Wednesday, July 27, 2016

चींटा और आदमी

रिक्शे में गेंद हैं
दो दिन पहले किसी काम के सिलसिले में हम लोग खुले में खड़े थे। काम चल रहा था। जिम्मेदारी और दिखावे के के लिहाज से कार्यस्थल पर ही खड़े थे। काम में कोई योगदान देना नहीं था सो देश दुनिया की चिंता करने लगे।

कवि यहां यह नहीं कहना चाहता कि जो देश दुनिया की चिंता करते हैं वे सब निठल्ले होते हैं। उसका मतलब शायद यह है कि जब आदमी निठल्ला होता है तो देश और दुनिया के बारे में चिंतन करने लगता है।

खुले में खड़े थे।आसमान साफ़ था। जमीन पर जगह-जगह बारिश का पानी टाइप जमा था। जहां पानी संगठित था, ज्यादा जमा था वहां तो जमा रहा। लेकिन जहां जमीन पर पानी पाउडर की पर्त सरीखा बस नाम को था उसे सफाई पसंद सूरज भाई किरणों की गर्मी के लाठी चार्ज से तितर-बितर कर दे रहे थे। वहाँ जमीन सूख रही थी। 


इसीबीच देखा कि एक लाल चीटा अपने से कई गुना बड़ा लगभग गोल आकार का एक बोझा इधर-उधर धकिया के ले जा रहा था। गोल बोझे का व्यास चीटे की कुल लम्बाई से कुछ ज्यादा ही रहा होगा। आयतन तो कई गुना रहा होगा उसके शरीर से। लेकिन लगता है वजन उतना नहीं था क्योंकि उसको वह इधर-उधर ठेले चला जा रहा था।

वजन ठेलता हुआ चीटा वजन को दो-चार इंच एक तरफ ले जाता। थक जाता तो ठहर जाता। थोड़ी देर रुकता। फिर दूसरी तरफ ठेलने लगता। मने जैसे दुनिया भर की सरकारें करती हैं। एक सरकार से एकदम उलट काम दूसरी सरकार करने लगती है।

बीच-बीच में चीटा उस वजन पर उचककर चढ़ जाता। उसकी इधर-उधर घूमती गर्दन देखकर लगता उस वजन को मंच समझकर भाषण दे रहा है। शायद भाइयों और बहनों भी कह रहा हो। क्या पता यह भी कह रहा हो कि पिछले कई दिनों से यह बोझ यहां रखा था लेकिन किसी को चिंता नहीं कि इसे आगे ले जाए। यह कहकर वह उस वजन से उतरता और फिर उसको उस दिशा की उलटी दिशा में ठेलने लगता जिधर वह थोड़ी देर पहले ठेल रहा था।


लग रहा है कोई रबर का पुल लिए जा रहा है रिक्शेवाला
दस मिनट तक देखते रहे। वजन जहां था लगभग वहीं बना रहा। लेकिन चीटा लगातार पसीने-पसीने होता रहा। यह भी हो सकता है कि चीटे ने इस काम को कोई नाम दिया हो। हर बार रुक कर इसका नाम बदल दिया हो। हर बार नाम बदलकर हल्ला मचाता कि हमने बहुत बदलाव कर दिया।

यह कुछ ऐसे ही जैसे लोकतांत्रिक देशों में सरकारें जिलों,प्रदेशों , परियोजनाओं के नाम बदलकर बिना कुछ काम किये अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटती हैं।

खैर छोड़िये चीटे को । आइये आपको आदमी के किस्से सुनाते हैं। कल देखा कि एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे से कई गुना ज्यादा लम्बा बोझ लादे चला जा रहा था। रिक्शा मारे वजन के हिल रहा था । पता चला कि रबर वाली रिक्शे में रबर वाली गेंदें लदी हुई थीं। दादानगर के किसी कारखाने में बनी थी। नौघड़ा की किसी दुकान में जा रही थी बिकने के लिए।

आकार देखकर लगा कि कोई ' रबर फ्लोट' रिक्शे पर लदा चला जा रहा हो।

रिक्शा वजन के बोझ से हिल रहा था। उसको देखकर मुझे दो दिन पहले अपने से कई गुना बड़ा वजन ढोता चीटा याद आया। बस फर्क यही दिखा कि चीटा बहुत फुर्ती से यह काम कर था। जबकि रिक्शेवाला बड़े बेमन से किसी तरह बोझ ढो रहा था।

यह भी मजे की बात कि फ़ैक्ट्री में चीटे को जिस जगह देखा था उस जगह 'रबर फ्लोट' बनते हैं और रिक्शे पर जो आकृति बनी थी गेंद के बोझ की वह भी एक रबर फ्लोट सरीखी ही लग रही थी।

चींटे और आदमी की तुलना करना ठीक नहीं। दोनों में कोई तुलना नहीं लेकिन याद पर क्या बस। आ गई तो आ गई। क्या किया जाए। याद पर बस भी तो नहीं चलता।

