Thursday, December 31, 2020

मेहनत करने वाले के लिए काम की कमी नहीं होती

 

कल सोबरन लाल मिले। सड़क किनारे फ़सक्का मारे बैठे। तसले में वाल पुट्टी घोल रहे थे। घोल रहे थे , मिला रहे थे। वाल पुट्टी दीवार पर लगाई जाएगी। दीवार चिकनी होने के बाद पेंट होगा। इमारत चमकेगी। सोबरन लाल अपने खुरदुरे हाथों से पुट्टी तैयार कर रहे थे। हर चकमती इमारत के पीछे खुरदुरे हाथों की मेहनत लगी होती है।
52 साल के सोबरन ने सालों पहले पुताई, पुट्टी का काम शुरू किया। पहली बार 20 रुपये मिली थी दिहाड़ी। आज 400 रुपये मिलते हैं। लेकिन 20 रुपये की दिहाड़ी की याद ज्यादा खुशनुमा है। उस समय सवा रुपये का पांच किलो गुड़ मिलता था। आज चालीस रुपये किलो है। मतलब मंहगाई बढ़ी 160 गुना जबकि तनख्वाह बढ़ी 20 गुना।
दिहाड़ी और मंहगाई के आंकड़े हो सकता है कुछ गड़बड़ हो लेकिन एक कामगार को अपनी तरह से समय को देखने की आजादी पर कौन अंकुश लगा सकता है।
तीन बेटियों और दो बेटों के पिता सोबरन दो लड़कियों की शादी कर चुके हैं। एक की करनी है। बेटियां मजे में है। बेटे भी काम करते हैं। तीन टिफिन बनते हैं सुबह। सब निकलते हैं काम पर।
'काम की कमी नहीं। काम हमेशा मिल जाता है। मेहनत से काम करने वाले को काम की कमी कभी नहीं होती।'- पुट्टी घोलते हुए बयान जारी किया सोबरन ने।
ऊंचाई पर काम करने के हिसाब से सर पर हेलमेट धारण किये पुट्टी घोल रहे सोबरन लाल ने बताया -'6-7 लड़को को काम सिखाया है। कोई फेल नहीं कर सकता उनको काम में। बहुत मानते हैं हमको। कोई काम को मना नहीं कर सकते।'
साथ में काम करने वाले रामकीरत 28 साल के हैं।
'पिता पल्लेदारी करते थे। बुजुर्ग हो गए तो घर बैठा दिया कि अब आराम करो। हम करेंगे काम।'-बताया रामकीरत ने।
दो भाई हैं रामकीरत के। एक पिता की जगह पल्लेदारी करता है कोल्ड स्टोरेज में। दूसरा टाइलिंग का काम करता है। दिन भर काम करते हैं। आठ घण्टे। काम मिल जाता है। घर चल जाता है। दो बच्चे हैं।
पास के गांव में रहते हैं। जमीन जायदाद कोई नहीं। दोनों के बुजुर्गों ने बताया कि पुराने समय में लिखाने के लिए एक रुपया घूस मांगी थी। जिन्होंने दे दी उनके नाम जमीन लिखा दी। हमारे बुजुर्ग नहीं दे पाए, नहीं लिखा पाये।
खाना घर का लाते हैं। चाय यहीं के लोग पिला देते हैं। कोई मीटिंग होती है तो चाय बनती है। उसी समय मिल जाती है।
दुनिया का कारोबार चलते रहने के लिए काम चलता रहना चाहिए, मीटिंग होती रहनी चाहिए। चाय बनती रहनी चाहिए। पी जाती रहनी चाहिए।
उसी समय उनके मुंशी साइकिल पर आए। उतरकर एड़ी मिलाकर फौजी अंदाज में नमस्ते किया। बताया उनके पिता फैक्ट्री में ही काम करते। नाम बताया। पहचान के रूप में बताया-' कान में कुंडल पहनते थे। उनके बाबा ने पहनाए थे।'
हर इंसान के पास कितना कुछ होता है साझा करने को। सुनने वाले चाहिए।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221425590922676

