Tuesday, December 22, 2015

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे

दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन में सालों तक चलते हुए घपले के खुलासे की खबर देखकर दुख हुआ। दुःख का कारण भ्रष्टाचार का 'सभ्य खेल' की आड़ में होना कतई नहीँ था। यह तो सहज बात है। सच तो यह है कि अब भ्रष्टाचार और सभ्यता में चोली-दामन का ही नहीं बल्कि तथा गरीबी और भुखमरी का भी रिश्ता होता है।
आज के समय में किसी क्षेत्र से घपले की खबर नहीं आती तो किसी बड़ी अनहोनी की आशंका से जी धुकुर-पुकुर करने लगता है। घोटाले की खबर आते ही सुकून होता है कि वहां काम-काज सुचारू रूप से चल रहा है। आज तो लगता है कि किसी समाज के विकसित होने की दर उसमें होते भ्रष्टाचार के समानुपाती होती है।
 
दुख का कारण आधुनिक समय में भी भ्रष्टाचार के सदियों पुराने तरीकों को देखकर हुआ। इंटरनेट, मोबाइल, आनलाइन बैंकिंग के ज़माने में भ्रष्टाचार के लिए ’फर्जी बिल-बाउचर घराने की’ देखकर लगा कि डींगे हम भले 21वीं सदी में पहुंचने की हांके लेकिन घपलों-घोटालों के मामले में हम 18 वीं सदी में ही अटके हुए हैं। भ्रष्टाचार के तरीके अपनाने के मामले में बहुत पिछड़े हुये हैं हम।
 
बाकी जिनको फर्जी नाम, पते वाली कपंनियों के नाम भुगतान पर आपत्ति है वे भारतीय संस्कृति से अनजान हैं। उनको पता ही नहीँ शायद कि अपनी धन की देवी लक्ष्मी जी स्वभाव से चंचला हैं। किसी भक्त पर कृपालु होने के लिए वे किसी टैन नम्बर, पैन नंबर की मोहताज नहीं होती। भक्त पर धनवर्षा करने के लिए वे उसका निवास प्रमाण पात्र नहीं देखती। जहाँ उनका वाहन उल्लू खड़ा हो गया वहीँ वे धनवर्षा कर देती हैं।
 
सच तो यह है कि फर्जी कम्पनियों के कागज पर ही होने से जनता का ही पैसा बचा। अगर कहीं सच में ही वे कंपनियां होतीं तो उनके लिए बिल्डिंग बनाने, उनको चलाने का खर्च भी आम जनता के ही मत्थे आता। कंपनियां कागज पर होने से घपला सस्ते में हो गया।
 
घपले का खुलासा करने के बाद इसमें किसी भी किस्म की राजनीति से इंकार करते हुए क्रिकेटर ने सवाल भी उछाला-' मुझे बताओ न इसमें राजनीति कहाँ है?' किसी ने उनको कुछ बताया नहीं लेकिन कुछ लोगों ने नाम न बताया बताने की शर्त के साथ बताया कि उसी समय वहां एक भजन चल रहा था:
 
मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में।
 

Sunday, December 13, 2015

बेसहारा बच्चियों का सहारा अनाथालय

आज शहर के एक अनाथालय जाना हुआ। किसी भी अनाथालय को देखने का यह मेरा पहला अनुभव था।

श्री राजकुमारी बाई बाल निकेतन शास्त्री ब्रिज के नीचे रेलवे ट्रैक के एकदम पास है। 1920 में स्थापित हुआ था। मतलब करीब 100 साल पुराना। पहुंचकर बताया कि वहाँ की वर्किंग देखने आये हैं। अनाथालय के बारे में जानना चाहते हैं। बाहर रजिस्टर में नाम और नंबर नोट करके अंदर एक कमरे में बैठा दिया गया। हम करीब साढ़े चार बजे गये थे। हमसे पहले आज दो लोग आये थे।

कमरे में एक अलमारी में खूब सारी ट्राफियां और मेडल रखे थे। शायद यहाँ के बच्चों ने हासिल किये थे वे सब।
कुछ देर में एक महिला आई वहां। रेखा जग्गी नाम बताया उन्होंने। 1999 से जुडी हैं इस अनाथालय से। कुल 6-7 लोग नियमित 24 घंटे रहती हैं यहाँ। बाकी लोग आते-जाते सहयोग करते हैं।

अनाथालय बच्चियों का है। बच्चियां बाल कल्याण समिति या फिर उप जिला अधिकारी की संस्तुति से ही रखे जाते हैं यहां। आज के समय 76 बच्चियां और 4 बच्चे हैं अनाथालय में। बच्चियों की अधिकतम संख्या 85 तक जा चुकी है कुछ साल पहले।

बच्चियां अनाथालय में उसी तरह रखी जाती हैं जैसे घरों में बच्चे रखे जाते हैं- बिन माँ बाप के बच्चे। बच्चे स्कूल भी जाते हैं।

'बच्चे सरकारी स्कूल में जाते होंगे। फ़ीस माफ़ होगी?' मेरे इस सवाल के जबाब में रेखाजी ने बताया -' नहीं। सब प्राइवेट स्कूल में जाते हैं। सरकारी स्कूल में पढाई कहाँ होती है।'

बच्चियां हर उम्र की हैं। अलग-अलग क्लास में पढ़ती हैं। आम तौर पर 18 साल की उम्र तक बच्चियां रहती हैं। इसके बाद कोशिश करते हैं कि उनकी शादी हो जाए। शादी करने से पहले लड़के की आर्थिक स्थिति देखते हैं। पुलिस वेरिफिकेशन करवाते हैं। एक लड़की के बारे में बताया उन्होंने जिसने यहाँ रहने के बाद नौकरी की। फिर शादी हुई। दो बच्चे हैं।

अगर 18 की उम्र तक शादी न हुई तब क्या करते हैं? इस सवाल के जबाब ने बताया कि ऐसा नहीं कि 18 साल बाद एकदम निकाल देते हैं। बच्ची को अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश करते हैं। कुछ गुम हुए बच्चों के माँ-बाप पता लगने पर अपने बच्चों को ले भी जाते हैं।

लोग अलग-अलग तरह से अनाथालय की व्यवस्था करते हैं। कोई धन से कोई सामान देकर। सामान की लिस्ट नीचे दी गयी जिसे अनाथालय में देकर सहायता की जा सकती है। नकद पैसा भी दे सकते हैं। एक समय का खाने के पैसे भी दे सकते हैं। साधारण खाने के 3500/- और स्पेशल खाने के 4500/- रूपये।


इसके अलावा बच्चियों की जरुरत का कोई भी सामान, कपड़े , साबुन, शैम्पू आदि दे सकते हैं। कुछ लोग बच्चों की नाप ले जाते हैं फिर उसके हिसाब से कपड़े दे जाते हैं।

कभी कुछ सामान इस तरह से लोग देते हैं कि सबके लिए पर्याप्त नहीँ होता। ऐसे में यथासम्भव सबमें बंटवारा करने का प्रयास करके उसका उपयोग किया जाता है।

समस्याएं आती होंगी कभी-कभी बच्चियों को पालने में? इस सवाल के जबाब में रेखा जी ने कहा-'बिना समस्याओं के जिंदगी कहाँ होती है?'

