Friday, September 28, 2018

मुस्कान पर कोई टैक्स नहीं लगता


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, Omprakash Rawat सहित, बाहर
साथ साथ मूंगफली पछोरते मियां बीबी
कल सबेरे पुल सालों से ’निर्माणाधीन पुल’ के बगल से गुजरते हुये निकले। पुल की दीवारें खेत की मेड़ सरीखी खड़ी थीं। मेड़ों के बीच की मिट्टी में पुल की फ़सल बोई हुई है। सालों से पक रही हैं। शायद इस साल दिसम्बर तक पक जाये।
शुक्लागंज की तरफ़ जाने वाली सड़क किनारे एक झोपड़ी के बाहर एक महिला अपनी बच्ची को स्कूल के लिये तैयार कर रही हैं। बच्ची खड़ी-खड़ी ऊंघ रही है। महिला भी जम्हुआते हुये उसके बाल काढ रही है। बच्ची ऊंघते हुये थोड़ा ज्यादा हिल गयी तो उसके बाल महिला के हाथ से छूटने को हुये। महिला ने फ़ौरन हाथ के कंघी से उसके सर पर ’कंघी चार्ज’ कर दिया। कुछ ऐसे जैसे स्थिति नियंत्रण के बाहर जाते देख पुलिस लाठीचार्ज कर देती है। ’कंघी चार्ज’ होते ही बच्ची सावधान मुद्रा में बाल कढवाने लगी। बाल काढने के बाद खड़े-खड़े ही उसके कपड़े बदले जाने लगे।
आगे एक झोपड़ी के बाहर एक परिवार के कई लोग सड़क किनारे फ़सक्का मारे बैठे चाय पी रहे थे। एल्युमिनियम की एक लुटिया में रखी चाय एक महिला के कब्जे में थी। वह खुद चाय पीते हुये अपने आसपास बैठे लोगों के कप में चाय एलाट करती जा रही थी। केन्द्र में बैठी चाय पर नियंत्रण वाली महिला से किसी ने अपने कप को मेरे सामने ’विशेष कप’ का दर्जा देने की मांग नहीं की।
सामने से एक बच्ची एक अल्युमिनियम का डब्बा हिलाते आती दिखी। हमें लगा शायद गंगाजल हो डब्बे में। बगल से गुजरी बच्ची तो देखा डब्बे में चाय थी। सुबह उठते ही दौड़ा दी गयी होगी बच्ची चाय लाने के लिये।
सुरेश सड़क पार सुलभ शौचालय के बाहर निपटने के लिये अपनी बारी का इंतजार करते खड़े थे। शुलभ शौचालय की सुविधा अभी मुफ़्त है। पता नहीं कब इस पर शुक्ल लग जाये। क्या पता कल को शौचालय की व्यवस्था इलाकेवार हो जाये। जैसे चुनाव के लिये पोलिंग बूथ होते हैं वैसे ही हर इलाके के लिये शौचालय बूथ बन जायें। एक इलाके के लोगों के लिये दूसरे इलाके के बूथ इस्तेमाल करने पर पाबंदी लग जाये। शौचालय का इस्तेमाल आधार से जुड़ जाये। मतलब कुछ भी हो सकता है किसी आधुनिक होते समाज में। कुछ लोगों को इससे तकलीफ़ भी हो सकती लेकिन आधुनिक होने में तकलीफ़ तो उठानी पड़ेगी। स्वच्छता की कीमत तो चुकानी पड़ेगी।
गंगा पुल पर खड़े होकर नदी को निहारा। नदी के बीच बालू उभर आई थी। अभी बरसात कायदे से खत्म भी नहीं हो पायी लेकिन नदी दुबली हो गयी है। इसके पानी का बड़ा हिस्सा बांधों/बैराजों ने अपने कब्जे में कर रखा है। जैसे दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों के एटीएम कार्ड उनके ठेकेदारों के कब्जे में रहते हैं और मजदूरों की मजदूरी का बड़ा हिस्सा ठेकेदार हड़प लेते हैं कुछ उसी तरह नदियों का पानी बांध/बैराज अपने कब्जे में कर लेते हैं। नदियां सिकुड़ जाती हैं।
हिमालय से इठलाती, इतराती निकली गंगा मैदानों में आते-आते सिकुड़-सिमट गयी हैं जैसे मायके की तमाम चंचल लड़कियां ससुराल में आकर सहमते हुये जीना सीख जाती हैं।
लौटते हुये एक झोपड़ी के बाहर आदमी औरत पूरी तल्लीनता से मूंगफ़लियां पछोरते दिखे। हमें लगा कि जीवन साथियों में समानता का आधार उनके बीच समान काम ही हो सकता है। ये नहीं कि महिला पसीना बहाये, पति सामने बैठे बीड़ी पीते हुये टांगें हिलाये। महिला ने बताया कि पिछले साल की हैं मूंगफ़ली। इस साल की फ़सल कुछ दिन बाद आयेगी।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
