Saturday, March 31, 2018

परदेशन से मुलाकात

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, खड़े रहना, बच्चा और बाहर
परदेशन अपनी फोटो देखती हुई

कल शाम टहलने निकले। कार से। खरामा-खरामा टहलते हुए सड़क के नजारे देखते।
एक ठेलिया वाला अपनी ठेलिये के पिछवाड़े को उचकाए चला जा रहा था। पिछले पहिये टेढ़े हो गए थे। सड़क पर चलते पहिये तो 'सरल आवर्त रेखा' बनाते।
एक आदमी भरी सड़क पर बैठ-बैठकर चल रहा था। हाथ के बल उचकते हुए। शायद उसकी टांगे खराब हो गईं थीं। चलने में तकलीफ थी।
कलट्टरगंज की तरफ निकले। चौराहे पर सिग्नल पर रुके। एक बच्चा गाड़ी पोंछने के लिए लपका। हमने उसको रोका तो उसने बेवश नाराजगी से मुझे देखा। आदत हो जाने के बावजूद के हम थोड़ा असहज हुए। सिग्नल हो गया। सैंट्रो सुन्दरी में बैठा जवान आगे बढ़ गया।
कलट्टरगंज हमेशा की तरह ऊंघ रहा था। 'झाड़े रहो कलट्टरगंज' , झड़ा हुआ कलट्टरगंज' लग रहा था। सड़क के दोनों तरफ दुकानों में से ज्यादातर में मुनीम, कैशियर बस्ते पर सर धरे सोते/ऊंघते दिखे।
कलट्टरगंज आने का कारण 'परदेशन' को उसकी फोटो देना था। पिछले साल एक सिंघाड़े की दुकान पर काम करते हुए मिली थी। फोटो खींचते हुए उनको फोटो देने का वादा किया था। महीनों पहले डेवलप कराई थी।लेकिन देने नहीं जा पाए थे। टलता रहा मामला। कल गए।
जहां परदेशन काम करते दिखी थीं वहां सन्नाटा था। पता किया काम बंद है अभी। सिंघाड़े का सीजन ख़त्म। सब मजदूर गांव लौट गए हैं।
हमने परदेशन का फोटो दिखाया तो दुकान वाले ने बताया आगे सौंफ की दुकान में काम करती है। अभी मिल जाएगी।
गलियों में होते हुए पहुंचे तो एक कोठरी में बैठी थीं परदेशन। अपने लिए 'बेना' बना रही थी। सरकंडो को सिलते हुए गर्मी में झलने के लिए पंखा। अधबना पंखा हाथ में लिए हुए झोपड़ी से निकली। फ़ोटो दिए तो खुश हो गयी।
फोटो देखते हुए आसपास आते-जाते लोगों को दिखाते हुए कहती -'देखो भैया हमार फोटो ले आये। तुम कहत रहव कि न अइहैं।'
लोग भी फोटो देखते हुए मजे लेते रहे-'तुम तो हीरोइन हुई गई परदेशन।'
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, खड़े रहना
चाय हो जाये
पास की चाय की दुकान पर चाय पी हम लोगों ने। बताया कि लोग कह रहे थे -' वो अखबार के लोग थे। फोटो अखबार में छप गयी होगी। कौन देने आएगा। हम भी सोच रहे थे कि फ़ोटो देने आये नहीं। अब बच्चों को दिखायेंगे कि ये देखो फ़ोटो। ये बहुत बढिया काम किये भैया तुम। फ़ोटो लै आये।'
चाय की दुकान 40 साल पुरानी। दुकान वाले ने बताया कि जब शुरू किए थे दुकान तो यहां जगह नहीं थी चलने की। चवन्नी की चाय बिकती थी। आज पांच रुपये की चाय।
परदेशन की फ़ोटो देखकर चाय की दुकान में एक ने चाय की दुकान पर लगा एक फ़ोटो दिखाते हुये हमारे लिये चुनौती उछाली - ऐसी फ़ोटो खैंचकर दिखाओ। श्वेत श्याम फ़ोटो में कोई आदमी किसी मंदिर में पूजा कर रहा था। हमने चुनौती अस्वीकार करके चाय पर ध्यान देना उचित समझा। चाय चकाचक बनी थी।
परदेशन ने पूछा -'भैया हमार आधार कार्ड खो गवा है। दवाई लेन जाओ तो आधार माँगत हैं सब। कैसे बनी?'
हमने पूछा नाम, पता या नम्बर हो तो बन जायेगा दूसरा। क्या नाम से है?
बोली -'कइयो तो नाम हैं। परदेशन, मुन्नी , चन्दा। अब याद नहीं कौन नाम लिखा है कार्ड मा। हां नम्बर शायद बैंक की पासबुक मा लिखा है। गांव मा है पासबुक।'
हमने कहा-' नम्बर मंगवा लेव। फिर बन जाई दूसर कार्ड।'
चलते हुए सकुचाए अंदाज में फ़ोटो के पैसे के लिए पूछा -'भैया कुछ पैसा पड़े हुएहैं फ़ोटो बनवाई। दे देब। लै लेव। '
हमने मना किया। तो बोली -'इत्ती दूर ते आये हौ। पेट्रोल ख़र्च हुआ होई।'
हम बोले-'मुलाकात हो गई। यही ख़र्च का भुगतान हो गया।'
गली तक विदा करने आई परदेशन। नम्बर दे आये हैं। आधार कार्ड की जानकारी मिलने पर बनवाने का आश्वासन देकर। आश्वासन देने में कुछ से जाता थोड़ी है।
सोचा मन में -'साल भर लगे फोटो देने में। कार्ड बनवाने में कित्ती देर लगाओगे। आलसी बहुत हो सुकुल। '
पिछली पोस्ट का लिंक यह रहा
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Sunday, March 25, 2018