बच्चियों को स्कूल के अलावा बाहर जाने की मनाही है। साल में एकाध बार सब लोगों को लेकर किसी जगह घुमाने ले जाते हैं। बस वगैरह का इंतजाम करते हैं। सब इंतजाम करना मुश्किल होता है इसलिए साल में एक दो बार से अधिक नहीं जा पाते।

हमने अनाथालय देखने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने एक महिला को साथ भेज दिया। फिर रजिस्टर में नाम और अंदर जाने का समय लिखकर अंदर गए।

अंदर पहुंचते ही कुछ बच्चियां आँगन में खेलती दिखीं। एक बच्ची से बात शुरू की तो महिला ने बताया -'अभी एक हफ्ते अस्पताल रहकर आई है। बीमार थी।' मैंने उसके हाल पूछे तो बोली-'ठीक है। कमजोरी है।'

एक बच्ची दरवाजे से बाहर झाँक रही थी। मैंने बाहर बुलाया। वह आ गयी। दीवार से चिपक कर सकुची खड़ी रही। मैंने नाम पूछा तो बताया उसने -शिखा। किस क्लास में पढ़ती हो ? तो बताया उसने - 7 में। हमने पूछा -पहाड़ा आता है ? उसने बताया -दस का आता है। फिर हमने आठ का पहाड़ा सुनाने को कहा। उसने सुनाया।
फिर मैंने पूछा-'खेल क्या-क्या खेलती हो?' उसने बताया-' पंचगुट्टा और चींटी धप।' उससे बात करते हुए और तमाम बच्चियां वहां आ गयीं। पूर्वी, शेफाली, वर्षा और अन्य कई बच्चियां। सात-आठ बच्चियां इकठ्ठा हो गयीं। किसी बात पर हंसने लगीं तो मैंने फोटो लेनी चाही तो साथ की महिला ने मना किया। यह भी बताया कि यहाँ सब जगह सीसीटीवी लगे हुए हैं। फोटो लेंगे तो उसको परेशानी होगी। हमने नहीं ली फिर फोटो।

मनोरंजन कक्ष में करीब 25-30 बच्चियां बैठी टीवी पर कोई फ़िल्म देख रहीं थी। देखा तो पिक्चर हिल रही थी। आवाज भी सुनाई नहीँ दे रही थी साफ़। शायद टीवी पुराना होने के कारण ऐसा हो या फिर कनेक्शन गड़बड़ हो।
कुछ बच्चियां वहां बहुत छोटी भी दिखीं। 2 से 3 साल की उमर की। ज्यादातर बच्चियां आर्य कन्या बालिका विद्यालय में पढ़ती हैं।

अनाथालय में बच्चों को सिलाई-कढ़ाई, कम्प्यूटर आदि सिखाने की भी व्यवस्था है। गौशाला भी है। ट्यूशन के लिए भी अध्यापक आते हैं। बिना पैसे वाले जो सहयोग देने वाले हैं वो नियमित नहीं रहते।
किसी बच्चे की पूरी देखभाल की कोई जिम्मेदारी लेना चाहे तो ले सकता है।।ऐसे एकाध बच्चों की जिम्मेदारी ली है लोगों ने। साल का 10 से 12 खर्च होता है एक बच्चे पर।

अनाथालय देखने के बाद मैंने कुछ पैसे देने चाहे। दीदी को बुलाया गया रसीद देने के लिए। उनके आने तक मैं वहीं काउंटर पर बैठा रहा। वहां बैठी महिला काजू का एक पैकेट खोलकर काजू के टुकड़े करने लगी। आज स्पेशल खाना था दीदी की तरफ से। महिला ने बताया कि बीस साल से भी अधिक समय से वे यहां पर हैं। घर परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने यही कहा-'अब जो कुछ है सब यहीं है।'

इस बीच बच्चियां खेलती हुई वहां से गुजरती रहीं। एक बच्ची ढेर सारे सूखे कपड़े छत से लेकर नीचे आई। बाल खुले हुए थे। लग रहा था आज शैम्पू किये हों। बात की मैंने तो उसने नमस्ते किया और बताया कक्षा 7 में पढ़ती है। फिर वह चली गयी। हमारे जैसे लोगों के सवालों की आदी हो गयी होगी वह।

दीदी आई। उनको कुछ पैसे दिए उन्होंने। नाम पूछकर रसीद बना दी। रसीद पर पता लिखा है:
श्री राजकुमारी बाई बाल निकेतन
925, नेपियर टाउन, शास्त्री पुल, जबलपुर-482001
(शासन द्वारा दत्तक ग्रहण हेतु मान्यता प्राप्त)
फोन: 0761-2407383, 2400107


आपकी कभी सहयोग करने की इच्छा हो तो इस पते पर कर सकते हैं। फोन करके जानकारी ले सकते हैं। अनाथालय में रात आठ बजे के बाद जाने की अनुमति नहीं है।
किसी भी अनाथालय में जाने का मेरा यह पहला अनुभव था। मैंने सोचा आपसे भी साझा करें।

सुबह हो गयी सूरज जी आये

सुबह हो गयी सूरज जी आये
खींच कम्बलवा हमको जगाये
बोले बाबू बाहर आ भी जाओ
बढिया, ताजी हवा कुछ खाओ।
...
हम जब आये कमरे के बाहर,
किरणें चमक गयी चेहरे पर
चिडियां चीं चीं गुडमार्निंग बोली
पेड़ हिले, हवा इधर-उधर डोली।

भड़भड़ करता टेम्पो दिखा सामने
गया कुचलता सोय़ी पड़ी सड़क को
कार भागती निकली उसके पीछे
सब मिल रौंद रहे सड़क को।

बच्चे हल्ला खूब मचा रहे हैं
धरती को सर पर उठा रहे हैं
सूरज भाई उनको देख मुस्काये हैं
बच्चे अर्से बाद खेलने आये हैं।

हमने दो ठो अंगड़ाई ले लीं
ताजी हवा भर अंदर कर ली
अखबार उठाकर अंदर आये
फ़ोन किये और चाय मंगाये।

बांच रहे अखबार सुबह अब
खबरें हैं दिखती मिक्स्ड वेज सी
हौसले, आरती, रिश्वत के किस्से हैं
आरक्षण, घूस, अदालत के घिस्से हैं।

चाय आ गयी है थरमस में जी
भुजिया का पैकेट धरा बगल में
सूरज भाई भी लपक के आये
आओ आपको भी चाय पिलायें।

-कट्टा कानपुरी

Saturday, December 12, 2015

अकेले मत रहिये

सुबह सैर पर निकलने में सबसे बड़ी बाधा कपड़े बदलना होती है। आलस्य लगता है रात वाले कपड़े उतारकर पैन्ट-शर्ट पहनने में। फिर ऐसे ही समय निकलता जाता है और अक्सर निकलना निरस्त हो जाता है।

आज रात के ही कपड़ों के ऊपर स्वेटर डांटकर निकल लिए। पुलिया पर दो आदमी बैठे बतिया रहे थे। मन्दिर में घण्टे बज रहे थे टन्न-टन्न। आज शनिवार का दिन होने के चलते मन्दिर में भीड़ ज्यादा होती है।

एक आदमी सड़क पर बीड़ी पीते हुए चला जा रहा था। दायें हाथ से साइकिल पकड़े बाएं हाथ में बीड़ी थामे उसकी अदा से लग रहा था कि वह बीड़ी अपनी साइकिल से अधिक-अधिक से अधिक दूर रखना चाह रहा था ताकि साइकिल को बीड़ी की लत न लग जाए। कुछ ऐसे जैसे घरों में कुछ लोग नशा अपने बच्चों से छुपकर करते हैं।
चाय की दुकान वाले बच्चे ने हमको देखते ही चाय बनाई। सुबह 4 बजे आ गया था वह दुकान पर। चाय बढ़िया बनाई सुनकर खुश हो गया।

चाय की दुकान रामलीला मैदान के पास ही है जहां पिछले शुक्रवार को कम्बल वाले बाबा का कैम्प लगा था। हमने पूछा तो बताया गया-'यहां परमिशन नहीं मिली कल। जीएम ने कैंसल कर दी।' रिछाई में लगा था कैम्प। दसियों हजार लोग आये थे।


