Thursday, June 30, 2016

'स' से सुरेशकांत का 'ब' से बैंक


पिछले दिनों फ़ेसबुक पर हमारा परिचय हुआ सुरेशकांत जी से। तारीख के हिसाब से दो हफ़ते पहले वरिष्ठ नागरिक हुये । दैनिक 'सन स्टार' में नियमित व्यंग्य लिखते हैं सुरेश जी। ’अर्थसत्य’ नाम से जिसको हम बहु दिनों तक ’अर्धसत्य’ समझते रहे। (बलिहारी है बेअकली की न  )
समसामयिक घटनाओं पर रोज लिखते रहना अपने-आप में चुनौती है जिसको वे निबाहते रहते हैं। इसके अलावा प्रभात खबर में ’कुछ अलग’ में उनका लेख हफ़्ते में एक के हिसाब से छपना शुरु हुआ कुछ दिन से।
बीच-बीच में सुरेश जी ’व्यंग्य जगत के त्रिदेवों’ अपनी साजिशन उपेक्षा की बात कहानी सुनाते रहते थे। व्यंग्य में त्रिदेव कहकर किसको संबोधित करते हैं सुरेशजी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। नाम न बताने की शर्त पर उनके नाम मैं भी बता सकता हूं लेकिन जो बात सबको पता है उस पर संसय बना ही रहे तो अच्छा। वैसे व्यंग्य, जिसके लिये कहा जाता है कि वह विसंगति से साक्षात्कार करवाता है, अगर कोई देव जैसी विभूति है तो अपने आप में यह बड़ी विसंगति है।
वैसे बड़े-बुजुर्गों की इस तरह की इशारे-इशारे में की गयी बयानबाजी से नये लोगों और पाठकों भी इस बात की सीख मिलती रहती है कि कैसे मन की भड़ास निकाली जाये ताकि साफ़ पता भी चलता रहे कि किसके लिये लिखा गया है और किसी का नाम भी न लेना पड़े।
बहरहाल पिछले दिनो बिहार बोर्ड में ’नकल टापर’ के किस्से पर सुरेश जी ने लेख लिखा ’पोडिकल सेंंस में लल्लन टाप’। प्रभात खबर में छपे अपने इस लेख को साझा करते हुये सुरेश जी ने ’स्टार्टर’ के रूप में अपना एक संस्मरण पेश किया जिसमें उन्होंने ’व्यंग्य के बड़े कारोबारियों’ द्वारा अपनी उपेक्षा की बात फ़िर से बयान की थी। मजे की बात जिनके खिलाफ़ वे सांकेतिक रूप से बिना नाम लिये लिखते रहते हैं उन्होंने भी उनकी पीड़ा से सहमति व्यक्त करते शुभकामनायें दीं। नतीजा यह कि लेख नेपथ्य में चला गया और संस्मरण साझा होने लगा। मैंने उस पर टिप्पणी करते हुये लिखा :
"बढ़िया है। आप लिखिए। खूब लिखिये। संस्मरण अलग से लिखिए। रचना के साथ क्यों नत्थी करते हैं संस्मरण? रचना नेपथ्य में चली गयी। संस्मरण साझा हो रहा है। यह रचना के साथ अन्याय है। सादर।"
सुरेश जी ने इस सुझाव को मानने की बात कहते हुये टिपियाया:
आपने सही कहा अनूप जी| आगे ध्यान रखूँगा| धन्यवाद|
मुझे सुरेश जी की प्रतिक्रिया इतनी अच्छी लगी कि फ़ौरन आनलाइन होकर उनका उपन्यास ’ब से बैंक’ मंगा लिया। इस उपन्यास का सुरेश जी अक्सर जिक्र करते रहते हैं अपनी बातचीत में, संस्मरण मे और जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से तब छपता था जब उसकी लाखों प्रतियां छपतीं थीं।
उपन्यास आ भी जल्दी ही गया। कल जैसे ही यह आया वैसे ही इसको हम बांचना शुरु कर दिये। पठनीयता ऐसी कि एक कम नब्बे पेज का उपन्यास चौबीस घंटे में ही पढ गये। उपन्यास में बैंक के रोचक किस्से हैं। जब लिखा गया होगा यह उपन्यास तबसे अब तक बैंको का काम-काज का तरीका बहुत बदल गया है। बहुत सारा काम-काज आनलाइन बैंकिग से होने से होने लगा है लेकिन फ़िर भी वे सब कारोबार अभी भी होते हैं बैंको में जिनका जिक्र इस उपन्यास में हुआ है। वाकई एक बहुत अच्छे उपन्यास को पढ़ने से वंचित थे हम जो झटके में मंगाया गया और सटक से पढ़ लिया गया।
’ब से बैंक’ उपन्यास सुरेशकांत जी ने ’न से नरेन्द कोहली’ को समर्पित किया है। जिस उमर में लिखा होगा उस उमर की लोकप्रियता नास्टेलजिया की तरह उनके मन में रहना सहज है। इसीलिये इसका जिक्र अक्सर करते हैं सुरेशकांत जी अपने लेखों में। साइज में उपन्यास का गुटका संस्करण टाइप लगने वाले उपन्यास का पहला संस्करण 2003 में छपा था। अभी तक वही चल रहा है। इसके पीछे मझे प्रकाशक की उदासीनता तो लगती ही है और किसी हद तक व्यंग्य के लोगों द्वारा इसका ठीक से इज्जत न देना भी रहा होगा। हमारे जैसे अनाम लेखक की भी किताब आते ही 200 के करीब बिक गयी फ़िर एक ऐसा उपन्यास जो धारावाहिक छपा उसका 13 साल तक पहला संस्करण भी नहीं खपा यह अपने आप में हिन्दी व्यंग्य की बड़ी विसंगति है। मेरी समझ में सुरेश जी को अपने इस उपन्यास का पेपर बैक संस्करण फ़िर से छपवाना चाहिये। फ़िर से विमोचन करना चाहिये। बैंकिग सेक्टर से जुड़े लोगों को तो यह उपन्यास जरूर पसंद आयेगा।
सुरेशकांत जी का यह उपन्यास पढ़ने के बाद उनसे भी सवाल पूछने का मन है कि ब से बैंक का खिलन्दड़ापन किस बैंक के लॉकर में रख दिया उन्होंने। उस अदा वाले सुरेशकांत कोई और हैं क्या?
उपन्यास के कुछ अंश नमूने के लिये आपके सामने पेश हैं:
1. इन कुत्तों को देखकर यह निष्कर्ष बडी आसानी से निकाला जा सकता था कि अपने देश में मनुष्यों का जीवन स्तर निम्न और कुत्तों का उच्च है।
2. यों तो गैर-कानूनी काम अपने देश में बुरा नहीं समझा जाता, और फ़लस्वरूप अनेकानेक गैर कानूनी काम यहां बाइज्जत संपन्न किये जाते हैं।
3. दफ़्तर में यूनियन इसलिये होती है कि ज कोई कर्मचारी मैनेजमेंट को गालियां सुना आये तो उसे मैनेजमेंट के षड़यंत्रों से बचाया जा सके।
4. सभ्य आदमियों को घृणा करने का शौक होता है। नित्य प्रति उन्हें कोई न कोई सामग्री ऐसी मिलती रहनी चाहिये, जिससे कि वे घृणा कर सकें, अन्यथा उनका स्वास्थ्य खराब होने का अंदेशा रहता है।
5. और यह सब मैनेजर की नाक के नीचे होता था, जिससे कि अनुमान लगाया जा सकता है कि मैनेजर की नाक कितनी लंबी थी।
6. मैनेजमेंट का जो आदमी फ़ालतू हो जाता है, उसे मैनेजर बना दिया जाता है।
7. मैनेजमेंट की नजरों में वही कर्मचारी ज्यादा काम करता है जो दफ़्तर में देर तक बैठा रहे, फ़िर चाहे वह सारा समय हाथ पर हाथ धरे ही क्यों न बैठा रहे।
8. इतना सब होने के बावजूद वहां कोई फ़्राड नहीं होता था, तो यह ब्रांच के दुर्भाग्य के अलावा अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था।
9. ईमानदार वे इतने अधिक थे कि अध्यापिकाओं को जितना वेतन देते थे, ठीक उससे दुगुने पर ही हस्ताक्षर करवाते थे।
10. प्रेम खेत में नहीं पैदा होता और न ही ब्लैक में मिलता है। इसे पाने के लिये तो सिर तक देना पड़ता है और यही कारण है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने के लिये अपनी पत्नी का सिर तक दे डालते हैं।
बाकी अंश के लिए आप खुद किताब मंगवाएं न।
उपन्यास पढ़ते हुये कहीं-कहीं रागदरबारी की याद आती रही। शायद पहले पढ़े उपन्यास का सहज प्रभाव टाइप। "रेजगारी आ जाती , तब तो उसकी पौ (जिस्म में वह जहां कहीं भी होती हो) बारह हो जाती" पढकर रागदरबारी का अंश "और उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।" याद आ गया।
कुल मिलाकर 95 रुपये की कीमत में राजकमल प्रकाशन में उपलब्ध यह किताब बेहतरीन उपन्यास है। मजे-मजे में पढा जाने वाला उपन्यास। और येल्लो किताब की कीमत और दस रुपये कम हो गयी और दाम हो गये 85 रुपये। खरीदिये और आनन्दित होइये। तब तक हम सुरेश जी की अगली किताब मंगाते है सुरेश कांत जी। लिंक यह रहा ’ब’ से बैंक किताब मंगाने के लिये।