आत्मीय यादों का खूबसूरत गुलदस्ता

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 4 लोग, भोजन और बाहर
शब्बीर जी चाय की दुकान पर

मूलगंज चौराहे पर दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ थी। लोग काम के इंतजार में खड़े थे। अपने-अपने औजारों के साथ। बढ़ई लोग आरी, रंदा, बसूले साथ। पेंटर तरह-तरह के ब्रश , कूचियों से लैस। लोग आते। भावताव करते। सौदा पट जाने पर ग्राहक के साथ चले जाते। आदमियों का मॉल टाइप लगा मूलगंज का चौराहा जहां आदमी आइटम के रूप में उपलब्ध थे।
एक बुजुर्गवार भी उन्ही में शामिल थे। सड़क किनारे गुजरती मोटी पाइप लाइन को बेंच बनाये बैठे। कुछ पूछताछ की तो खड़े होकर बतियाने लगे।
पता चला कि मूलत: बलरामपुर गोंडा जिले के किसी गांव के रहने वाले हैं। सन 1972 में कानपुर आये थे। 15 साल की उमर में। आधारकार्ड में जन्मदिन 23 अप्रैल 1957 लिखा है। मतलब आजादी की पहली लड़ाई के सौ साल बाद। आज की उमर ठहरी महीना कम 61 साल। पिता जीवित हैं। बढई का पेशा खानदानी है। पिता और दीगर रिश्तेदारों से काम सीखा। लड़के भी लकड़ी छीलते, सजाते हैं।
हमारे बतियाते हुये एक ग्राहक आ गया। उसको घर की चौखट बनवानी थी। पान भरे मुंह के चलते सर ऊपर करके बतिया रहा था। बतियाते हुये थोड़ा ऐंठ भी रहा था। ऐठते हुये यह भी जताता जा रहा था -’हमको बेवबूक मत समझना।’ ऐसा जताते हुये फ़ुल बेवकूफ़ लग रहे थे भाईसाहब। लेकिन हम ऐसा कह नहीं रहे। बस सोच रहे हैं ऐसा। अब जरूरी थोड़ी है कि जो हम सोचे वह सही ही हो।
काम विस्तार से समझाने के बाद उन्होंने पैसे पूछे। बुजुर्गवार ने दिहाड़ी बताई 800 रुपये। उन्होंने बताया -’दो घंटे का काम है। आठ सौ बहुत हैं।’ इसके साथ उन्होंने इस बार कह भी दिया -’हमको अनाड़ी मत समझो।’
बुजुर्गवार ने एक बच्चे नुमा बढई को काम फ़िर से बताने के बाद चले जाने के लिये कहा। लेकिन उसने काम दुबारा सुनने के बाद गरदन हिला दी- ’नहीं जायेंगे।’ कामगार तलाशने वाले भाईजी मुंह के पान को और चबाते हुये आगे बढ गये।
हमने बुजुर्गवार से पूछा -’जब आप लोग काम के लिये यहां खड़े हो तो काम के लिये मना क्यों किया?’
’उनको काम कराना ही नहीं था। हम आदमी देखकर समझ जाते हैं। जिस काम के लिये दिन भर लग जाता है उसको वो दो घंटे का काम बता रहे हैं। इसलिये हमने मना किया और उस लड़के ने भी।’ -बुजुर्गवार ने अपनी बात कही।
बताया कि इतवार को सबसे ज्यादा भीड़ रहती है काम के लिये आदमी खोजने वालों की। सुबह से शाम तक कभी शटर डाउन नहीं रहता इस आदमी बिक्री केन्द्र का। कभी भी ग्राहक आ जाता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, लोग पैदल चल रहे हैं, लोग खड़े हैं, भीड़ और बाहर
ग्राहक का इंतजार करते दिहाड़ी मजदूर
कुछ देर की बातचीत के बाद उनके घर परिवार की बात होने लगी। बताया कि चार बेटे हैं, दो बेटियां। दो बेटियों और दो बेटों की शादी हो गयी। दो की बाकी है। सब अपना-अपना काम करते हैं। घर में काम चलता है। मुंबई भी गये थे। कुछ साल रहे फ़िर चले आये।
इसके बाद उन्होंने किन्ही झा जी की याद करते हुये बताया कि वे आते थे मिलने। अक्सर मिठाई लाते थे। कैंट में रहते थे। आदि-इत्यादि। अपने हुनर के कई किस्से सुनाये। बोले- ’हमारा काम 30 दिन का बंधा है। जाममऊ में। वहीं जाकर करेंगे काम। यहां बस ऐसे ही आ गये थोड़ी देर के लिये।’