तख्त नसीन बकरी
एक तख्त पर दो बकरियां खड़ी-बैठी दिखीं। खड़ी बकरी की मुद्रा देखकर लगा कि उसको माइक का इंतजार है बस। माइक सामने आते ही ’भाइयों-बहनों’ करने लगेगी।
आगे एक दुकान पर कुछ लोग बुफ़े सिस्टम में नाश्ता कर रहे थे। नाश्ता करते आदमी की शर्ट पर लिखा था ’आलवेज ग्रेसियस’। जिसको सुबह-सुबह नाश्ता मिल जाये वह हमेशा शानदार दिखेगा ही। यह भी लगा कि जिसको शानदार देखना हो उसको पकड़कर नाश्ता करा दिया जाये। राजनीतिक पार्टियां तो करती भी हैं ऐसा। हुजूम के हुजूम को नाश्ता-पानी-पूड़ी-सब्जी खिलाकर जानदार और शानदार बनाकर अपना काम निकाल लेती हैं।
स्कूल के बच्चे आने लगे थे। कुछ बच्चे नुक्कड़ पर खड़े आपस में बतिया रहे थे। वे शायद सब बच्चों के स्कूल जाने के बाद स्कूल जाने में यकीन रखते हों। इसी बीच एक बच्ची साइकिल से आई। उससे एक बच्चा बातें करने लगा। बाकी बच्चे दोनों के बीच होती बात को अलग-अलग कोण से अलग-अलग अंदाज में सुनते-देखते रहे। बातें कुछ ही देर में खत्म हो गयीं मतलब शुरु होते ही खल्लास टाइप। बच्ची साइकिल पर आगे चली गयी। बच्चे फ़िर आपसे में अलग-अलग तरह बतियाने लगे।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, साइकिल, वृक्ष और बाहर
बीड़ी से दोस्ती के 42 साल
वहीं कुछ रिक्शे वाले खड़े थे। बच्चों को स्कूल छोडकर सुस्ताते हुये। एक रिक्शेवाले ने पूरी ताकत से बीड़ी का सुट्टा लगाया। मुझे लगा कि बीड़ी का दम घुट जायेगा। हमसे बीड़ी की दशा देखी नहीं गयी। हमने उससे कहा- ’ इत्ती जोर से सुट्टा मार रहे हो बीड़ी की जान लोगे क्या भाई?’ सुनते ही उसे बीड़ी को मुक्त करके सड़क पर फ़ेंक दिया। बीड़ी को शायद चोट आई हो लेकिन सुट्टा मुक्त होकर सुकून की सांस जरूर ले रही होगी।
दूसरे रिक्शेवाले ने मेरे कहने के बावजूद बीड़ी नहीं छोड़ी। तसल्ली से पीता रहा। बहुत अधिक शोषण करने वालों और तसल्ली से शोषण करने वालों में यही अंतर होता है। विकट शोषण के बाद मुक्ति होने की संभावना ज्यादा होती है। तसल्ली से होने वाला शोषण देर तक चलता है ।
बात बीड़ी की होने लगी तो बताया कि आठ साल की उमर से बीड़ी पी रहे हैं। अब पचास के होने वाले हैं। मतलब बीड़ी का बयालीस साल का साथ। शुरुआत छोटा बालक बीड़ी से हुई थी। इसके बाद गणेश छाप, सेठ बीड़ी, श्याम बीड़ी , गोली छाप और न जाने किन किन बीडी की बात हुई। दिन में पचास-साठ बीड़ी सुलग जाती हैं। हमने पूछा घर में कोई टोकता नहीं तो पता चला कि बाल-बच्चे हैं नहीं और बीबी दारू के चलते छोड़कर मायके चली गयी है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं, वृक्ष और बाहर
इस्टाइल कोई हीरो की बपौती थोड़ी है
इस बीच एक रिक्शे बगल से गुजरा। रिक्शे पर बैठा आदमी टांग पर टांग धरे ऐसे बैठा हुआ था जैसे शंहशाह लोग सिंहासन पर बैठते हैं। टांग पर टांग धरा आदमी स्वभाव से सामंती मन का होता है। जैसे आदमी दूसरे आदमी पर कब्जा करना चाहता है वैसे ही उसकी एक टांग दूसरे पर सवार रहना चाहती है। लाखों साल हुये इंसान को पैदा हुए लेकिन बेचारा दूसरे पर कब्जा करने की कब्ज से ही मुक्त नहीं हो पाया अब तक। इसी चक्कर में अपना और पूरा कायनात का हाजमा बिगाड़े रहता है।
सूरज भाई हमको देखकर मुस्करा रहे हैं। शायद कह रहे हैं दूसरे के हाजमें की डाक्टरी करने के पहले देख लो तुम्हारा पेट ठीक है क्या? दफ़्तर नहीं जाना क्या आज?
हम सूरज भाई को गुडमार्निंग करके मुस्कराये। वे भी मुस्कराये। आप भी मुस्करा लीजिये। मुस्कान पर फ़िलहाल कोई शुल्क नहीं है और न ही मुस्कराने के लिये आधार से लिंक करना जरूरी है।