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Wednesday, June 29, 2016

कोठा गोई

कल और आज मिलकर एक कम दो सौ पेज की किताब पढ़ 'कोठागोई' । बहुत हल्ला सुना था प्रभात रंजन की इस किताब का बजरिये फेसबुक। प्रभात रंजन हमारे पसंदीदा लेखक मनोहरश्याम जोशी के शिष्य रहे हैं। गुरुजी के कई संस्मरण साझा किये हैं प्रभातरंजन ने।
तो ऐसे ही एक दिन 'करेंट बुक डिपो' गए तो 'कोठागोई' दिख गयी तो खरीद लिए। साथ में इनके गुरुजी जोशी जी की किताब 'उत्तराधिकारिणी' भी। लग तो यही रहा था कि पन्नेे पलटकर बाद में पढ़ने के लिए रख देने वाली किताबों की संगत में शामिल हो जायेगी 'कोठागोई' भी। लेकिन ऐसा हुआ नहीँ। गजब की किस्सागोई है कोठागोई में।
मुजफ्फरपुर, बिहार के चतुर्भुज स्थल की गुमनाम गायिकाओं के किस्से ऐसे बयान किये हैं कि एक के बाद अगला किस्सा पढ़े बिना मन नहीँ मानता।
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित किताब 225 रूपये की है। ऑनलाइन भी उपलब्ध है राजकमल की साइट पर।
इतनी बढ़िया किताब लिखने के लिए प्रभातरंजन को बधाई। जबरदस्त किस्सैत हैं प्रभात। मनोहरश्यामजोशी जी के संस्मरण बताते हुए प्रभात कहते हैं कि छापेगा कौन? हमारा कहना है कि किताब पूरी करें छापने वाले मिलेंगे। न कोई मिले तो ई बुक बनाई जाए। मुफ़्त में छपेगी। खूब बिकेगी।
बहुत दिन बाद फिर से किताबें पढ़ने का आनन्द का एहसास दिलाने के लिए प्रभातरंजन का शुक्रिया। अगली किताब की अग्रिम बधाई।

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Monday, June 27, 2016

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है। - परसाई 

आज देश भर के अखबारों और पत्रिकाओं में धड़ाधड़ व्यंग्य लिखा जा रहा है। व्यंग्य जिसको परसाई जी स्पिरिट मानते थे अब विधा टाइप कुछ होने की तरफ़ अग्रसर है। पता नहीं विधा हुआ कि नहीं क्योंकि कोई गजट नोटिफ़िकेशन नहीं हुआ इस सिलसिले में। जो भी है इत्ता बहुत है कि व्यंग्य धड़ल्ले से लिखा जा रहा है।

व्यंग्य लिखा जा रहा है तो लेखक भी होंगे, लेखिकायें भी। कई पीढियां सक्रिय हैं लेखकों की। पीढियों से मतलब उमर और अनुभव दोनों से मतलब है। कई उम्रदराज लोगों ने हाल में ही लिखना शुरु किया है। कई युवा ऐसे हैं जिनकी लिखते-लिखते इत्ती धाक हो गयी है कि काम भर के वरिष्ठ हो गये हैं।

लिखैत  खूब हैं तो लिखैतों की अपनी-अपनी रुचि के हिसाब से बैठकी भी है। व्यंग्य लेखकों के अलग-अलग घराने भी हैं। जहां चार व्यंग्यकार मिल गये वो अपने बीच में से किसी को छांटकर सबसे संभावनाशी्ल व्यंग्यकार घोषित कर देता है। कभी मूड़ में आया तो किसी ने सालों से लिख रहे किसी दूसरे व्यंग्यकार को व्यंग्यकार ही मानने से इंकार कर दिया। इन्द्रधनुषी स्थिति है व्यंग्य की इस मामले में। कब कौन रंग उचककर दूसरे पर चढ बैठे किसी को पता नहीं।

सभी व्यंग्यकार अलग-अलग बहुत प्यारे लोग हैं लेकिन जहां चार व्यंगैत इकट्ठा हुये वहीं लोगों को व्यंग्य सेनाओं में बदलते देर नहीं लगती।अनेक व्यंग्य के चक्रवर्ती सम्राट हैं व्यंग्य की दुनिया में जिनका साम्राज्य उनके गांव की सीमा तक सिमटा हुआ है।

बहरहाल यह सब तो सहज मानवीय प्रवृत्तियां हैं। हर जगह हैं। व्यंग्य में भी हैं। इन सबके बावजूद  अक्सर बहुत बेहतरीन लेखन देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के आने के बाद आम लोग भारी संख्या में लिखने लगे हैं । उनमें से कुछ बहुत अच्छा लिखते हैं। उनकी गजब की फ़ैन फ़ालोविंग है। उनके पढ़ने का इंतजार करते हैं लोग। सोशल मीडिया के लोगों के बारे में स्थापित व्यंग्यकारों की शुरुआती धारणा जो भी रही हो लेकिन उनको अनदेखा करना किसी के लिये संभव नहीं  है।