Tuesday, December 29, 2020

डेढ़ रुपये का कुल्हड़ दस रुपये की चाय


सड़क पर झगड़ते जोड़े को वहां के जमावड़े के हवाले छोड़कर हम आगे बढ़े। चौराहे पर दिहाड़ी मजदूर जमा थे। अपने खरीददार के इंतजार में। समय के साथ दिहाड़ी मजदूरों की संख्या बढ़ी है। कोरोना काल में काम और भी कम हुआ है। तमाम लोगों के काम छूट गए हैं। लोगों के पास काम नहीं है। कभी लोगों को काम देने वाले खुद अपने लिए काम की तलाश में हैं।
दिहाड़ी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भले ही तय हो लेकिन उनको मिलने वाले पैसे दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं। लोग झख मारकर कम पैसे में ही काम करने पर मजबूर हैं। अंसार कम्बरी जी कहते हैं:
अब तो बाजार में आ गए हैं कम्बरी,
अपनी कीमत को हम और कम क्या करें?
चौराहे के आगे पंकज की दुकान थी। सोचा देखा जाए। देखा तो दुकान नदारद। शंकर बैंड का बोर्ड भी नदारद था। बाद में सड़क पार एक चाय का खोखा दिखा। एस बैंक का स्टिकर लगा था। लेकिन कोई था नहीं दुकान पर। सुबह के समय चाय की दुकान पर कोई न दिखे तो अटपटा लगता है।
कुछ देर बाद लपकते हुए पंकज आये। मफलर को मुरैठा की तरह बांधे। बोले -'हम याद कर रहे थे आपको। कई इतवार आये नहीं आप। सोचा, शायद न आएं।'
हमने पूछा -'ऐसा क्यों सोचा कि नहीं आएंगे?'
'ऐसे ही।'-पंकज बोले।
थोड़ा इधर-उधर बतियाने के बाद हम बोले -'अब चलते हैं।'
'चाय पीकर जाइये।बढ़िया चाय पिलाते आपको।'- कहते हुए पंकज ने चाय चढ़ा दी।
हम 'अच्छी चाय' के इंतजार में रुक गए। पंकज की अम्मा आ गईं। अपने हाल-चाल सुनाने लगीं। दो दांत बचे हैं। हमने दांत निकलवाकर बत्तीसी लगवाने का सुझाव दिया था पिछली बार तो बोली थीं -'क्या करना दांत का? रोटी दाल मिलती रहे वही बहुत। बस बेटों की शादी हो जाये इसके बाद हमको क्या करना है ?'
बड़े बेटे के चोट लग गयी थी। बताया ठीक हो गई। हमने पूछा -'पंकज के क्या हाल हैं?'
बोली -'आप बताओ। हमारा तो बेटा है। हमारी नजर में अच्छा ही है।'
मां की नजर में उसका बेटा अच्छा ही होता है। हर मां अपने बेटे को चांद समझती है। गीतकार रमेश यादव जी कहते हैं:
राजा का जन्म हुआ था तो
उसकी माता ने चांद कहा
एक भिखमंगे की मां ने भी
अपने बेटे को चांद कहा
दुनिया भर की माताओं से
आशीषें लेकर जिया चांद
ए पीला वासन्तिया चांद।
चाय बनाते पंकज चुपचाप हमारी बात सुनते रहे। इस बीच पंकज की मां ने अपनी समस्या बताते हुए सलाह मांगी।समस्या यह कि उनकी बिटिया के खाते में ढाई लाख रुपये आये हैं आवास योजना से मकान बनवाने के लिए। बैंक वाले रोज तकादा करते हैं कि जमीन के कागजात लाओ, पैसा ले जाओ। अब उनकी बिटिया के नाम जमीन तो है नहीं। पैसा कैसे मिले?
इस समस्या का हमारे पास कोई हल नहीं था। न शायद आगे मिले। लेकिन हमने कहा-'पूछकर बताएंगे।'
बताइए कोई हल है इसका आपके पास। सुझाइये हल -पाइए शुक्रिया के साथ आभार मुफ्त में।
इस बीच चाय बन गयी। सामने पचास कदम की दूरी पर शुक्ला जी फुटपाथ पर खड़े थे। शुक्ला जी फैक्ट्री से रिटायर हैं। बताते हैं कि खुद नहीं पीते थे लेकिन लोगों को तीन पैकेट सिगरेट रोज पिलाते थे। बोलने-सुनने में असमर्थ हैं। लेकिन चुस्त-दुरुस्त।
हमको देखकर शुक्ला जी ने पचास फीट दूर से ही हाथ जोड़कर नमस्ते मारा। हमने भी किया नमस्ते। वे हमसे मिलने आगे बढ़े। फुटपाथ से पैर नीचे रखा। पंजा मुड़ गया। पैर भी। गिरने को हुए लेकिन वहीं बैठकर बच गए। फिर सम्भलकर उठे।
उठने के बाद शुक्ला जी अपने भतीजे को लेकर सड़क पारकर हमसे मिलने आए। भतीजा भयंकर सर्दी में पटरे का जांघिया पहने चाचा की ज्यादती का शिकार हो आया। बोला -'कपड़े धो रहे थे। चाचा पकड़ लाये। हम जा रहे हैं कपड़े धोने। आप बतियाओ।'
बोलने से दिव्यांग शुक्ला जी हां-हूँ करते हुए बतियाये। मुस्कराये। इस बीच एक और रिटायर साथी चले आये।
नए साथी सीताराम जी थे। 2016 में रिटायर हुए। कम्बल सेक्शन से। बेटे दिल्ली में प्राइवेट काम करते हैं। गुजर हो रही है। किसी की नौकरी के बारे में पूछा उन्होंने। बताया 55 नम्बर थे उनके पिछले साल। नौकरी मिल सकती है ? कुछ हो सकता है?
हमने जानकारी दी इस साल 81 नम्बर वाले मृतक आश्रित की नौकरी मिली है। 55 वाले का कोई नम्बर नहीं लगता। आगे कुछ हो तो कह नहीं सकते।
चाय पीकर पैसे देने पर पंकज ने मना किया। हमने जिद की। उसने फिर मना किया। लेकिन फिर पिता के कहने पर ले लिया।
चाय कुल्हड़ में थी। बताया 125 रुपये के सौ कुल्हड़ मिलते हैं। मतलब 1रुपये 25 पैसे का एक। टूट-फूट मिलकर डेढ़ रुपया में पड़ जाता है। कुल्हड़ की चाय दस रुपये में। अच्छी लगी।
गाना सुनाने के लिए कहने पर बताया -'आज गला ठीक नहीं। अगली बार सुनाएंगे। '
हम आगे बढ़ गए।


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221412914485773

Monday, December 28, 2020

सड़क पर घरेलू कहासुनी

 इस बार सुबह तसल्ली से निकले। जाड़े में सुबह बिस्तर छोड़ना, ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति पद छोड़ने से भी कठिन काम है। अब अगले ने छोड़ा न छोड़ा अपना पद वो जाने लेकिन अपन ने बिस्तर छोड़ दिया और निकल लिये।