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Sunday, July 24, 2016

अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो

कल निकल लिए समय पर दफ़्तर के लिए। लेकिन लगा कुछ ऐसा कि गुरु देर हो गयी। ऐसा लगते ही गाड़ी सरपट हाँकी। एक्सिलेटर जरा जोर से दब गया तो गाड़ी जोर से हुँहुआई। मानो बोल रही हो -'जय बजरंगबली।' शनिवार के दिन लगता है शनीचर सवार हो गया था गाड़ी पर सुबह-सुबह।
यह भी हो सकता है कि जयबजरंग बली की जगह बोली हो - ' काहे जान आफत किये हो बुढ़ौती में हमारी। सुबह-सुबह दौड़ा दिए।' कहते हुए ढेर सारा धुंआ मय पेट्रोल सड़क पर उगल दिया। सड़क किनारे के पेड़ो की पत्तियों ने हिलडुल कर अपनी जान धुएं के कार्बन डाइआक्साइड से बचाने की कोशिश की। कुछ टहनियों ने पत्तियाँ ऊपर की तरफ उचका लीं जैसे महिलाएं पानी भीगी सड़क पर गीली होने से बचाने के लिए साड़ी उचका लेती हैं। कुछ तो साथ में खुद भी थोड़ा उचक जाती हैं।
कुछ पत्तियाँ धुंए से खांसने लगीं। कुछ टहनियां कहने लगीं -'इससे अच्छा तो जंगल में पैदा करता भगवान हमें। कहां लाकर खड़ा कर दिया सड़क किनारे।'
इस पर कोई टहनी बोली-'खुदा का शुकर मनाओ हाई वे किनारे खड़े हो। किसी जंगल में होते तो क्या पता अब तक कट-कुटा के कहीं हिल्ले लग गए होते। हाई वे पर कम से कम जिंदगी तो सुरक्षित है। कटोगे तो नहीं। एक नम्बर तो है हमारे पास। पेड़ का नम्बर होना बड़ी बात है। अमेरिकन वीसा और आधार कार्ड मिलने जैसा है पेड़ को नम्बर मिलना। न जाने कित्ते गुमनाम पेड़, जिनका कोई नम्बर नहीं है, रोज कट जाते हैं। कुछ पेड़ तो इसलिए कट जाते हैं ताकि जगह खाली हो और वृक्षा रोपण किया जा सके।'
पेड़ पर और कोई न जाने क्या बोला हम सुन नहीं पाये। लेकिन यह आगे बढ़ते हुए यह जरूर देखा कि ऊपर की पत्ती सामने खिले फूल को देखते हुये इठला रही थी और हवा के साथ सीटियां बजाते हुए शायद गाना गा रही थी -'अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो।'
सेक्टर 4 मतलब फजलगंज और जरीब चौकी के बीच एक बच्चा साईकल का टायर अपने हाथों के सहारे हांकता हुआ भगा चला जा रहा था। कुछ देर पहिये को लुढ़काने के पहिया एकदम सीधा होकर चलने लगा। बच्चा खुश सा होकर कुछ देर चलाता रहा उसको। फिर एक खुली दुकान पर बैठ गया। टायर को गोद में रख लिया। बच्चे को टायर गोद में रखे देखकर एयरपोर्ट में जहाजों का इन्तजार करते लोग याद आये। लोग जहाज का इन्तजार करते हुए बैठते हैं। बच्चा पता नहीं किस चीज के इंतजार में था।
बच्चे के बगल में ही एक बच्चा पीठ पर बस्ता लादे स्कूल जाने के इंतजार में खड़ा था। शायद बस या रिक्शे के इंतजार में हो। एक ही उम्र के बच्चों के लिए अलग-अलग स्कूल हैं। टायर खेलता बच्चा बिना पैसे के जिंदगी के स्कूल में दाखिल हुआ और बस्ते वाला बच्चा फ़ीस वाले स्कूल ने जा रहा है। शायद आना दोनों को बाद में सड़क पर ही है। जिंदगी के स्कूल वाला बच्चा पहले आ गया।
साईकल के टायर से खेलते बच्चे को देखकर याद आया कि कई दोस्त पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि अब टायर नहीं चलाते लोग, उतरे कपड़े नहीं पहने जाते। दुनिया बदल गयी है। मुझे लगता है दुनिया बदलती नहीं है। कुछ सीन भले बदल जाते हों। जो दुनिया कल तक हमारे लिए थी वो किसी दूसरे के हिस्से में आ जाती है। बड़े होने पर नए कपड़े मिल जाते कुछ लोगों को तो पुराने कपड़े दूसरों को मिल जाते हैं। यह सब कुछ दीखता भले न हो लेकिन खत्म नहीं होता। अभाव, गरीबी, गैरबराबरी लगता है अमरौती खाकर आये हैं।
बगल की गली में एक महिला अपने घर की देहरी पर बैठी न जाने क्या सोच रही थी। शायद उस तक अभी स्मार्टफोन नहीं पहुंचा। पहुंचता तो सुबह-सुबह वाली गुड मॉर्निंग कर रही होती मित्रों से।
दिन में फिर एक आदमी दिखा टायर लुढ़का कर ले जाते हुए। गोल होने के चलते टायर की नियति ही लुढ़ककर चलना है। जब तक बेरोजगार रहता है, हवा नहीं भरती तक तक आराम से लुढकता है। जहां हवा भर जाती कोई पहिया मिल जाती है, सरपट भागने लगता है। हवा से बातें करता है। एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलती। जुटा रहता है कार को आगे ले जाने में जैसे कामगार अपनी कम्पनी को आगे ले जाने में जुटे रहते हैं। दोनों को तब तक छुट्टी नहीं मिलती जब तक पंचर न हो जाएँ।
एक साईकल वाले भी दिखे कल। कन्धे पर लोहे के पाइप लादे साईकल हांकते चले जा रहे थे आगे। जितनी तल्लीनता से वे कन्धे पर पाइप लादे चले जा रहे थे उतने मनोयोग से अगर देश के कर्णधार देश को आगे ले जाते तो देश न जाने कहां पहुंच गया होता। लेकिन कर्णधारों को गाली -गुप्तारी की नौटँकी से फुरसत मिले तब न।
खैर, छोड़िये ई सब। आप मजे करिये। इतवार है। कुछ की छुट्टी भी होगी। सो मजे करिये। बाकी तो सब चलता ही रहता है। है कि नहीं। बस जरा मुस्कराते रहिये। मुस्कान पर अभी तक कोई टैक्स नहीं लगा। मुस्कराते हुए लोग खूबसूरत भी लगते हैं। यकीन न हो तो देखिये मुस्कराकर। ऐसे 
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चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं, बच्चा और बाहर
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Saturday, July 23, 2016

सूरज भाई बड़ी तेज हंसे



चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, लोग खड़े हैं, लोग पैदल चल रहे हैं और बाहरआज सुबह नहाने गये। जैसे ही पानी मग में भरा तो देखा कि सूरज भाई भी घुस खिड़की के रास्ते। हमने कहा -’ भाई जी आप भी न पक्के स्टिंगर की तरह हरकतें करने लगे। क्या वीडियो बनाओगे। वायरल करने का इरादा है?’

सूरज भाई बड़ी तेज हंसे। उनके साथ आई किरणें भी खिलखिलाने लगीं। कुछ तो पेट पर चढकर उछलने कूदने सा लगीं। मानो हमारा पेट न हुआ उनकी फ़िसलपट्टी हो गयी। सूरज की किरणों की धमाचौकड़ी से हाथ, पेट पर तरह-तरह की आकृतियां बनने लगीं। आयत, वर्ग, वृत आदि के बेतरतीब गठबंधन टाइप। आकृतियां देखते ही एक बार फ़िर मन किया कि उन आकृतियों की लंबाई-चौड़ाई नापकर उनका क्षेत्रफ़ल निकाल दें।

आकृतियों के क्षेत्रफ़ल निकालने की बात इसलिये याद आई कि पढाई के दिनों में दिनों में यह काम हम खूब किया करते थे। अच्छा लगता था। पढाई के दिन बीत गये लेकिन मन करता है कि अगर कभी खूब सारा समय मिले इफ़रात तो हम तरह-तरह की आकृतियों के क्षेत्रफ़ल निकालने बैठ जायेंगे। यह तमन्ना इस कदर है कि मानों अगर सड़क पर कहीं सौ-पचास आदमी मर जायें और हम घटनास्थल पर पहुंचे तो सबसे पहला सवाल मन में यह उठेगा कि जिस रकबे में लाशें पड़ी हैं उसका क्षेत्रफ़ल कितना है या फ़िर जहां-जहां खून बिखरा है उसका कुल एरिया कितना है।

मुझे पता है कि यह बेवकूफ़ी की बात है। लेकिन यह सहज स्वभाव है। जिसका जिसमें हुनर होता है वह हर मसले को अपने हुनर के हिसाब से ही देखता है। आज भी देखिये कोई घटना होती है तो लोग अलग-अलग तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते हैं। बयानवीर बयान देेते हैं, ट्वीटवीर ट्विट करते हैं, गाली गलौज के एक्सपर्ट ’गाली गरारा’ करते हैं। कहीं दंगा होता तो कुछ लोग दुखी होते हैं इत्ते इंसान मर गये, कुछ गिनती करते हैं इत्ते हिन्दू-मुसलमान मर गये। और ऊपर से देखने वाले अलग नजरिये से देखते हैं- ’अब इस इलाके के वोट अपने हुये, अब यह सीट गयी हाथ से।’

जब हम सोचने से उबरे तो देखा कि सूरज भाई आसमान पर चमकने लगे थे। किरणें भी पानी से भीगने के डर से टाटा, बाय-बाय करके चली गयीं। हम भी पानी गिराकर वापस गये।

खैर छोडिये ई सब किस्सा आइये आपको कल का किस्सा सुनाते हैं। हुआ क्या कि कल जब हम दफ़्तर से छूटकर घर आ रहे तो स्पीड में थे। दफ़्तर से घर लौटता आदमी कांजीहाउस से छूटे जानवर की तरह भागता है ( जिनको घर भी कांजीहाउस सरीखा लगता वे अपने लिये कोई अलग उपमा खोज लें) । तो अचानक सामने कुछ गायें दिख गयीं। वे सभा टाइप कर रहीं थीं सड़क पर। हम फ़ौरन रुक गये।

रुके तो देखा कि सामने एक बुजुर्ग मस्ती में टहलते चले जा रहे थे। उनके गले पर कन्धे पर अंगौछा ऐसे लटक रहा था मानो गला तराजू की डंडी हो। अंगौछे के दोनों तरफ़ कुछ सामान तराजू के पलडे की तरह लटक रहा था। बुजुर्ग खरामा-खरामा टहलते जा रहे थे।

हम ठहर-ठहरकर बुजुर्ग को देखते रहे। हमको बार-बार रुकता देखकर लोग हमको देखने लगे। हम फ़िर कार में बैठगये। सोचा कि शीशे में देखकर फ़ोटो ले लें। नहीं बना तो आगे निकलकर , किनारे गाड़ी खड़ी करके उनके आने का इंतजार किया। जब तक वे पास आते तब तक फ़ोटो खैंच लिये।