कम्बल वाले बाबा का रामलीला मैदान में कैम्प कैंसल करने में हमारा भी कुछ योगदान रहा। पिछले शुक्रवार को जब पता चला तो मैंने अपने महाप्रबन्धक को बताया कि इस तरह बाबा अन्धविश्वास फैलाते हुए कमाई कर रहा है। इसमें फैक्ट्री भी अप्रत्यक्ष सहयोग कर रही है। कल को भीड़ में कोई हादसा हुआ तो फैक्ट्री पर जिम्मेदारी आएगी। उन्होंने तुरन्त सुरक्षा रिपोर्ट लेकर रामलीला मैदान पर कम्बल कैम्प की अनुमति निरस्त कर दी।
लोगों से पूछा तो हर आदमी कहता पाया गया कि उसको तो फायदा नहीं हुआ लेकिन इतने लोग आये हैं तो कुछ तो होगा। कुछ लोगों ने यह भी कहा-'जब फैक्ट्री ने अनुमति दी है तो कुछ तो सच्चाई होगी।' फैक्ट्री ने अनुमति निरस्त कर दी लेकिन मजमा जारी है।

एक आदमी चाय पीने के बाद लाठी टेकते हुए वापस जा रहा था। उसको दिखाई नहीँ देता। वह लाठी दायें-बाएं हिलाते हुए सड़क को ठोंकता हुआ आगे जा रहा था। उसके द्वारा सड़क को ठोंकते हुए देखकर लगा कि वह अपना अंधे होने का गुस्सा सड़क पर उतार रहा हो।

मंदिर पर लोग आने लगे थे। मागने वाले जम गए थे। कुल 14 लोग थे मागने वाले। कोई 10 साल से आ रहा था कोई 15 साल से। कोई केवल यहीं माँगता है कोई साईं मंदिर या दूसरी जगह भी जाता है। एक महिला भिखारी ने बताया कि वह फैक्ट्री के गेट नंबर 3 पर भी जाती है। जो मिल जाता है उससे गुजर हो जाती है।

वहीँ एक महिला भिखारी से बात होने लगी। नाम बताया उन्होंने पांचो बाई। उनका आदमी था। सीआईएसएफ में नौकरी करता था। एक औरत के साथ भाग गया। पांचो बाई के डर से शहर-शहर भागता रहा। नौकरी छोड़कर अब उस महिला के साथ रीवां के किसी गाँव में रहता है। तीन बच्चे हैं उस महिला से।

'कचहरी में बचा लिया पुलिस ने उसको वरना हम उसको पकड़कर पीटने वाले थे। अभी नौकरी करता तो बढ़िया तनख्वाह मिलती। पेंशन पाता। भाग गया बदमाश।'- पांचो बाई बोली।

पाँचों बाई के एक बिटिया है। नाती-पोते हैं। जब आदमी भगा था तब बिटिया छोटी थी। उसको पाल-पोसकर बड़ा किया। ईंटे पाथने का काम किया। बजरंगनगर में खुद का मकान बनाया। अब वहाँ रहती हैं अकेले। नाती-पोते भी आते हैं। घर में गैस नहीं है। लकड़ी बीनकर खाना चूल्हे में बनाती हैं।


मकान बनाने का किस्सा बताते हुए बोली-' हफ्ते भर ईंटे पाथ लेते थे। फिर लेबर लगाकर ईंट चिनवा लेते थे। मकान बना लिया तो ठाठ से रहते हैं वरना किराये के मकान में मारे-मारे ठोकर खाते घूमते।

हमने उम्र पूछी तो बोली-'तुम बताओ। तुम तो पढ़े-लिखे हो।' हमने कहा-' होयगी यही कोई 30-35 साल। खूबसूरत हो। पिक्चर में काम करो तो खूब हिट होगी।' इस पर वो खूब जोर से हंसने लगी और सच में खूबसूरत लगीं। दांत देखकर ऐसा लगा मानों प्रकृति ने ऊपर-नीचे के दांत सम-विषम करके तोड़े हों।

कम्बल वाले बाबा के पास पांचो बाई भी गयी थीँ। घुटने दर्द करते हैं। 10 रूपये का ताबीज खरीदा। फायदा लगा नहीं। किसी बात पर सरकार को कोसते हुए बोलीं-' सरकार दारु,गांजा बिकवाती है। पैसा कमाती है। लोग पीकर उत्पात करते हैं।'

हमने सबके लिए एक रूपये के हिसाब से उनको दिए। यह भी कहा कि वैसे हम कभी भीख देते नहीं पर उनसे बात करके दे रहे हैं। इस पर पांचो बाई बोली-'अरे आदमी प्रेम से दे बस यही बहुत है।'

हमने पूछा-'घर आयेंगे तो चाय पिलाओगी?' बोली-'काहे नहीं पीआयेंगे।'फोटो देखकर बोलीं-'बढ़िया तो आई है। एक अंग्रेज भी खींचा था हमारा फ़ोटो।'

इस भीड़ से अलग मन्दिर के दूसरी तरफ भी एक महिला अकेली बैठी थी। नाम बताया - जोगतिया बाई। उम्र बताई करीब 35-40 साल। शादी की नहीं। भाई के साथ रहती हैं। भतीजे-भतीजी हैं।

उनसे बात कर रहे थे तब तक वहां सुरक्षा दरबान गस्त करते हुए आये। बोले-'एक आदमी पाइप लाइन चुराते पकड़ा गया।लकड़ी भी चोरी हो रही है।'

हमने पांचो बाई से कहा-'तुम भी लकड़ी ले जाती हो सड़क से। कभी पुलिस पकड़ ले गई तो क्या करोगी?
वो बोली-'ले जायेगी तो ले जायेगी। खाने का तो वहां भी मिलेगा।'

लौटकर आये कमरे पर। चाय पीते हुए पोस्ट लिखी। सूरज भाई पूरी शान से चमक रहे हैं। कानपुर से भाई ने फोन किया और बताया -'यहां तो भयंकर कोहरा है'। हम दुष्यंत कुमार को याद करने लगे।

मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।


पिछले दिनों टहलने नहीं गए। आज गए तो लगा कि बहुत कुछ छूट रहा था। अकेलेपन का भाव हावी था। आज लोगों से बात करके लगा कि निकलना कितना सुकूनदेह होता है। आप भी अकेले मत रहिये। जब भी मौका मिले निकल लीजिये। अच्छा लगेगा।

Monday, December 07, 2015

'अरे बाबू तुम फिरि मिलि गेयेव!'

आज दोपहर दफ्तर से मेस की तरफ आते हुए देखा कि कोई बूढ़ा माता सर पर कबाड़ का बोरा लादे डगर-मगर चलती हुई आ रहीं थी। कबाड़ का बोरा उनकी आँख के आगे आ रहा था- घूँघट की तरह। रास्ता दिखाई नहीं दे रहा होगा उनको सो लड़खड़ाते हुए सड़क के किनारे-बीच होते हुए चली आ रही थीँ। सड़क-नदी पर हिचकोले खाते आगे बढ़ती नाव की तरह हिलती-डुलती।

मैं मेस के सामने खड़ा होकर बूढ़ा माता को अपनी तरफ आते देखता रहा। जब वो पास आयीं तो मैंने कहा कि ये आँख के आगे से ठीक कर लो बोरा। थोड़ा सुस्ता लेव।

बोरे का कूड़ा सड़क पर धरकर बूढा माता ने हमको देखा तो कहा-'अरे बाबू तुम फिरि मिलि गेयेव!' देखा तो वही बूढ़ा माता थीं- मुन्नी बाई जो कुछ दिन पहले फैक्ट्री जाते हुए मिलीं थी। https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10206822911544818

जब मिल ही गए तो हाल-चाल पूछे मैंने। बोली-'अरे बाबू तुम उई दिन मिले रहव तौ सब गेट नम्बर 3 पर पूछत रहै कि साहेब कित्ते पैसा दिहिन?' कोउ कहत रहै 500 दिहिन हुईहै कोऊ कहै 50 रुपया।