यह सब खाली इसलिये  लिये लिख रहे हैं ताकि लेख कुछ लंबा हो जाये और जरा वजन आता सा लगे बात में। कहना सिर्फ़ हम यह चाहते हैं कि व्यंग्य विमर्श नाम से यह ब्लॉग व्यंग्य के बारे में विमर्श के लिये शुरु कर रहे हैं। इसमें व्यंग्य पर खुले मन से विमर्श का प्रयास करने का मन है। पुराने और स्थापित लेखकों से लेकर नये से नये लेखक तक। छपे लेखन से लेकर सोशल मीडिया तक। खुले मन और खुले मंच से अपनी समझ से बात कहने का प्रयास करेंगे। और जो भी साथी इससे जुड़ना चाहेंगे उनका स्वागत है। कोशिश यह रहेगी कि अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ें।

व्यंग्य विमर्श का स्वरूप क्या होगा अभी तय नहीं लेकिन वह सब समय के साथ तय होता जायेगा। लेकिन अभी यह मन है कि इसमें समसामयिक व्यंग्य, व्यंग्य लेखकों की रचनाओं पर लेख, साक्षात्कार, व्यंग्य पर होने वाली गतिविधियों पर चर्चा, संस्मरण, आदि-इत्यादि सब पर लिखा जाये।

संभव है यह कोशिश असफ़ल रहे और कुछ दिन बाद यह ब्लॉग बंद करना पड़े लेकिन जैसा वेगड़ जी से सुना था एक बार - ’अच्छा काम करते  हुये असफ़ल रहना श्रेयस्कर है बुरा काम करते हुये सफ़ल होने के मुकाबले।’ तो ब्लॉग अगर कुछ दिन में बंद भी होता है तो उसके पहले कुछ व्यंग्य विमर्श करके डाल ही देंगे।

अथ प्रस्तावना।

दो दिन पहले सुभाष चन्दर जी ने अपने फ़ेसबुकिया वाल पर लिखा:

किसी विधा मे अच्छी रचनाओं की कमी पर चिन्ता न हो , खराब रचनाओ से बचने की ईमानदार कोशिश ना हो , जब समकालीनों से बेहतर लिखने की स्वस्थ प्रतिद्वनद्विता कम होने लगे , जब वरिष्ठ युवा को सिखाने से कतराने लगे, जब युवा वरिष्ठ से सीखने को हेठी समझने लगे ,उसे अपमानित करने लगे। ऐसे मे समझ जाना चाहिए कि यह उस विधा का पतन काल है। आज व्यंग्य मे यही सब होने लगा है ।व्यंग्य मे कभी तिकडी -चौकडी पर बात होती है तो कभी चूजे -मुर्गों पर, कभी पुरस्कार मुझे क्यों नहीं मिला, देर से क्यो मिला ? कभी चमचागीरी का महिमामंडन किया जाता है।कभी पुरस्कार / गोष्ठी /सम्मेलन मे भागीदारी के लिए आस्थाएं बदली जा रही हैं। क्षणिक स्वार्थों के लिए कीचड उछाल हो रही है।छिछली राजनीति का बाजार गर्म है।सब हो रहा है पर लेखन-अच्छे लेखन पर बात नही हो रही।

कई व्यंग्य लेखकों ने इस पर अपनी राय व्यक्त की। सुरेश कांत जी ने अपनी बात कहते हुये सुभाष जी से सवाल किया :


आपका उपदेश बहुत अच्छा है, पर व्यंग्यकार उसकी बत्ती बनाकर कान खुजाने के अलावा उसे और किस उपयोग में ला सकते हैं, जरा यह भी बता देते, तो व्यंग्य का बहुत भला हो जाता।


हरि जोशी जी ने लिखा :
 व्यंग्य के साथ न्याय किया जाये " यह सुझाव देते हुए सुभाश्चंदरजी आप स्वयं पक्षधर हो गए हैं , यह ठीक नहीं |यह किसी प्रलोभन के प्रभाव में तो नहीं ?सारे लेखकों को हताहत करने का हमारे एक मित्र के पास एक ही शस्त्र है "सपाटबयानी "|सब सपाटबयानी कर रहे हैं |"चलिए सपाटबयानी ही सही , पर गाली गलौच और सपाटबयानी में भी क्या बेहतर है ?क्या यह बतलायेंगे ?

 नाम नहीं लिखा लेकिन हरि जोशी जी ने गाली गलौच वाली बात कहते हुये ज्ञानजी हालिया उपन्यास ’हम न मरब’ की तरफ़ इशारा किया है। ज्ञानजी का यह उपन्यास अद्भुत उपन्यास है। हमने शुरुआती हिचक के साथ  पढ़ना शुर किया तो फ़िर खतम करके ही चैन आया। मुझे तो इसकी गालियां नहीं अखरीं । गालियों की बात पर राही मासूम रजा का अपने उपन्यास के पात्रों द्वारा गाली दिये जाने का तर्क याद आया -’मेरे पात्र अगर गाली बकते हैं तो क्या उनको गूंगा बना दूं उनकी जबान न लिखकर।’

 ’हम न मरब ’उपन्यास पर मेरी राय यह थी:

उपन्यास पढ़ने के पहले इसके बारे में हुई आलोचनाएं पढ़ने को मिली थीं। इसकी आलोचना करते हुए कहा गया कि इसमें गालियां बहुत हैं। लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए और अब पूरा पढ़ लेने के बाद लग रहा है कि गालियों के नाम पर उपन्यास की आलोचना करना कुछ ऐसा ही है जैसे किसी साफ़ चमकते हुए आईने के सामने खड़े होकर कोई अपनी विद्रूपता और कुरूपता देखकर घबराते हुए या मुंह चुराते हुए कहे- 'ये बहुत चमकदार है। सब साफ-साफ़ दीखता है।'

उपन्यास पढ़ने के बाद मन है कि अब इसे दोबारा पढ़ेंगे। इस बार ठहर-ठहर कर। पढ़ते हुए सम्भव हुआ तो इसकी सूक्ति वाक्यों का संग्रह करेंगे। जैसे की आखिरी के पन्नों का यह सूक्ति वाक्य:

"महापुरुष के साथ रहने को हंसी ठट्ठा मान लिए हो क्या? बाप अगर महापुरुष निकल जाए तो सन्तान की ऐसी-तैसी हो जाती है।"

इस अद्भुत उपन्यास का अंग्रेजी और दीगर भाषाओं में अनुवाद भी होना चाहिए। 500-1000 की संख्या वाले संस्करण की हिंदी पाठकों की दुनिया के बाहर भी पढ़ा जाना चाहिए इस उपन्यास को।

बहरहाल यह दो बड़े बुजुर्गों की बात है। क्या ही बढिया हो कि  ’सपाटबयानी’ और  ’गाली गलौच’ के आलोचक  बुजुर्गों की एक बहस हो और लोग उनको आमने-सामने सुने , भले ही निष्कर्ष कुछ न निकले। :)

कल दिल्ली में ’व्यंग्य की महापंचायत’ हुई। उसकी रपट लिखते हुये अमेरिका से वापस लौटे हरीश नवलजी ने लिखा:
प्रिय दोस्तो कल रविवार को नई दिल्ली के हिंदी भवन में  व्यंग्य की महापंचायत में अध्यक्षता का अवसर मिला यानि सरपंच की भूमिका का दायित्व 'माध्यम' संस्था ने मुझे सौंपा   आजकल हिंदी गद्य-व्यंग्य विधा एक महत्वपूर्ण किंतु विकट दौर से गुज़र रही है ऐसे में ऐसी गोष्ठी का आयोजन विशेष कहा जाएगा । 
गोष्ठी में मुख्य अतिथि विख्यात लेखिका मैत्रयी पुष्पा थी जिन्होंने पीढ़ियों के अंतराल पर सार्थक वक्तव्य दिया।
 