पास आये बुजुर्ग तो पूछा -’ ये क्या लादे लिये जा रहे हो दादा? वे बोले- ’फ़ूल हैं। लोगों के यहां देने जा रहे हैं।’

पता चला कि उनके कंधे में को पुटलियां सरीखी बंधी थीं वे फ़ूल की पुडियां थीं। वे घर-घर , जहां बंधी हैं पुडिया , देते चले जा रहे थे। दो रुपये की एक पुडिया है फ़ूल की। रोज करीब डेढ सौ पुडिया पहुंचा देते हैं घरों में। शाम को करीब चार बजे निकलते हैं। रात नौ बजे तक ’फ़ूल पुडिया’ सप्लाई करते हैं। जहां बात हुई बोले- ’इधर के सब हो गये। अब उधर के देने जा रहे हैं।’
करीब सात बजा था उस समय। दो घंटे और टहलना था उनको अभी फ़ूल बांटने के लिये।

70 साल उमर है बुजुर्ग की। नाम बताया प्रहलाद। दांत ऐसे मानों गेरू से रंगाये हों। मसाला मय। हम और कुछ बतियाये तब तक वे आगे बढ गये। हम भी घर की तरफ़ चल दिये।

अरे बबा, आठ बजने वाले हैं। भागते हैं अब घर से दफ़्तर के लिये। आप मजे से रहो ।
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Friday, July 22, 2016

मतलब और हकीकत में अंत र हमेशा से रहा है

आज सुबह सोचा कि कुछ लिख ही डाला जाए। फिर दो तीन आइडिया आकर खड़े हो गए सामने। उनमें से कुछ बहुत पुराने थे, कुछ कम पुराने। कुछ एकदम नए। कुछ पुराने वाले आइडियों के चेहरों पर तो ’मार्गदर्शक आइडिया मंडल ’ में डाल दिये जाने की चिन्ता की सलवटें साफ़ दिख ती थीं। पुराने आइडिये बेचारे चुपचाप आकर खड़े हो जाते हैं। कुछ कहते नहीं लेकिन उनको देखकर ही लगता है -'यार, इसपर कुछ लिख ही दें। नहीं लिखेंगे तो बेचारा कहीं निपट गया तो 'आइडिया हत्या' का पाप लगेगा।' लेकिन चूँकि कई बार टाल चुके हैं तो एक बार फिर टाल देते हैं।

यह कुछ ऐसे ही जैसे संसद में महिला बिल है, लोकपाल बिल है, एक बार लटक गए तो लटके हैं। खैर, हमारा दिमाग कोई संसद थोड़ी है जो अमली जामा पहनाने के लिए कोई सत्र बुलवाना पड़े। जब मन आया लिख डालेंगे।

आइडिया जब ज्यादा हल्ला मचाने लगे तो उठकर चाय बनाने चले गए। पानी डाला, गैस जलाई, दूध डाला, चाय की पत्ती भी डाल दी। चाय उबलने लगी। उबलने लगी मने वही माहौल बन गया भगौने में जो अक्सर ही देश के किसी न किसी बनता ही रहता है। बस गनीमत यही कि भगौने के साइज छोटा था तो कोई बस, ट्रक नहीं जला।

चाय उबलने के बाद जब जब छानने का नम्बर आया तो मन में ख्याल आया कि चीनी डाली कि नहीं। अब यह ख्याल आया तो सबसे आगे आकर खड़ा हो गया। देखकर मानो रूपा फ़्र्ंट लाइन बनियाइन का ब्रांड अम्बेस्डर हो। अब हमने कोई इसका वीडियो तो बनाया नहीं जैसा ' वीरबाँकुरे ' लोग बनाते हैं लोगों की पिटाई/अत्याचार करते हुए, सो तय ही नहीं कर पा रहे थे कि चाय में चीनी डाली कि नहीं।

अब आपको बताएं कि जहां चीनी और वीडियो वाली बात आई तो फ़ौरन और नया आइडिया आकर खड़ा हो गया कि चाय में चीनी डालने वाली बात को वीडियो वाली बात से जोड़कर पोस्ट लिखी जाए। आइडिया नया था और एकदम उबल रहा था जोश में। लाजिमी है वो होश में नहीं था।लेकिन हम उससे यह बात कह भी नहीं सकते थे। कहने में डर था कहीं वो हमारी भी तुड़ईया करके सोशल मिडिया पर अपलोड न कर दे।

अब हम अचकचा कि क्या लिखा जाए। मने सोचा कि लिखें कि चाय बनाते समय वीडियो बनाया जाना चाहिए। अब देखिये कि मंहगाई बढ़ रही है। चीनी के दाम भी बढ़ ही रहे हैं। तो अगर चाय बनाते समय वीडियो बनाते रहेंगे तो चीनी डाली है कि नहीं चाय में यह बात वीडियो में रिवाइंड करके देख लेंगे। डिजिटल इण्डिया का भी प्रचार हो जाएगा। फ़्रीफ़ंड में देशभक्ति भी हो जायेगी। वीडियो देखकर भारत् माता की जय भी बोल देंगे।

लेकिन आइडिया केवल चायचर्चा देखकर गर्मा गया कि इसमें वो हमारा पिटाई वाकया किधर है भाई। उसके गुस्से से हमें लगा कि यह वाकया दोहराने के मूड में है।

हमने फिर कहा -जैसे चाय में चीनी दुबारा न पड़े । चीनी का खर्च अनावश्यक न हो वैसे ही पिटाई का, अत्याचार का भी वीडियो बनाना जरूरी होता है। ताकि सनद रहे। अब पिटाई का क्या वह तो लोग सदियों से करते आये हैं। बरजोर कमजोर की पिटाई करते ही आये हैं। लोग अपने समय के हिसाब से सनद भी इकट्ठा करते रहे हैं। जब लिखा-पढी का जमाना था तब लोग लिखकर सनद रखते थे। इत्ते पीट दिये, इत्ते जला दिये, इत्ते की इज्जत लूट ली, इत्तों का अंग-भंग कर दिया।

लेकिन अब समय के चलते तकनीक नयी हुई तो सनद भी नयी तरह से रखी जायेगी। मार-पिटाई , अत्याचार का वीडियो बना लिया। काम आयेगा। बहुत दिन तक असर रहेगा। चीजें अपना अपना उपयोग कराती है। जब अमेरिका ने बम बनाया बम ने अपना उपयोग कराया, पैटियाट मिसाइल बनाई उसने अपना उपयोग कराया, लोग पिज्जा बर्गर खाते हुये मिसाय ल गिरते हुये देखते, वाऊ वेरी गुड कहते। मने जो भी तकनीक आई नयी उसने अपना अपना उपयोग कराया। अब सोशल मीडिया है तो वो क्यों पीछे रहे। उसने अपना भी उपयोग कराया।

लेकिन क्या होता है न कि नयी तकनीक के साथ पुराने नियम भी पीछा नहीं छोडते। जैसे न्यूटन बाबा का क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम भी हमारी जाति व्यवस्था की तरह अमरौती खाकर आया है। जिनके यहां मिसाइल बरसती हैं वो टावर उडाते हैं। जिनकी मां-बहनों पर अत्याचार होते हैं वे संगठित होकर अत्याचारियों की मां-बहनों से हिसाब बराबर करते हैं।

इस मामले में अभी कोई नयी तकनीक नहीं आई है। मां-बहनों पर अत्याचार का बदला मां-बहनों से ही चुकाने का रिवाज बना हुआ है अभी तक। मजबूरी में मां-बहनों के माध्यम से ही सारी बहादुरी अंजाम होती है। अफ़सोस कि अत्याचारों के नये तरीकों के अभाव में मां-बहन-बेटियां अत्याचारों का शास्वत उचित माध्यम हैं। मने युनिवर्शल प्रापर चैनल।