कब की निकली हौ घर से पूछने पर बोली-'सबेरे की चाय पीकर घर से चली हन। सर भन्ना रहा है भूख के मारे।' हमने कहा--'थोड़ी देर आराम कर लो फिर जाना।'

हम चलने लगे तो बोली बूढ़ा माता -'कुछु चाय पानी का खर्च न दैहौ?' हमारे जेब में पांच सौ रूपये थे। हम दुविधा में पड़ें तक तक मेस में काम करने वाले बच्चे उधर से गुजरे। हमने एक से 10 रूपये उधार मांगे। उसने बूढा माता को सीधे दे दिए।

चलते हुए हमने पूछा सबेरे की भूखी हौ कुछ खाओगी तो चलो मेस में खिलाएं। बूढ़ा माता असमंजस में जब तक कुछ जबाब दें तक मेस के बच्चे बोले-'रुको अभी यहीं ले आते हैं।' वो फौरन कुछ ही देर में प्लास्टिक की थाली में रोटी,दाल, सब्जी, चावल और एक बोतल में पानी लेकर आ गया। मुन्नी बाई वहीं पुलिया पर बैठकर खाने लगी।
मैंने लंच के लिए पहले ही मना कर दिया था। लेकिन बूढ़ा माता को लंच कराया गया तो मैंने कहा- ' यह लंच मेरे नाम लिख लेना। लंच ऑफ़ नहीं रहेगा। समझ लेना मैंने ही खाया।'

लेकिन मेस के सब बच्चों ने मेरी यह बात मानने से मना कर दिया और कहा - 'ये किसी के नाम नहीं लिखा जाएगा।' किसी के नाम न लिखा जाना मतलब सबके नाम लिखा जाना। शायद आपके नाम भी।

होंठ का एक हिस्सा सूजा हुआ था मुन्नी बाई का। बताया गिर गयीं थीं। खूब खून गिरा। दर्द हुआ। अभी भी दर्द है लेकिन कम है।

हमने पूछा-'इत्ता वजन लेकर लाल माटी तक कैसे जाओगी?' बोली-'ऐसे ही धीरे-धीरे चले जाएंगे।'

हमने-'हम आएंगे तुमसे मिलने। मिलोगी वहां? चाय-पानी करवाओगी?' इस पर वह बोली-'मिलेंगे कहे नहीं? लेकिन तुम पैदल कैसे आओगे वहां उत्ती दूर?'

हमने कहा-'जैसे तुम आ जाती हो।'

खाना खाकर प्लेट फेक दी बूढ़ा माता ने। प्लास्टिक की बोतल कूड़े में समेट कर सर पर बोझ लादकर चली गयीं।

हम अपने बुजुर्गवार बालकृष्ण शर्मा नवीन की ये पक्तियां याद कर रहे थे:
"लपक चाटते जूठे पत्ते, जिस दिन मैंने देखा नर को
उस दिन सोचा क्यों न लगा दूं, आज आग इस दुनिया भर को
यह भी सोचा क्यों न टेंटुआ, घोटा जाय स्वयं जगपति का
जिसने अपने ही स्वरूप को, रूप दिया इस घृणित विकृति का।"


जूठे पत्ते भले न चाट रही हो माताजी लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि विकास के अनगिनत दावों के बीच अपनी आबादी का एक बड़ा हिस्सा दोपहर तक भोजन वंचित रहे। नवीन जी की पीढ़ी आशावान थी। उनमें विषमता के प्रति आक्रोश था। समय के साथ यह आक्रोश ठण्डा होता गया । अब ऐसी घटनाएं देखकर उदास होकर ही लगता है कि अपना काम पूरा हुआ।

है कि नहीं?

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धूप की सरकार बन गयी

सूरज भाई आज सुबह होते ही ड्यूटी पर जम गए। पेड़ों, झाड़ियों के आसपास छिपे अंधेरे और कोहरे की धरपकड़ करते हुए उनका संहार करने लगे। सूरज भाई का जलवा देखते हुए बाकी का बचा अँधेरा अपने आप ही सर पर पैर रखकर फ़ूट लिया।

सर पर पैर रखकर फूटना शायद इस तरह बना होगा जैसे रेलें चुम्बकीय पटरियों पर चलने लगें तो स्पीड बढ़ जाती है उनकी ऐसे ही आदमी जब अपने दिमाग की पटरियों पर चलना शुरू कर देता होगा तो सरपट दौड़ने लगता होगा।

किरणें खिलखिलाती हुई बाग़-बगीचे, फूल-पत्ती, छत-छज्जे पर पसर गयीं। एक किरण ने... दूसरी के कंधे पर धौल जमाते हुए कहा-' क्या बात है आज घास पर ही पसरी रहेगी या किसी फूल पर बैठना है।' इस पर दूसरी किरण ने कहा -"यार फूल पर बैठने का तो तब मजा है जब ओस की बूंद की कुर्सी मिले बैठने को। ऐसे क्या मजा फूल पर बैठने को। फूल भी दिन भर सेंसेक्स की तरह दांये-बाएं होता रहता है।हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं सरककर नीचे न गिर जाएँ। मन करता है ओस की बूँद पर बैठकर झूला झूलूँ। पता नहीं कब ओस की बूँद पर बैठने को मिलेगा।"

किरणों की बातचीत सुनते हुए चिड़ियाँ चहचहाती हुई आपस में बतिया रहीं थीं। एक तेज से बोलती चिड़िया की तरफ इशारा करते हुए दूसरी चिड़िया ने कहा-" इत्ता जोर से चिल्लाती है यह बगीचा लगता है संसद बन गया है। इसकी आवाज से मेरे तो कान एकदम क़ानून व्यवस्था की तरह बहरे हो गए। अपने यहां भी कोई केजरीवाल जैसा कोई नियम लागू करने वाला होता तो कानून लागू कर देता चिड़ियाँ भी एक छोड़कर चिचियाया करेंगी।"
अरे तू भी कैसी बात करती है यार। केजरीवाल आएगा तो फिर लोकपाल भी आएगा। फिर राज्यपाल भी। अच्छा-भला बगीचा दिल्ली बनकर रह जाएगा। अपन ऐसे ही भले। ये चिंचियाती ही तो है। यह तो नहीं कहती भाषणवीर नेताओं की तरह कि हम यह करेंगे। वह करेंगे। इसको भगा देंगे। उसको फुटा देंगे। क्या पता उसकी आवाज ऊँची न हुई हो हमारे कान में ही कोई लोचा हुआ हो कि हमको अपने अलावा हर किसी की आवाज बेसुरी लगने लगी हो। क्या पता आदमियों के साथ रहने का असर हुआ हो हम पर भी और हमें भी किसी भी अलग के मुंह से निकली आवाज से एलर्जी हो गयी हो।

'सही कह रही हो यार'- कहते हुए दोनों चिड़ियाँ उड़कर दूसरे पेड़ की फुनगी पर चली गयीं। अब उस चिल्लाती चिड़िया की आवाज उनको भली और प्यारी लगने लगी। वे भी उसके संग कोरस में गाने लगीं। पेड़ की पत्तियां भी हिलते हुए ताली सी बजाती हुई कोरस में शामिल हो गयीं।

सामने सड़क पर एक ऑटो भड़भड़ाते हुए निकला। बुजुर्ग ऑटो लगता है जाड़े में सुबह-सुबह सड़क पर दौड़ाये जाने के चलते भन्नाया हुआ था। इसीलिये लगता है तेज आवाज में बड़बड़ाता हुआ सड़क पर चला जा रहा था। डीजल और इंजन के अनुशासन में बंधा बेचारा सड़क पर चला तो जा रहा था पर गुस्से का इजहार भी धुंआ उगलते हुए करता जा रहा था।

खुले हुए कमरे से उजाला अंदर घुस आया। गुड मॉर्निंग करते हुए बोला-'अंकल क्या आज ऑफिस नहीं जाना है?'
हमने कहा जाना है बच्चा। जाते हैं। जरा चाय पी लें।