माध्यम के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनूप श्रीवास्तव ने माध्यम इतिहास उल्लेखित किया ।दिल्ली के अध्यक्ष रामकिशोर उपाध्याय ने स्वागत किया ।
विशिष्ट अतिथियों में सुभाष चंदर थे जिन्होंने सामयिक हिंदी व्यंग्य परिवेश पर प्रवर्तक वक्तव्य दिया । आलोक पुराणिक ने श्रेष्ठ संचालन दायित्व निभाया ।
इस अवसर पर व्यंग्य और कविता पाठ भी हुए जिनमें विशिष्ट अतिथि बलराम , श्रवण कुमार उर्मिलिया ,अनिल मीत,नीलोतत्पल ,कमलेश पांडे,शशि पाण्डेय,वेद व्यथित, आरिफ़ अविश,सुमित प्रताप,अंजु निगम,अर्नव खरे,विनय विनम्र ,अश्विनी भटनागर आदि प्रखर रचनाकारों ने भाग लिया ।

अध्यक्षीय वक्तव्य में व्यंग्य लेखन की युवा पीढ़ी में  अतिशय प्रतिभा को रेखांकित करते हुए पुरस्कारों की राजनीति और प्रलोभन से बचते हुए सार्थक लेखन की ओर बढ़ते रहने और सद्भाव बनाए रखने पर बल दिया ।हाँ एक व्यंग्य का पाठ मैंने भी किया । शिल्पा श्रीवास्तव ,सुधांशु माथुर और शशि पाण्डेय ने आयोजन को सफल बनाने में पर्याप्त योगदान दिया।
युवा  पीढी नोट करे कि उसको पुरस्कारों की राजनीति में नहीं पड़ना है, प्र्लोभन से बचना है, सद्भाव बनाये रखना है। लेकिन हरीश जी ने यह नहीं बताया कि युवा पीढी यह सारे जरूरी काम किसके भरोसे छोड़ दे? :)

वन लाईनर

1.  बाबा रामदेव के घी में दस्ताना मिला - वैसे लोग चाहे जो कहें लेकिन इससे इतना तो तय हो गया कि बाबा का घी बड़ी सफाई से बनता है।--विनय कुमार तिवारी 

2. इस दुनिया को कोई ईश्वर चला रहा है यह अंधविश्वास है। लेकिन अमेरिका इस दुनिया को कंट्रोल करता है यह हकीकत है। -Shambhunath Shukla

 3. कभी रघुराम राजन के जाने पर लुढ़क जाते हो...कभी ब्रिटेन के EU छोड़ने पर..प्रिय शेयर बाज़ार, इतना भी क्या SENSITIVE होना कि सारी दुनिया का तनाव पाल बैठो। -Neeraj Badhwar

4. असली नेता वही है जो संसार में कहीं भी हो चुनाव प्रचार ही करे।-Shashikant Singh


5. इसरो ने फिर रिकार्ड तोड़ दिया.पुराना समय होता तो यह सुनते ही इसरार की अम्मी ने अपने शैतान बच्चे को कूट देना था . -Nirmal Gupta

6. जो लोग कल बीस-तीस फ़ीसदी विदेशी निवेश पर ऊधम काटते थे,आज उन्होंने रक्षा में भी सौ फ़ीसदी निवेश मानकर पूरा सिर कड़ाही में डाल दिया है।वाकई#देश बदल रहा है।-संतोष त्रिवेदी

7.  पानी के बतासे का साइज मुंह से बड़ा होने पर सारा मजा उसकी टूट-फूट बचाने में ही खत्म हो जाता है। 
यह अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे किसी बहुत बढ़िया रचना का स्तर खुद की अकल से ऊँचा होने पर होता है।-अनूप शुक्ल
  
मेरी पसंद

सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे औरसाल भर में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया.

जब कागज आ गया,तो उसकी फाइलें बना दी गयीं.प्रधानमंत्रीके सचिवालय से फाइल खाद्य-विभाग को भेजी गयी.खाद्य-विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और उसे अर्थ-विभाग को भेज दिया.

अर्थ-विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि-विभाग को भेज दिया गया.

बिजली-विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई-विभाग को भेज दिया गया.सिंचाई विभाग में फाइल पर पानी डाला गया.

अब वह फाइल गृह-विभाग को भेज दी गयी.गृह विभाग नेउसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइलराजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी.हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता.

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूडकारपोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दियागया कि इसकी फसल काट ली जाये.इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पक कर फूड कार्पोरेशन के के पास पहुंच गयी.

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-’हुजूर,हम किसानों को आप जमीन,पानी और बीज दिला दीजिये औरअपने अफसरों से हमारी रक्षा कर लीजिये,तो हम देश के लिये पूरा अनाज पैदा कर देंगे.’

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-’अन्न की पैदावार के लिये किसान की अब कोई जरूरत नहीं है.हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं.’

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया-’इस साल तो सम्भव नहीं हो सका ,पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.’

और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का आर्डर और दे दिया गया.