हम इत्ता लिखते रहे तब तक देखा नौजवान आइडिया अपनी किसी नयी नवेली सहेली से बतियाने लगा। बड़ी मुलायम-मुलायम बातें करते हुये इत्ता तो क्यूट लग रहा था कि क्या बतायें आपको। आप खुदै समझ जाइये।

हम आईडिया और उसकी सहेली को बतियाने के लिये छोड़कर चले आये। बाकी सब आइडियों को फ़ुटा दिये कि अब आज इनका दिन है। इनको आपस में बतियाने दो जित्ता मन करे।

दफ़्तर आते हुये देखा कि जरीब चौकी पर क्रासिंग बंद थी। वहीं पास में कुछ लोग बैठे हुये फ़ाटक खुलने का इंतजार कर रहे थे। एक बच्ची गाड़ी की खिड़की से सटकर भीख मांग रही थी। हम उससे कुछ कहते-सुनते तब-तक क्रासिंग खुल गयी। हम फ़ूट लिये। रास्ते में एक ब च्चा रंगीन गुब्बारे बेंच रहा था। हमको नंदन जी की कविता याद आई:
आंखो में रंगीन नजारे, सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है, जैसे बालू बीच खड़े ।
मतलब और हकीकत में अंत र हमेशा से रहा है।

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Thursday, July 21, 2016

मूंछ वाले लोगों से डरना चाहिए

निकलते हैं घर से तो देखते हैं शहर हमसे बहुत पहले ही निकल चुका है। हड़बड़ाया भगा चला जा रहा है कहीं। जित्ती तेज कोई जाता दीखता है उससे और जाता तेजी से आता भी दिखता है। मने हर तरफ हिसाब बराबर करने की हड़बड़ी।

अक्सर कोई बाल्टी में पानी भरे एक तरफ से दूसरी तरफ जाता दीखता है। भरी बाल्टी देखना शुभ होता है। खुश होकर आगे बढ़ते हैं तो क्रासिंग बन्द। मने भरी बाल्टी शुभ नहीं हुई। हर जगह मिलावट का जमाना है। क्या पता कि ’भरी बाल्टी के शुभ’ में भी कोई मिलावट हो। हो तो यह भी सकता है कि शुभ इसलिए न हुआ कि बाल्टी में पानी 'आर ओ' का नहीं था। मुनिस्पलटी का पानी भी कहीं शुभ होता है आजकल। इससे तो बस पीलिया और डायरिया हो सकता है। शुभ होने के लिये किसी कम्पनी के ’आर ओ’ का पानी चाहिये होता है आजकल।

कल दफ़्तर जाते समय एक पुलिस वाले ने एक स्कूटर वाले को हाथ दिया। स्कूटर वाला रुका। पुलिस वाला बिना कुछ कहे उसके पीछे बैठ गया। आगे चौराहे पर उतर गया। किराया नहीं दिया। जब वह स्कूटर को हाथ दे रहा था तब मैंने सोचा कि कार में ही बैठा लेते। लेकिन उसने हमको हाथ दिया ही नहीं तो कैसे बैठा लेते। वह बुरा मान जाता।

टाटमिल के पास एक और पुलिस वाला दिखा। बड़ी-बड़ी मूछें एकदम सरेंडर मुद्रा में नीचे की तरफ झुकान वाली थीं। किसी गृहस्थ के महीने के अंतिम दिनों की तरह बेरौनक सी मूछें देखकर कहने का मन किया -'भाई साहब, काहे को ये बोझ लादे घूम रहे। छाँट दो तो क्या पता मुंह बाकी मुंह थोड़ा खुशनुमा सा लगे।' लेकिन कुछ कहे नहीँ। मूंछ वाले लोगों से डरना चाहिए। क्या पता गुस्सा कर डालें। फ़ड़कने लगे मूंछे। आ जाये भूचाल।

वैसे मुझे लगता है कि जो लोग मूछें बड़ी-बड़ी रखते हैं वे शायद इसलिए रखते हों कि रूआब बना रहे। जैसे कट्टा, बन्दूक से भौकाल रहता है। जिन लोगों का चेहरा रूआबदार होता है उनके चेहरे पर मूंछे अतिरिक्त रुआब वाली होती हैं। जिनके चेहरे बेरुआब, चूसे हुए आम सरीखे होते हैं, उनके चेहरे पर मूंछे रुआब का इश्तहार टाइप होती हैं। और गुरु अब आपसे क्या बतायें, आप तो खुदै जानते हो कि ढोल वही पीटता है जिसमें कुछ पोल होता है।

शाम को लौटते समय एक पुलिसवाले ने गाड़ी रोक ली। हमने सोचा किसी ’नई विधा’ में चालान होना तय है। हम फ़ौरन थोड़ा डर गये। पुलिस वाले से डरते हुये बात करना हमेशा सुरक्षित रहता है। हम डरते हुए सब कागज दिखाने लगे। लेकिन हमारे सब कागज दिखाना शुरू करते ही उसकी दिलचस्पी मुझमें और कागजों में कम होती गयी। वह अनमना सा हो गया। उसको लगा होगा कि कोई न कोई कागज तो कम होगा अगले के पास। हमने उसके विश्वास को चोट पहुंचाई। अनजाने में।

तब तक हमारा अर्दली भी बगल से साईकल से निकला। उसने पुलिस वाले को बताया कि -'साहब, ओपीएफ में अधिकारी हैं।' हमने अर्दली से कहा -'तुम घर जाओ। चिंता न करो।' कागज सब थे इसलिए हमारे चेहरे पर -'देखना है जोर कितना , बाजुए कातिल में है' हाबी हो गया था।

लेकिन पुलिस वाले का रहा-सहा उत्साह हमारे अर्दली की सूचना से खत्म हो गया। उसने कहा -'अब क्या चेक करें जब इत्ता बड़ा परिचय बता दिया।' मने आप समझ लीजिये कि अगर कोई अधिकारी है तो चेकिंग छूट मिल सकती है। चलते समय हितैषी से हो गए पुलिस भाईसाहब। बोले-'अगर सीएनजी किट हो तो उसका पाल्यूशन बनवा लीजियेगा।'

हम घबराहट के मारे देख नहीं पाये कि पुलिस जी के मूंछे हैं कि नहीं। अपनी 17 साल पुरानी कार को हांकते हुए घर आ गए।
17 साल पुरानी गाड़ी से याद आया कि दिल्ली में 10 साल से ज्यादा पुरानी गाड़ी नहीं चल पाएंगी। मतलब दिल्ली में होते तो हमारी गाड़ी मार्गदर्शक हो गयी होती। कानपूर में यह खतरा नहीं है इसलिए -झाड़े रहो कलट्टरगंज।

Wednesday, July 20, 2016

पेट पालने के लिए 'बहुधंधी' होना पड़ता है आदमी को



कल दफ़्तर के लिए जल्दी निकाल दिए गए घर से। समय पर पहुंचना चाहिए। आराम-आराम से सड़क के नजारे देखते हुए निकले।

आर्मापुर में एक बुजुर्ग रिक्शावाला स्कूली बच्चों को लेकर जा रहा था।बच्चे ज्यादा थे। उचक-उचक कर चला रहा था रिक्शा। शाम को आर्मापुर बाजार में सब्जी बेंचते हैं बुजुर्ग। पेट पालने के लिए 'बहुधंधी' होना पड़ता है आदमी को।

घर से दफ़्तर का रास्ता तो सीधा है। लेकिन 'सेक्टर' कई पड़ते हैं।
1.घर से आर्मापुर गेट
2.आर्मापुर गेट से विजय नगर चौराहा 
3. विजय नगर चौराहे से फजलगंज चौराहा
4.फजलगंज चौराहे से जरीबचौकी
5.जरीबचौकी से अफीमकोठी
6. अफीमकोठी से टाटमिल चौराहा
7.टाटमिल चौराहे से सीओडी मोड़।