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Tuesday, September 25, 2018

झूठ बोलने का मन


आज थोड़ा झूठ लिखने का मन हुआ। एक से बढ़कर एक झूठ हल्ला मचाने लगे- 'हम पर लिखो, हम पर कहो।'
हमने सब झूठ को हड़काते हुए कहा -'अनुशासन में रहो। लाइन लगाकर आओ। सबका नम्बर आएगा। हल्ला मत मचाओ।'
सारे झूठ बमकने लगे। हमको सच समझ लिया है क्या ?
एक झूठ हल्ला मचाते हुए बोला-'हम लाइन लगाकर आएंगे तो हमारा तो वजूद ही निपट जाएगा। हम तो एक के ऊपर एक लदफद कर आते हैं। इसीलिए जब तक पहचाने जाते हैं, तब तक अपना काम करके निकल जाते हैं।'
हम जब तक उसकों कहें तब तक वह पलटकर फूट लिया। भागते हुए दिखा उसकी शर्ट पर 'सत्यमेव जयते लिखा' था।
हमको झूठ की कमीज पर लिखे लिखे 'सत्यमेव जयते' से आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि आजकल झूठ बोलने का यही फैशन चलन में है। बड़े झूठ सच के लिबास में ही बोले जाते हैं। देश सेवा के नाम पर स्वयंसेवा का चलन है। हमको अचरज उसकी स्पीड पर था। जितनी तेज वह भागा उतनी तेज ओलंपिक में भागता तो गोल्ड मेडल मिल जाता ।
हमने उसकी स्पीड पर ताज्जुब किया तो उसकी जगह ले चुके झूठ ने बताया -'उसकी 'सत्यमेव जयते' वाली ड्रेस किराए की है। घण्टे भर के लिए लाया था। देर करता तो अगले घण्टे का किराया भी ठुक जाता। बहुत मंहगा होता जा रहा है झूठ बोलना भी आजकल। आप समझते हो सिर्फ पेट्रोल ही ऊपर जा रहा है।'
हम कुछ और कहें तब कुछ और झूठ हल्ला मचाने लगे। हल्ला मचाने वाले 'मूक विरोध' की कमीज पहने थे। हमें लगा कि कुछ देर और ठहरे यहां तो सब मिलकर हमको पीट देंगे। हमारे शक की वजह उनकी कमीजों पर लिखा नारा था। सबकी छाती पर लिखा था -'अहिंसा परमों धर्म:। '
हम फूट लिए कहकर कि अभी आते हैं। सारे झूठ हमारी बात सुनकर खुश हो गए। वे आपस में धौल धप्पा करते हुए बोले -'ये तो अपना ही आदमी निकला। हमारी ही तरह झूठ बोलता है। इसको अब लौटकर आना नहीं। चलो फालतू टाइम क्या खोटी करना।'
हमको लगा कि समय सही में कीमती है। झूठ बोलने वाले तक इसको बर्बाद नहीं करते। बिना समय बर्बाद किये झूठ बोलते रहते हैं।