इतनी देर की बातचीत में बुजुर्गवार को हमसे आत्मीयता सी हो गयी। बोले-’ चाय पियेंगे।’
हमने कहा - ’पियेंगे। लेकिन पिलायेंगे हम।’
हम-हम की आत्मीय बहस करते हुये बगल की चाय की दुकान पहुंच गये। बुजुर्गवार ने चाय वाले को बढिया चाय का आर्डर देते हुये कहा - ’पैसे हम देंगे।’
लेकिन हमने जबरियन पैसे थमा दिये। फ़िर चाय आने तक और उसके बाद चुस्कियाते हुये बतियाते रहे। हमने उनका नाम पूछा तो उन्होंने बताया - ’शब्बीर।’
हमने पूछा- ’शब्बीर माने पता है क्या होता है?’
बोले- ’शब्बीर माने सीधा।’
हमने बताया- ’शब्बीर माने होता है प्यारा। शब्बीर मने लवली। हमको अपने मित्र मोहब्बद शब्बीर की याद आ गई। उनके नाम का मतलब पूछकर हमने उनका नम्बर ही इसी नाम से सेव किया- Shabbir mane lovely.
शब्बीर माने लवली कहने पर शब्बीर बोले -’हमको अंग्रेजी नहीं आती।’
हमने कहा हिन्दी और उर्दू तो आती है। बहुत है। उर्दू वाली बात इसलिये कही कि हमने उनकी जेब में रखे कुछ कागजों में लिखी झांकती उर्दू देख ली थी। उन्होंने वे कागज निकालकर मुझे दिखाये। उर्दू लिपि में लिखा होने के कारण मुझे कुछ समझ में नहीं आया लेकिन फ़ौरन प्रमोद तिवारी की कविता पंक्तियां याद आ गयीं:
“हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।“
हमने अपनी उर्दू सीखने की बात बताई तो शब्बीर बोले -’हम सिखा देंगे। कहां रहते हैं बता दो आ जाया करेंगे।’
हमने कहा सीख लेंगे। सिखाने वाले तो बहुत हैं। सीखने का समय ही नहीं मिलता। मेरी फ़ैक्ट्री में ही एक कामगार साथी हमको उर्दू की वर्णमाला किताब देकर गये हैं। पहले तो पूछते भी थे - ’रियाज कैसा चल रहा है।’ अब रियाज और पूछना दोनों बन्द।
जब जेब के कागज दिखा रहे थे शब्बीर तो हमने देखा कि उनके एक हाथ की तीन अंगुलियों के एक-एक पोर कटे हुये थे। बताया कि आरे में कट गये थे। हमको फ़िर अपने एक आत्मीय मित्र की याद आई जिनके एक हाथ की उंगलियां भी इसी तरह कटी हुई थीं। शब्बीर से बात करते हुये उन मित्र की याद भी करते रहे।
बलरामपुर गोंडा की रिहाइश जब बताई थी शब्बीर ने तो हमने अटलबिहारी बाजपेयी जी को याद किया था जहां से वे कभी चुनाव लड़ते थे। यह भी कि बलरामपुर में ही हमारे बड़े भाई की पहली नौकरी लगी थी।
मुंबई होकर लौटने की बात से जबलपुर पुलिया वाले रामफ़ल भी याद आ गये जो अपने मुंबई के भी किस्से सुनाते रहते थे।
एक ही इंसान से बात करते इतनी सारे लोगों की याद आने वाली बात से निदा फ़ाजली का यह शेर याद आ गया:
"हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना "
अमूमन यह शेर आदमी के बहुरुपियेपन और चालाकी की फ़ितरत बताने के लिये इश्तेमाल किया जाता है। लेकिन आज शब्बीर से मिलकर इस शेर के दूसरे मायने भी खुले। एक आदमी से मिलते हुये आप अपने साथ जुड़े हुये अनेक लोगों की यादें ताजा कर सकते हैं। शब्बीर जी मिलना कई दोस्तों और आत्मीयों को एक साथ याद करना जैसा रहा। क्या पता उनको भी हिचकियां आई होंगी।
एक शेर के नये मायने पता चले आज शब्बीर जी से मुलाकात के बहाने।