सीओडी मोड़ से जहां आगे मुड़े बस फैक्ट्री गेट आ गए। सबसे ज्यादा भीड़ समय जरीब चौकी में लगती है रेलवे क्रासिंग के चलते या फिर सेक्टर 6 में बस अड्डे के कारण।

विजय नगर चौराहे के पहले एक होमगार्ड वाला अपनी फटफटिया डिवाइडर के ऊपर फुटपाथ वाली फुटपाथ पर धरे ड्यूटी बजा रहा था। चौराहे के आगे दो कुत्ते अगल-बगल बैठे सुबह की धूप सेंक रहे थे। क्या पता आपस में बतिया भी रहे हों -'गनीमत है गुरु ये डिवाइडर कम चौड़ा है। चौड़ा होता तो कोई धर्मरक्षक अपने धर्म की रक्षा के लिए कब्जिया के घेर लिया होता और हम सड़क पर आ गए होते। कुत्ते की तरह मारे-मारे घूमते सड़क पर। किसी टेम्पो के नीचे आ गए होते। साथी कुत्ते कहते-'भला कुत्ता था। भौकता बढ़िया था। किसी को मरते दम तक काटा नहीं। भौंककर ही भौकाल बनाये रखा।'

फैक्ट्री से लंच के समय बाहर टहलने निकले। फैक्ट्री के बाहर ही पोस्ट आफिस है। दो लोग काम करते हैं। फैक्ट्री की सब डाक वहां आती है। काफी काम है। एक स्पीडपोस्ट भेजा तो गोंद माँगा। लेई का पैकेट वहीँ धरा था। पता चला कि पोस्ट आफिस के लिए लेई, डाक के लिए रस्सी, लिखने के लिए पेन और सील करने के लिए लाख का खर्च महीने भर का 19 रुपया मिलता है। लेई का पैकेट ही एक रूपये का आता है। महीने में कम से कम 25 रूपये तो इसी के हो गए। सालों से यही पैसा स्वीकृत होता है। अपने पास से लगाते हैं।

मोड़ पर मिले सुरेन्द्र वर्मा। भुट्टा बेंचते हुए। साथ में लइया चना। रायबरेली के रहने वाले हैं। एक साल से यहाँ आये हुए हैं। कुछ देर मतलब 11 से 3 बजे तक यहां लगाते हैं ठेलिया। उसके बाद पास के हनुमान मन्दिर। पास ही रहते हैं।

एक भुना भुट्टा 10 रूपये में देते हैं। कच्चा 20 के तीन। दिन भर में दो बोरा भुट्टा मतलब करीब 120-130 भुट्टा निकल जाते हैं। जब भुट्टे का सीजन निकल जाता है तब दूसरा सामान बेंचते हैं। मूंगफली या कुछ और।

सुबह 4 बजे भुट्टा लेते के लिए जाते हैं गुरुदेव पैलेस के पास। वहां किसान आते हैं बेंचने। टेम्पो से लेकर फिर आते हैं और दुकान की तैयारी करते हैं। सब समय पेट के खटराग में खप जाता है। जिन्दा रहने के लिए कितना मरना पड़ता है।

कभी कोई रोकता नहीं है यहाँ लगाने से। पूछने पर बोले सुरेन्द्र -'भगाते हैं। कभी कोई पुलिस वाला, मिलेट्री वाला आता है, खेद (भगा) देता है। हम हट जाते हैं। फिर थोड़ी देर बाद आ जाते हैं। रोज की कहानी है यह तो।'

'घर परिवार है। सब हैं।बच्चे पढ़ते हैं।' -भुट्टा भुनते हुए बताया सुरेन्द्र ने।

शाम को लौटते हुए देखा कि सुरेन्द्र मंदिर के पास ठेलिया पर भुट्टा भून रहे थे। एक जोड़ा मुसकराते हुए इंतजार में था भुट्टे के। बगल में तौलऊ की मेवाठेलिया लगी थी।

बस अब चलें। दफ़्तर के लिए निकलने का समय हो गया। आप मजे करिये। हम निकलते हैं।

Tuesday, July 19, 2016

विकास कई लोगों के लिए 'लतमरुआ' होता है

अधबने सीओडी ओवरब्रिज पर साईकल पर छाते बेंचते अशोक
कल लंच में फैक्ट्री के बाहर निकले। टहलते हुए सीओडी पुल की तरफ गए। पुल आठ साल से अधबना है। बड़ी बात नहीं कि 'इंतजार के साल' दो अंको में पहुँच जाएँ। धीमी गति के 'विकास यज्ञ' में कानपुर की एक विनम्र आहुति।

पुल के छोर पर अशोक मिले। साइकिल पर छाते धरे थे। एक छाता नीचे ईंट के सहारे बंधा था। फ़ड़फ़ड़ा रहा था। किसी जनसेवक की तरह एक पार्टी से दूसरी में जाकर फिर तीसरी में या फिर वापस पहली में आने की तरह हवा के रुख के हिसाब से इधर-उधर हो रहा था।

सुजातगंज में रहने वाले अशोक साईकल पर छाते धरे बेंचते रहते हैं। कुछ देर पहले ही आये थे इधर। तीन छाते निकाल दिए। 120/- का एक। कुछ देर बाद सीओडी जाएंगे। छुट्टी होने वाली है वहां। इसके बाद शाम को फिर यहीं आ जायेंगे छुट्टी के पहले। बीच के समय इधर-उधर भी बेंच लेते हैं।

दो बच्चे हैं। चार-पांच में पढ़ते हैं। बोले -'ससुराल आपकी तरफ ही विजयनगर सब्जीमंडी में है।'

बरसात के बाद छाते की जगह चादर की फेरी लगाते हैं। काम चल जाता है।

दाढ़ी बढ़ी दिखी। पूछा तो बताया -'हफ्ते में एक बार बनवाते हैं। इस बार बनवा नहीं पाये। अब अगली बार बनवायेंगे। खुद बनाते नहीं। बना भी नहीं पाते। कभी कोशिश भी नहीं की।समय भी नहीं मिलता।'

हम सोच रहे थे कि उस देश के क्या हाल होंगे जहां एक फेरी लगाने वाले के दाढ़ी बनाने का समय न हो। लेकिन उसकी प्राथमिकता भी दाढ़ी नहीं छतरी की बिक्री है।

सोच तो यह भी रहे थे कि जब पुल चालू हो जाएगा तब अशोक फेरी कहां लगाएगा। विकास कई लोगों के लिए 'लतमरुआ' होता है।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
बिक्री नहीं हो रही तो आराम ही सही
लौटते में देखा एक ठेले पर काजू, मखाना, छोहारा, किसमिस धरे एक आदमी फैक्ट्री की फेन्स के सहारे बैठा आराम कर रहा था। नाम बताया -'तौलऊ'।

नाम का मतलब पूछा तो बताया कि उनके दो भाई रहे नहीं तो उनके माँ-पिता ने पैदा होते ही उनको 'तौल' दिया। माने बेंच दिया। ताकि ये जिन्दा रह सकें। प्रतीक रूप में ही किया गया। लेकिन बेंचा गया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश की में यह चलन सा है।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा के निकले तौलऊ। द्विवेदी जी को भी उनके पैदा होते ही जीवन रक्षा के लिए बेंच दिया गया था।

मेवा के खरीददार यहां कहाँ मिलते हैं पूछने बताया कि-' बैठे हैं। कुछ देर बाद पास के मंदिर में चले जाएंगे। क्या करें और कोई धंधा आता नहीं।'
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, पौधा, भोजन और बाहर
ये पूरी दुकान है मेवा की। हर माल हाजिर।
बोले-'फैक्ट्री में कोई जुगाड़ होता तो बढ़िया नौकरी करते।'

हमने कहा -'मजदूरी तो मिल सकती है। किसी ठेकेदार से मिल लो।'

बोले-'अरे, वो 200 रूपये के लिए 12 घण्टे का खटराग है। इससे बढ़िया तो अपना काम। आराम से अपनी मर्जी से करते हैं।'