चाय पीते हुए सामने सूरज भाई का जलवा देख रहे हैं। सब जगह धूप की सरकार बन गयी है। सूरज भाई आसमान से मुस्कराते हुए शायद कह रहे हैं -सुबह हो गयी।

Sunday, December 06, 2015

’पुलिया पर दुनिया’


पिछले साल लगभग इन्ही दिनों मैंने पुलिया पर लिखी पोस्टों को इकट्ठा करके ई-बुक बनाई थी--’पुलिया पर दुनिया’। उसका फ़िर ’प्रिन्ट आन डिमांन्ड’ के अंतर्गत प्रिंट संस्करण भी निकाला गया। यह काम सब कुछ एक नौसिखिये की तरह किया गया। किताबें pothi.com और onlinegatha.com पर रखी गयीं। pothi.com को मैं देखता रहा। वहां कल तक कुल 50 किताबें बिक चुकी थीं। इनमें से एक रंगीन प्रिंटिंग में किताब भी (कीमत 800 रुपये) थी जिसे Om Varma जी ने अपने पिताजी के लिये लिया था। ओम वर्मा जी ने बताया कि उनके बुजुर्ग पिताजी को मेरा लेखन बहुत पसंद है पर वे कम्प्यूटर पर पढ नहीं पाते इसलिये उन्होंने इस किताब का छपा हुआ संस्करण उनके लिये मंगाया। मैं यह सुनकर अविभूत हो गया और मैंने उनसे उनका पता मांगा यह कहते हुये कि मैं अपनी पोस्टों को हफ़्तावार उनके पिताजी के पढ़ने के लिये भेजता रहूंगा।

मेरी पोस्टों को पढे जाने के बारे में मुझे हमारे समधी जी Jai Narain Awasthi ने बताया कि मेरी हर पोस्ट वे अपने यहां होने वाले सतसंग में, जिसमें उनके साथी उनके घर में इकट्ठा होते हैं,पढकर सबको सुनाई जाती है। हमें यह सुनकर ताज्जुब हुआ और मैंने कहा -’ यह तो पढने और सुनने वाले के साथ अन्याय होता होगा जब मेरी लम्बी पोस्टें पढी जाती होंगी।’ लेकिन उन्होंने कहा -’अरे नहीं सबको बड़ा अच्छा लगता है सुनने में।’ मेरी एक और मित्र Tamanna Bansal ने एक बार बातचीत में बताया था कि मेरी सुबह की पोस्टें वे व्हाटसएप पर अपने मित्र-ग्रुप में भेजती हैं और लोग इंतजार करते मेरी पोस्टों को।

हालांकि मेरी पोस्टों पर कुल जमा लाइक्स आमतौर पर 100 -200 तक रहते हैं लेकिन जब मुझे यह पता चला कि मेरी पोस्टें ऐसे भी पढी जाती हैं तो जानकर अच्छा लगा और यह भी लगा कि मुझे लिखते रहना चाहिये। न जाने किस वेश में पाठक मिल जायें।

हां, तो बात कर रहे थे किताबों की। तो कल मुझे onlinegatha.com से सूचना मिली कि मेरी किताब उनके यहां सबसे ज्यादा बिकी है। सबसे ज्यादा मतलब ई-बुक बिकी है 100 और पेपरबैक किताबें बिकीं 5. आनलाइनगाथा पर ई-बुक जो कि आपके अपने कम्प्यूटर पर डाउनलोड करके पढी जा सकती है की कीमत मैंने रखी थी 49 रुपये और पेपरबैक संस्करण की कीमत रखी थी 251 रुपये।

ई-बुक पर 70% रायल्टी मिलती है (पोथी.काम पर यह 75% है) पेपरबैक किताब पर 113 रुपये है। आनलाइन गाथा से कल तक कुल मिलाकर मेरी रायल्टी 4731.83 INR / $ 74.07 . इसी तरह पोथी.काम पर बिकी कुल 50 किताबों (47 ई-बुक और 1 ब्लैक एंड व्हाइट 2 रंगीन) की रायल्टी Rs.1,864.80 हुई। इस तरह कुल मिलाकर साल भर में कुल 155 किताबों की बिक्री से मेरे नाम रायल्टी के कुल रुपये 6595. 80 हुये।

आनलाइन गाथा की रायल्टी मुझे तब मिलेगी जब यह 100 डालर हो जायेगी। यह तभी संभव है जब डालर रुपये के मुकाबले इतना भड़भड़ा के गिरे कि एक डालर की कीमत 47 रुपया 31 पैसे हो जाये या फ़िर करीब 50 किताबें और बिक जायें। किताबें तो बिकेंगी ही। अभी मैंने अभी अपने विभाग को सूचना नहीं दी है। 40 फ़ैक्ट्रियां और कम से कम 20 और संस्थान हैं हमारे। उनको सूचना देंगे और हर संस्थान का राजभाषा विभाग 2 किताब खरीदेगा तो मार्च तक 100 किताबें और बिक जायेंगी। तब तक रायल्टी के पैसे भी मिल भी 100 डालर मतलब 7500 करीब हो ही जायेंगे आनलाइन गाथा पर। है कि नहीं?

मेरे कई मित्रों ने अपनी किताबें प्रकाशकों को पैसे देकर छपवाई। कुछ लोगों ने तो 25 से 35 हजार रुपये तक दिये। उनको कितनी रायल्टी मिली मुझे पता नहीं पर मुझे लगता है प्रकाशकों को पैसा देकर छपवाने से बेहतर यह विकल्प है जिसमें भले ही कम पैसा मिले लेकिन गांठ से कुछ नहीं जाता।

हां यह जरूर रहा कि आनलाइन प्रकाशन के चलते इस किताब के बारे में किसी ने कुछ लिखा नहीं। किसी ने किताब के साथ फ़ोटो खींचकर नहीं छपवाई। किसी ’खचाखच भरे सभागार’ विमोचन भी नहीं हुआ मेरी किताब का रामफ़ल यादव ने पुलिया पर किया था। किताब के साथ में खड़े होकर फ़ोटो खिंचाई थी।

यह पोस्ट सिर्फ़ अपने मित्रों की जानकारी के लिये है कि हमारी पुलिया की पोस्टों की किताब भी उपलब्ध है। अगर वे चाहें तो इसे आनलाइन खरीद सकते हैं। जानकारी यह भी कि ये सारी पोस्टें मेरे फ़ेसबुक और ब्लॉग पर भी उपलब्ध हैं (यह बताना अपनी बिक्री के पैर पर कुल्हाड़ी मारना है न! smile इमोटिकॉन ) लेकिन सब पोस्टों को किताब के रूप में पढ़ने का मजा ही कुछ और है न। किताब में भूमिका भी है जो कि फ़ेसबुक और ब्लॉग पर नहीं मिलेगी।

जिन मित्रों को मेरा लिखा पसंद आता है और जो मेरे लिखे को किताब के रूप में लेना चाहते हैं वे आनलाइन इसे खरीद सकते हैं। सभी जगह से खरीदने के लिंक नीचे टिप्पणी बाक्स में दे रहा हूं।

आज इतवार है। जिनकी छुट्टी है वे मजे करें। सबका दिन मंगलमय हो।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10206860473323839
 