सर्दी से मुकाबले के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ती है। रात वाले पायजामे के ऊपर जीन्स, स्वेटर के साथ जैकेट का समर्थन, हाथ में दस्ताने, खोपडिया पर गर्म कैप। मोजा , जूता अलग। मतलब पूरा मिनी एस्किमो बालक बनकर निकलना पड़ता है जाड़े में।
एक बार निकल लिए फिर तो लगता है रोज निकलना चाहिए। लेकिन ऐसा हो कहां पाता है।
सुरक्षा पोस्ट पर दरबान तैनात थे। सुबह 6 बजे की ड्यूटी। मतलब घर से 5 बजे चले होंगे। शायद 4 बजे उठे होंगे। कहां ये और कहां हम जो कि आठ बजे निकलने को बहादुरी मान रहे हैं।
रास्ते में साइकिल क्लब के कुछ लोग मिले। पता चला उनका दस बजे का कार्यक्रम है।
सड़क किनारे कुछ लोग अपनी दुकान सजा रहे थे। एक ठेले पर आलू बिना स्वेटर, सलवार बिकने के लिए तैयार हो रहे थे। ठंड में ठिठुर रहे थे। केवल छिलके ओढ़े हुए सर्दी से मुकाबला कर रहे थे। सब आलू गोल थे। विज्ञान भले न पढ़ें हो लेकिन उनको पता था शायद कि जाड़े से बचाव के लिए गोलाकार हो जाना चाहिए। ऊष्मा कम ख़र्च होती है। आलू वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न थे। DrArvind Mishra जी।
आलू की ठेलिया के बगल में ही लिट्टी चोखा वाला दुकान सजा रहा था। मोड़ पर एक बुढ़िया कम्बल ओढ़े अपना कटोरा लिए बैठी थी। उसकी भी दुकान सज गयी थी। जिसको देना हो दे जाए।
टाउनहाल मंदिर के बाहर मांगने वाले चाय पी रहे थे। बतिया रहे थे। कुछ लोग चिलम पी रहे थे। चिलम एक महिला के हाथ में थी। बिना 'अलग निरंजन' कहे वह महिला चिलम पी रही थी। चेहरे पर परम संतुष्टि की सरकार विराजमान थी। बाकी के लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। उनको देखकर लगा चिलमबाज लोग लैंगिंक समानता का उत्कृष्ट उदाहरण होते हैं। कुछ चिलमबाज कह सकते हैं कि लैंगिक भेदभाव मिटाने के लिए चिलम पीना अनिवार्य कर देना चाहिए।
शहीदों की मूर्तियां के पास कुछ बच्चे खेल रहे थे। कम कपड़ो में। एक बच्ची ने दूसरे से चाय बनाने के लिए जाने को कहा। अदरख अपनी जेब से निकाल कर फेंक दी। बच्ची अदरख कैच न कर पाई। मुंह के बल जमीन पर गिरी अदरख। क्या पता चिल्लाई भी हो दर्द के मारे । लेकिन कलयुग में कौन किसकी सुनता है। क्या पता उसको भी किसी ने रहीम जी का दोहा सुना दिया हो:
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखो गोय
सुनि अठिलेंहैं लोग सब, बांट न लैहे कोय।
आगे मोड़ पर मजमा लगा था। एक औरत एक आदमी को कोस रही थी। चिल्लाकर बता रही थी कि वह उसका आदमी है। पीटता है उसको। पीटने के निशान दिखा रही थी सबको। चेहरे पर चेचक का दाग था। उसके बगल की जगह को दिखाते हुए बता रही थी कि यह पीटने का निशान है। निशान न दिख रहा था न किसी को दिलचस्पी थी उसको देखने में। सब लोग उनकी कहा सुनी सुनने में मस्त थे।
आदमी कम्बल ओढ़े था जिसे महिला चिल्लाते हुए खींच रही थी। आदमी ने भी दावा करना शुरू कर दिया कि उसकी औरत उसको पीटती है। देखते-देखते दोनों प्राइम टाइम बहस में शिरकत करने वाले विरोधी पार्टियों के प्रवक्ताओं जैसे एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने लगे। लोग इस लाइव प्रसारण के मजे ले रहे थे।
आदमी का सर जिस तरह घुटा हुआ था उसको देखकर लगा रहा था कि आपरेशन मजनू के तरह उसकी खुपड़िया घोटी गयी हो। कम्बल बार-बार लपेटकर वह सर्दी और बीबी की मार से बचने की कोशिश करता दिखा।
इस बीच औरत ने अपने आदमी पर दूसरी औरत के चक्कर में पड़ने का आरोप भी लगा दिया। आदमी ने हल्के से एतराज किया तो उसने उस औरत पर 2000 रुपये बर्बाद करने का भी आरोप लगा दिया। औरत के चीखकर लगाए आरोपों के जबाब में आदमी की प्रतिरोध की आवाज थोड़ी दबी हुई थी। लोग सहज रूप में औरत की बात मानने को तैयार होते दिखे लेकिन महिला की तेजी के चलते कुछ लोग सहानुभूति के चलते आदमी के साथ हो लिए। एक ने फुसफुसाते हुए कहा भी -'बुढिया बहुत तेज है।'
आदमी अपनी औरत के जबानी हमले को चुपचाप झेलता हुआ खड़ा था। उसके चेहरे से लग रहा था कि कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पा रहा मन की बात। हर कोई कर भी नहीं पाता। उसके अंदाज से यह भी लगा मानो वह बिना कहे ही कह रहा था -'इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।'
अपन थोड़ी देर देखते रहे झगड़ा। मोबाइल निकाल कर फोटो खींचा। कहा-'पुलिस बुला देते हैं।' पुलिस की बात सुनकर महिला ने कहा -'पुलिस न बुलाओ। हम निपटा लेंगे आपस में।' हम निकल लिए आगे।