मेवा खराब न हो जाए इसलिए बढ़िया धनकर रखते हैं। लेना था नहीं फिर भी दाम पूछ लिए। बड़े मखाना 360 रुपया, छोटे 120 रुपये किलो। छोटे-बड़े में तीन गुने का अंतर।

दो बेटे हैं। बड़ा 9 पास करके आगे पढ़ा नहीं। गाँव चला गया। खेती देखता है। खाने भर का गल्ला मिल जाता है खेती से। छोटा हाईस्कूल में है। पढ़ने में होशियार है। मास्टर को हाथ नहीँ धरने देता। जो पूछते हैं , फट से बता देता है।

लंच खत्म होने का समय हो गया था। हम टहलते हुये वापस चले आये। तौलऊ भी फेन्स के सहारे टिककर आरामफरमा हो गए।

Sunday, July 17, 2016

मौसम बड़ा हसीं हैं गुरु

भली भोर इतवार की, औ गुरु बना लिए हैं चाय,
चाय चुस्की के संग में रहे मस्त फेसबुकियाय।

पोस्ट देखते इधर-उधर कहीं देते हैं टिपिआय,
आपौ अपना पता दो देंगे पोस्ट लाइकियाय।

बहस-उहस हम न करब, ठण्डी हो जायेगी चाय,
मौसम बड़ा हसीं हैं गुरु, इसके मजे ले लिए जाएँ।

-कट्टा कानपुरी
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208557165260077

चाय एक कप और हो जाए

मन कर रहा कि अब उठे , फ़ौरन नहा के आ जाएँ
लेकिन सोचते हैं कि दौड़ के दूकान से दूध ले आएं।

बाहर बगीचे में फूल खिला है अपने पूरे जलवे से
मन किया निकालें कैमरा, फूल को कैद कर लाएं।

आइडिये उछल रहे हैं सबेरे से स्वयं सेवकों की तरह,
हल्ला मचा रहे हैं हमको लगाएं, पहले हमको लगाएं।

देश की चिंता भी करने को बहुत पड़ी है यार इकठ्ठा
चूक गए तो कहीं और कोई ' देश चिंता' न कर जाए।

काम इतने इकठ्ठा है बेचारा,परेशान है दिन इतवार का,
फिर सोचेंगे क्या करें पहले, चाय एक कप और हो जाए।

-कट्टा कानपुरी

Saturday, July 16, 2016

आशिक टायर सर्विस



चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
आशिक टायर सर्विस 
सुबह फैक्ट्री जाते हुये अफीम कोठी के पास सड़क की दूसरी और यह दुकान अक्सर दिखती। नाम रोचक -'आशिक टायर सर्विस'। रोज सोचते कि कभी पूछेंगे लौटते हुए कि यह नाम क्यों रखा दुकान का। क्या किसी की आशिकी से कोई ताल्लुक है दुकान के नाम का।

लेकिन रोज लौटते हुए या तो घर लौटने की हड़बड़ी होती या फिर जब तक याद आता तब तक दुकान के पार निकल गए होते। कभी खोजते तो दिखती नहीँ। गाड़ी धीरे करके चलाते तो पीछे गाड़ियां इत्ती तेज हल्ला मचाती कि क्या बताएं।

लेकिन कल पहुँच ही गए दुकान पर। दुकान के मालिक दुकान पर ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। हमको कार से उतरकर दुकान की तरफ बढ़ते देखा तो थोड़ा सर्तक टाइप भी हो गए।

हमने दुकान के नाम की बावत पूछा तो पता चला दुकान उनके वालिद 'आशिक अली' के नाम पर है। वालिद 5 साल पहले गुजर गए।

हम नाम को किसी मजनूपने से जोड़कर देख रहे थे। सोच रहे थे कोई फंटुश किस्सा निकलेगा। लेकिन वह सब फुस्स हो गया। इससे अच्छा तो न ही पूछते। कम से कम एक इश्किया किस्सा ड्राफ्ट मोड में पड़ा रहता। हमारे हाल मीडिया की तरह हो गए जो किसी मसालेदार खबर की आश में दिन भर अपनी ओबी बैन कहीं लगाये रहे और कोई किस्सा न मिले।

खैर भाई जी ने तसल्ली से बात की। बताया कि वे टायर की मरम्मत का काम करते हैं। टायर मरम्मत में नए टायर की कीमत का करीब 25% पैसा लगता है और टायर की जिंदगी नए के मुकाबले करीब अस्सी प्रतिशत हो जाती है।

हलीम कालेज के पास चमनगंज के पास रहते हैं भाई जी। फिर गुफ्तगू हुई तो पता चला उसके पास के ही मोहल्ले में हम बहुत दिन रहे। बातचीत करने पर कोई न कोई सम्बन्ध तो निकल ही आता है।

चलते समय हमसे बोले -'अच्छा लगा मिलकर। रुकिए चाय पीकर जाइये।' लेकिन हमें निकलना था घर के लिए। निकल लिए।

अब यह सोच रहे हैं कि टायर सर्विस की तर्ज पर कोई शायर सर्विस भी होती तो क्या बढ़िया होता। लोगों के टूटे-फूटे शेर रिपयेर करके दुरस्त किये जाते। खूब चलती दुकान। है कि नहीं? 

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208549729394185

"बेवकूफी का सौंदर्य" व्यंग्य संग्रह की बेवकूफी भरी समीक्षा।



"बेवकूफी का सौंदर्य" व्यंग्य संग्रह की बेवकूफी भरी समीक्षा।
अनूप शुक्ल जी का बेवकूफी का सौंदर्य व्यंग्य संग्रह की समीक्षा पर हमने सोचा बेवकूफी भरी हो तो अच्छा । अनूप शुक्ल वैसे तो नाम अच्छा है पर मेरे हिसाब से इनका नाम अनूप नहीँ अनुरूप ज्यादा फिट बैठता है वजह ये जो कहना चाहते हैं वो शब्दों से खेल कर कहला ही लेते हैं ।
वैसे तो हर साहित्य और सुंदर चीज़ का सौंदर्य होता लेकिन बेवकूफी का भी सौंदर्य होता यह ज्ञान इस अनूठे लेखक द्वारा पता चला ।😊
कट्टा कानपुरी के नाम से लिखते हैं जो की अपने आप मे एक व्यंग्य है । बहुत से लोगों को पढ़ा पर ये अलग सा शीर्षक लगा...फ़िर क्या बेवकूफी के सौंदर्य को घर मंगाने की व्यवस्था कर दी ।
यह व्यंग्य सौंदर्य भाषा और शैली के मानको मे उम्दा है ।यह संग्रह पढ़ना शुरू किया तो पढ़ती ही गई । हर बात को इतनी सहजता और सरलता से कहा गया है कि यही तरीका व्यंग्य के नायक को अलग बनाता है।
ये ऐसे फेसबुकिया व्यंग्यकार फेसबुक से होते हुये ब्लॉगर तक और अब किताब तक जा पहुँचे । ये तो रही लेखक की बात ।अब बात करते हैं लेखक के व्यंग्य संग्रह की । जितना अलग किताब का शीर्षक उतने ही अनोखे व्यंग्य लेख।
व्यंग्य लेखों मे लेखक ने जिन विषयों को उठाया है कुछ सम्वेदनशील तो कुछ समाजिक अनिमियताओं पर ज़बर्जस्त प्रहार करते हैं ।
संग्रह का पहला लेख"छोटी इ ,बड़ी ई और वर्ण माला"
किसी परिवार की देवरानी, जेठानी और बुजुर्गो के बीच की खींच तान सी लगती है वैसे इसकी तुलना हम दिल्ली सरकार व केन्द्र सरकार की तू तू ,मै मै से कर सकते हैं । इस लेख के तू तू ,मै मै के अंश.....
"दोनो मे से किसी के पास हाईस्कूल का सर्टिफिकेट तो है नहीँ कि बड़े -छोटे का मामला तय हो सके ।आपस मे जुड़वा मानने को तैयार नहीँ ।हर "ई" चाहती है उसको ही बड़ा माना जाये"
वैसे इन लाइनों से कुछ और भी भाव उभरते हैं जो लेखन क्षेत्र से हैं । उम्मीद है आप समझ ही गये होंगे।
बात करें किताब के तीसरे संग्रह की तो पता चलता है बेवकूफी का भी अपना सौंदर्य होता है । मुझे जहाँ तक समझ आता है लेखक 1st अप्रैल बेवकूफी दिवस से खासा प्रभावित होंगे । प्रेरित कहाँ से हुये ये नहीँ मालुम, पूछना पड़ेगा । इस लेख की सबसे मजेदार लाईने आप लोगों के बीच.....
(लोगों के लिये ) "गर्ज यह कि दुनिया की हर बेवकूफी करते हैं सिर्फ इसलिये कि लोग उनको होशियार समझे ।काबिल माने ।बेवक़ूफ़ न समझे ।"
इसका मतबल अब से होशियारी बंद करिये और बेवक़ूफ़ बनना शुरू करिये जिससे होशियार बने ।
संग्रह मे एक से बढ़कर एक तीखे ,मजेदार लेख हैं।बात करूँ इसमें से मेरे पसंदीदा लेख की तो वो है "द्वापर मे भूमि -अधिग्रहण" इससे पता चलता है यह अधिग्रहण नाम की बला का भौकाल जिनको हम ईश्वर मानते उस ज़माने से है । और हम सब यहाँ कलियुग मे अइसने चंगेज़ खाँ बन रहे हैं ।
अगर आप सब भी बेवक़ूफ़ मेरा मतलब होशियार बनना चाहते हैं वो भी बिना बेवक़ूफ़ बने तो ,आप भी यह संग्रह पढिये। और लेखक अनूप जी को तो कहने की कोइ ज़रूरत ही नहीँ कि ऐसे ही लिखते रहिये क्योंकि ये काम वो कर ही रहे हैं करते ही जायेंगे मानेंगे नहीँ । रोज़ सुबह -सुबह एक लेख चिपका देते हैं जिसको बिना पढ़े रहा नहीँ जा सकता ।
एक बार फ़िर कमाल के व्यंग्य संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनाएँ यूँ ही 100cc बाइक के इंजन जैसे व्यंग्य जगत मे ज़बर्जस्त फर्राटा भरते रहे ।धन्यवाद ।
व्यंग्य संग्रह - बेवकूफी का सौंदर्य 
समीक्षक -शशि पाण्डेय 
लेखक -अनूप शुक्ल 
मोo नम्बर -9425802524
मूल्य -150 रुपये मात्र 
प्रकाशक -रुझान पब्लिकेशन 
एस -2,मैपल अपार्टमेंट ,163 ढाका नगर ,सीरसी रोड ,जयपुर ,राजस्थान -302012
(9314073017)