चाय पीते हुये एक प्यारा सा बच्चा भी आया चाय की दुकान पर। अपनी दुकान के लोगों के लिये चाय ले जा रहा था। मासूम बच्चा देखकर पास बुलाकर बात की। पढाई-लिखाई पूछी। पता चला - ’आठवीं में किसी पढता है। एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल में। आज इतवार को पिता का हाथ बटाने आ गया। जूते चप्पल की दुकान है पिता की।’
सामने क्रिकेट खेलते बच्चों को देखते हुये हमने पूछा - ’क्रिकेट नहीं खेलते तुम।’
वह बोला-’हमको क्रिकेट नहीं पसंद। हम पतंग उड़ाते हैं।’ हमको फ़िर केदारनाथ सिंह जी की पतंग वाली कविता याद आ गयी:
"हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर – उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!"
इस बीच शब्बीर जी अपने घर से बिना नाश्ता किये आने की बात और पास की दुकान से पूड़ी-सब्जी खाने की बात बताई। 10 रुपये में पांच पूड़ी-सब्जी। इसके बाद यह भी कहा-’कानपुर में गरीब आदमी का गुजर-बसर सस्ते में आराम से हो सकता है।’ हम इसमें कोलकता को भी जोड़ते हैं। अल्लेव कोलकता भी जुड़ गया यादों के गुलदस्ते में।
चाय की दुकान से विदा होकर हम वापस लौटे। उस जगह आये जहां हमारी सैंट्रो सुन्दरी खड़ी थी। सामने एक ’शुक्ला आर्म्स कारपोरेशन’ का बोर्ड दिखा। फ़ोटो खैंच लिया। भौकाल के लिये लोगों से कहेंगे ’कट्टा कानपुरी’ का असलहा केन्द्र है। हमारे फ़ोटो खैंचते ही वहां खड़े एक युवक ने पूछा - ’फ़ोटो किस लिये खींचा?’
हमने बताया- ’ऐसे ही खैंच लिया। अपन भी शुक्ला हैं। एतराज है तो बताओ मिटा दें।’
वो बोला-’ नहीं वो वाली बात नहीं लेकिन बेवकैमरा लगा है। दुकान में। साहब हमसे पूछेंगे।’
हमने देखा कि सही में एक बेवकैम सड़क की तरफ़ मुंडी किये फ़ोटो खैंचने में लगा था। हमारी भी फ़ोटो खैंच लिहिस होगा।
पता चला कि बच्चा मुंबई का है। राघव नाम है। कानपुर आया है काम के लिये। हमने पूछा -”यार, ये उल्टे बांस बरेली को। कानपुर के लोग मुंबई जाते हैं काम के लिये। तुम उधर से इधर आ गये।“
बोला- ’साहब को हमारा काम पसंद इसलिये ले आये।’
वहीं सड़क पर ही एक आदमी एकदम टुन्नावस्था समाधि मुद्रा में बैठा था। राघव ने बताया- ’सब नशेड़ी हैं। नशा किये पड़े रहते हैं।’
हमको इस बार रमानाथ अवस्थी जी या आ गये:
चाहे हो महलों में
चाहे हो चकलों में
नशे की चाल एक है!
किसी को कुछ दोष क्या!
किसी को कुछ होश क्या!
अभी तो और ढलना है!
नशे की बात चलते ही कैलाश बाजपेयी भी याद आ गये:
नदी में पड़ी एक नाव सड़ रही है
और एक लावारिश लाश किसी नाले में
दोनों ही दोनों से चूक गये
यह घोषणा नहीं है, न उलटबांसी,
एक ही नशे के दो नतीजे हैं
तुम नशे में डूबना या न डूबना
डुबे हुओं से मत ऊबना।
इतनी सारी यादों में डूबते-उतराते, सड़क पर अपनी सैंट्रो सुन्दरी चलाते हम तिवारी स्वीट्स हाउस पहुंचे। घर के लिये जलेबी- दही तौलवाई। अपने हिस्से की वहीं बैठकर खाई। इसके बाद दुलकी चाल से चाल से चलते हुये घर आ गये।
अब सारी यादों को तसल्ली से दोहराते हुये यह पोस्ट लिख रहे हैं। अगर हिचकी आये, तो खुद को हमारे द्वारा या अपने किसी अजीज के द्वारा याद किया हुआ समझना। दुष्यन्त कुमार की इस कविता को खास अपने लिये लिखा हुआ समझना:
"जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।"