——हरिशंकर परसाई

Sunday, June 26, 2016

कालपी रोड पर बांस लदी भैंसागाड़ी

कल सुबह कालपी रोड पर बांस लदी भैंसागाड़ी दिखी। दो भैंसागाड़ी में ऊपर तक बांस लदे थे। बांस मण्डी से आते-आते भैंसा थक गया होगा इसलिए सुस्ताने के लिए रुक गए होंगे। पास में गड्डे के पानी से भैंसा पानी पी रहा था। उसकी पीठ पर मिट्टी सनी थी। मिटटी को गीला करके भैंसे को गरमी में ठण्ढक का एहसास कराया जा रहा था।
भैंसे को गड्डे का गन्दा पानी पीते देखकर सवाल उठा कि इसको यह पानी नुकसान नहीं करता होगा क्या? शायद उनका शरीर गन्दगी झेल जाता होगा। जंगल में भी कहां RO का पानी सप्लाई होता है। ये भैंसे भी दुनिया की बड़ी आबादी की तरह हैं जो जो भी पानी मिल जाए उसको पीते हुए पीने के लिए अभिशप्त हैं।
पानी पीने के बाद भैंसे का 'वाटर ब्रेक' खत्म हो गया और उसको वापस गाड़ी में जोत दिया गया। भैंसे के साथ ही एक बच्चा भी लग लिया गाड़ी ठेलने के लिए। भैंसे के सहायक की तरह। दोनों बांस लदी गाड़ियों में एक-एक बांस इस तरह आगे निकला हुआ था कि उसको कन्धे पर धरकर गाड़ी आगे ठेलने का जुगाड़ था। बच्चा उसमें बांस को अपने कंधे पर धरकर जब आगे बढ़ा तो अनायास मदर इण्डिया पिक्चर की याद आ गयी जिसमें नायिका नरगिस हल खेत जोतने के लिये हल पर बैल की तरह जुत जाती है।
बांस भाटिया होटल के पास जाने थे। वहां कुछ दुकाने हैं जो बांस मंडी से बांस लाकर बांस से बना सामान बनाकर बेंचते हैं- टट्टर, सीढ़ी और अन्य सामान।
भाटिया होटल के पास की एक दुकान पर गए तो देखा कि भैंसागाड़ी पर आये बांस यहाँ खड़े थे या पड़े थे। दुकान वाले भाई जी ने बताया कि बांस मंडी से भाटिया होटल तक बांस लाने का किराया 12 रुपया एक बांस के हिसाब से पड़ता है। छोटे/पतले बांस का 7 रुपया है किराया। करीब 10-12 किमी दूरी होगी बांस मंडी से भाटिया होटल। मतलब किराया 1 रुपया प्रति किलोमीटर।
बांस मंडी में बांस आते हैं आसाम से। आसाम से पश्चिम बंगाल, बिहार होते हुए उत्तर प्रदेश आते हैं बांस। थक जाते होंगे। अलग-अलग दलों की सरकारें हैं सब जगह। मन किया पूछें कि किस राज्य के हाल कैसे हैं लेकिन फिर सोचा क्या फायदा पूछने से। जबाब यही मिलेगा -'गरीब आदमी की जगह मरन है।'
बांस की दुकान वाले ने बताया कि 1997 से है उनकी दुकान यहां। चित्रकूट से आये थे, बस गए यहीं । जमीन सरकारी है। उसी में झोपड़ी डालकर , टट्टर से घेरकर चल रहा है कामकाज।
'कभी नगर निगम वाले नहीं आते अतिक्रमण हटाने ?' हमने पूछा।
वो बोले -'आते हैं। जब आते हैं तो दुकान उखाड़ जाते हैं, सामान लादकर ले जाते हैं। कुछ छोड़ जाते हैं। एकाध घण्टे पहले पता चल जाता है तो सामान इधर-इधर कर लेते हैं। पीछे जंगल है वहां धर लेते हैं। कुछ दिन बाद फिर जम जाते हैं।'
बताया -'आज रतनलाल नगर में नगर निगम की कार्रवाई चल रही है। कल इतवार है। हो सकता है सोमवार को इधर की तरफ आएं नगर निगम वाले। जब आएंगे तो गाड़ियां वगैरह आएँगी। उससे पता चल जाएगा तो फिर व्यवस्था देखेंगे हटाने की।'
हम सोच रहे थे कि जिसको पता है कि उसकी दुकान आज उजड़ेगी या दो दिन बाद वह कैसे इतनी तसल्ली से बतिया रहा है। वहीं पर एक बच्चा मस्ती से खेल रहा था। उसका स्कूल बन्द चल रहा है।
शाहजहाँपुर के साथी राजेश्वर पाठक की कविता याद आ गयी जो कि आम आदमी की कहानी है।
हम तो बांस हैं
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे।
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आएंगे
हम चन्दन भी नहीँ
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं
जितना काटोगे उतना हरियायेंगे।
बांसुरी बन के
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब ही कहलायेंगे।
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिए जाएंगे।
हम तो बांस हैं
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे।



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Saturday, June 25, 2016

नेता लोग बेंच-खा गए सब



कल शाम श्रीराम से बतकही हुई। हमारे घर कुछ सामान पहुंचाने आये थे। सामान उतरवा कर पानी-वानी पिलाने के बहाने बतियाने लगे।
हरदोई के रहने वाले श्रीराम जे.के.जूट मिल में काम करते हैं। 36 साल हो गए मिल में काम करते हुए। आये तो पहले 6 साल किये। फिर मिल बन्द हो गई। 20 साल बन्द रही। फिर 2009 में दुबारा बुलौवा गया तो फिर जाने लगे काम पर।
जब मिल बन्द हुई थी तो 4500 कामगार थे। हर 100 कामगार पर 10 मजदूर रोजनदारी पर थे। जब नियमित कामगार नहीं आते तो उन 10 लोगों में से काम पर लिए जाते लोग। श्रीराम ऐसे ही रोजनदारी वाले मजूर थे। फंड कटने लगा तो 'फंडियर' होने के नाते उनको नियमित बुलाने लगे।
20 साल बाद मिल जब दुबारा खुली तो कुल 60-70 आदमी बचे थे। बाकी या तो रिटायर हो गए या फिर 'निकल लिए।'
अब कुल 20-30 लोग बचे हैं। श्रीराम भी इसी साल रिटायर हो जाएंगे।
पहले 'बिनता' पर काम करते थे श्रीराम। जब मिल बन्द हुई तो सब करघे उखड़ गए। बिक गए। अब डाई का काम करते हैं श्रीराम। 7000 रुपया महीना मिलता है। रिटायर होने पर 1000 रुपया पेंशन मिलेगी। ढाई बजे तक मिल की नौकरी करते हैं फिर रिक्शा चलाते हैं। गुजारा होता है इसी तरह, किसी तरह। तीन लड़के हैं वो भी ऐसे ही कुछ काम-धाम करते हैं। एक पंजाब में बिनता का काम करता है। एक दिल्ली में है। एक कानपुर में।
4500 आदमी एक मिल में काम करते थे ऐसी कई मिलें थीं कानपुर में। पूरे शहर में सुबह शाम साइकिलों पर कामगारों की भीड़ दिखती थी। लेकिन बाद में जनप्रतिनिधियों के जिंदाबाद-मुर्दाबाद, मालिकों की हठधर्मिता और सरकार की बेरुखी के चलते मिलें बन्द हुईं। साईकल पर काम पर जाने वाले कामगार पेट के लिए रिक्शा चलाने लगे, चाय बेंचने लगे और दीगर काम करने लगे। कानपुर जो कभी मैनचेस्टर आफ इंडिया कहलाता था, कुली-कबाड़ियों का शहर बनकर रह गया।
मिलों के बन्द होने में किसका कितना दोष रहा यह तो शोध का विषय है। श्रीराम का तो कहना है कि नेता लोग बेंच-खा गए सब। समय के अनुसार परिवर्तन को नकारना भी एक कारण रहा होगा।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, वृक्ष, पौधा और बाहर


Wednesday, June 22, 2016

अन्य होंगे चरण हारे

किताब के विमोचन के सिलसिले में एक दिन पहले ही पहुँच गये लखनऊ। विमोचन की जगह तय हुयी थी शीरोज कैफे । पता लगा कि एसिड हमले की शिकार लड़कियां चलाती हैं इसे। आगरा में शुरुआत हुई थी, लखनऊ में दूसरा है। गोमती नगर में ताज होटल के पास, अम्बेडकर पार्क के सामने, मेट्रो रेल आफिस के बगल में।

कार्यक्रम के पहले जगह देखने के हिसाब से 18 जून की शाम को शीरोज हंट पहुंचे। खुली जगह और छत के नीचे खुले रेस्तरां का खूबसूरत संगम है शीरोज हंट। शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक खुलता है। चाय, काफी, शाकाहारी नाश्ता और बैठने की बेहतरीन सुविधा के साथ बढ़िया कैफे। काउंटर पर सर्विस के लिए एसिड हमले ने घायल लड़कियां। किचन के काम के लिए सहयोगी लोग हैं।

हम वहीँ पर हमको भूपेंद्र जी मिले जो अपनी एनजीओ छाँव की तरफ से कैफे की व्यवस्था देखते हैं। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की है भूपेंद्र जी ने। उन्होंने इस एन जी ओ और इसमें सरकार के सहयोग की जानकारी दी। कैफे में काम करने वाली लड़कियों को रहने के लिए हॉस्टल सुविधा सरकार की तरफ से प्रदान की गयी है। मासिक तनख्वाह और अन्य सुविधाएँ मिलती हैं एनजीओ प्रदान करता है। इस मंशा से जिससे कि अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी पर निर्भर न रहना पड़े उनको।