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Friday, July 15, 2016

मन करता है यार हम भी रोज सेल्फियाएं

मन करता है यार हम भी रोज सेल्फियाएं,
लोग कहें राम करे इनका कैमरा फूट जाए।
देश के हाल देखकर अक्सर ही मन करता है
बड़ी जोर से 'भारत माता की जय' चिल्लाएं।
पता करें कि कौन मुद्दा चल रहा है फैशन में
उसी पर जरा कुछ अलाय-बलाय बक आएं।
बहुत मन कर रहा आज कुछ लिख ही डालें
लेकिन सोचते हैं पहले जरा दफ्तर हो आएं।
-कट्टा कानपुरी

Wednesday, July 06, 2016

हिरोइन को ही भिगोयेगें

सबेरे उठे तो देखा पानी बरस रहा था। बहुत धीमे-धीमे। गोया कोई बुजुर्ग (मल्लब अकल बुजुर्ग) लेखक समसामयिक साहित्य की दशा पर टसुये बहा रहा हो। बुजुर्गवार को बड़ा ख़राब टाइप फील हो रहा है कि साहित्य का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है। दर्द गिरने का, पतन का उत्ता नहीं है जित्ता इस बात का कि सारा पतन उससे बिना पूछे हुआ जा रहा है। मल्लब उनको मार्गदर्शक साहित्यकार बना दिया गया हो। साजिशन।

बीच में पानी तेज हुआ। लगा बुजुर्ग हड़काने लगे हों। लेकिन जल्दी ही हांफकर फिर टसुये मोड में आ गये। पानी सहज गति से गिरने लगा।

ऊपर वाली पतन कथा में करेला में नीम इस बात पर कि पतन में भी सामूहिकता की भावना गायब होती देखकर बुजुर्ग का मन खून के आंसू रोने का कर रहा था । वे रोने की तैयारी भी कर चुके थे। बस शुरू ही होने वाले थे कि उनको याद आया कि खून की रिपोर्ट में हीमोग्लोबिन कम निकला था। मन मसोसकर सिर्फ टसुये बहाकर रह गए।

पानी गिर रहा था। तेज गिर रहा था। मानो बादल पानी गिराकर कहीं फूट लेना चाहते हों। जैसे सरकारें विकास करके निकल लेती हैं किसी इलाके से। सड़क खोदकर, तालाब पाटकर, घपले करके, व्यवस्था चौपटकर और जाते-जाते यह 'नियति टॉफ़ी' थमाकर :
होइहै सोई जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ाबहि शाखा।

ऊपर पानी की टोंटी खोले हुए बदली बगल की बदली से बतियाती भी जा रही थी। बता रही थी कि एक बादल कुछ दिन उसके साथ रहा। जब तक पानी बरसाने का आर्डर नहीँ हुआ तब तक उसके आगे-पीछे घूमता रहा। लेकिन जैसे ही पानी बरसाने की ड्यूटी लगाई गयी वो निगोड़ा बादल मुम्बई की तरफ भाग गया। बोला - 'हिरोइन को ही भिगोयेगें।' हमने बहुत समझाया -'अरे पानीभरे हीरोइनें बारिश के पानी से थोड़ी नहाती हैं। उनके लिए अलग से रेन डांस का इंतजाम किया जाता है। यहीं कुली कबाड़ियों के शहर में बरस। खुश रह। नहीँ माना। भाग गया मुंबई। आज फोन आया था। सारा पानी किसी सड़क पर उड़ेलकर खलास हो गया था। हमने कहा - 'सड़क, सीवर पर ही उड़ेलना था पानी तो कानपुर क्या बूरा था।'

सहेली जरा साहित्यिक टाइप थी। बोली -'सही कह रही डियर। कूड़ा ही लिखना है तो क्या अखबार, क्या पत्रिका।' लेकिन तक तक उसकी सहेली बगल के बादल से बतियाने लगी थी। बादल उसके आगे- पीछे होते हुए 'लेडीज फर्स्ट' सोचते हुए चुप रहा। बदली उसकी इस बेवकूफी पर रीझने को हुई कि इस गबद्दु को यह तक पता नहीं कि बातचीत की शुरुआत पहले बादल को करनी होती है। 'लेडीज़ फर्स्ट'गलत सन्दर्भ में ले रहा है पगला।

बदली का एक बार मन किया कि बादल की बेवकूफी बताते हुए वह ही शुरू करे लेकिन फिर मन मार लिया उसने। उसको लगा कि अगर बादल सही में बेवकूफ हुआ तो फिर वह अपनी बेवकूफी कहां खपायेगी। यह सुनते हुए कि जो नायिकाएं बेवकूफी की हरकतें मासूमियत से कर लेती हैं उन पर नायक जल्दी फ़िदा होते हैं, बदली ने बेवकूफी और मासूमियत के मरजावां नमुने (अंग्रेजी में कहें तो डेडली कंबीनेशन) के तौर पर खुद को तैयार किया था। इश्क मोहब्बत में बेवकूफी-बेवकूफी का जोड़ा मिलता नहीं। पिक्चर तक में हीरो-हीरोइन अमीर-गरीब टाइप चलते हैं। दोनों गरीब हों तो इश्क की गाडी जाम में फंस जाती है।

