ डाक्टरी मामलों में हो सकती है। सच तो है कि जब साथी लोग व्यंग्य की गहरी बातें करते हैं तो मुझे डूबने का एहसास सा होता है। मैंने कई बार सोचा कि इस बार छुट्टी में अमिधा, व्यंजना, लक्षणा का मतलब समझना है लेकिन सोच कार्यरूप में परिणत न हो सका।

पाठक की हैसियत से कुछ रुचियां बनी उनके हिसाब से कुछ पसंदीदा लेखक हैं। पढते सभी को हैं। सोशल मीडिया में जब साथी अपना लेख लगाते हैं तो सबसे पहले वाह, बहुत अच्छे, बधाई आदि लिखते हैं इसके बाद लेख पढ़ना शुरु करते हैं। पहले बधाई इसलिये लिख देते हैं कि कहीं लेख पढ़ने के बाद न लिखने का मन हुआ तो खराब लगेगा।

किसी लेखक के लिखे में किसको क्या पसंद आता है यह कहना बड़ा मुश्किल होता है। आज के समय में सक्रिय बेहतरीन व्यंग्यकारों में से एक ज्ञान चतुर्वेदी जी के तमाम लेखन में से मुझे ये प्रसंग याद आते हैं:

"१. अगस्त 2015 में उनके वक्तव्य का वह अंश जिसमें उसमें उन्होंने कहा था- हम जो आज हैं उससे हमें बेहतर होना है। हमें बेहतर लेखक, बेहतर मनुष्य, बेहतर पति, बेहतर पिता , बेहतर ........बनना है।
२. मरीचिका उपन्यास का वह अंश जिसमें कवि निराश होकर अपनी पत्नी से कहता है - आज सब घटिया कविता लिखकर इनाम पा रहे हैं। मैं वह सब कर नहीं सकता। यह कहकर वह कविता लिखना छोड़ने की बात करता है। तब उसकी पत्नी उसको समझाती है - यही तो सबसे उपयुक्त है जब तुमको कविता लिखनी चाहिये। इसी समय तो समाज को तुम्हारी कविता की जरूरत है। "
और भी हैं लेकिन ये प्रसंग अनायास याद आते हैं। इनमें व्यंग्य कहीं नहीं है लेकिन आज के समय में सबसे अच्छे माने जाने वाले व्यंग्यकार के लेखन के यही अंश मुझे हमेशा याद आते हैं। कहने का मतलब यह पाठक के ऊपर है कि वह किसी लेखक से क्या ग्रहण करता है।
अट्टहास इनाम पर कुछ लोगों को आपत्ति रही। कुछ ने इस पर इशारे में तो कुछ ने सीधे-सीधे लिखा। लिखने वालों में व्यंग्यकार ही थे। Suresh Kant जी ने आज लिखा:

" कल लखनऊ की 'माध्यम' साहित्यिक संस्था द्वारा लखनऊ स्थित हिंदी भवन में वरिष्ठ व्यंग्यकार हरि जोशी को अट्टहास शिखर सम्मान से सम्मानित कर 'देर आयद दुरुस्त आयद' मुहावरे को चरितार्थ किया गया। अगर इस मुहावरे का खयाल न रखना होता, तो जोशी जी यह पुरस्कार बहुत पहले ही पाने के हकदार थे। और हाँ, हिंदी-व्यंग्य पर कुंडली जमाए बैठी तिकड़ी की पकड़ ढीली न हुई होती, तो यह पुरस्कार उन्हें अब भी न मिला होता। तिकड़ी की एक भी कड़ी ने समारोह में शामिल न होकर यह साबित करने में संकोच भी नहीं किया।

इस छिन्न-भिन्न तिकड़ी की जगह लेने को बेताब एक नई तिकड़ी ने भी समारोह का बहिष्कार कर एक अन्य मुहावरे को चरितार्थ किया--रानी रूठेगी अपना सुहाग लेगी। "

सुरेश जी ने जिन दो तिकडियों का जिक्र किया उनमें से एक का तो अंदाज लगाया जा सकता है लेकिन दूसरी के बारे में सिर्फ़ कयास ही लगाये जा सकते हैं। मेरे एकाध मित्रों ने बताया भी कि उनको फ़ोन करके इस कार्यक्रम का बहिष्कार करने आह्वान किया गया था। उनके विरोध का कारण शायद यह रहा हो कि उनके हिसाब से चयन गलत हुआ। इसलिये आयोजन का बहिष्कार करके व्यंग्य का स्तर ऊपर उठाया जाये।
अपनी-अपनी समझ है। मेरी समझ में इनाम देने वाली संस्था जिसको सम्मानित करना चाहती है उसको करती है। अगर सम्मान पाने वाले लोग पात्र नहीं हैं तो उस संस्था के इनाम की छवि अपने आप कम हो जायेगी। ’पहल सम्मान’ बहुत कम पैसों का दिया जाता था लेकिन उसकी गरिमा हमेशा बनी रही क्योंकि जिनको वह दिया गया वे सक्षम रचनाकार थे।

जिनको लगता है कि सम्मान और पुरस्कार हमेशा हर तरह से सुपात्रों को दिये जाते रहे हैं उनके लिये यह प्रसंग परसाई जी पुस्तक ’मेरे समकालीन’ की भूमिका से:

" माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषा को ओज दिया, कोमलता दी, मुहावरे को तेवर दिया और अभिव्यक्ति को ऎंठ दी। वे शक्तिशाली रूमानी कवि, ओजस्वी लेखक तथा वक्ता थे। ‘निराला’ के बाद वही थे, जिन्होंने काव्य-परिपाटी तोड़ी। उनमें विद्रोह और वैष्णव समर्पण एक साथ थे। एक तरह से वे ‘मधुर-साधना’ वाले कवि थे। परंतु ‘कर्मवीर’ में उनके संपादकेय लेख व टिप्पणियां आज पढ़ते हैं तो चौंक जाते है। उनमें वर्ग-चेतना प्रखर थी। अगर कहीं उनका वैज्ञानिक समाजवाद का अध्ययन हो गया होता तो बड़ा कमाल होता। पर वे मोहक किंतु अर्थहीन भी लिखते थे। रंगीन, रेशमी पर्दे के पीछे कभी-कभी कुछ नहीं होता था। उनके लेखन के कुछ ‘मैनेरिज्म‘ थे। उनके पहले ही दो पैराग्राफ़ में ‘तरूणाई’, ‘पीढ़ियां’,मनुहार’,बलिपथ,’कल्पना के पंख’ आदि शब्द आ जाते थे। मेरी उनसे एक बार भेंट हुई थी, कुछ भाषण सुने थे। अंतिम बार मैने उन्हें गोदिया में मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में देखा। इसमें अध्यक्षता के लिए हमारे उम्मीदवार प्रखर समाजवादी पंडित भवानीप्रसाद तिवारी थे। मुक्तिबोध भी आए हुए थे। परंतु प्रदेश के अर्थमंत्री ब्रजलाल बियाणी भी अध्यक्ष बनना चाहते थे। उनकी तरफ़ से पूरी शासकीय मशीनरी और व्यापारी वर्ग लगा था। पर पलड़ा भारी तिवारी जी का था और बियाणी जी हार भी गए थे। पर तभी परम श्रद्धेय पंडित माखनलाल चतुर्वेदी को पूरी नाटकीयता के साथ मंच पर लाया गया। दोनों तरफ़ से दो आदमी उन्हें सहारा दे रहे थे। माखनलाल जी को अभ्यास था कि अब और कैसे बीमार दिखना, कितने पांव डगमगाना, कितने हाथ कंपाना, कितनी गर्दन डुलाना, चेहरे पर कितनी पीड़ा लाना। उन्हें कुर्सी पर बिठाकर उनके सामने माइक लाया गया। उन्होंने कांपती आवाज में कहा- मैं चालीस वर्षों की साधना के नाम पर यह चादर आपके सामने फ़ैलाकर आपसे भीख मांगता हूं कि बियाणी जी को अध्यक्ष बनाएं। वे सम्मेलन का भवन बनवा देंगे और बहुत रचनात्मक कार्य करेगें। हम लोग क्या करते? हमने अर्थमंत्री बियाणी को अपमान के साथ अध्यक्ष बन जाने दिया और माखनलाल जी का कर्ज पूरा उतार दिया। मुक्तिबोध ने नागपुर लौटकर ‘नया खून’ में एक तीखा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘साहित्य के काठमांडू का नया राजा’। "