Monday, September 24, 2018

नकली असली से ज्यादा चमकता है

सूरज भाई बहुत दिन बाद दिखे आज

सूरज भाई बहुत दिन बाद दिखे आज। आसमान कि छत पर खुपड़िया का जरा सा हिस्सा दिखा पहले। शायद थाह ले रहे हों कि उगते समय कोई ढपली न मार दे। जैसे कोई चोर दीवार फांदने से पहले चारो तरफ देखता होगा उसी अंदाज में मुंडी उठाकर इधर उधर देख रहे थे। किरणें दोनों तरफ रोशनी की टार्च मारते हुए अपने पप्पा की सहायता कर रहीं थीं।
उगते समय लाल सुर्ख मुंह वाले सूरज भाई ऐसे अफसर की मानिंद दिखे जो यह मानता है कि सुबह सुबह गर्म होकर दो-चार लोगों को हड़का देने से दिन शुरू करने से लोग अनुशासन में रहते हैं। यह बात अलग की सूरज भाई से अंधेरा छोड़कर कोई हड़का नहीं। अंधेरा तो उनके आने की खबर पाते ही फूट लिया। चिड़िया चहकते हुए सूरज भाई को गुडमार्निंग कह रहे थीं। सूरज भाई भी सबकी चोंच पर किरणें बरसाते हुए सुप्रभात कह रहे थे।
निकलने के बाद सूरज भाई बड़ी धीरे से ऊपर उठे। ऐसा लगा उनके रथ की क्लच प्लेट घिस गयी हो। इसी चक्कर में स्पीड कम हो गयी हो। या यह भी हो सकता है कि पहली चढ़ाई में रथ पहले गियर पर चल रहा हो। कुछ देर बाद धड़ल्ले से ऊपर उठने लगे। बिना दाएं-बायें देखे दुनिया भर को रोशनी बाँटने लगे। उनकी रोशनी बाँटने की स्पीड काम इकट्ठा हो जाने पर आंख मींचकर बाबू द्वारा क्लियर किये कागजों पर दस्तखत करने वाले साहब की स्पीड को भी मात कर रही थी।
सूरज भाई की फोटो हमारे बरामदे में के फर्श पर चमक रही थी। फोटो मने प्रतिबिम्ब। प्रतिबिम्ब देखकर फिर लगा कि नकली असली से ज्यादा चमकता है, चमचा नेता से ज्यादा बमकता है। सब कुछ उधार का है इस प्रतिबिम्ब का। फर्जी स्टार्टअप सरीखा। उधार की रोशनी, हराम की जमीन लेकिन चमक ऐसी जैसे असल का बाप हो।
किरणें सूरज भाई की कुछ ज्यादा ही खिलखिल करती दिखीं। सूरज भाई का वात्सल्य देखकर लगा कि शायद उनको भी पता चल गया कि आज बेटी दिवस है। इसीलिए 'पिता पोज' में हैं।
बहुत दिन बाद मिलने पर चाय-साय भी हुई। सूरज भाई अपनी बच्चियों की तरफ निहारते हुए बोले - मुकेश तिवारी जी सही कहते हैं:
'बेटियां अपने आप में मुक्कमल जहां होती हैं।'
और कुछ बात होती तब तक किरणों ने अपने पापा की चमकते हुए बुला लिया। सूरज भाई लपकते हुए बिना बाय बोले चल दिये। बेटी दिवस के दिन बच्चियों को नाराज करने का जोखिम उठाने की हिम्मत कहाँ उनके पास।
हम भी निकलते अब दफ्तर। आप भी मजे करिये।

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Tuesday, September 11, 2018

हम सो गए हैं बड़ी देर से, नींद बड़ी गहरी है

हम सो गए हैं बड़ी देर से, नींद बड़ी गहरी है,
खबरदार, जो गुडनाइट के बहाने जगाया तो।
मिला था पेट्रोल मुझे, मुख्तसर से सपने में,
डपट दिया - लुट जाएगा अकेले नजर आया तो।
ठीक है शेर बढिया है, बड़ा डम्प्लाट भी है
खफा हो जाएंगे गर, किसी ने मुझे बताया तो।
-कट्टा कानपुरी