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खड़खड़ों, खम्भे और पेड़ का गार्ड ऑफ ऑनर

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पंकज बाजपेई अपने साज-सामान के साथ


सुबह निकलते-निकलते नौ बज गये आज। जलेबी-दही लाने का आदेश हुआ। घर में कन्या खिलाई जानी थीं। लौटने की समय-सीमा तय नहीं की गयी थी। सो सोचा पंकज बाजपेई जी से भी मिलते आयेंगे।

जाते समय ’तिवारी स्वीट्स हाउस’ रुके। सोचा पहले जलेबी पक्की कर लें। बाहर एक 100 नंबर वाली गाड़ी भी किनारे खड़ी थी। नाली की तरफ़ मुंह किये। लेकिन टुन्न टाइप नहीं थी। चुस्त-चौकस खड़ी थी। 100 नम्बर की गाड़ी मतलब पुलिस की गाड़ी । मतलब कानून व्यवस्था का वाहन।
कानून की गाड़ी को देखकर लगा कि इस गाड़ी के आगे-पीछे भी कईयो गाड़ियां कसी गई होंगी। असेम्बली में कईयों के पुर्जे एक ही ट्रे में साथ-साथ, ऊपर-नीचे लुढकते-पुढकते आये होंगे। कोई पुर्जा लगते-लगते हाथ से छिटक गया होगा। कईयों पुर्जे एक ही भट्टी में गलकर बने होंगे। आगे-पीछे बनी गाड़ियां असेम्बली लाइन से निकलकर अलग-अलग हो गयीं होगी। अलग-अलग बिक गयी होंगी। यह 100 नम्बर में लगी है। क्या पता इसके आगे वाली किसी टैक्सी स्टैन्ड में लगी हो, पीछे वाली दहेज में गई हो, उसके पीछे वाली में तस्करी का माल आर-पार हो रहा हो। मतलब कुछ भी हो सकता है। एक ही स्कूल में पढे लड़के जैसे अलग-अलग फ़ितरत के साथ आगे बढते हैं वैसे ही गाड़ियों के भी हाल। मतलब गाड़ी और इंसान की एक सरीखी नियति।
'तिवारी स्वीट हाउस' वालों ने बताया कि जलेबी दोपहर तक मिलेगी। आराम से आयें। हम 100 ग्राम जलेबी पंकज बाजपेयी के लिये तौलवा के चल दिये। 34 रुपये की पड़ी। रास्ते में आगे एक मंदिर के सामने पूजा-पाठ फ़ुल जोर दारी से हो रहा था।
पंकज भाई अपने ठीहे से नदारद थे। लगा कि वापस चले गये होंगे। गाड़ी किनारे ठढिया के उनके बारे में पास की दुकान से दरियाफ़्त करने की सोच ही रहे थे कि सामने से हिलते-डुलते नमूदार हुये पंकज भाई। देखते ही बोले-’ तुम आ गये। बहुत दिन बाद आये।’ साथ में- ’चिन्ता मत करना। हम हैं न!’ कहते हुये फ़िर-फ़िर कहते रहे- ’तुम आ गये। बहुत दिन बाद आये।’
इसके साथ ही पैर छूने वाली मुद्रा में हाथ से जमीन की तरफ़ इशारा करते हुये 45 डिग्री का कोण बनाया।
हमने पूछा - ’ अच्छा हमारा नाम तो बताओ। पिछली बार याद कराया था। कह रहे थे अबकी याद रखेंगे। भूलेंगे नहीं।’