मुक्तिबोध का निधन 1964 में हुआ। मतलब यह किस्सा साठ के दशक का होगा। जिनको लगता है कि चयन गलत हुआ उनको यह समझकर तसल्ली करनी चाहिये परम्परा का निर्वाह हुआ है।

वैसे जिनको अट्टहास से सम्मानित लेखकों से नाराजगी है उनके लिये राजकशोर जी की यह बात पेश है:

"पाठक तरह-तरह के होते हैं तो लेखक भी तरह-तरह के होते हैं। जैसे हर पाठक अपना लेखक खोज लेता है, वैसे ही हर लेखक अपना पाठक खोज लेता है। दोनों के मिलन की यह घड़ी अपूर्व आनंदमयी होती है। वस्तुतः लेखक लिखता अपने मौज में है, पर वह सिर्फ अपने लिए नहीं लिखता। पाठक तक गए बगैर कोई भी लेखन पूरा नहीं होता। जैसे नदी की सार्थकता महासागर में जा कर विलीन होने में है, वैसे ही रचना की सार्थकता पाठक के अंक में जा कर संतृप्त होने में है। "

तो यह मानकर बात मटिया देनी चाहिये इनाम देने वालों को पाठक की हैसियत से लेखकों की बात पसंद आ गयी होगी।

वैसे लोगों की नाराजगी जायज भी है। जिस तेजी से लिखने वाले बढ रहे हैं उस तेजी से इनामों की संख्या नहीं बढ रही है। जैसे अदालतों में जजों की संख्या में कमी के चलते अनकों मुकदमें लंबित पड़े रहते हैं वैसे इनामों की संख्या कम होने के चलते अच्छा लेखन स्थगित होता रहता है। लोग लिखते-लिखते बुढा जाते हैं पर कोई इनाम नहीं मिलता। अखबार भी पारिश्रमिक देते नहीं। मुफ़्त में लेख छापते हैं या ब्लाग से उठा लेते हैं। ऐसे में खराब तो लगता है न !

हमने तो इसी चक्कर में व्यंग्य लिखना ही बन्द कर दिया है। क्या फ़ायदा जब कुछ हासिल नहीं होना इस सबमें। जबकि सच्चाई यह है कि व्यंग्य लिखने की बात तो दूर हमको तो समझने की तमीज नहीं। होती तो इतनी सब बकवास लिखते भला । :)
 
डिस्क्लेमर: यह पोस्ट बिना किसी डिस्क्लेमर के इसलिये ताकि डिस्क्लेमर बाद में लिख सकें जरूरी हो तो।





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Friday, April 22, 2016

अट्टहास सम्मान

आज लखनऊ की अट्टहास गोष्ठी में जाना था। जा नहीं पाया। अफ़सोस है। अनूप जी माफ़ करेंगे।

'अट्टहास' हास्य-व्यंग्य पर केंद्रित पत्रिका है। छंटे हुए रचनाकारों की छंटी हुई रचनाएँ छपती हैं इसमें। हमारे नामराशि अनूप श्रीवास्तव जी इसके प्रधान सम्पादक हैं। सालों तक अख़बार में नियमित व्यंग्य लिखते रहने वाले अनूप जी वाकई में अद्भुत ऊर्जा के धनी हैं।

अट्टहास पत्रिका हर वर्ष युवा और वरिष्ट अट्टहास पुरस्कार प्रदान करती है। इस बार का युवा अट्टहास पुरस्कार नीरज वधवार को और वरिष्ठ अट्टहास पुरस्कार वरिष्ठ रचनाकार हरिजोशी जी को देना तय हुआ है। 

नीरज वधवार वनलाइनर और गैरसरोकारी लेखक होने के लिए बदनाम हैं। इसीलिये कई समर्पित व्यंग्यकार इस बात से खफा भी हैं कि तमाम बेहतर व्यंग्यकारों की अनदेखी करके नीरज वधवार को इनाम दिया गया। कई लोगों ने इस विसंगति पर पोस्टें भी लिखीं।

लेकिन मेरी समझ में यह संस्था का अपना निर्णय है। 'छंटे हुए रचनाकारों की छंटी हुई रचनायें' छांटने वाले लोग अपने हिसाब से इनाम देने के लिए भी लोग 'छांट' ही सकते हैं। वैसे भी इनाम हमेशा 'छंटे हुए लोगों' को ही मिलता है।

सरोकार अगर नहीं हैं नीरज में तो हास्य तो है। अट्टहास पत्रिका हास्य-व्यंग्य की पत्रिका है। व्यंग्य से ख़ारिज करना है तो हास्य तो है बालक में।

हरि जोशी जी ने 11 व्यंग्य संग्रह और 5 व्यंग्य उपन्यास लिखे हैं। इंजीनियर हैं भाई। कागज पर वरिष्ठ अट्टहास पुरस्कार से नवाजने के लिए इससे बेहतर क्या पात्र और कौन होगा भाई।

मुझे जहां तक जानकारी है कि मेरे मामाजी स्व. कन्हैयालाल नन्दन जी को भी अट्टहास सम्मान मिला था।( 2005 में) मेरी जानकारी में उन्होंने हास्य और व्यंग्य लेखन कभी किया नहीं। हास्य-व्यंग्य रचनाओं के संकलन भले किये हों।

यह जानकारी उन साथियों के लिए जो इन सम्मानों के पीछे रचनाओं का स्तर तलाशते हुए हलकान हो रहे हैं। सूची में ऐसे लोगों के नाम भी शामिल हैं जिनको शीर्ष व्यंग्यकार सपाट लेखन घराने के लेखक कहते हैं।

इन बार चयन किये गए रचनाकारों पर आज के समय के व्यंग्यकार जैसी तीखी और हतप्रभ और हक्का-बक्का होने जैसी टिप्पणियां कर रहे हैं उनसे ताज्जुब हो रहा है मुझे कि विसंगतियों के चीरफाड़ करने वाले डॉक्टर इस विसंगति (अगर है भी तो) से इतने हतप्रभ हैं।

इन दोनों रचनकारों और अट्टहास के आयोजकों पर सोशल मिडिया और अन्यत्र अपने तमाम साथियों की तीखी टिप्पणियाँ देखकर परसाई जी अपने मित्र को लिखी टिप्पणी याद आती है:

' हम सभी विभाजित व्यक्तित्व के लोग हैं। हम कहीं बहुत करुण और कहीं बहुत क्रूर होते हैं।'