अति सर्वत्र वर्जयेत

 
पूरे दस साल के बाद वेतन आयोग आया । अखबार कह रहे आयोग ने खूब पैसा बढ़ाया। सरकारी कर्मचारियों पर खजाना लुटाया । उधर  कर्मचारी कह रहे हैं- यार मजा नहीं आया। ऐसा लग रहा कि आयोग ने तो मिठाई के डिब्बे की जगह लेमनचूस टिकाया।
एक सरकारी कर्मचारी का कहना है- जितना पैसा साल भर की मंहगाई भत्ते किस्तों में मिल जाता था उतना आयोग ने दस साल में बढ़ाया है। गोया नगाड़े की आवाज की जगह झुनझुना बजाया है।
ज्यादा पैसे बढ़ते तो क्या करते के जबाब में कर्मचारी बोला- तो हम ज्यादा खर्च करते। ज्यादा सामान खरीदते। ज्यादा खुश होते।
ओह ये बात है। समस्या की जड़ ज्यादा की इच्छा में हैं। यह तो भारतीय संस्कृति के संस्कृति सुभाषित –’अति सर्वत्र वर्जयेत’ की भावना के खिलाफ़ है। जो वर्जित है उसकी चाहना करोगे तो दुख तो होगा ही। दुख को खुद न्योता देने के समान है ज्यादा की इच्छा करना।
लेकिन सुख की इच्छा तो सहज भाव है मन का। उसका क्या करें ?
अरे तो उसके लिये उपाय है। संतोष की शरण में जाओ। संस्कृत में सुभाषित है न – ’संतोषम परमम सुखम।’ ऐसी कौन सी समस्या है जिसका इलाज भारतीय संस्कृति में नहीं है? संतोष की शरण में जाओ और परम सुख की प्राप्ति करो। मन करे तो गाते-बजाते हुये कोरस में जाओ- ’ज्यादा की जरूरत हमें नहीं, थोड़ी में गुजारा होता है।
लेकिन मंहगाई तो बढती जा रही है। उसका मुकाबला कैसे करेंगे? बाजार में सब कुछ तो मंहगा हो रहा है।
अरे बाजार से मुकाबला करने के लिये ही तो यह सारे उपाय किये गये हैं। सरकार पहले से ही बाजार के पर कतरने के लिये तमाम उपाय कर चुकी है। रेलवे की रिजर्वेशन का पैसा बढ़ाया, गैस की सब्सिडी कम की, सेवा शुल्क लगाया। जो रही बची कसर है वह वेतन आयोग पूरी कर देगा। बाजार के लिये पैसे की सप्लाई काट दी।
वो तो कहो आयोग ने तन्ख्वाहें कम नहीं की। वर्ना आयोग के एक सदस्य का सवाल  तो यह था कि का वेतन बढ़ना क्यों चाहिये। सरकारी कर्मचारी तो सरकार का अंग होने के नाते वेतन के लिये अयोग्य होता है। उसकी तन्खाहें तो कम होनी चाहियें।
अब बोलो क्या कहना है वेतन आयोग के बारे में?  एक लाइन में बोलो। मैंने सरकारी कर्मचारी से पूछा।
सरकारी कर्मचारी ने आंखे लाल करके झल्लाते हुये कहा- अति सर्वत्र वर्जयेत।

Saturday, December 05, 2015

'हम न मरब' -बेहतरीन उपन्यास

अभी खत्म किया यह उपन्यास। हाल के दिनों में पढ़ा सबसे बेहतरीन उपन्यास। अद्भुत।

ज्ञान चतुर्वेदी जी( Gyan Chaturvedi ) के सभी उपन्यास मैंने पढ़े हैं। अलग-अलग कारणों से वे पसन्द आये। लेकिन 'हम न मरब' पढ़ने का अनुभव सबसे अलग रहा। इस उपन्यास को पढ़ना अपने समय की विद्रूपताओं को नजदीक से देखना जैसा है।

'हम न मरब' के बारे में और कुछ लिखना मुश्किल है फिलहाल। इसके लिए इसे फिर से पढ़ना होगा इसे। लेकिन आम जीवन का का इतना सच्चा बयान इसके पहले कब पढ़ा यह याद नहीं।
...
उपन्यास पढ़ने के पहले इसके बारे में हुई आलोचनाएं पढ़ने को मिली थीं। इसकी आलोचना करते हुए कहा गया कि इसमें गालियां बहुत हैं। लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए और अब पूरा पढ़ लेने के बाद लग रहा है कि गालियों के नाम पर उपन्यास की आलोचना करना कुछ ऐसा ही है जैसे किसी साफ़ चमकते हुए आईने के सामने खड़े होकर कोई अपनी विद्रूपता और कुरूपता देखकर घबराते हुए या मुंह चुराते हुए कहे- 'ये बहुत चमकदार है। सब साफ-साफ़ दीखता है।'

उपन्यास पढ़ने के बाद मन है कि अब इसे दोबारा पढ़ेंगे। इस बार ठहर-ठहर कर। पढ़ते हुए सम्भव हुआ तो इसकी सूक्ति वाक्यों का संग्रह करेंगे। जैसे की आखिरी के पन्नों का यह सूक्ति वाक्य:
"महापुरुष के साथ रहने को हंसी ठट्ठा मान लिए हो क्या? बाप अगर महापुरुष निकल जाए तो सन्तान की ऐसी-तैसी हो जाती है।"

इस अद्भुत उपन्यास का अंग्रेजी और दीगर भाषाओं में अनुवाद भी होना चाहिए। 500-1000 की संख्या वाले संस्करण की हिंदी पाठकों की दुनिया के बाहर भी पढ़ा जाना चाहिए इस उपन्यास को।

327 पेज का यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन की बेवसाइट rajkamalprakashan.com से आनलाइन मंगाया जा सकता है। कीमत है 495 रूपये।

ज्ञान जी ने अपने इस उपन्यास के समर्पण में लिखा है:
"........और व्यंग्य में आ रही नई पीढ़ी को भी/
बहुत स्नेह और विश्वास के साथ समर्पित/
मुझे विश्वास है कि मैं कभी नहीं मरूंगा/इस नई पीढ़ी में, हमेशा ही जिन्दा रहने वाला हूँ मैं।"

जैसा उपन्यास लिखा है ज्ञान जी ने उससे उनकी यह हमेशा जिन्दा रहने का विश्वास सच साबित होगा। जब तक पढ़ने- लिखने का सिलसिला चलता रहेगा और जब तक जीने-मरने की कहानी जारी रहेगी तब तक उनका यह उपन्यास 'हम न मरब' प्रासंगिक रहेगा।

ज्ञान जी के बारे में लिखते हुए उनकी अगस्त में एक इंटरव्यू में कही बात याद आ रही है जब उन्होंने कहा था-" हम आज जो हैं उससे बेहतर होना है हमें। हमें बेहतर इंसान होना है, बेहतर पिता, बेहतर पुत्र, बेहतर पति, बेहतर लेखक होना है। हम आज जो कुछ भी आज हैं उससे बेहतर होना है।"

उस दिन उनकी कही बात सुनकर लगा था कि कितनी अच्छी बात कही है। आज फिर लग रहा है यह सोचते हुए।

उपन्यास अगर न पढ़ा हो तो मंगाकर पढ़िये। अच्छा लगेगा।

ज्ञान जी बहुत-बहुत दिनों तक लिखते रहें। दीर्घायु हों और स्वस्थ बनें रहें। मंगलकामनाएं।

Friday, December 04, 2015

बाबाओं के हाथ में देश


आज हम लंच के लिए निकलने वाले थे तब तक किसी ने बताया कि रामलीला मैदान में कोई कम्बल वाले बाबा आये हैं। उनका शिविर चल रहा है।हर शुक्रवार को लगेगा शिविर। पांच शुक्रवार चलेगा।

गुजरात के रहने शुक्रवारी बाबा लकवा, आर्थराइटिस, डायबिटीज आदि बीमारियों का इलाज करते हैं। इलाज में वो मरीजों के ऊपर कम्बल उढ़ाते हैं। लकवा वाले रोगियों के लकवाग्रस्त अंग खींचते हैं। गले लगाते हैं। भींचते हैं। छोड़ देते हैं। लोग मरीजों को ले जाते हैं। पांच शुक्रवार होने पर ऐसा कहते हैं कि मरीज ठीक हो जाते हैं।
हम गए रामलीला मैदान तो बाबा जी मंच पर लोगों के लाये हुए नारियल छू-छूकर उनको देते जा रहे थे। एक यन्त्र बिक रहा था 100 रूपये जिसमें कुछ मन्त्र लिखे थे उसको भी लोगों को छूकर देते जा रहे थे। 10 रूपये का काले घागे में बंधा ताबीज भी बिक रहा था।