पानी अचानक बहुत तेज हो गया। मानों सीमा पर बमबारी हो गयी हो। या फिर कोई महगाई से पीड़ित कोई वीर रस का कवि माइक पाकर पाकिस्तान को गरियाने लगा हो। रामचरित मानस की चौपाई याद आ गयी:

बूँद अघात सहैं गिरि कैसे
खल के वचन सहैं संत जैसे।

लेकिन अब गिरि मतलब पहाड़ बचे कहां जो बारिश की बूंदे उन पर गिरें। सब पहाड़ तो जमीन से मिला दिए गए। स्टोन माफिया काट ले गए उनको। और अब संत भी ऐसे कहां बचे जो खल के वचन सहन करें। अब तो संत को कोई कुछ बोले तो उनकी भक्तमंडली खल के मुंह में त्रिशूल घुसेड़ कर मुंह चौडा कर दें, कटटा मुंह में डाल के खाली कर दें। इसीलिये तमाम खल अब संतों के यहां ड्यूटी बजाते हैं।

अचानक बादल गरजने लगे और दूसरी चौपाई बिना पूछे सामने आकर इठलाने लगी:

घन घमंड गरजत नभ घोरा
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।

लेकिन हमारा डर ये वाला नहीँ है। दूसरा है। थोड़ा क्यूट टाइप है। स्वीट भी। अब आपको क्या बताएं , आप तो सब जानते हैं।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208465986980677

Tuesday, July 05, 2016

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं, साइकिल चला रहे हैं और साइकिल
बारिश में भीगता साईकल सवार शायद कह रहा है --कार पर बैठकर फोटो खींच रहे हो ?
कल आरटीओ दफ्तर जाना हुआ। बेटे का 'सिखाऊआ लाइसेंस' बनवाना था। आरटीओ दफ्तर के बगल में एक्साइज और सेल्स टैक्स दफ़्तर, उसका गेट, उसके पहले चार फिट की खाईनुमा खुदाई। जैसे एक्साइज दफ्तर कोई किला हो जिसकी सुरक्षा के लिए खाई खुदी थी। सामने यूपीका हैण्डलूम के सामने भी खाई खुदी थी। हैण्डलूम के कर्मचारी दुकान में निठल्ले से बैठे बाहर का नजारा देख रहे थे।

गाड़ी खड़ी करने का इंतजाम नरेंद्र मोहन सेतु के नीचे किया गया था। नगर निगम ने यह व्यवस्था शायद पुल के नीचे अतिक्रमण रोकने के लिए भी की हो। नगर निगम के इस इरादे की ऐसी-तैसी पुल के नीचे जगह-जगह बैठे स्टाम्प विक्रेता, नोटरी आदि शानदार तरीके से कर रहे। उनके चेहरे पर बेफिक्री का इश्तहार चिपका था -'हम जहां बैठ जाते हैं, जाम वहीँ से शुरू होता है।'

पहले आरटीओ दफ्तर के सामने खड़ी करदेते थे लोग। अब 100 कदम दूर हो गया है। लोगों ने डराया भी अगर आरटीओ दफ्तर के सामने खड़ी करोगे तो उठ जायेगी। हम बहुत देर तक सोचते रहे कि दोनों तरफ खुदी खाईयों के चलते तन्वंगी हो चुकी सड़क पर गाड़ी उठाने वाली गाड़ी घुसेगी कैसे?

दफ्तर के अहाते में माहौल शोभा बरनि न जाए वाला था। घुसते ही अनगिनत मोटर साइकिलें किसी चुनाव में काले धन सरीखी गंजी पड़ी थी। एक की मोटर साईकल दूसरे पर ऐसे सटी हुई थी मानो इश्किया डायलॉग बोल रही हो -'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिये।'

मोटरसाईकल के बाद आदमियों का जमावड़ा था। हर तरफ आदमी ही आदमी। लोग ही लोग। जितने आ रहे थे उससे ज्यादा जा रहे थे। लेकिन फिर और लोग आकर जाने वालों की कमी पूरी कर रहे थे। मौसम की गर्मी बचाने के लिए जगह-जगह गड्ढ़ों में बारिश का पानी जमा था। पानी बहकर नालियों में न चला जाए इसके लिए जमीन को कच्चा रखा गया था।

अहाते में जगह-जगह तरह-तरह की दुकाने खुली थीं। नुक्कड़ पर एक महिला पान मसाला, सस्ते पेन, सफ़ेद कागज और टिकट लगे लिफाफे बेच रही थी। उसके बगल में एक बच्चा सफ़ेद पेटी में कोल्डड्रिंक बेच रहा था। साथ में एक लटाई लिए उस पर पतंग उड़ाने का मांझा और सद्दी लपेट रहा था। उसके पीछे दीवार पर ऊगा पेड़ भी हिल डुल कर अपनी हाजिरी सी लगा रहा था।

अंदर घुसते-घुसते कई लोगों ने लाइसेंस बनवाने के लिए 600/- रुपये का ऑफर दिया। मतलब लाइसेंस फ़ीस का 20 गुना ज्यादा । लेकिन हम सीधे आरटीओ साहब से मिले। आरटीओ जी अपने बाबुओं को सिंगल विंडो पर सब काम करने की हिदायत दे रहे थे। बाबू लोग उनसे सहमत थे लेकिन बता रहे थे कि उनके लिए आदमी चाहिए। आरटीओ साहब ने इन्तजाम का आश्वासन दिया और काम ऐसे करने को कहा की जल्दी निपटे। बाबू लोगों ने काम जल्दी निपटाने की व्यवस्था का आश्वासन दिया और फिर और आदमियों की मांग की।

बहुत भीड़ थी। हर काउंटर पर लोग ही लोग। लोगों के बोझ से सीटें जमीन से आ लगीं थीं। कहीं लर्निंग लाइसेंस बन रहा, कहीं परमानेंट, कहीं रिन्युअल, कहीँ कुछ, कहीं कुछ। लर्निंग लाइसेंस के लिए टेस्ट हो रहा था। सरल सवाल राजभाषा वाली हिंदी में जिनमें से कुछ का मतलब कोई हिंदी का विद्बान ही बता सकता था जिसने आरटीओ में नौकरी की हो।

टेस्ट देकर फीस जमा करने गए। वहां भी भीड़। फिर फोटो और हाथ के निशान। वहाँ भी गजब भीड़। हर जगह भीड़ ही भीड़ बस आप धँस तो लें। जो लोग कहते हैं कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते उनको सुबह-सुबह किसी महानगर के आरटीओ दफ्तर जाकर अपनी धारणा बदलने का प्रयास करना चाहिए।

जबतक हमारा बच्चा लाइन में लगा था तब तक हम फिर नजारा देखने में जुट गए। एक बच्चा पानी के पाउच बेंच रहा था। एक पुलिस वाला टहल-टहलकर इधर-उधर कुछ बतिया सा रहा था। एक जगह कुछ लोग शहर में हुई डकैती के बारे में बतिया रहे थे--'लौंडे थे साले। अय्यासी करने के लिए लूट-पाट करते थे। पकड़ा गया एक। साले को जहां डंडे पड़े सब कबूल दिया। 10 लाख बरामद भी हो गए। पिछले महीने गोआ ऐश करके आये थे।'

कुल मिलाकर आरटीओ दफ्तर में मेले जैसा माहौल था। सुव्यवस्थित अव्यवस्था टाइप जीवन्त व्यवस्था। करीब 3 घण्टे विभिन्न काउंटरों पर जूझते हुए लर्निंग लाइसेंस का फार्म जमा करके जब लौटे तो बहुत कुछ सीख-देखकर लौटे।

लौटते समय पानी बरसने लगा था। एक आदमी अपने साईकिल के कैरियर पर एक ठेलिया लादे चला जा रहा है। देखकर हमको एक बार फिर लगा कि जुगाड़ के मामले में हम लोगों को टक्कर देना आसान नहीं। जिस स्पीड से साईकल वाला कैरियर पर ठेलिया लादे चला जा रहा था उससे यही कहने का मन हुआ - 'झाड़े रहो कलट्टरगंज।'

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208458733279339