भूपेंद्र जी ने काउंटर पर बैठी एक बच्ची को बुलाकर हमसे परिचय कराया। रानी नाम है इस बहादुर बच्ची का। उड़ीसा के कटक के पास के एक गाँव की रहने वाली रानी जब 11 वीं में पढ़ती थी तब उसके घर के पास फौजियों का एक कैम्प लगा था। उनमें से एक फौजी, जिसकी उम्र उस समय 27 साल करीब थी , ने रानी का पीछा करना शुरू किया। रानी उस समय 16-17 साल की थी। उस फौजी ने रानी से शादी करने की बात कही। रानी ने मना किया। उसने जिद की और पीछा करता रहा। फौजी ने एक दिन रास्ते में रानी का हाथ पकड़कर बदतमीजी की। रानी ने उसको थप्पड़ मार दिया। इस पर उस फौजी ने रानी के चेहरे, शरीर पर तेज़ाब फेंक दिया।

तेजाब के हमले से रानी 1 महीने कोमा में रही, 9 महीने आई सी यू में रही। घर में पिता थे नहीं। बहुत पहले उनका निधन हो चूका था। माँ और दो बहने (एक बड़ी एक छोटी) और हैं। आँख भी चली गयी इस बर्बर तेजाबी हमले में। घर के लोग अपनी आँख देने को तैयार थे लेकिन जिस तरह नुकसान हुआ है आँख का उसमें किसी दूसरे की आँख नहीं लग सकती।

घर के लोग सहयोग में असमर्थ हो गए पर रानी बेस्ट फ्रेंड ने उसको सहयोग किया और अब यहां शीरोज हंट में रानी अपनी माँ के साथ रहती है। माँ कैफे की किचन स्टाफ हैं।

रानी की पढाई छूट गयी। पर वह अब पढ़ना चाहती है। आई.ए. एस. बनना चाहती है। अपनी जैसी तमाम लोगों का हौसला बढाना चाहती है।

जिस फौजी ने रानी पर तेजाब फेंका था रानी उसको सजा दिलवाना चाहती है। अभी तक केस नहीँ हुआ उस पर। वह घर वालों को हमेशा धमकाता रहता था। घर वाले डर और सामान्य हैसियत के चलते चुप रहे। लेकिन रानी उसको सजा दिलवाने के लिए संकल्पित है।

रानी को कहानी सुनने का शौक है। बातें करने का और गाने सुनने का भी। 'रानी डांस भी बहुत अच्छा करती है' - भूपेंद्र जी ने बताया।

खट्टी चीजें खाने में ज्यादा अच्छी लगती हैं रानी को। हमने कहा तुमको एक दिन पानी के बताशे खिलायेंगे। इस पर उसने कहा -'हमको अकेले नहीँ , हमारी सब दोस्तों को खिलाइयेगा।' हमने कहा - 'पक्का।'

रानी की आँखों में रौशनी अभी नहीं है। पर उसके लिए कोशिश चल रही है। जिस दिन हमारी किताब का विमोचन होना था उस दिन रानी को चेन्नई जाना था शंकर नेत्रालय में आँख की जांच और इलाज के लिए। कार्यक्रम में न रहने का अफ़सोस प्रकट किया रानी ने। हमने कहा कोई नहीं -'तुम लौट के आओगी तब फिर करेंगे विमोचन।' इस पर वह हंसी और बोली--'आप मुझे फोन पर विमोचन की खबर बताना।'

अगले दिन विमोचन के समय हमने फोन किया तब रानी ट्रेन में थी और उस समय की सब खबरें उसने पूछी और शुभकामनाएं दीं।

रानी ने फोन नम्बर देने के बाद उत्साह से बताया मोबाईल में सबसे फास्ट मेसेज वो करती है। उससे तेज कोई मेसेज नहीं कर पाता। हाथ कुर्सी के पीछे ले जाकर बताया कि मैं ऐसे भी करती हूँ तब भी सबसे तेज मेसेज करती हूँ।

स्कूटी में बैठे हुये फ़ोटो देखकर मैंने पूछा -’तुम स्कूटी चला लेती हो?’

’ हां मैं जब कटक से आई थी तो 47 किलोमीटर तक चलाकर लाई थी स्कूटी मेरा फ़्रेन्ड मुझे बताता जा रहा था बस। मैं चलाती जा रही थी।’- रानी ने बताया।

जिस लड़की को आँख से दिखता न हो उसके लिए क्या कुर्सी के आगे और क्या पीछे। लेकिन कुर्सी के पीछे से भी सबसे तेज मेसेजिंग की बात कहना इस बात की तरफ इशारा है कि कभी उसकी आँखे थीं जब पीछे हाथ करके मोबाईल ने लिखना कठिन लगता होगा। जिसको एक विक्षिप्त मर्द की बर्बर हरकत ने आसान सा बना दिया।

रानी का फेसबुक खाता भी है। उसका खाता उसका एक मुंहबोला भाई चलाता है। रानी के फेसबुक खाता उसका एक मुंहबोला भाई देखता है लेकिन उसकी वाल पर स्टेटस का हौसला रानी का अपना है।

एक लड़की जिसकी आँख 17 की उम्र में चली गयी हो, जिसका शरीर तेज़ाब में झुलस गया हो जिस हौसले से और विश्वास से बात कर रही थी उसे देख ताज्जुब हुआ। लग रहा था कि वह हमारा हौसला बढ़ा रही हो। महादेवी वर्मा जी कि कविता पंक्ति को साकार जैसा करती हुई
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
शीरोज की परिकल्पना से जुड़े लक्ष्मी और आलोक दीक्षित को रोल माडल मानती है रानी। उनसे उसको जीने का और आगे बढ़ने का हौसला मिला है। लेकिन हमें तो रानी के हौसले से प्रेरणा मिल रही थी।
अभी चेन्नई में है रानी। आँख की जाँच जारी है। उम्मीद है कि कोई रास्ता मिलेगा कि उसको फिर से दिखना शुरू होगा।

Rani Rituparna SaaSheroes HangoutKanchan Singh ChouhanNirupma Ashok

Monday, June 20, 2016

बेवकूफ़ी का सौंदर्य का विमोचन

और कल वह भी हो गया जिसको किताबों की दुनिया में विमोचन कहा जाता है।

हमारे हास्य-व्यंग्य के लेखों का संकलन 'बेवकूफी का सौंदर्य' का कल लखनऊ के शीरोज हंट कैफे में विमोचन हुआ। कई इष्ट-मित्र उपस्थित थे। लखनऊ के दिग्गज व्यंग्यकार भी थे। उमस भी थी, माइक की कमी भी थी। फिर भी विमोचन तो शानदार ही हुआ कहा जाएगा।

शीरोज हंट में कार्यक्रम तय करने के पीछे शायद हमारी लखनऊ की डॉन Kanchan Singh Chouhan का हाथ रहा होगा। यह रेस्तरां एसिड अटैक में घायल लड़कियों के द्वारा सरकारी सहयोग के द्वारा चलाया जाता है। अद्भुत परिकल्पना है यह। इन बच्चियों का हौसला देखकर खुद का हौसला बढ़ता है।