नीरज वधवार से मेरी एक बार की मुलाकात है। लेखन के चलते ही मुझे बहुत प्रिय हैं। उनको इस इनाम के मिलने की मुझे ख़ुशी है। हरि जोशी जी को मैंने पढ़ा नहीं पर इतने विपुल लेखन के लिए उनके प्रति आदर का भाव है। दोनों को हार्दिक बधाई।

मन मेरा बहुत था कि वहां होता और सभी साथियों से मिलता लेकिन जा नहीं पाने का अफ़सोस है। लोगों को फोटुओं में ही देखेंगे।

अट्टहास टीम और सभी भाग लेने वाले साथियों को कार्यक्रम शानदार और सफल होने की मंगलकामनाएं।
Neeraj Badhwar, Anup Srivastava

Saturday, April 16, 2016

घोडा घोडा दौड़ा घोडा

कल हम लखनऊ की एक सड़क पर कार से चले जा रहे थे। हमारे आगे कुछ वाहन थे, बाकी जो बचे वो पीछे थे। अगल-बगल भी इक्का-दुक्का वाहन गम्यमान थे। पीछे वाले कुछ वाहन हमको ओवरटेक करते हुए आगे निकले जा रहे थे।ओवरटेक करने वालों की गति इतनी तेजी थी लोगों की मानों अगले चौराहे पर पहुंचते ही उनको किसी मन्त्रिमण्डल की शपथ दिला दी जायेगी। हम खरामा-खरामा 'मार्गदर्शक वाहन' की गति से चले जा रहे थे।

अचानक देखा कि हमारी बायीं तरफ एक घोड़ा अपने तांगे को लिए दुलकी चाल से चलने लगा। तांगा सवारी विहीन था। कोचवान रहित भी। घोड़ा सम चाल से चलता हुआ चला जा रहा था।

भीड़-भरी चलती सड़क पर चालक रहित तांगे को चलता देख कौतुहल हुआ। पहला मन किया कि वीडियो बनाया जाए। उस समय तो नहीं लेकिन अभी मन किया कि अगर वीडियो बनाकर किसी चैनल को दे दिए होते तो चैनल वाला और सब कार्यक्रम किनारे करके खबर चलाता - 'उत्तर प्रदेश की राजधानी में बिना चालक दौड़ता रहा घोड़ा देखिये हमारे चैनल पर पहली बार।'

क्या पता शाम को इसी खबर पर प्राइम टाइम बहस भी हो जाती और बिना चालक चलते घोड़े की खबर का कोई फंडू निष्कर्ष आगामी चुनाव से जोड़कर निकल आता। क्या पता कोई वक्ता निष्कर्ष निकालता -' सड़क पर बिना चालक तांगा उसी तरह चला जा रहा है जैसे कि देश/राज्य में राजकाज बिना कानून व्यवस्था के चल रहा है।'

बिना चालक जाते तांगे का वीडियो बनाने के विचार को हमने डांटकर भगा दिया। इसके बाद देखा कि तांगे के पीछे एक आदमी तहमद लपेटे भागता चला जा रहा था। उसकी चाल और घोड़े की चाल एक जैसी थी इसलिए उसके और घोड़े के बीच की दूरी भी एक जैसी बनी रही।

तहमद लपेटे घोड़े के पीछे भागते आदमी को देखते ही अंदाज लगा कि वह घोड़े की 'भलघुड़साहत' पर भरोसा करके तांगे को सड़क किनारे खड़ा करके कुछ और काम निपटाने लगा होगा। इसी बीच घोड़े का मन कुछ और हो गया होगा और वह दुलकी चाल से चल दिया होगा।

हो यह भी सकता है कि घोड़े को लगा होगा कि उसका कोचवान बैठ गया है और यह एहसास होते ही वह चल दिया हो आगे ( कम वजन का मालिक बैठा या न बैठा उसको पता ही न चला होगा) उसकी चाल में विद्रोह का कोई रंग नजर नहीं आ रहा था। न यह लग रहा था मालिक की पकड़ से छूटकर भागा जा रहा है। उसकी चाल में ड्यूटी बजाने वाला भाव ही था।

लेकिन घोड़े को पकड़ने के लिए भागते आदमी के चेहरे पर जो भाव थे उनको देखकर यही लग रहा था मानो कोई मुख्यमंत्री अपने कुछ विधायकों के बागी हो जाने की समस्या से जूझ रहा हो। अब गाड़ीवान बेचारा उसी तरह किसी तरह घोड़े को पकड़ने और काबू पाने की कोशिश में मशक्कत कर रहा था जैसे कुछ विधायकों के बागी हो जाने की स्थिति में अल्पमत में आई सरकार का मुखिया विधायकों को साधने की जुगत भिड़ाता है।
हमने पहले सोचा कि कोचवान को अपनी गाड़ी में बैठाकर उसको घोड़े के आगे ले जाएँ। लेकिन सड़क का ट्रैफिक, तहमत लपेटे भागते चालक और लगातार आगे जाते घोड़े के चलते ऐसा करना कठिन लगा। इसके बाद हम कार आगे ले गए यह सोचकर कि घोड़े के आगे कार खड़ी कर देंगे।


कार आगे ले जाते हुए हमने यह भी सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि घोडा तांगा सहित हमको पीछे से आकर टक्कर मारे और हमारा प्रमुख समाचार हो जाए--' बिना चालक तांगा चलाते हुए घोड़े ने मारी चालक सहित कार को टक्कर' कोई बिंदास अख़बार खबर छपाता 'जबलपुर के अफसर को घोड़े ने लखनऊ में पीछे से ठोंका'। घोड़े और आदमी के बीच का मामला दो अलग-अलग दलों वाली सरकारों के बीच का किस्सा बन जाता।
कार ठुक जाने से बचाने की गरज से हमने अपनी योजना में सुरक्षा का गठबन्धन भी कर लिया और सोचा कि कार आगे कर लेंगे और देखेंगे घोड़ा अपनी गति धीमी करता है तो धीरे-धीरे करके उसको रोक लेंगे। तक तक पीछे से तहमद लपेटे भागता आता तांगा चालक आ जाएगा और पसीने से लथपथ हमको शुक्रिया अदा करते हुए कुछ कहेगा तो हम भी कुछ कह ही देंगे।

लेकिन मेरे सारे प्लान पर कोकाकोला (पानी नहीं भाई पानी बहुत दुर्लभ हो गया है आजकल) फेर दिया एक साइकिल वाले ने। वह लपककर साईकल से आया घोड़े की बायीं और से और उसकी लगाम पकड़कर उसको काबू में कर लिया। सड़क पर दुलकी चाल से चलता हुआ घोडा अचानक 'थम' हो गया।


घोड़े के रुक जाने पर उसका पीछे से भागता आये मालिक ने दनादन उसकी लंबी लगाम फटकारते हुए उसकी पिटाई सरीखी की। तहमदधारी की पिटाई में किसी अल्पमत सरकार के विश्वासमत हासिल करने में सफल हुई सरकार के मुखिया सा गुस्सा और प्यार एक साथ मिला हुआ था। घोड़ा चुपचाप मार खाता रहा। उसकी चुप में सफल अल्पमत सरकार के विधायक सा भरोसा था कि कोई न कोई तो मलाईदार पद मिलेगा ही।

हमको कुछ समझ नहीं आया। हम चुनाव हो जाने के बाद जनता की स्थिति की तरह अप्रासंगिक हो चुके थे। कार आगे बढ़ा दी। आगे जाम लगा था पर ऍफ़ एम पर गाना बज रहा था- 'गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांको जी।'
घोडा घोडा दौड़ा घोडा
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Tuesday, April 12, 2016