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221407473789759

Sunday, December 27, 2020

जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये

 

हमारे घर में एक शाम को महफ़िल जमी थी 1994-95 में कभी। उसमें Shahid Razaशाहिद रजा ने कुछ शेर और एक गजल पढी थी। उनको मैंने टेप किया था। संयोग से वे नेट पर भी डाले थे। उनको सुनते हुये कई आवाजें ऐसे भी सुनाई दीं जो अब शान्त हो गयीं। पंखे की आवाज में किये गये इस टेप में शाहजहांपुर के कवि दादा विकल जी की वाह-वाह करती हुयी आवाज भी है जो शहीदों की नगरी शाहजहांपुर के बारे में कहते थे:
पांव के बल मत चलो अपमान होगा,
सर शहीदों के यहां बोये हुये हैं ।
शाहिद रजा के शेर यहां पोस्ट कर रहा हूं। जो लोग वहां उस दिन थे वे उसको महसूस कर सकेंगे और आवाज भी पहचान सकेंगे।
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये
-----------------------------------------------
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड़ आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड़ आये।
हमारी उम्र तो शायद सफर में बीतेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड़ आये।
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड़ आये।
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड़ आये।
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड़ आये।
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड़ गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये।
शाहिद रजा, शाहजहांपुर

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221399816238325

Friday, December 25, 2020

बिस्मिल की शहादत के बाद उनके परिवार की स्थिति

 बिस्मिल के न रहने के बाद उनकी मां का समय कैसे व्यतीत हुआ हुआ, यह जानने के लिए माँ के साथ गोरखपुर जेल में बिस्मिल से मिलने गए क्रांतिकारी दल के शिव वर्मा की डायरी का एक पृष्ठ पढ़ना पर्याप्त होगा। 23 फरवरी, 1946 को उन्होंने लिखा था -

"मां फिर रो पड़ी"
"अशफाक और बिस्मिल का यह शहर कालेज के दिनों में मेरी कल्पना का केंद्र था। फिर क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य बनने के बाद काकोरी मुखबिर की तलाश में काफी दिनों तक इसकी धूल छानता रहा था। अस्तु, यहां जाने पर पहली इच्छा हुई बिस्मिल के मां के पैर छूने की। काफी पूछताछ के बाद पता चला। छोटे से मकान की एक कोठरी में दुनिया की आंखों से अलग वीर प्रसविनी अपने जीवन के अंतिम दिन काट रही है.....
"पास जाकर मैने पैर छुए। आंखों की रोशनी प्रायः समाप्त-सी हो चुकने के कारण पहचाने बिना ही उन्होने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और पूछा, "तुम कौन हो?" क्या उत्तर दूं , कुछ समझ में नहीं आया।
थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर पूछा, "कहां से आये हो बेटा?"
इस बार साहस करके मैने परिचय दिया, गोरखपुर जेल में अपने साथ किसी को ले गईं थीं अपना बेटा बनाकर।" अपनी ओर खींचकर सिर पर हाथ फेरते हुए मां ने पूछा, "तुम वही हो बेटा। कहां थे अब तक। मैं तो तुम्हे बहुत याद करती रही, पर जब तुम्हारा आना एकदम बन्द हो गया तो समझी कि तुम भी कहीं उसी रास्ते पर चले गए।"
मां का दिल भर आया। कितने ही पुराने घावों पर ठेस लगी। अपने अच्छे दिनों की याद, जवान बेटे की जलती हुई चिता की याद और न जाने कितनी यादों से उनके ज्योतिहीन नेत्रों में पानी भर आया। वह रो पड़ीं। बात छेड़ने के लिए मैने पूछा ,"बिस्मिल का छोटा भाई कहां है?"
मुझे क्या पता था कि मेरा प्रश्न उनकी आंखों में बरसात भर लाएगा। वे जोर से रो पड़ीं। बरसो का रुक बांध टूट पड़ा सैलाब बनकर।
कुछ देर बाद अपने को संभालकर उन्होंने कहानी सुनानी शुरू की... आरम्भ में लोगों ने पुलिस के डर से उनके घर आना छोड़ दिया। वृध्द पिता की कोई बंधी आमदनी न थी। कुछ साल वह बेटा बीमार रहा। दवा-इलाज के अभाव में बीमारी जड़ पकड़ती गयी। घर का सब कुछ बिक जाने पर भी इलाज न हो पाया। पथ्य और उपचार के अभाव में तपेदिक का शिकार बनकर एक दिन वह मां को निपूती छोड़कर चला गया।
पिता को कोरी हमदर्दी दिखाने वालों से चिढ़ हो गयी। वे बेहद चिड़चिड़े हो गए। घर का सब कुछ तो बिक ही गया था। अस्तु, फाकों से तंग आकर एक दिन वे भी चले गए, मां को संसार में अनाथ और अकेली छोड़कर। पेट में दो दाना अनाज तो डालना ही था। अस्तु, मकान का एक भाग किराये पर उठाने का निश्चय किया। पुलिस के डर से कोई किरायेदार भी नहीं आया और जब आया तब पुलिस का ही एक आदमी था। लोगों ने बदनाम किया कि मां का सम्पर्क तो पुलिस से हो गया है।
"उनकी दुनिया से बचा हुआ प्रकाश भी चला गया। पुत्र खोया, लाल खोया, अंत में बचा था नाम , सो वह भी चला गया।"
"उनकी आंखों से पानी की धार बहते देखकर मेरे सामने गोरखपुर फांसी की कोठरी घूम गयी। तब मां ने कितनी बहादुरी से बेटे की मृत्यु (फांसी) का सामना किया था। उस दिन समय पर विजय हुई थी मां की और मां पर विजय पाई है समय ने। आघात पर आघात देकर उसने उनके बहादुर हृदय को भी कातर बना दिया है। जिस मां की आंखों के दोनों ही तारे विलीन हो चुके हों उसकी आँखों की ज्योति यदि चली जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। वहां तो रोज ही अंधेरे बादलों से बरसात उमड़ती होगी।
"कैसी है यह दुनिया, मैने सोचा। एक ओर 'बिस्मिल जिंदाबाद' के नारे और चुनाव में वोट लेने के लिए 'बिस्मिल द्वार' का निर्माण और दूसरी ओर उनके घर वालों की परछाई तक से भागना और उनकी निपूती बेवा मां पर बदनामी की मार। एक ओर शहीद परिवार फंड के नाम पर हजारों का चंदा और दूसरी ओर पथ्य और दवा दारू के लिए पैसों के अभाव में बिस्मिल के भाई का टीबी से घुटकर मर जाना। क्या यही है शहीदों का आदर और उनकी पूजा।
फिर आऊंगा मां,कहकर मैं चला गया। , मन पर न जाने कितना बड़ा भार लिए।"
Sudhir Vidyarthi जी की पुस्तक 'मेरे हिस्से का शहर' के
लेख 'एक मां की आंखें' से।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221380770522194