नाम की बात कई नाम कयास करते हुये बोले उन्होंने- सुधीर, संतोष आदि। सब नाम तीन अक्षर के। हमने कहा -’अ से है नाम। भूल गये।’
फ़िर कई नाम अनुमान लगाते हुये बोले- ’अशोक, अनिल, अमित .. और भी कई नाम।’
हमने फ़िर हिंट दी - ’अ’ के बाद ’न’ आता है।
बोले- ’अनुपम।’
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, वृक्ष, आकाश और बाहर
खड़खड़े, खंभे और इमली का पेड़ सब सूरज भाई को सलामी देते हुए
हमने बताया तो कई बार दोहराते हुये बोले- ’अनूप, अनूप., अनूप...’। साथ ही कहा-’ अब याद रखेंगे। भूलेंगे नहीं।’
हमने बताया -’ पिछली बार जो लाये थे खाने के लिये वही लाये हैं। याद है पिछली बार क्या लाये थे?’
बोले- ’जलेबी, दही।’
मतलब खाने की चीज याद थी। उनको निकालकर दी तो झोले में धर ली। बोले - ’घर में जाकर आराम से खायेंगे।’
हमने पूछा -’चाय पियोगे?’
बोले- ’चाय अभी पी है। बाद में पियेंगे। अभी समोसा खिलाओ।’
समोसे की दुकान से दो समोसे लिये गये। दो नहीं तीन। एक अपने लिये दो उनके लिये। 15 रुपये में। हमने तो वहीं खड़े होकर खाना शुरु कर दिया। उन्होंने समोसे भी धर लिये। बोले -’घर जाकर खायेंगे।’
आज की ड्रेस में उनके कोट नहीं था। हल्का अंगरखा टाइप या ज्यादा ठीक होगा सलूका टाइप परिधान धारण किये थे। बताया कि नहाकर आये हैं। पता नहीं किस बात पर बोले-’ भाभी बहुत सफ़ाई पसन्द हैं। उनको हमारा चरण स्पर्श कहना।’
हमने पूछा - कौन भाभी?’ तो उन्होंने मेरी पत्नी के बारे में बताया। हमने सोचा कि यह कैसे पता कि वो सफ़ाई पसन्द है? बोले-’ हमको पता है।’
हमने कहा-’ आज तुम्हारे घर चलें?’
बोले- ’आज नहीं फ़िर चलना। अभी मामी हैं नहीं घर पर।’
चलते हुये हमने फ़िर पूछा -’चलो चाय पीते हैं।’
बोले-’ अभी नहीं अब शाम को पियेंगे। तुम हमको पैसे दे देव। हम पी लेंगे।’
हमने पूछा-’ कित्ते पैसे ?’
बोले- ’10 रुपये।’
इसके बाद हम चलने को हुये। वो भी चल दिये। गाड़ी मोड़कर लाये तो वे फ़िर अपने डिवाइडर सिंहासन पर आरूढ हो गये थे। हमने पूछा -’गये नहीं अभी तक?’
बोले- ’जायेंगे। अभी थोड़ी देर में।’
हमने अपने को हड़काया कि 100 ग्राम जलेबी, समोसा और एक चाय पर किसी इंसान के उठने-बैठने पर सवाल करने का हक समझने लगे तुम? आदमी हो या किसी युनिवर्सिटी के वीसी जो बच्चों के रोजमर्रा के जीवन पर फ़तवा देना अपना हक समझता है।