Thursday, September 06, 2018

आंखों में रंगीन नजारे, सपने बड़े-बड़े

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बाहर
राजोल से बचकर रहना कहने के मुस्कराहट बिखेरते पंकज बाजपेयी

बहुत दिन से गंगा दर्शन नहीं हुये थे। मन किया देखा जाये। निकल लिये। पैदल। पुल के बगल से गुजरते हुये। नुक्कड़ तक पहुंचते-पहुंचते बारिश के पानी और मिट्टी के गठबंधन से सड़क पर कीचड़ ही कीचड़ हो रखा था।
कीचड़ पतला था। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तरह मरगिल्ला सा और अस्थाई भी। शायद इसीलिये उसमें कोई कमल नहीं खिला था। कमल खिलने के लिये भी काम भर का कीचड़ चाहिये होता है। कम कीचड़ में नहीं खिलता। खिलता होता तो अनगिनत अभावग्रस्त कीचड़ाई आंखों में कमल खिल रहे होते। उनकी जिंदगी से अंधेरा छंट गया होता।
कमल भले न खिला हो लेकिन अपन के चरण कमल तो थे ही। कीचड देखते ही चिपकने के लिये लपका। वो तो कहो ’पच्चल’ पहने थे वर्ना चिपक ही गया होता। लेकिन लाख बचाव के बावजूद कीचड की कुछ महत्वाकांक्षी बूंदे चप्पल के पीछे से होत हुई पांव, घुटन्ने, कमीज तक पहुंच ही गईं।
सड़क पर सवारियों की सबसे पहले निकलने की मारामारी थी। इस चक्कर में सबके निकलने में देर हो रही थी। कोई किसी को बगलियाकर निकला भी तो आगे फ़ंस गया। उसको फ़ंसा देखकर पीछे रह गयी सवारी के चेहरे के संतोष का वर्णन करने की क्षमता नहीं है अपने में। आप बस समझ लीजिये।
सड़क थोड़ी साफ़ हुई तो कुछ बच्चे सुट्टा लगाते दिखे। एक बच्चा सुट्टा लगाकर धुंआ दूसरे के मुंह पर फ़ेंक रहा था। सिगरेट के धुंये से अगले के गाल गरम करम करने के पीछे शायद उसकी मंशा ऊर्जा के अधिकतम संभावित उपयोग की रही होगी।
एक लड़की सर झुकाये चुपचाप सड़क पर चली जा रही थी। सड़क के अराजक माहौल से बचे रहने के लिये सर झुकाकर चुपचाप नामालूम तरीके से गुजर जाना ही समझदारी है आजकल के समय। समाज में जो अराजक नही है वे इसी तरह चुपचाप गुजरते हुये जी रहे हैं। मेरे बगल से गुजरते हुये लड़की ने अपनी मुट्ठी में दबाई हुई गुटका की पुडिया से कुछ मसाला निकालकर मुंह में रखा और शांति से आगे निकल गयी। पुडिया कसकर मुट्टी में दबा ली। शायद उसको डर हो कि कोई देखकर मांगने न लगे।
आगे सुरेश के रिक्शे के अड्डे पर राधा और सुरेश कुछ और लोगों के साथ बैठे थे। पता चला राधा कुछ दिनों से बीमार हैं। झटक गयी हैं। सुरेश दवा लाये हैं। प्राइवेट डॉक्टर से। अब कुछ फ़ायदा है। सुरेश की बात से एहसास हुआ कि आजकल किसी को सरकारी डाक्टर की दवा का भरोसा नहीं। प्राइवेट डाक्टर से इलाज नहीं कराया तो क्या कराया?
गंगा बढी हुई हैं। दोनों तरफ़ के पाट तक पानी ही पानी। अंधेरे में पानी और खतरनाक सा दिख रहा था। नाव वाले ने बताया कि अभी भी नाव चलती है। दो दिन पहले एक लड़का और एक लड़की पुल से कूद गये। लड़की को नाव वालों ने बचा लिया, लड़का डूब गया। फ़ूलने पर ही ऊपर आ पाया। पता नहीं अमूल्य जीवन को बरबाद करने का हौसला और मन कैसे बना पाते हैं लोग।