इंसान कहे जाने वाले इंसान बहुत कम मिलते हैं



सुबह निकले तो बायीं तरफ़ सूरज भाई आसमान से झांक रहे थे। भक्क लाल मुंह। अब कहने को कह सकते हैं कि बायीं तरफ़ से झांकेंगे तो लाल ही दिखेंगे। तो क्या सूरज भाई वामपंथी हैं? लेकिन वामपंथी होते तो दिन भर बने रहते। कुछ देर बाद रंग बदल लेते हैं भाई जी।

आसमान के झरोखे से झांकते सूरज भाई ऐसे लग रहे थे मानों झरोखे से कोई झांक रहा हो। आसमान में निकलने से पहले जायजा सा ले रहे थे कि बाहर सब ठीक तो है न ! कानून व्यवस्था चौकस हो तब ही निकला जाये।

हम आज पैदल ही निकल लिये टहलने। साइकिल के अलगे पहिये में हवा किसी नदी के जलस्तर सी एकदम तल से लगी थी। उस पर सवारी करते तो रिम सड़क से टिक जाता। ट्यूब और टायर पिचक जाते। भरायेंगे हवा आज। एक ठो हवा भरने वाला पंप भी रखना होगा।

पुलिया पर दो लोग बैठे गाना सुन रहे थे। भजन बज रहा था - 'जय रघुनन्दन जय सियाराम।' पता लगा कि जबलपुर नगर निगम में काम करते हैं। ठेके पर सफ़ाई कर्मचारी हैं। ‍पिछले छह साल से लगे हैं। ड्यूटी का समय सुबह छह से दिन के दो बजे। उसके बाद खाली। रांझी में ड्यूटी है। साथी का इंतजार कर रहे हैं। आयेगा तब तीनों साथ जायेंगे। पांच हजार पाते हैं। खुद का घर है इसलिये खर्च चल जाता है। बोले - 'सब ऊपर वाला चलाता है।'

हमने सोचा ऊपर वाले के पास कितना काम है। सबके काम वही कराता है। सब वही चलाता है। आग वही लगवाता है। पानी वही बरसाता है। दंगा वही करवाता है, जिंदगी वही बचाता है।तगड़ी तन्ख्वाह पाता होगा। आलीशान बंगला होगा। घोड़ा-गाड़ी होगा। मिलता तो पूछते -अरे ऊपर वाले भाई जी, आपके यहां सातवां वेतन आयोग लागू हो गया क्या? डी.ए. कित्ता है? ग्रेड पे और वाहन भत्ता कित्ता है।

सामने वाली पुलिया पर मिसिर जी अपने साथी के साथ बैठे थे। बोले नींद नहीं आती ठीक से। रात को ठंडक लगी तो कन्धे अकड़ गये नमी के कारण। उठकर कूलर बंद किया तब सोये। छुट्टी की बात चली तो एक किस्सा सुनाया कि कैसे उनके बास ने एक दिन की छुट्टी के बदले दो दिन की छुट्टी दे दी थी ताकि तसल्ली से अपने घर-परिवार से मिल आयें।

छुट्टी की बात मजेदार है। कई तरह के बास देखे हैं हमने। कुछ कभी टोंकते नहीं। कई लोग ऐसे भी दिखते हैं जो एक-एक दिन की छुट्टी के लिये हफ़्तों लटकाते हैं।

पुलिया के पास ही दो महिलायें महुआ के पेड़ से सड़क चुआ हुआ महुआ बीनते हुये अपने पास के पालीथीन में भर रहीं थीं। सड़क पर ट्रैफ़िक बहुत कम था इसलिये वे महुआ ऐसे बीन रहीं थीं मानो अपने सड़क उनके घर का आंगन हो। दिल्ली की कोई सड़क होती तो इतनी तसल्ली से सड़क पार करना तक मुहाल हो जाता। लगता कोई गाड़ी ठोंक जाये उसके पहले पार हो जाओ।

दिव्यांग बुजुर्ग लाठी ठकठकाते हुये बगल से गुजरे और लपकते हुये गेट नंबर तीन की तरफ़ चल दिये। मांगने का समय हो गया था उनका।

चाय की दुकान पर एक बच्चा अपने साथ एक बुजुर्ग के साथ आया है। उसकी टी शर्ट पर लिखा है -Being Human . मानें इंसान होना। इंसान की बात से मुझे ये पंक्तियाँ याद आ गयीं:
इंसान कहे जाने वाले
इंसान बहुत कम मिलते हैं
पत्थर तो मन्दिर-मन्दिर हैं
भगवान बहुत कम मिलते हैं।

बालक ने बताया कि जिम से कसरत करके आया है। बारहवीं का इम्तहान दिया है। आई-टी. आई. करेगा अगर एडमिशन हो गया। इंटर के नंबरों के आधार पर चुनाव होता है।

कंचनपुर में रहता है तो उसके घर परिवार का कोई न कोई सदस्य किसी न किसी आयुध निर्माणी में जरूर काम करता होगा -मैंने सोचा। पता चला कि उसके दादा जी जीसीएफ़ फ़ैक्ट्री में काम करते थे।
कई पीढी पहले उसके पूर्वज आये होंगे जबलपुर। बताया कि उसके घर में डेढ सौ साल पुराना एक मंदिर है। काली मंदिर। हम सोचे बताओ हमसे एक किलोमीटर की दूरी पर इतनी पुरानी इमारत के अस्तित्व से अनजान हैं।
इस बीच बुजुर्ग भिखारी चाय की दुकान तक आ गये थे। चाय वाले ने एक ग्लास में चाय लेकर उसको दी। उसने चाय पी और मांगने के लिये गेट नंबर 3 की तरफ़ जाने लगा। एक आदमी उधर तरफ़ से आया और उसको पैसे देकर चला गया। लग रहा था कि उसकी मुट्ठी में कुछ और सिक्के हैं जिनको शायद वह मंगलवार को हनुमान मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बांटने के लिये जा रहा था।
मिसर जी लौटते हुये मिले। बोले जाकर अखबार पढेंगे जाकर। हम भी चले आये। हमको भी रोजनामचा लिखना था।



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Sunday, April 10, 2016

पुराने ख्याल के लोग

कल सुबह फैक्ट्री जा रहे थे तो पुलिया के पास एक महिला दिखी। सर पर टोकरी रखे दोनों हाथ हिलाती हई अपनी गगरी, मटकी बेचकर लौट रही थी। उसका फोटो खींचकर फैक्ट्री चले गए।

दोपहर को लंच पर आते समय पुलिया पर मिले इब्राहम। मोटरसाईकल पर प्लास्टिक के ड्रम, टब और बाल्टी तथा आउट तमाम चुटुर-पुटुर सामान लादे फेरी के लिए निकले थे। दोपहर हो गयी तो पुलिया की छाँह में सुस्ताने लगे। सुस्ताते हुए एक छुटकी डायरी में बिक्री का हिसाब करते जा रहे थे।

बात करते हुए पता चला कि फेरी लगाने के पहले इब्राहम पुताई का काम करते थे। मजूरी। शहर की कई बिल्डिंगों के नाम गिनाये इब्राहम ने जिनकी पुताई की है उन्होंने। एक बार पुताई करते हुए झूले से गिर गए। चोट लग गई तो फिर पुताई के काम से राम-राम कर लिया।