बहरहाल हम वापस लौट लिये। एक जगह पेट्रोल भरवाया। पेट्रोल वाले को चाबी देते हुये सामने खड़े खड़खड़ों की फ़ोटो खैंचने लगे। खलखड़े तोप की सलामी मुद्रा में खड़े थे। उनकी देखादेखी एक खम्भा भी झुककर खड़खड़ों जितना ही झुक सा गया था। इसके बाद देखा तो बगल का इमली का पेड़ भी वैसा ही खड़ा दिखा। मतलब पूरी कायनात एक तरह सी झुकी खड़ी थी। ऐसा लग रहा था कि सब मिलकर सूरज भाई को गार्ड ऑफ ऑनर सरीखा दे रहे हों।
घोड़े इस सब से निर्लिप्त आपस में हिनहिनाते, टांगे हिलाते वार्मअप टाइप करते खड़े थे। एकाध ने खड़े-खड़े जमीन पर लीद भी कर दी। अब जमीन पर लीद न करें तो कहां करें? उनके लिये अभी कहीं सुलभ शौचालय बने हैं न कहीं 'घोड़ा शौचालय' मल्लब 'हॉर्स टॉयलेट'।
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सड़क की तारकोल कार्पेट पर क्रिकेट मैच
फोटो लेकर फुरसत हुए तब तक देखा 150 से ऊपर का पेट्रोल टँकी में घुस चुका था। हमने सोचा इत्ती जल्ली कैसे इत्त्ता पेट्रोल घुस गया। न तो हमारी टँकी कोई सरकारी पार्टी है और न ही पेट्रोल कोई राजनेता जिसको हमारी टँकी में घुसने की हड़बड़ी हो। पूछने पर पम्प वाले ने बताया -'आप फोटो खैंच रहे थे। हमने दाब दिया।' हमने सोचा ठीक ही किय्या।
आगे एक बन्द मिल की चिमनी और उसके पास आज समाचार पत्र का दफ़्तर दिखा। दोनों को एक साथ देखकर कैप्शन उभरा -
’मिल की चिमनी और शहर का अखबार,
कभी ये दोनों आग उगलते थे यार।’
कैप्शन के उभरने के बाद सोचा उनका फ़ोटो भी लिया जाये। कई कोशिश के बाद फ़ोटो आया। मिल तो आ जा रही थी लेकिन अखबार का नाम हर बार दांये-बायें हो जा रहा था। जिस तरह मीड़िया जरूरी खबरों को गैरजरूरी हल्ले की आड़ में छिपाकर उनसे अवाम का ध्यान बंटाता है ऐसे ही अखबार के पास का पेड़ अखबार का नाम छिपा रहा था।
लाटूस रोड के दोनों तरफ़ कई बच्चों की टोलियां सड़क पर अद्धे-गुम्मे के विकेट बनाये सड़किया क्रिकेट खेल रहे थे। टेनिस की गेंद के धुर्रे उड़े हुये थे। बूढी गेंद गेंदबाज के हाथ से सीधी निकलने के बावजूद सड़क पर टप्पे खाते हुये अपने आप वाइड हो जा रही थी। शॉट मारने के लिये उठे बल्ले को गच्चा देते हुये विकेट के पीछे चली जा रही थी। क्या पता बाद में कहती हो- ’ किस्मत अच्छी थी, बैट-बैट बची।’
आगे पुराना मकान देखा जिसमें छत पर हवाई जहाज बनाया हुआ है। जहाज के पंखे हिल रहे थे। हम बचपन में गांधीनगर से चौक अपनी बुआ के घर आते-जाते इस जहाज को कौतुक से देखते थे। सोचते थे कि यह जहाज कैसे छत पर उतरा होगा।
थोड़ा आगे चलकर अपन मूलगंज चौराहे पहुंच गये। वहां गाड़ी एक किनारे खड़ी करके चौराहे के नजारे लेने लगे।