लौटते हुये एक झोपड़ी के बाहर रखे एक तख्त पर एक बच्ची गीले आटे की बहुत छोटी गोल लोई सी बनाकर एक लाइन में धर रही थी। दोनों हथेलियों के बीच रगड़कर आटे की गोलियां बनाती हुई बच्ची की उमर चार साल की है। स्कूल नहीं जाती अभी। पता नहीं आगे भी जायेगी क्या?
एक ठेलिया पर चना बेचते दुकानदार से बतियाता हुआ रिक्शावाला चना-चबेना बंधवाकर रिक्शे की गद्दी के नीचे धर रहा है। दोनों प्राणी सीतापुर के पास के हैं। इसीलिये सौदेबाजी के बाद भी बतिया रहे हैं। बतियाने में कोई पैसा थोड़ी लगता है। यहां ज्यादातर रिक्शेवाली, अस्थाई दुकानदार सीतापुर के हैं। भुजिया की दुकानपर एक बच्ची तख्त पर ठोडी सटाये सबकी बातचीत सुन रही है। पता चलता है कि १४-१५ की बच्ची की पढाई घर वालों ने तीसरी के बाद छुड़ा दी। स्कूल भेजना बन्द कर दिया, इत्ता खर्चा कहां से करें। लौंडा जा रहा है स्कूल। हम बताते हैं कि पास के सरकारी स्कूल में मुफ़्त में पढाई होती है, वहां क्यों नहीं भेजते? वो कई तर्क देते हुये हमारी बात इधर-उधर कर देते हैं। बच्ची मुस्कराते हुये हमारी बात सुनती है। उसकी मुस्कान से लगता है मानो वह कह रही हो- ’आप नहीं समझ पाओगे यह सब बात।’
बच्ची की आंखे देखकर अनायास नंदन जी की कविता याद आई:
आंखों में रंगीन नजारे,
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
इस कविता का बच्ची के चेहरे के भाव से कोई साम्य नहीं। वह पता नहीं क्या कुछ सोच रही हो। उसके सोच से एकदम अलग हमको यह कविता पंक्ति याद आ रही थी। हम अपने अनुभव संसार, याद गिरोह की जकड़ से बाहर भी कहां निकल आते पाते हैं।
रिक्शेवाला लंबा, स्वस्थ और घनी मूंछो वाला है। बताता है कि वो किसानी करते हैं। कुछ दिन रिक्शा चलाते हैं। हजार-बारह सौ जहां जमा हुए वापस लौट जाते हैं। आजकल नये रिक्शे का किराया ६० रुपये, पुराने का ४० है। रिक्शे वाले मालिक के कोई बीमारी है। हज्जारों फ़ूंक दिये लेकिन ठीक नहीं हो पाये।
सुबह पंकज बाजपेयी से भी मिले। दोपहर बाद। बोले –’माल कहां है?’ माल मतलब पालीथीन मतलब जलेबी, दही। हमने कहा आज देर हुई इसलिये नहीं लाये। अगले इतवार को लायेंगे।
फ़िर शिकायत कि मिठाई वाले ने मिठाई नहीं दी। दिलवाई। चाय पी गयी। चाय पीते हुये किसी को देखकर उसकी तरफ़ लपके। शायद उसने पैसे दिये। सटककर जेब में धर लिये। हमने पूछा –क्या है? बोले –’नोट जलाने को दिये हैं।’
हमने बताया कि हमको इनाम मिला है। बोले- ’बैंक में धरना पैसा। हम खाता खुलवा देंगे। रजोल को न बताना। मर्डरर है वह। तुम चिंता न करना। हम उसको देख लेंगे।’
चलते हुये बोले-’ सिक्का देते जाओ।’
हमने कहा-’ तुमको अभी वो पैसे दे गया है। सिक्का क्या करोगे?’
बोले –’ वो तो नोट दिया है जलाने को।’
दस रुपये का सिक्का देकर चलने लगे तो बोले- ’अबकी बार माल जरूर लाना। पालीथीन वाला।’ आंख नचाते हुये कहा-’ वहां की जलेबी बढिया रहती हैं। मालदार है।’
विदा होते समय हाथ त्रिशूल की तरह पैतालीस डिग्री झुकाते हुये बोले –भाभी को चरण छूना कहना।


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