एक महिला अपने मन्दबुद्धि बच्चे को लेकर आई थी। बताया उसने -'यह बोलता नहीं है। सब जगह इलाज करके हार गए। आज बाबाजी का पता चला तो यहां आ गए।'

कुछ देर में बाबाजी मंच से उतरकर मरीजों की भीड़ में चले गए। एक लकवाग्रस्त मरीज को कम्बल उढ़ाया। उसका हाथ पकड़कर खींचा और कसकर भींच लिया। मरीज पर पकड़ देखकर धृतराष्ट्र द्वारा भीम के लोहे को पुतले को भींचकर चकनाचूर कर देने की याद आ गई।

भींचने के बाद बाबा जी ने उस लकवाग्रस्त मरीज को छोड़कर उसके परिजनों से उसको ले जाने को कहा। परिजन उसको समेटकर पंडाल से बाहर आये तो हमने उनसे पूछा - 'क्या तबियत ठीक हो गयी? अभी आज तो पहला दिन है।' मैंने मरीज से पूछा तो उसने भी बताया कि कुछ फर्क तो नहीं लग रहा। अभी तो पहला ही दिन है। मतलब उसको आशा है कि 5 दिन कम्बल थेरेपी हो जायेगी तो उसकी बीमारी ठीक हो सकती है।

बाबा जी के वालंटियर्स में से एक ने बताया कि अभी बिहार में कैम्प लगा था छपरा में। फिर सीहोरा में। लोग ठीक होते होंगे तभी तो इतने लोग आये हैं।

हम सवाल पूछते हैं कि क्या कोई आंकड़ा है इस बात का कि कितने लोग बाबा जी में इलाज से ठीक हुए।
अगर ठीक नहीँ होते तो इतनी भीड़ क्यों लगती यहां पर इलाज के लिए? -सवाल आ जाता है।

मतलब कोई काम सही है या गलत यह भीड़ के इकट्ठे होने से तय होगा। हो ही रहा है। भीड़ को इकट्ठा करने का हुनर रखने वाले लोकतन्त्र के राजा बनते ही हैं।

पूरा मजमा लगा था वहां। मेले का सीन। मेले की सहायक खाने-पीने की दुकाने खुल गयीं थीं। कोई अमरुद बेच था था कोई गोलगप्पे। कहीं चाय चल रही थी कहीं पकौड़ी। हर तरह की तुरन्त लग जाने वाली दुकान लग गई थी वहां।

कम्बल थेरेपी के साथ-साथ एक थाली में आरती ज्योति घुमाई जा रही थी। उसमें लोग श्रद्धानुसार चन्दा डालते जा रहे थे। थाली ऊपर टक भर गयी थी। शिविर शाम तक चलना है। ऐसे ही 5 दिन चलेगा शिविर।

कम्बल बाबा के इलाज से कितने लोग ठीक होंगे यह पता नहीं पर मैदान में खिली धूप में विटामिन डी के असर से बहुतों के मन जरूर खिल गये होंगे।

बाहर निकले तो एक आदमी कहता हुआ जा रहता--'पैसा बहूत पीट रहा है कम्बल बाबा।'

अब जब इलाज मुफ़्त है तो पैसा पीटने की बात कहना कैसे ठीक कहा जाएगा? लेकिन यह पैसा कमाना भी तो ऐसा ही जैसा फेसबुक मुफ़्त है लेकिन उसकी कमाई से जुकरबर्ग जो दान सामाजिक कार्य के लिए देता है वह कई देशों के कुल राष्ट्रीय उत्पाद सरीखा है।

मुफ्तिया इलाज के लिए दूर से सैकड़ों लोग आये हैं गाड़ियों में हजारों रुपया फूंक कर। मुफ़्त में कुछ भी मिलता है तो लोग टूट पड़ते हैं। यह तो इलाज है। मुफ़्त में कोई जहर भी बेंचे तो भी शायद भीड़ लग जाए।

मुझे लगता है यह अन्धविश्वास है। कोई ठीक नहीं होता इस इलाज। अगर सही में ठीक होता हो तो देश के मेडिकल कालेज बन्द करके सब काम ठेके पर दे देना चाहिए बाबा जी को।

वैसे देखा जाये तो अपने यहां बाबा बहुत कुछ चला रहे हैं। काला धन, नोबल पुरस्कार,टैक्स नीति और प्रधानमन्त्री तक तय करने का दावा बाबाजी कर रहे हैं।

लौटते में ड्राइवर बोला-'बाबाओं का जलवा उनकी पोल खुलने तक ही रहता है। बापू आशाराम का देखिये -राम के वेश में रासलीला करते थे। आज जेल की चक्की पीस रहे हैं।'

पुलिया पर शिवप्रसाद मिले। बोले-' बाबा का इलाज करवाकर आ रहे हैं। दमा की शिकायत है।'सब्जीबेंचते हैं शिवप्रसाद। सुबह 9 बजे से लगे थे लाइन में।हमने पूछा-'कुछ ताबीज वगैरह खरीदा? बोले- नहीं। उनके चेहरे पर बेवकूफ बनने से बच जाने भाव था। पर 4 घण्टे लुट जाने और भीड़ का हिस्सा बनकर बाबाजी कमाई में अप्रत्यक्ष सहयोग का उनको अंदाज ही नहीं था।

बातचीत करते हुए जेब से निकाल कर तम्बाकू खाने लगे शिवप्रसाद।

इस बीच एक कार रुकी। उसमें बैठे लोगों ने रामलीला मैदान का पता पूछा। तेजी से चले गए।

लौटकर आते समय मैं सोच रहा था कि अपना देश भी तो इसी तरह चल रहा है। तमाम समस्याओं से लकवाग्रस्त देश। लोग आते हैं। कम्बल उढ़ाते हैं। इलाज का दावा करते हैं। कोई पूछता है कि अभी हालत सुधरी नहीं तो कह देते हैं--अभी तो इलाज शुरू हुआ है। जनता भी सालों तक इन्तजार करती रहती है। कभी एक बाबा से मन उचट जाता है तो दूसरे बाबा की शरण में चली जाती है।

बाबाओं की कमी थोड़ी है देश में। बाबाओं के हाथ में है  देश |
 

Wednesday, December 02, 2015

चले कहाँ हो तुम मेरी धड़कने बढ़ा के

चले कहाँ हो तुम
मेरी धड़कने बढ़ा के

हम चाय की दुकान पर बैठकर चाय पी ही रहे थे कि ये वाला गाना बजने लगा। हमें लगा कि हम तो अभी आये ही हैं लेकिन यह हमारे जाने की बात कौन करने लगा। यह सोचकर गुदगदी होने ही वाली थी कि हमारे कहीं से चलने पर किसी की धड़कने बढ़ सकती हैं लेकिन ऐन मौके पर रुक गयीं। खतरा टल गया।
...
दुकान पर एक आदमी एक व्हील चेयर पर बैठे आदमी से बतिया रहा था। चाय वाला भी उसमें बिना निमन्त्रण शामिल हो गया। बात करते हुए तीनों लोग माँ, बहन और भो घराने की गालियां देते जा रहे थे। बातों में गालियों की मात्रा सुनकर यह तय करना मुश्किल सा लगा कि ये लोग गाली-गलौज के लिए बातचीत कर रहे हैं या फिर बातचीत के लिए गाली-गलौज।

यह सवाल कुछ ऐसा ही था जैसे कोई यह जानने की कोशिश करे कि देश में विकास के नाम पर भ्रष्टाचार हो रहा है या भ्रष्टाचार के नाम पर विकास।