पुताई का काम छोड़ने के पीछे गिरने के अलावा शादी होना भी था। तीन साल पहले शादी हुई फिर बच्ची तो पुताई की अनियमित कमाई से गुजारा नहीं होता था तो फेरी लगाने लगे। उसमें कभी मजूरी मिली न मिली। फेरी लगाने में काम भर का कमा ही लेते हैं। अपने काम का यह भी फायदा जब मन किया फेरी लगाई और जब मन किया आराम।

फेरी के काम को व्यापार मानने वाले इब्राहम का कहना है कि व्यापार में यह आसानी रहती कि एक काम में मन न लगे तो दूसरा कर लो।

मोटरसाइकिल पर ड्रम को लदे देख हमने ताज्जुब किया तो बोले इब्राहम की दस ड्रम तक लाद कर फेरी लगा चुके हैं वे। लोगों ने फोटो भी खींचकर अख़बार में छापी हैं।

मूलत: बरगी बाँध के पास के गाँव के रहने वाले इब्राहिम के पिता जी की जमीन जब डूब क्षेत्र में आई तो उसका मुआवजा भी नहीं लिया उन्होंने। चले आये जबलपुर रोजी कमाने। मुआवजा न लेने का कारण बताते हुए बोले इब्राहिम --'पुराने ख्याल के लोग। जमीन की कीमत का दस फ़ीसदी मुआवजा मिल रहा था। गाँव के किसी को बोल दिया हमाई जमीन भी अपने नाम बताकर ले लेना जो मिले और चले आये शहर।'

नर्मदा नदी पर बने बांध के चलते कई गावों के लोग विस्थापित हुए। पानी, बिजली और सिंचाई की सुविधा के लिए कई गाँव जो डूब क्षेत्र में आये खाली कराये गए। उनमें से एक गाँव हरसूद के डूबने की कहाँनी पत्रकार विजय तिवारी ने बहुत मार्मिकता से बयान की है अपनी किताब 'हरसूद-30 जून' में।उनका एक इंटरव्यू लिया था मैंने विस्तार से। उनका कहना था -' वोट की राजनीति ने बनाये नपुंसक नेता।' इंटरव्यू यहां पढ सकते हैं।
http://www.nirantar.org/0806-samvaad

हम इब्राहिम से बतिया रहे थे तब तक फैक्ट्री से फोन आ गया। वापस किसी काम से फैक्ट्री जाना पड़ा। जब तक लौटे तब तक इब्राहिम कहीं जा चुके थे।

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Friday, April 08, 2016

ये सब बिल्डिंग हमारे सामने बना

किर्बी पैलेस चौराहे पर पानी भरते दांत मांजते लोग
मुख्य सड़क से सौ कदम अंदर जाते ही झुग्गी-झोपड़ियों का जंगल शुरु हो गया।

यह तो रागदरबारी की शुरुआत (शहर का आखिरी छोर जिसे पार करते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता है) की तर्ज पर लिखा।

लेकिन झोपड़ियों के जंगल के पहले आपको मुख्य सड़क दिखाते हैं।

गेस्ट हॉउस के कमरे से बाहर निकलते ही मुंडेर पर मोर चहलकदमी करता दिखा। ऐसे ठुमक-ठुमक कर चल रहा था जैसे रैंप पर कोई माडल। पहले आगे गया। ठहरा फिर पीछे आ गया। हमने फोटो खींचना चाहा तो मुंह घुमा लिया। हमने भी ज्यादा भाव नहीं दिया। टहलने निकल लिए। बाद में देखा वह टुकुर-टुकुर हमारी तरफ देखा रहा था। मानो कहना चाह रहा हो-'अरे हम कोई मना थोड़ी कर रहे थे। लेकिन थोड़ा भाव मारने का मन था। आपने फोटो नहीं खींचा।'


सड़क के अंदर घुसते ही झुग्गी का जंगल शुरू हो जाता है
गेट पर सुरक्षा दरबान मिले सरदार जी। पंजाब के रहने वाले। सेना से रिटायर्ड। 12 हजार देता है ठेकेदार। परिवार गांव में है। यहां 4 लोगों के साथ रहते हैं। डबल ड्यूटी 'मार लेते' हैं खर्च चलाने के लिए। मतलब 24 हजार महीना। बिटिया मेडिकल की तैयारी कर रही है। छोटा बच्चा स्कूल में पढता है। तीन-चार महीने नौकरी करते हैं फिर एकाध महीने के लिए घर चले जाते हैं।

चौराहे पर लोग रिक्शे में पानी की कंटेनर रखे पानी भर रहे थे। पास की ही झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। 2 हजार झुग्गियां हैं। पानी की सुविधा नहीं। यहाँ तिराहे में एक नल से पानी भरने आते हैं।'

अपने विधायक सुरेन्द्र सिंह और केजरीवाल के लिए गुस्सा जाहिर करते हुए बोला पानी भरता हुआ आदमी -'सुरेन्द्र सिंह फ़ौज का सिपाही था। केजरीवाल लहर में जीत गया। अब आता तक नहीं इलाके में। फॉर्च्यूनर में उसके आदमी घूमते हैं उनके पीछे आडी कार में खुद घूमता है।

आगे बताया उसने--'पहले का विधायक था उसका यहां दफ्तर था। लोगों से मिलता था। उनकी समस्या सुनता था। ये तो जब से चुनाव जीता दिखना ही बन्द हो गया। कहता है पानी के लिए 35 लाख का काम कराया है। अरे 35 हजार का काम नहीं हुआ। अब जब चुनाव आएंगे तब आएगा शकल दिखाने।'


चाय की दुकान पर ट्रक ड्राइवर चाय पीते हुए
पानी भरने वाला ड्राइवर है। सहारनपुर का रहने वाला है। वहीं एक लड़का ब्रश से दांत घिस रहा था। हमने कहा--'आज ही सब दांत घिस दोगे तो कल क्या करोगे?' वह मुस्कराते हुए मञ्जनरत रहा। बाद में बताया कि बिहार के पूर्णिया जिला से आया है दिल्ली में मजदूरी करने।

चौराहा पार करते ही सीओडी डिपो के पास सैकड़ों ट्रक खड़े दिखे।मुझे लगा कि ये लोग शायद सामान लेने आये होंगे। आगे गए तो एक चाय की दुकान पर तमाम ड्रायवर बैठे चाय पीते हुए बतिया रहे थे। पता चला कि ये लोग अलग-अलग कंपनियों से सीओडी में माल देने आये थे। कोई प्रॉक्टर एन्ड गैम्बल से। कोई गोदरेज से। कोई कहीं और से।

ड्राइवर टोल टैक्स की बात कर रहे थे। दिल्ली आते ही टोल टैक्स ठुक जाने के कई किस्से। अलग-अलग सामान पर अलग टैक्स।

ड्राइवरों से हमने पूछा कि आप लोगों में कोई ट्रक मालिक भी होगा। लोगों ने कहा-'मालिक ट्रक कहाँ चलाता है।सब ड्राइवर हैं।'

हमने कहा -'कोई ड्राइवर पुराना ट्रक खरीदकर खुद चला सकता है न।'


दिनेश को चाय छानते हुए देखती उनकी जीवन संगिनी
इस पर उसने कहा-'पुराना ट्रक दिल्ली में घुसने नहीं मिलता।ट्रक ड्राइवर के लिए तो यही कहा जाता है:
'भूखे मर नहीं सकते,
तरक्की कर नहीं सकते।'