Wednesday, December 23, 2020

पंडित को फांसी, मुझे सिर्फ सजा

 6 अप्रैल, 1927 को हेमिल्टन फैसला सुनाने वाला था। इसलिए एक दिन पहले 5 अप्रैल को जिला जेल लखनऊ के ग्यारह नम्बर बैरक में रात के भोजनोपरांत क्रांतिकारियों ने एक दिलचस्प बैठक आयोजित की। दृश्य अद्भुत था। मृत्यु सामने फांसी का क्रूर फंदा लिए खड़ी थी लेकिन वे सरफरोश खिलखिलाकर हंस रहे थे, अट्टहास कर रहे थर। आदमी होकर मौत से न डरने वाले इन क्रांतिकारियों की एक झलक उस दिन जिस किसी ने देख पाई, वह धन्य हो गया।

........उन्होंने एक अदालत बनाई और एक जज मुकर्रर किया। उस नकली जज से कहा गया कि वह प्रत्येक क्रांतिकारी का जुर्म देखते हुए अपना फैसला दे। वैज्ञानिक यदि किसी ऐसे यंत्र का आविष्कार कर पाते जिससे अतीत की घटनाओं को देखा जा सकता तो मैं एक बार क्रांतिकारियों की बनाई इस अदालत को जरूर देखना चाहता जिसमें वे मौत को अंगूठा दिखाकर मस्ती से झूमते हुए भारतमाता के रंगमंच पर अपना पार्ट अदा कर रहे थे।
पहला नाम आया पं. रामप्रसाद बिस्मिल का। जज ने जुर्म बताते हुए कहा कि वे भारत देश को दयालु ब्रिटिश साम्राज्य से छीनना चाहते थे, इसलिए उन्हें फांसी की सजा दी जाती है।
दूसरा नाम शचीन्द्रनाथ सान्याल का पुकारा गया। सान्याल जी ने जुर्म कबूल करते हुए जज से प्रार्थना की कि उनके प्रति अदालत नर्म रुख अपनाए क्योंकि उनकी गृहस्थी कच्ची है। उनके इस निवेदन को देखते हुए उन्हें काला पानी की सजा दी गयी।
इसी तरह और दूसरे नाम आये और उन पर लगे अभियोगों के आधार पर उन्हें सजाएं दी गई।
सबसे बाद में पुकारा गया ठाकुर रोशनसिंह को। जज ने कहा कि चूंकि आप बमरोली डकैती में शामिल नहीं थे, लेकिन उस स्थान की जानकारी अपने सबको दी, इस कारण आपको पांच साल की सख्त सजा दी जाती है।
रोशनसिंह चिल्लाए-"ओ जज के बच्चे, फैसला सुनाने की तमीज भी है। मैं तो कोदो बेचकर आया हूँ न, जो मुझे पांच साल की सजा सुना रहा है। पंडित(रामप्रसाद बिस्मिल) को फांसी और मुझे सिर्फ सजा। बेवकूफ।"
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
फिर उनमें से किसी ने रोशनसिंह को थोड़ा और छेड़ने की गरज से पीछे से कहा-"जज साहब से निवेदन है कि अदालत की मानहानि के आरोप में ठाकुर साहब को पन्द्रह दिनों की सजा और दी जाए।"
सब लोग हंस पड़े। रोशनसिंह गुस्से में उठकर अपने बिस्तर पर जाकर लेट गए। अदालत भंग हो गई। सभी ने जाकर ठाकुर साहब से माफी मांगी। उम्र में वे सबसे बड़े जो थे। बिस्मिल और दूसरे क्रांतिकारी उनकी बहुत इज्जत करते थे।
'मेरे हिस्से का शहर' -लेखक सुधीर विद्यार्थी से।
क्रांतिकारी ठाकुर रोशनसिंह पर लिखे लेख -जिंदगी जिंदादिली' का अंश।