हम कुछ तय कर पाते तब तक अगला गाना बजने लगा पर वह हमको ठीक से सुनाई नहीं दिया क्योंकि चायवाला अपने ग्राहक से किसी बात पर बहस करते हुए तेज-तेज बतियाता रहा। वह क्या कह रहा था यह तो नहीं समझ में आया लेकिन बीच-बीच में जोर-जोर से यह बोलता जा रहा था कि जिसके भाग्य में जो लिखा है वह मिलकर रहेगा।

दस फ़ीट की दूरी से रेडियो से चली हुई आवाज जब बीच में खड़े लोगों के हल्ले- गुल्ले के चलते हम तक नहीं पहुंची तो हमको कुछ-कुछ यह समझ में आया कि दिल्ली से चली हुई योजनाएं बांदा, बस्तर, बलिया तक क्यों नहीं पहुंच पातीं। बीच के लोग उनको डिस्टर्ब कर देते होंगे।

सुबह जब निकले साइकिल से तो उजाला कम था। एक महिला सरपट तेजी से टहलती दिखी। उसके पीछे एक जोड़ा खरामा-खरामा टहल रहा था।

दो महिलाएं सड़क पर टहलती हुई दिखीं। दोनों शॉल ओढ़े हुए थीं। ध्यान से देखा तो एक महिला एक हाथ में माला थामे हुई थीं। माला हिडेन एजेण्डा की तरह थी। जितनी तेजी से वह टहल रही थी उससे भी तेजी से माला फेरती जा रही थी।

एक आदमी एक टपरे के पास बैठा शीशे में अपना मुंह देख रहा था।

चाय की दुकान पर अगला गाना बजने लगा-

'किसने छीना है बोलो मेरे चाँद को'

आदमी की यह आवाज सुनकर लगा कि जैसे ही उसे पता चलेगा कि उसके चाँद को किसने छीना है वैसे ही वह पास के थाने में जाकर चाँद के छीने जाने की रिपोर्ट लिखायेगा या फिर किसी टेंट हाउस से किराये पर माइक लेकर किसी चौराहे पर हल्ला मचाते हुए भाइयों और बहनों को बताएगा।

लेकिन नायिका देश की जनता की तरह समझदार निकली और उसने जबाब दिया:

'कौन छीनेगा तुझसे मेरे चाँद को'

नायिका की बात सुनकर एक बार फिर से लगा कि महिलाओं की सहज बुद्धि शानदार होती है।

दूसरी दुकान की भट्टियां जल नहीं रहीं थी। उसके आसपास किसी चुनाव हारी पार्टी के कार्यालय जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था। आज शायद दुकान बन्द थी।

अगला गाना बजने लगा:

'सारा प्यार तुम्हारा मैंने बाँध है आँचल में
तेरे नए रूप की नयी अदा हम देखा करेंगे पलपल में'

मतलब प्यार न हो गया आदमी का जीपीएस हो गया। प्यार न हुआ मानों सीसीटीवी कैमरा हो गया। इधर प्यार बंधा और उधर अदाएं दिखने लगीं। प्यार भी बाँधा तो इसलिए कि नए रूप की अदाएं दिखतीं रहें। मान लो कोई पुराने रूप की अदाएं दिखाना चाहे तो क्या आँख मूँद लोगे भाई?

यह भी लगा कि गाने में आँचल में प्यार बाँधने की बात कही गयी है। यह बात तब की है जब आँचल हुए करते थे। अब मान लो कोई जीन्स टॉप में हो तो कहां बंधेगा प्यार? जेब में धरने की सुविधा भी होनी चाहिए। या अब तो जमाने के हिसाब से मोबाईल में व्हाट्सऐप से भेजने का जुगाड़ होना चाहिए। मल्लब समय के हिसाब से सब होना मांगता भाई।

मेस के पास एक बालिका साईकल पर स्कूल जा रही थी। साथ में एक बालक मोटर साइकिल चलाते हुए बालिका से बतियाता जा रहा था। बालिका उसको मम्मी की कही कोई बात -'मेरी मम्मी कह रही थी' कहते हुए बता रही थी। बालक चातक की तरह चाँद के चहरे को देखते हुए बालिका की मम्मी की कही बात बालिका के मुंह से सुन रहा था।

टीवी पर चेन्नई की बारिश के सीन दिखाई दे रहे हैं। कानपुर से घरैतिन का फोन आया कि वहां बहुत तेज बारिश हुई रात को।लेकिन स्कूल जाना है आज। हम ऑटो वाले को फोन पर सूचना देते हुए यह शेर पढ़ रहे हैं:

तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
कि भीग तो पूरा गए,पर हौसला बना रहा।

सूरज भाई वाह-वाह करते हुए आसमान में चमक रहे हैं। चिड़ियाँ भी चिंचियाते हुए सुबह होने की घोषणा कर रही हैं। सुबह सच में हो गयी है। सुहानी भी है।

Tuesday, December 01, 2015

वेतन आयोग में गिफ़्ट वाउचर




हिन्दुस्तान अखबार में 01-12-15
पूरे दस साल के इंतजार के बाद आया वेतन आयोग। कर्मचारियों के वेतन बढे। अखबारों ने खबर छापी- सरकारी कर्मचारियों के बल्ले-बल्ले। वेतन 23 प्रतिशत तक बढा। सरकारी खजाने पर अरबों पर बोझ।सरकारी कर्मचारियों से पूछा गया- कैसी लगी  वेतन आयोग की सिफ़ारिशें? खुश तो बहुत होगे? कर्मचारी भन्नाया हुआ था। बोला- इत्ता तो हर साल डीए बढने पर मिल जाता था जितना दस साल बाद आये इस आयोग ने देने की बात की है। सत्तर सालों का सबसे खराब वेतन आयोग है यह। उसका गुस्सा देखकर लग रहा था कि वह बस- ’वेतन आयोग वापस जाओ’ का नारा लगाने के लिये मुट्ठी भींचने ही वाला है।
बड़ा बहुरुपिया है यह वेतन आयोग भी। देने वालो को दिखता है कि उसने अपना सब कुछ लुटा दिया देने में। पाने वाला सोचता है कि उसको तो लूट लिया देने वाले देने और पाने वाले दोनों समान भाव से लुटा हुआ महसूस कर रहे हैं वेतन आयोग से।
देखा जाये तो मामला पैसे का ही है। पैसा बढ़ता तो भी वह बाजार ही जाता। पैसे की नियति ही है बाजार पहुंचना। जेब किसी की हो पैसा उसमें पहुंचते ही बाजार  जाने के लिये मचलता है। किसी को नये कपड़े लेने होते हैं , किसी को मोबाइल। कोई कार के लिये हुड़कता है, कोई मकान के लिये। सबके लिये बाजार ही जाना होता है। बाजार पैसे का मायका होता है। जितनी तेजी से आता है जेब में पैसे उससे तेजी से वापस जाने के लिये मचलता है। उसको बाजार में ही चैन मिलता है। किसी की जेब में रहना अच्छा लगता नहीं पैसे को।
अभी तो लोग पैसे को देख भी लेते हैं आमने-सामने। कभी दुआ सलाम भी हो लेती है पैसे से। समय आने वाला है पैसा बाजार में ही रहेगा। आपके पास आने के लिये कहा जायेगा तो बोलेगा- समझ लो पहुंच गये जेब में। बताओ हमारे बदले में क्या चाहिये तुमको। चीज तुम्हारे पास पहुंच जायेगी। हमको डिस्टर्ब न करो। यहीं रहन दो बाजार में आराम से।
क्या पता पैसे के बाजार में ही बने रहने की जिद और मनमानी के चलते  आने वाले समय में वेतन आयोग लोगों के वेतन बढने की जगह ’मियादी गिफ़्ट वाउचर’  देने की घोषणा होने लगे।