चाय की दुकान चलाने वाले रमेश 35 साल से यहाँ बसे हैं। कटिहार से आये थे यहां। उन दिनों वहां बाढ़ आती थी। हर साल फसल बर्बाद हो जाती थी। गुजारे के लिए आये थे। तब यहां जंगल था। एम ई एस के ठेकों में मजदूरी करते थे। यहीं बस गए। शादी के बाद पत्नी को भी ले आये। सब बच्चे यहीं हुए।

दो बेटियां हैं दिनेश की। एक एमसीडी में काम करती है। कैजुअल वर्कर में माली का काम। अभी 500 दिन काम नहीं करी है। 500 दिन के बाद परमानेंट हो जायेगी। साल भर से काम नहीं मिला है। दामाद सीओडी में लेबर का काम करता है। दूसरी बेटी की शादी बिहार में किये। बेटा भी साथ में ही काम करता है।

दिनेश के दो नाती नीली शर्ट पहने स्कूल ड्रेस में तैयार हो रहे थे।

इस बीच चौराहे पर पानी भरते हुए मिला ड्राइवर पानी भरकर वापस आ गया था। वह भी यहीं रहता है। उसने चाय वाले से कहा -'इनको बढ़िया चाय पिलाना। बहुत दूर से आये हैं चाय पीने।'

झुग्गी में बिजली नहीं है। प्राइवेट जनरेटर से 20 वाट के सीएफल का 6 घण्टे का 200 रुपया महीना पड़ता है। दो कमरे का घर अलाट हुआ है। 70 हजार जमा किये थे। अभी चाभी नहीं मिली है।

दिनेश की पत्नी और दिनेश दोनों चाय बनाते हुए नाश्ते की तैयारी भी करते जा रहे थे। एक भगौने में आलू और चना साथ-साथ उबल रहे थे।आलू पक गया तो उसके पेट में चाकू घुसेड़कर दुकान मालकिन ने उनको थाली में धर दिया। चना उबलता रहा।

'दिल्ली में पेट पालने के लिए रहते हैं बाकी सुकून तो गाँव-घर में ही रहता है। हर साल महीने भर के लिए चले जाते हैं घर। तब दुकान बन्द रहता है।' दुकान मालकिन ने बताया।

'ये सब बिल्डिंग हमारे सामने बना। हम यहां मजूरी किये हैं। ' -उबलती चाय को छन्नी से हिलाते हुए महिला ने बताया।

फोटो दिखाए तो थंकू बोला बहनजी ने। मन किया प्रिंटर होता तो वहीँ निकाल कर फोटो दे देते उनको। कई बार सोचा है कि प्रिंट कराकर दे देंगे फोटो। लेकिन सोच अमल पर अमल नहीं हुआ अब तक।

लौटते में पानी भरने वाले काम हो गए थे। दरबान सरदार कहीं दूसरी जगह चले गए थे। दूसरे दरबान अख़बार पढ़ रहे थे। ये भी फ़ौज से रिटायर्ड। नायब सूबेदार पद से। हरियाणा के रहने वाले हैं।

बात हुई तो पता चला कि 3 बेटियां और एक बेटा है। बड़ी बेटी मेडिकल में, उससे छोटी इंजीनिरिंग में पढ़ रही है। 3 भी मेडिकल की तैयारी कर रही है। सबसे छोटा बेटा इंटर में गया है।

'एक बेटे के लिए 3 बेटियाँ पैदा की। ये बेटा न होता तो कितनी बेटियां और होती।'- हमने मजे मजे में पूछा।

इस पर जो उन्होंने कहा उसका मतलब यही था कि वे खुद इसके पक्ष में नहीं थे पर दुनिया के रिवाज के चलते हुआ ऐसा।

बच्चों की पढाई का खर्च कैसे निकलता है दरबान का काम करते हुए पूछने पर बोले -' दो जगह दरबान का काम करता हूँ। पेंशन है। इसके अलावा कोई अपना खर्च नहीं। सादा खाना। न कोई नशा न कुछ और। फ़ौज में रहते हुए भी दारू नहीं पी। अब तो बच्चे तैयार हो गए। अगले साल तक बेटी की नौकरी भी लग जायेगी। उनकी पढाई में कमी नहीं आने देंगे चाहे कुछ भी करना पड़े।'

'बेटियां बहुत मानती होंगीं आपको फिर तो'--हमने पूछा।

'हाँ, मेरी बच्चियां बहुत अच्छी हैं। बाहर पढ़ने गयीं। कभी नाजायज खर्च नहीं माँगा। हमने भी उनसे कह रखा है- तुम्हारी पढाई में जो भी खर्च आ आएगा उससे पीछे नहीं हटूंगा। चाहे कुछ भी करना पड़े। जरूरत पड़ेगी तो किडनी तक बेंच देंगे पर पढाई में कोई कमी नहीं आने देंगे।' -इतना सुनने के बाद आगे बात करना कठिन हो गया मेरे लिए। आँख नम हो गयी। मैं हाथ मिलाकर कमरे पर चला आया।

दो दिन पहले शाम को रक्षा मंत्रालय की एक मीटिंग में आये थे दिल्ली। सोचा था कि तमाम मित्रों से मिलेंगे। लेकिन कल रात जब मीटिंग खत्म हुई तो साढ़े आठ बज गए थे। इसलिए किसी से मिलना न हुआ। अब वापस जाने का समय हो गया।

बिना मिले सब लोग मिला हुआ समझना। ठीक न।



  

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Tuesday, April 05, 2016

बहुत दिन बाद दर्शन हुये

क्रासिंग खुलने का इन्तजार है
सुबह साइकिल स्टार्ट करने के पहले देखा कि सड़क पर जाता एक आदमी अपनी दोनों बाहें दोनों तरफ तेजी से फ़ैलाता चला जा रहा था। हाथ फ़ैलाने से ऐसा लग रहा था कि वह अपना रकबा तय कर रहा था। टहलने के दौरान अपनी शरीर के अधिकार क्षेत्र की बाउंडरी खींचता हुआ। कोई उसके अंदर आया तो परिणाम के लिये खुद जिम्मेदार होगा।

पुलिया पर कुछ बुजुर्ग बैठे थे। सबने यही कहा- ’बहुत दिन बाद दर्शन हुये।’ मने हम दर्शनीय आइटम हो गये।
रिटायरमेंट के बाद के फ़ायदे-नुकसान की चर्चा छिड़ गयी। तय हुआ कि फ़ायदा यह कि आदमी स्वतंत्र हो जाता है। नुकसान यह कि संगी-साथी छूट जाते हैं जिनके साथ रहे। इस बीच हमारी फ़ैक्ट्री से तीन पहले रिटायर हुये हरिप्रसाद विश्वकर्मा भी मिले। बताया बढिया कट रही है जिन्दगी।

पास ही सड़क पर दो महिलायें और एक पुरुष निहुरे-निहुरे महुआ बीन रहे थे। आदमी कुछ देर में चल दिया। महिलायें सड़क के किनारे नीचे उतरकर महुआ बीनती रहीं।