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221363004638058

Tuesday, December 22, 2020

रामप्रसाद बिस्मिल

 बिस्मिल मैनपुरी केस में फरार रहे। उनका वह समय बहुत कठिनाई भरा रहा। इस मामले में नेता गेंदालाल जी का उन्होंने अपनी आत्मरचना में विस्तार से जिक्र किया है। मैनपुरी के इस मुकदमे में सरकार का बहुत रुपया व्यय हो गया था। कोई बड़ा लीडर हाथ भी न आया, सो सरकार ने सबूत की कमजोरी के चलते आम माफी की घोषणा कर दी।

राजकीय घोषणा के पश्चात बिस्मिल शाहजहांपुर आये। उस समय तक एक क्रांतिकारी के रूप में लोग उनका नाम जानने लगे थे। यहां शहर में वे आये तब उनके लिए सब कुछ बदला हुआ था। उन्होंने लिखा है-"कोई पास तक खड़े होने का साहस न करता था। जिसके पास मैं जाकर खड़ा हो जाता था , वह नमस्ते कर चल देता था। पुलिस का बड़ा प्रकोप था। प्रत्येक समय वह छाया की भांति पीछे-पीछे फिरा करती थी। इस प्रकार का जीवन कब तक व्यतीत किया जाए। मैंने कपड़ा बुनने का काम सीखना आरम्भ किया। जुलाहे बड़ा कष्ट देते थे। कोई काम सिखाना नहीं चाहता था। बड़ी कठिनाई से मैने कुछ काम सीखा। उसी समय एक कारखाने में मैनेजरी का स्थान खाली हुआ। मैंने उसी स्थान के लिए प्रयत्न किया। मुझसे पांच सौ रुपये की जमानत मांगी गई। मेरी दशा बड़ी सोचनीय थी। तीन-तीन दिवस तक भोजन प्राप्त नहीं होता था, क्योंकि मैंने प्रतिज्ञा की थी कि किसी से कुछ सहायता न लूंगा। पिताजी से बिना कुछ कहे मैं चला आया था। मैं पांच सौ रुपये कहां से लाता। मैंने एक दो मित्रों से केवल दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मेरे हृदय पर वज्रपात हुआ। संसार अंधकारमय दिखाई देता था। पर बाद को एक मित्र की कृपा से नौकरी मिल गयी। अब अवस्था कुछ सुधरी। मैं भी सभ्य पुरुषों की तरह जीवन व्यतीत करने लगा। मेरे पास भी चार पैसे हो गए। वे ही मित्र, जिनसे मैंने दो सौ रुपये जमानत देने की प्रार्थना की थी, अब मेरे पास चार-चार हजार रुपयों की थैली, अपनी बन्दूक , लाइसेंस सब डाल जाते थे कि मेरे यहाँ उनकी वस्तुएं सुरक्षित रहेंगी। समय के इस फेर को देखकर मुझे हंसी आती थी।"
सुधीर विद्यार्थी की किताब -'मेरे हिस्से का शहर' से।
प्रकाशक -प्रतिमान प्रकाशन, सदर बाजार, शाहजहाँपुर -242001
फोन: 05842 223754


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221357084170050

Monday, December 21, 2020

सुधीर विद्यार्थी जी से मुलाकात

 पिछले शनिवार को अभिव्यक्ति नाट्य मंच द्वारा काकोरी एक्शन के महानायकों की याद में सातवां रंग महोत्सव आयोजित किया गया। कोरोना के चलते तीन दिन का कार्यक्रम एक दिन में सिमट गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी और नाटक होना था। विचार गोष्ठी में शाहजहांपुर के रंगमंच और क्रांतिकारी आंदोलन पर बातचीत होनी थी। डॉ सुरेश मिश्र शाहजहांपुर के सदाबहार संचालक हैं। उन्होंने शाहजहांपुर के रंगमंच पर रोचक व्याख्यान दिया। डॉ प्रशान्त अग्निहोत्री साझी शहादत-साझी विरासत पर अच्छी बात की। पत्रकार कुलदीप दीपक जी ने क्रांतिकारी आन्दोलन और काकोरी काण्ड पर अपने विचार रखे। इसके बाद सुधीर विद्यार्थी जी ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन की भूमिका पर विस्तार से बात की।