कार्यक्रम में पारिवारिक और व्यक्तिगत मित्रों के अलावा लखनऊ के कई व्यंग्य लेखक शामिल थे।

कार्यक्रम 630 बजे शाम को शुरू होना था। लेकिन शुरू होते-होते घड़ी एक घण्टा आगे निकल गयी। जिन मित्रों को कहीं और जाना था या जो एकाध घण्टे के लिए गाड़ी का इंतजाम करके आये थे वे कसमसा रहे थे। बेचैन से हम भी हो रहे थे लेकिन बेचैनी से कार्यक्रम शुरू नहीँ होते न। हुआ यह कि जिन पुस्तकों का विमोचन होना था उनकी पैकिंग करके आने में देरी हुई। इसीलिये कार्यक्रम भी।

जब किताबें आईं तो कार्यक्रम शुरू हुआ। अनूप श्रीवास्तव जी, आलोक शुक्ल जी, दयानंद पाण्डेय जी हमने अपने साथ मंच पर बिठा लिया ताकि वे वहां से जा न पाएं। असल में आलोक शुक्ल जी को अपने दांत की दवा लेने डाक्टर के यहां जाना था। जब कार्यक्रम शुरू हुआ तब उनका जाने का समय हो गया था। उनको जबरियन रोकने का यही सबसे मुफीद उपाय लगा हमको। काफी कुछ सफल भी रहे हम इसमें। वो अपने हिस्से का वक्तव्य देकर ही जा पाये।

कार्यक्रम की शुरुआत कुश के वक्तव्य से हुई। कुश ने बताया किस तरह उनकी ट्रेन लेट हुई लखनऊ में तो उनके मन में आइडिया आया प्रकाशन शुरू करने का। उन्होंने मुझे और पल्लवी को फोन किया कि वो हम लोगों की किताबें छापेंगे। हम लोगों ने हाँ कर दिया। और उसी की परिणति था कल का कार्यक्रम। इसके पहले पल्लवी की किताब 'अंजाम-ए-गुलिस्तां' क्या होगा का विमोचन 11 जून को जयपुर में हुआ।

कुश के बाद मुझे बोलने के लिए कहा गया। मैंने मंच पर बैठे लोगों के अलावा सामने बैठे लोगों को संबोधित करते हुए बात शुरू की। वलेस के लखनऊ के साथी सर्वेश अस्थाना, अनूप मणि त्रिपाठी, मुकुल महान, पंकज प्रसून, इंद्रजीत, केके अस्थाना आदि सामने की सीढ़ियों पर बैठे थे। उमस के मारे हाल-बेहाल थे सबके। माइक की व्यवस्था यह सोचकर नहीं की गयी थी कि कम लोग होंगे तो सुनाई देने में व्यवधान नहीं होगा। लेकिन बीच-बीच में वलेस के साथी अपनी टिप्पणियों से यह एहसास कराते रहे कि माइक होता तो अच्छा रहता।

हमने सामने और मंच पर मौजूद लोगों के अलावा उन लोगों का भी नाम लिया जो मेरे जेहन में कुलबुला रहे थे। आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका लिखी है, किताब का नाम तय किया है इसलिए उनका जिक्र तो सहज बात थी। इसके अलावा ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चन्दर, निर्मल गुप्त, संतोष त्रिवेदी आदि का भी नाम स्मरण किया मैंने। सामने बैठे अलंकार रस्तोगी और बरेली के अंशुमाली रस्तोगी के नाम कई बार गड्डमड्ड भी हुए दिमाग में।

हमने अपनी किताब छपने की प्रक्रिया बताते हुए यह भी बताया कि कैसे कुश के प्रकाशन शुरू करने की बात और हमारी किताब छापने की बात पर मुझे कभी विश्वास नहीं था। लेकिन किताब छापकर कुश ने मेरा 'अविश्वास' तोड़ दिया। इस अविश्वास तोड़ने के झटके से मैं अभी तक उबर नहीं पाया हूँ जबकि किताब का विमोचन हो गया है, सैकड़ों किताबें ऑनलाइन बुक हो चुकी हैं। कल भी जितनी किताबें लायी गयीं थी (करीब डेढ़ सौ ) वे सब बिक गयीं।

मेरे बोलने के बीच में हमारे मित्र नवीन शर्मा को 'कट्टा कानपुरी' की याद आई। उन्होंने हमें कुछ शेर सुनाने को कहा। मैंने बताया कि कैसे चिरकुट शेर लिखते थे और कैसे आलोक पुराणिक ने मेरा तखल्लुश छोटे हथियार बनाने वाली फैक्टी में होने के नाते 'कट्टा कानपुरी' तय किया। इसके बाद हमने 'कट्टा कानपुरी' का एक शेर जो सबसे कम खराब है सुनाया:

तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
कि भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।

लोगों ने बहुत पसंद किया इस शेर को तो दुबारा सुनाया गया। फिर जनता की मांग पर कुछ और चिरकुट शेर सुनाये। इंद्रजीत कौर ने सबसे घटिया शेर सुनाने की फरमाइश की तो हमने यही कहा कि हमारे सब शेर घटिया हैं अब किसको सबसे घटिया कह दें। फिर भी कुछ शेर जो याद आये वे सुना दिए।

हमारा वक्तव्य खत्म होने पर लोगों ने बहुत जोर से तालियां बजाईं। इतना खुश थे लोग मेरी बात खत्म होने से। बोरियत खत्म होने की ख़ुशी हथेलियों तक पहुंचकर फ़ड़फ़ड़ाई।

हमारे बाद अमित श्रीवास्तव को हमारी तारीफ़ करने के लिये कहा गया। 34 साल पहले की यादें दोहराते हुए अमित ने फिर से रोना रोया -'सुकुल ने हमारी रैगिंग की थी। सुकुल को हमने पहली बार पायजामा के ऊपर कमीज पहने देखा।' इसके बाद ब्लॉगिंग शुरू करने की बात के साथ कानपुर में अपने बच्चों के लोकल गार्जियन रहने की याद साझा की।150 रूपये की किताब पर पचास रूपये का स्नेह वाली बात पर भी चर्चा हुई।

अमित के बाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी बोले। ब्लॉगिंग के दिनों की याद ताजा करते हुए अपने मोबाईल से 'कट्टा कानपुरी' के कई कलाम सुना दिए। उसके बाद रचना त्रिपाठी को बोलने को कहा गया जिनके बारे में दयानन्द पाण्डेय जी पहले ही कह चुके थे कि रचना जी सिद्धार्थ जी से बढ़िया लिखती हैं। हमने भी सहमति जताई थी। वैसे भी जब लोग जोड़े से ब्लॉगिंग करते हैं तो तारीफ 'वज्रगुणन नियम' से ही होती हैं। बहरहाल, रचना जी ने बहुत कम शब्दों में मेरी बहुत तारीफ़ करी। उनको बोलने के लिए कहना सार्थक रहा।

आलोक शुक्ल जी ने अपने वक्तव्य में हमारे संक्षिप्त परिचय की जानकारी देते अपनी बात कही। आलोक जी से पहली मुलाकात हुई थी तो उनको मैंने अशोक शुक्ल कहकर संबोधित किया था। उन्होंने बताया तो मैंने सुधारा।मेरे बड़े भाई का नाम अशोक शुक्ल था इसलिए उनसे मिलकर उनका यही नाम याद आता है।