हिंदी में पूरे नंबर आने पर मिला इनाम दीपा को
आदमी पुलिया की तरफ़ आया। हमने उसकी पालीथीन देखी। दो-तीन किलो के करीब रहा होगा महुआ। वह पुलिया पर ही बैठकर बीड़ी सुलगाता हुआ सुस्ताता रहा। बाकी लोग महुआ के उपयोग के बारे में बतियाने लगे।
ऊपर निहुरे-निहुरे (झुके-झुके) से लवकुश दीक्षित का लोकगीत याद आ गया-
http://fursatiya.blogspot.in/2005/03/blog-post_26.html
’निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा’
पुलिया से आगे चले तो एक बच्ची साइकिल से जाती स्कूल दिखी। बच्ची सर झुकाये उदास-उदास सी लगी। चलते-चलते बात की तो बताया 12 वीं पढ़ती है। सुबह 0650 से स्कूल है। बारहवीं का दबाब होगा या फ़िर बेमन से साइंस, गणित पढ़ रही होगी या कुछ और पर उसकी आवाज उदास सी थी।
बस स्टैंड पर एक बुजुर्ग अपने हाथों को ही डम्बल की तरह ऊपर-नीचे कसरत करते दीख रहे थे।
पार्क के पास तमाम मजदूर नहा रहे थे। आदमी औरत साथ-साथ। नहाई महिलायें दिशाओं की आड़ में ही कपड़े बदल रही थीं।

दीपा अपना इनाम दिखा रही है। पापा जमीन ठीक कर रहे।
क्रासिंग बंद थी। हम क्रासिंग खुलने का इंतजार करते हुये पास की ही दुकान पर चाय पीने लगे। वहीं अखबार में देखा तमाम नेताओं-अभिनेताओं के नाम विदेशी बैंक में पैसा होने की खबर मोटी हेडिंग में थी।
क्रासिंग, नेता की बात से मुझे याद आया कुलदीप नैयर का संस्मरण। शास्त्री जी की कार से एक बार कहीं जा रहे थे। क्रासिंग बंद थी। कार रुकी तो शास्त्री ने कुलदीप नैयर से कहा -’जब तक क्रासिंग खुलती हैं तब तक आओ गन्ने का रस पीते हैं।’


धूप छाँव में दीपा
रस पीकर उन्होंने पैसे दिये और क्रासिंग खुलने के बाद चले गये। शास्त्री जी उन दिनों गृहमंत्री थे।
बाद में जब वे गृहमंत्री नहीं रहे तो परिवार बड़ा होने के कारण गुजारे में दिक्कत के दिनों में अखबार में लेख लिखकर खर्च चलाने की बात भी कुलदीप नैयर ने लिखी है। शास्त्री जी के निधन पर उनके खाते में बहुत कम पैसे होने की बात भी अखबारों में छपी थी।

अब बताइये एक तरफ़ शास्त्री जी जैसे जननायक थे जो सत्ता की शीर्ष पर रहते हुये भी अभावों में रहे। दूसरी तरह सैंकड़ों टुंटपुजिये नेता-अभिनेता हैं आज के जिनके पास इत्ते पैसे कि उसको विदेश में रखने के लिये तमाम दंद-फ़ंद करते रहते हैं। 'कायस्थ कुलोदभव' का भी नाम उछल रहा है इसमें।

क्रासिंग खुली तो हम आगे बढे। सामने से आ रही साइकिल एकदम सामने आ गयी तो हम रुक गये। सामने वाली साइकिल में सब्जी लदी थी। तराजू हैंडल पर बख्तरबंद की तरह बंधा। उसका बैलेंस गड़बड़ाया तो उतरकर उसने हमको सलाह दी- ’सामने देखकर चलाया करो भाई साइकिल।’


अभय स्कूल जाने के लिए तैयार

क्रासिंग पर राधेश्याम मिल गये। गैस, स्टोव, कुकर रिपेयर का काम करते हैं। पहले भी मिल चुके हैं। उनके एक बेटे का तलाक का मुकदमा चल रहा है। हमने पूछा वो केस कहां तक निपटा। बोले-’ लड़की का बाप निपटाना ही नहीं चाहता। राजी ही नहीं हो रहा तलाक के लिये। देखते हैं कुछ दिन नहीं तो फ़िर कर देंगे लड़के की दूसरी शादी जो करते बने कर लेना।’
हमने कहा-’ लड़की (बहू) परेशान होगी इस लफ़ड़े से।’ इस पर वो बोले-’ वो परेशान होती तो आकर रहती न अपने आदमी के साथ।’
क्रासिंग खुली तो पार हुये। दीपा से मिलने गये आज।बताया उसने कि उसके हिन्दी टेस्ट में पूरे नंबर आये हैं। मैडम ने इनाम दिया है। इनाम में पेंसल, कटर, रबर आदि दिखाये।
हमने कहा-’तुमको पूरे नम्बर कैसे मिले। तुम्हारी तो राइटिंग ठीक नहीं है।’
इस पर वो बोली-’ हम घर में खिचड़ी पकाते हैं लिखने में पर स्कूल में अच्छा लिखते हैं।’ बता रही थी कि गणित में भी पूरे नंबर आयेंगे।
कान में पीला-पीला कुछ लगा दिखा तो हमने पूछा -’ ये क्या हुआ?’
उसने बताया- ’ हमने बबूल के कांटा से कान में छेद किये तो पापा ने कहा हल्दी लगा लो। इससे कान पकेंगे नहीं।’
हमने पूछा- ’अपने आप कान कैसे छेदे, क्यों छेदे?’
’हमने शीशा में देखकर अपने आप छेद लिये। कान छेदने वाले जो छेदते हैं उससे बहुत दर्द होता है इसलिये अपने आप छेद लिये। ’- दीपा ने बताया।
रिक्शा नहीं दिखा वहां। पता चला कि रिक्शे में सवारी नहीं मिलती टेम्पो के चलते तो रिक्शा जमा करवा दिया कोमल ने। 35 रुपया किराया था उसका रोज का।
’अब मजदूरी करते हैं रोज। ढाई सौ रुपये तो कहीं नहीं गये।’ - फ़ावड़े से फ़र्श बराबर करते हुये बताया कोमल ने।
लौटते में देखा कि काम से निकलने के पहले मजदूर महिलायें और पुरुष शीशे में खुद को देखते हुये बाल काढ रहे थे, चोटी कर रहीं थीं।
आटो स्टैंड पर अभय मिले। उसने हमको देखकर हाथ हिलाया तो हमने साइकिल मोड़ी और बतियाये उससे। उसकी फ़ोटो भी खींच ली। नाम का मतलब अब समझ में आ गया है उसको। नाम का मतलब बताने के लिये हमने उससे जबरियन थंकू बुलवाया। उसने बोला भी। हमने पूछा- ’कल क्यों नहीं बोला था थंकू?
उसने कहा- ’कल आटो आ गया था इसलिये चले गये थे।’ :)
कल जो लिखा था अभय के बारे में उसको पढ़वाया। पूछा भी कि कोई चिढ़ाता तो नहीं दांत के बीच गैप के कारण। उसने कहा - ’नहीं कोई चिढ़ाता नहीं। कभी-कभी भाई मजे लेता है।’
आजकल के बच्चे समझदार हो रहे हैं

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Monday, April 04, 2016

लेकिन इन बच्चों के लिये सुबह कब होगी?