सुधीर विद्यार्थी जी के नाम और काम से तो परिचय बहुत पुराना है। लेकिन मुलाकात पहली बार हुई। आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले क्रांतिकारियों के बारे जितना विपुल लेखन सुधीर विद्यार्थी जी ने किया उतना शायद किसी अन्य लेखक ने अकेले नहीं किया होगा। अब तक लगभग ३५ किताबें लिख चुके हैं विभिन्न क्रांतिकारियों के नाम। बहुत बड़ा काम है। विपुल काम। नौकरी करते, कर्मचारी-मजदूर आन्दोलन में सक्रिय भागेदारी करते, कई मुकदमें और यातनायें झेलते, व्यक्तिगत जीवन में पहले कम उम्र के बेटे और फ़िर पत्नी को खो देने के बावजूद निरन्तर इतना लेखन बिना अद्भुत जिजीविषा और जुनून के संभव नहीं। सुधीर विद्यार्थी जी को सुनने का लालच ही था कि ,शनिवार के दोपहर के बाद की नींद, जो कि मेरी सबसे प्यारी नींद है, को त्याग कर गोष्ठी में पहुंचा। उनको सुनकर लगा सौदा घाटे का नहीं रहा।
सुधीर विद्यार्थी जी ने लगभग घंटे भर की बातचीत में भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन पर बातचीत की। काकोरी के शहीदों पर बातचीत करते हुये उन्होंने कहा –’इतिहास बनता है समझदारी से, इतिहास बनता है बड़े लक्ष्य से और इतिहास बनता है कुर्बानी के जज्बे से।’ अशफ़ाक उल्ला , बिस्मिल , चन्द्रशेखर आजाद, मैनपुरी काण्ड, भगतसिंह आदि अनेक व्यक्तियों , घटनाओं का उल्लेख करते हुये अपनी बात कही विद्यार्थी जी ने। मैनपुरी काण्ड के क्रान्तिकारी भारतीय जी का उल्लेख करते हुये उन्होंने बताया –’देशबन्धु चितरंजन दास,जो कि उनके भारतीय जी के वकील थे जब उनसे पूछा इस समय तुम कितनी शक्ति और सामर्थ्य रखते हो? इस पर भारतीय जी ने कहा –’ सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप कहें तो आज रात मैनपुरी जेल उड़ा दें और बताइये तो मैनपुरी शहर उड़ा दें।’
शहरों में भले ही क्रान्तिकारियों की मूर्तियां बढ़ रही हैं लेकिन क्रांतिचेतना दिन पर दिन कम होती जा रही है। शहीद होने पर उनकी जयकार करने वाले समाज में उनको जिन्दा रहते सहयोग न करने की बात का बिस्मिल की आत्मकथा के हवाले से जिक्र करते हुये विद्यार्थी जी ने बताया-’ मैनपुरी काण्ड के बाद आम माफ़ी मिलने पर लोग बिस्मिल को देखकर मुंह फ़ेर लेते थे कि कहीं कोई उनसे बात करते न देख ले।’
क्रांतिकारी चेतना के प्रसार के लिए सुधीर विद्यार्थी शहरों में जगह-जगह मूर्तियां लगवाने की बजाय क्रांतिकारियों की जीवनी और उनका लिखा विचार साहित्य छपवाना और वितरित करवाना बेहतर मानते हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल से प्रभावित तुर्की के शासक कमाल पाशा ने तुर्की में बिस्मिल शहर बसाया इसका भी जिक्र विस्तार से किया सुधीर जी ने।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला की क्रांति चेतना पर बात करते हुये उन्होंने बताया-’दोनों अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने धर्म के कट्टर अनुयायी थे लेकिन अपने धर्मों की बन्दिशों का अतिक्रमण किया दोनों ने। क्रांति चेतना रूढियों को तोड़ती है।
इसी रूढि को सुधीर जी ने अपने नाम के मामले में तोड़ा। उनकी अम्मा ने एक छोटी कहानी में ’सुधीर’ नामक आज्ञाकारी , शिक्षा में तेज और सुशील लड़के के बारे में वही नाम रख दिया। लेकिन सुधीर जी उसका उल्टा साबित हुये ( जैसा उन्होंने बताया) न पढ़ने में मन लगा, न ही मां-बाप की आज्ञा मानी और लेखन जैसे निकृष्ट (?) काम में जा लगे।
क्रांतिकारियों के नाम का मनगढंत किस्सों के जरिये शातिराना उपयोग के भी किस्से सुनाये विद्यार्थी जी ने। इंकलाब विरोधी लोग इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगा रहे हैं। भगतसिंह के हैट को बिस्मिल से मिला बताया जा रहा है। भगतसिंह को सरदार बनाया जा रहा है। क्रांतिकारियों से जुड़ी हुई चीजों का अपहरण करते हुये उनको नष्ट करने की कोशिशे हो रहे हैं। भगतसिंह को सिखों तक सीमित करने की कोशिश हो रही है। ऐसे ही किसी समारोह में विद्यार्थी जी ने कहा था-“ भगतसिंह का कद इतना ऊंचा है कि दुनिया की कोई पगड़ी उनके सर पर फ़िट नहीं होगी( भगतसिंह को किसी मजहब ,देश तक सीमित नहीं किया जा सकता)।
क्रांतिकारियों के बारे में मनगढंत बातें जोड़तोड़ कर प्रचारित करने के पीछे की मंशा यह है कि क्रांतिकारी चेतना को नखदंत हीन करके नष्ट किया जा सके।
देश की आजादी और क्रान्तिचेतना बनाये रखने के लिये अपने इतिहास का अध्ययन जरूरी है। अपने समाज का इतिहास जाने बगैर आगे का रास्ता नहीं तय किया जा सकता।
सुधीर विद्यार्थी जी ने हालांकि अनमने मन से बोलने की बात कही लेकिन उनको सुनते हुये ऐसा कहीं नहीं लगा। एक घंटा कब बीत गया , पता नहीं चला।