आलोक जी के बाद दयानंद पाण्डेय जी बोले। हमारे पुलिया, सूरज के किस्से और नन्दन जी से जुडी हुई यादों का जिक्र करते हुए उन्होंने शरद जोशी के 'प्रतिदिन' शुरू होने का किस्सा सुनाया कि कैसे शरद जी ने 'प्रतिदिन' लिखना शुरू किया। दयानंद जी लेखन में किस्सागोई की जबरदस्त मिशाल हैं। उनके लंबे-लंबे लेख लोग पूरे पूरे पढ़ते हैं इसके पीछे उनकी भाषा कि रवानगी और जबरदस्त किस्सागोई है। हमारी भी खूब तारीफ की दयानंद जी ने।

दयानंद जी के बाद खुद को व्यंग्य की नींव की ईंट बताने वाले अनूप श्रीवास्तव जी बोले। अनूप जी ने बताया कि कैसे सोशल मिडिया में भरम हो जाता है कि अनूप शुक्ल के लिए कही बात उनको अपने लिए कही बात लगती है। संयोग कि कल तीन अनूप वहां मौजूद थे। अनूप श्रीवास्तव, अनूप मणि त्रिपाठी और अनूप शुक्ल। अनूप मणि ने इसको अतीत, वर्तमान और भविष्य का सम्मिलन बताया। खुद को भविष्य कहते हुए।

अनूप मणि त्रिपाठी सबसे पहले आने वालों में थे। हमने उनको अपनी किताब छपाने की बात कही तो उन्होंने अपने आलस्य का हवाला दिया। लेकिन अब ऐसा बहुत दिन तक चलेगा नहीं। किताब छपनी चाहिए अनूप मणि की। संयोग से आज ही आज के दैनिक जागरण में उनका व्यंग्य लेख प्रकाशित हुआ है -ये हंसने वाले लोग।

आभार प्रदर्शन के लिए हमारी जीवन संगिनी सुमन बोलीं और खूब बोलीं। उन्होंने हमारे ब्लॉगिंग और लेखन में जूटे रहने के चलते जो कोफ़्त होती थी उनको उस सबका जिक्र करते हुए उस समय की बरबादी को सार्थक बताते हुए हमारे सारे गुनाह माफ़ कर दिए। ब्लॉगिंग के दिनों की याद करते हुए उन्होंने कई रोचक किस्से सुनाये कि किस तरह लिखने की और प्रतिक्रिया देखने उतावली रहती थी मुझमें इसका खुलासा करते हुए खूब मजे भी लिए सुमन ने। एक बार फिर साबित हुआ कि मौका और माइक मिलने पर कोई किसी को बक्सता नहीं है।

न केवल यह बल्कि हमको एक बहुत अच्छा इंसान बताते हुए एक वाकया भी सुनाया जिसमें हम अपनी परवाह न करते हुए अपनी एक भाभी जी को लेकर अस्पताल पहुंचे थे। भाभी जी पर हजारों मधुमक्खियों ने हमला किया था। दर्द इतना था कि उनको स्कूटर पर लेकर हम जब तक अस्पताल पहुंचे थे तब तक वे लगभग बेहोश हो गयीं थीं।

किस्सा सुनाते हुए हमारी जीवन संगिनी भावुक भले हो गयीं, हमको अच्छा इंसान भी बताया इतनी भावुक नहीं हुईं कि अच्छा पति कहतीं। बाद में इंद्रजीत ने बताया भी कि हमको इसको बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। उनकी किताब का विमोचन होने पर उन्होंने भी अपने पति के बारे में ऐसे ही कहा था पर घर पहुंचते ही दाम्पत्य जीवन फिर से शुरू हो गया था।
सुमन ने अपना वक्तव्य पल्लवी त्रिवेदी और हमारी तारीफ़ यह कहते हुए ख़त्म किया:
सब तो इतिहास देखते हैं
निर्दिष्ट पथों पर चलते हैं
पर कम मिलते हैं जो अपने
पथ पर इतिहास बदलते हैं।
लोगों ने बाद में कहा वे सबसे अच्छा बोलीं।

लेकिन सबसे अच्छा बोलने वालों के दीदी डॉक्टर निरुपमा अशोक भी थीं। उन्होंने शीरोज हंट की परिकल्पना की खूब तारीफ़ करते हुए एसिड हमले की शिकार महिलाओं द्वारा दिखाए गए हौसले को समाज पर सबसे बड़ा व्यंग्य बताया और कहा कि कोई भी कार्यक्रम करने के लिए इससे बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती।

हमारे लेखन की भी तारीफ की और उससे ज्यादा हमारी जीवन संगिनी की। हमारे लेखन में मानवीकरण का जिक्र किया। किताब का समर्पण जो हमने किया है -'जीवन संगिनी सुमन को जिनके लिए अम्मा कहा करतीं थीं कि गुड्डो अगर नहीँ होतीं तो हम इतने दिन जी नहीँ पाते' का विस्तार से जिक्र करते हुए अम्मा जी को भी याद किया।

दीदी जी के बाद भाई साहब डा. अशोक अवस्थी ने भी अपनी बात कही। हमारी तारीफ भी की कि हम उनको लिखने के लिए उकसाते रहते हैं। भाई साहब सहज भाषा में क़ानून से जुड़े मसलों पर बहुत अच्छा लिखते हैं। भारतीय संविधान से सबंधित मुद्दों पर उनका अध्ययन बहुत अच्छा है। शायद अब फिर से नियमित लिखना शुरू हो उनका ।

आखिरी वक्ता थीं हमारी सेलेब्रिटी लेखिका पल्लवी त्रिवेदी। कल 'फादर्स डे' होने के चलते सबसे पहली याद पिता की आई उनको और वो भावुक हो गयीं। कुछ ठहरकर फिर पल्लवी ने बोलना शुरू किया और हमाई खूब तारीफ़ की। हमने अपनी पूरी तारीफ सुनने के बाद उनको उनको अपने लेखन पर बोलने के लिए कहा। फिर पल्लवी ने अपनी किताब के बारे में बोला और कुश की तारीफ भी की।

पूरे कार्यक्रम का सञ्चालन विजित सिंह ने किया और बहुत शानदार किया। कार्यक्रम के दौरान ही एसिड हमले में घायल हुई लक्ष्मी भी आ गयीं। साथ में उनकी बिटिया और आलोक दीक्षित भी । बहुत खुशनुमा एहसास रहा।

कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम घर परिवार के मित्र साथ रहे काफी देर। वलेस के सभी साथियों के साथ फोटो हुए। अन्य सभी साथियों के साथ भी फोटो हुए। वे सब पोस्ट करेंगे जल्द ही उनके परिचय के साथ।

कल पुस्तक का विमोचन होना अपने आप में खुशनुमा अनुभव था। वैसे तो साल भर में छपने और खप जाने वाली हजारों किताबों में से एक किताब मात्र है यह ' बेवकूफ़ियों का सौंदर्य'। किताब का नाम ही आलोक पुराणिक ने ऐसा सुझाया था कि बिना पढ़े टिप्पणियाँ की जा सकती हैं इस पर। इस सुविधा का उपयोग भी कर रहे हैं मित्रगण। लेकिन जो साथी इसको पढ़ेंगे उनको इसमें और भी खूबसूरत बेवकूफियां देखने को मिलेंगी।