मानो ठेला खुद चला जा रहा हो घड़े लिए
आज जब निकले तो काम भर की सुबह हो चुकी थी। सूरज भाई अपनी ड्यूटी संभाल लिये थे। किरणों, रश्मियों को इधर-उधर दौड़ा रहे थे। कभी-कभी किरण को बोलते इधर जाओ, कुछ देर में उसी को कहीं दूसरी जगह भेज देते। किरण पसीना-पसीना होकर पहुंचती तो उससे कहते-’अरे,तुम उधर कहां पहुंच गयी।’

कोई किरण चुप रहती। कोई मुस्कराते हुये कहती- ’आप भी भुलक्कड़ होते जा रहे हो दादा! तुम जहां बोले हम वहां पहुंच गये। अब फ़िर हल्ला मचा रहे हो कि उधर कैसे पहुंच गयी।’

सूरज भाई उस किरण की बात सुनने और मुस्कराट पर इतना लडिया गये कि उसकी सहेली किरण को एक साथ दो जगह जाने के लिये बोल दिये। इस पर दोनों इतनी तेज खिलखिलाकर हंसने लगी कि बेचारे एक मिनट के लिये बादलों की ओट में छिप गये। बाहर आये तो उस किरण ने आंख नचाते हुये पूछा -’हां तो किधर जाना है दादा बताओ।’


कोमल घड़े बेंचने के लिए ले जाते
सूरज भाई उसकी हंसी और मुस्कराहट निहारते हुये बोले-’ बहुत शैतान हो गयी हो तुम।’

हमको साइकिल से जाते देख सूरज भाई कैरियर पर लदकर बतियाते हुये अपने हाल-चाल बताने लगे। सड़क पर पेडों से गिर हुये पत्ते हमको देखकर कुछ घबराये से दिखे कि कहीं कुचल न जायें। हवा ने उनको प्रेम से किनारे कर दिया।

पुलिया पर फ़ैक्ट्री की कामगार महिलायें आधा घंटा पहले से ही जमी हुई थीं। घर से बहुत सुबह चल देती होंगी। सवारी का कोई भरोसा नहीं। कुछ पैदल चलते हुये भी आना होता है न ! सामने की पुलिया पर एक लड़का मोबाइल में मुंडी घुसाये कुछ देखता दिखा।


सामने से फोटो कोमल का
फ़ैक्ट्री के बाहर तमाम ट्रेलर में सामान लादे खड़े थे। कल इतवार को छुट्टी थी। बहुत सामान उतरने के लिये अंदर जायेगा आज।

चाय की दुकान पर एक मद्रासी ड्राइवर चाय पी रहा था। अधेड़ उमर के ड्राइवर की मूंछे होंठ के साथ चाय पीने के लालच में ग्लास के अंदर जाने की कोशिश करती सी दिखीं लेकिन सफ़ल नहीं हो पायीं।

चार दिन में आये हैं चेन्नई के पास होसुर से ये लोग। बोले- ’जबलपुर में गर्मी बहुत है। दस साल से आ रहे हैं जबलपुर लेकिन कभी घूमे नहीं।’

हिन्दी टूटी-फ़ूटी जानते हैं। चाय की पैसे पूछे और दिये तो बोले-’ पोनरा रुपये।’ मतलब पन्द्रह रुपये। एकदम बंगाली लहजा। हमको फ़िर याद आया:

’भाषा तो पुल है, मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना , बेमानी है।’


तालाब स्मार्ट हो गया न!
सड़क पर कुछ महिलायें और उनके पीछे कुछ लड़के टहलने का काम मुस्तैदी से करते दिखे। महिलाओं के टहलने में नदी की लहरों सी लय-ताल दिखी संगीतात्मक अंदाज। लड़के ऐसे तेजी से टहल रहे थे मानों कोई पिस्टन चल रहा हो धड़धड़ । बिना किसी संगीत के। भड़भड़-भड़भड़।

एक ठिलिया में एक बच्चा घडे बेचने जा रहा था। एक आदमी अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रहा था। उसने समय बिताने के लिये करना है कुछ काम वाले अंदाज में उससे घड़ों के भाव पूछे। छोटे घड़े साठ रुपये के। बड़े नब्बे के। घड़े ठेले गिरें नहीं इसलिये उनकी गरदन आपस में बंधे हु्ये थे।

बात करते हुये आगे बढ़ने पर बच्चे का प्लास्टिक का थैला उड़कर सड़क पर गिर गया। वह उसको उठाने के लिये गया तो ठिलिया ढ़ाल पर खड़ी होने के चलते सरकने लगी। हम ठिलिया को पकड़ लिये और बतियाने का मौका तलाश लिये।


कटहल का भाव ताव करते बच्चे
पता चला बच्चा हाईस्कूल में पढ़ता है। आजकल स्कूल बंद हैं इसलिये पिताजी को सहयोग देता है। वह भी बना लेता है घड़ा। एक घड़ा बनने में एक घंटा लगता है। लेकिन पकने में दिन भर लगता है। बस्ती में बेचने जा रहा है। बोला- ’सब बिक जायेंगे कुछ देर में। कोमल नाम है बच्चे का। उसका फ़ोटो दिखाये तो मुस्कराया।
झील की तरफ़ गये देखने। पानी पूरा चमकदार लग रहा था। तालाब के जीव-जन्तु भी शायद कहते हों कि अपना तालाब स्मार्ट तालाब बन गया है। किनारे के झाड़-झंखाड़ झुंझलाते हुये कहते हों- ’काहे का स्मार्ट तालाब,सारी गंदगी तो हमारे ऊपर डाल दी। एकदम शहर सा बना दिया है तालाब को।’

लौटते हुये कोमल चढ़ाई पर अपना ठेला ले जाते दिखा। धक्का लगाते चढाई खतम हो जाने के बाद चेहरे पर सुकून सा दिखा उसके।

बस स्टैंड पर एक बच्चा स्कूल के लिये आटो का इंतजार करता दिखा। सामने के बड़े -बड़े दांत के बीच की जगह हवा के आने जाने के लिये खुली सी। पांच में पढ़ता है बच्चा। उसका भाई आठ में केवी में पढ़ता है। पिता खमरिया में काम करते हैं।

स्कूल जाना अच्छा लगता है। पढ़ना और खेलना होता है। खेल में बताया कि आई्स-वाटर और पकड़म- पकड़ाई खेलते हैं वे लोग। आइस वाटर मुझे पता नहीं था सो पूछा तो पता चला कि पहले जो बच्चे स्टेच्यू खेलते थे उसका ही नामकरण अब आइस-वाटर हो गया है।

नाम बताया अपना अभय। हमने नाम का मतलब पूछा तो बता नहीं पाया। हमने बताया। अभय माने जिसको भय न हो,डर न हो जिसके मन में। निडर। उसकी फ़ोटो लेने की सोच ही रहे थे तब तक उसका आटो आ गया और वह टाटा करके आटो में बैठ गया।

आगे कुछ बच्चे सड़क पर कटहल रखे बेंच रहे थे। पचास रुपये का और अस्सी का। अंतर कम ही था दोनों में। बता रहे थे बच्चे कि कंचनपुर से खरीदकर लाये हैं बेंचने के लिये। उनके बताने से पहले हमने मन में सोच लिया था कि तमाम पेड़ हैं इस्टेट में कटहल के । किसी पेड़ से काट लिये होंगे बच्चों ने। हम सोच में कितने पूर्वाग्रही होते हैं।

बच्चे उमर में उतने ही बड़े थे जितना कि अभय। लेकिन अभय स्कूल गया है और ये सड़क पर कटहल का मोलभाव कर रहे हैं। एक ने मोलभाव करते हुये एक कागज में तम्बाकू जैसा कुछ निकाला और मुंह ऊपर करके खाने लगा। मैंने टोंका तो मुस्कराते हुये बोला- ’तम्बाकू नहीं है, सुपारी है।’

हम यही सोचते हुये लौटे कि जिस उमर में इन बच्चों को स्कूल जाना चाहिये उस उमर में ये कटहल बेंच रहे हैं। इनकी अगली पीढी भी ऐसा ही कुछ करती रहेगी।

सुबह हुई है। लेकिन इन बच्चों के लिये सुबह कब होगी?
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