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कालजयी उपन्यास चित्रलेखा - एक अजीब ऊब-सी का उत्पाद


कानपुर में मेरे मित्र श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन थे, निहायत औला-मौला आदमी। एक दिन कानपुर में उन्होंने कौशिकजी की मंडली में अनातोल फ़्रांस के ’थाया’ उपन्यास की बड़ी तारीफ़ की। तो जब मैं हमीरपुर पहुंचा तो वहां श्री भडकांकर कलेक्टर थे- इन्दौर की सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती कमलाबाई के दामाद। श्रीमती कमलाबाई मेरी कविताओं से बड़ी प्रभावित थीं, तो उन्हीं के रिश्ते से मैं मिस्टर भडकांकर से मिला। कुछ रूखे से सहृदय आदमी, वह मुझे मानने लगे। उनकी एक निजी लाइब्रेरी थी। उस लाइब्रेरी में ’थाया’ उपन्यास की एक प्रति मुझे दिख गई, तो मैं उसे ले आया। मैं उसे आद्योपांत पढ भी गया और पढने के बाद मुझे लगा कि वह उतना महान उपन्यास नहीं है जितना नवीन ने बतलाया था। मैं भी वैसा उपन्यास लिख सकता हूं।
तो मैं हमीरपुर में सुबह अपने आफ़िस में बैठा। मेरे मुंशी मुवक्किल फ़ंसाने के लिये बाजार में निकल गये थे। एक अजीब ऊब-सी अनुभव कर रहा था। एकाएक सर को झटका दिया। वहीं बाजार से दो आने की एक कॉपी खरीद लाया, और उसमें मैंने लिखा- श्वेतांक ने पूछा , और पाप?"
उस समय मुझे क्या पता था कि मैं एक क्लासिक का श्रीगणेश कर रहा हूं। मैंने ’चित्रलेखा’ को लिखना आरम्भ कर दिया। उस उपन्यास को पूरा करने में मुझे दो वर्ष लगे। उन दो वर्षों में मैं कितना भटका, कितना घूमा इसकी अलग कहानी है।
भगवती चरण वर्मा के आत्मकथात्मक उपन्यास ’धुप्पल’ से।
* चित्रलेखा उपन्यास की शुरुआत करते समय भगवती चरण वर्मा की उमर थी कुल जमा 27 साल। पूरा करते 29 साल हो गयी होगी। आपको भी अगर कभी ऊब-सी महसूस हो तो इसको एक कालजयी सृजन का संकेत मानिये और कुछ लिखना शुरु कर दीजिये।
इसी बात पर अपने लेख- ’बोरियत जो न कराये’ का यह वाक्य याद आ गया-"दुनिया में जो भी होता है सब बोरियत से बचने के लिये होता है।" लेख का लिंक कमेंट बक्से में।’

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214025567446714

भगवतीचरण वर्मा अपने आत्मकथात्मक उपन्यास 'धुप्पल' में


मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा यह है कि विश्व के अमर सहित्यकारों में मेरी गणना हो। तो अपने जीवन काल मे यह होता दिखाई नहीं देता। विश्व-साहित्य के संदर्भ में हिंदी-साहित्य नगण्य समझा जाता है। वैसे न तो वह नगण्य है न अन्य साहित्यों से नीचा है। लेकिन हम भारतवासी एक विकृति से बुरी तरह ग्रस्त हैं। हमें आत्महंता-योग प्राप्त हुआ है, यानी हम सब आत्मघाती हैं। अपने साहित्य और साहित्यकारों के हमीं सबसे बड़े दुश्मन हैं।
-भगवती चरण वर्मा अपने आतकथात्मक उपन्यास 'धुप्पल' में