शाहजहांपुर कर्मभूमि रही है सुधीर जी की। यहां से चले भले गये लेकिन शहर उनके खून में धड़कता है। इसका जिक्र करते हुये बताया उन्होंने कि बरेली से लखनऊ जाते हुये तिलहर से ट्रेन गुजरती तो लगता कि अब शाहजहांपुर आने वाला है, उतरना है। इसीतरह लखनऊ से बरेली लौटते हुये ट्रेन के रोजा पहुंचते ही उतरने को हो जाते।
विपुल लेखन वाले सुधीर जी जीवन में विकट अनुभव रहे। अकेले जिस तरह तमाम परेशानियों से जूझते हुये इतना बिना विक्षिप्त हुये इतना सृजन कर पाना अद्भुत है। धुन के पक्के विद्यार्थी जी ने कुछ दिन पहले ही बरेली में वीरेन डंगवाल की प्रतिमा स्थापित करवायी। उसका जिक्र करते हुये उन्होंने कुछ लोगों के बौनेपन के किस्से भी सुनाये। उन लोगों की उदासीनता के बारे में भी जिन पर वीरेन जी ने कवितायें भी लिखी थीं।
क्रांतिकारी लेखन की शुरुआत कैसे हुई इसका जिक्र करते हुये उन्होंने बताया –’अम्मा के लिये पान तम्बाकू जिस पुडिया में लाये थे वह अखबार का कागज था। उसमें बम और क्रांतिकारियों का जिक्र था। कौतूहल हुआ कि ये क्रांतिकारी कैसे होते हैं। उनके मिलने की इच्छा हुई। मिले और फ़िर सिलसिला चल निकला।’
क्रांतिकारी लेखन के अलावा व्यंग्य लेखन भी अद्भुत है सुधीर जी का। शुरुआत खर्चे के लिये पैसे की जरूरत हुई थी। फ़िर खूब लिखा। ’हाशिया’ व्यंग्य संग्रह आया भी। अब व्यंग्य लिखना बन्द कर दिया। व्यंग्य लेखन को जिस तरह नख-दंत-हीन करके छापा जा रहा है उससे अच्छा तो न लिखना ही सही।
कल मुलाकात के दौरान अपनी सुधीर जी ने अपनी किताब ’लौटना कठिन है’ दी मुझे। इसमें एक नवोदय विद्यालय में बच्चों के बीच रचनात्मक लेखन कार्यशाला के दौरान खुद के और बच्चों के डायरी लेखन के अंश हैं। निष्कपट बच्चों ने सुधीर जी के बारे में जो लिखा और जैसे उनके आपसी सम्बन्ध बन गये उससे उनका स्कूल से लौटना कठिन हो गया। आंसू आ गये उनके। एक बच्ची ने लिखा –“मैने पहले दिन आपकी वेशभूषा और आदतों को ध्यान से देखा। आप मुझे काफ़ी संवेदनशील और वास्तविक लेखक लगे। लेकिन आपकी एक आदत बहुत अजीब सी लगी कि आप अपने कन्धे उचकाते हुये बात करते हैं। क्या आपने इसे सुधारने की कोशिश नहीं की। लेकिन फ़िर भी कोशिश कीजियेगा कि इसे सुधार लें।“
कक्षा 9 की छात्रा अपराजिता मिश्रा ने लिखा-“मुझे इसका भी ज्ञान नहीं कि आपकी उपमा किस चांद-तारे, फ़ूलों से करूं। अगर मैं यह मान लूं कि आप कोई फ़ूल हो तो आप कोई साधारण फ़ूल नहीं बल्कि वो फ़ूल हैं जिससे लिपटने के लिये हर भंवरा राजी होगा। हर किसी के लिये आपके लिये अलग-अलग रसधार प्रवाहित होगी। लेकिन मेरी ये धार निष्छल, निष्कपट और स्वतंत्र भावों से आपको अर्पण। यदि मेरी कोई बात आपको बुरी लगे आपको व्यर्थ लगे तो अपनी पुत्री समझकर मुझे क्षमा करें।’
इसी बच्ची ने ’मेरा राजहंस’ पढने के बाद प्रतिक्रिया देते हुये लिखा-’ स्मृतियां तो वस्तु नहीं जिसे किसी कमरे में बन्द कर दिया जाये। परन्तु आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहती हूं। कभी-कभी इंसान को वर्तमान में जी रहे लोगों के लिये एक प्रेरणा बनकर जीना पड़ता है, उन्हें अपने अतीत से हटाना पड़ता है। आप विशाल हृदय वाले हैं जो इतना कष्ट सहकर भी गम की सलवटों को कभी अपने चेहरे पर नहीं आने देते।’
अपने लेखन के बारे में अपनी बात कहते हुये सुधीर जी कहते हैं-“आत्मकथा लिखने का अभी मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरे एजेण्डे पर बहुत काम है इनदिनों । वैसे अब तक जो कुछ लिखा है, वह सब आत्मकथ्य ही तो है मेरा। यद्यपि मेरी जिन्दगी बहुत घटना बहुल और औपन्यासिक ढंग की है, जिसे पिरोया जा सकता है। पर उसके लिये जिस धैर्य की आवश्यकता होती है वह शायद मेरे भीतर अनुपस्थित है। मैंने अब तक जितना लिखा वह बहुत अव्यवस्थित है, लेकिन उत्तेजना भरा है। मैं ठहरकर और सन्तुलित होकर नहीं लिख पाता। जाने क्यों बहुत बेचैन रहता हूं, कलम चलाते वक्त मैं। लेखक से ज्यादा एक्टिविस्ट हूं। वही मुझे अच्छा लगता है।“
सुधीर जी से मुलाकात करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की उपलब्धि। तमाम बाते हुईं। उनको अपने वक्तव्य/बातचीत रिकार्ड करके यू ट्यूब पर अपलोड करके के लिये उकसाया गया जिसे उन्होंने अपनी तकनीकी अज्ञानता के सहारे टालने की कोशिश की। लेकिन बहुत दिन तक शायद टाल न पायें।
सुधीर विद्यार्थी जैसे लोग हमारे समाज की धरोहर हैं। बहुत काम किया है इन्होंने। अभी और न जाने कितना करना है। कर भी रहे हैं। करेंगे भी।
सुधीर विद्यार्थी जी के लिये मन में जितना सम्मान है उससे कई गुना प्यार है। तरल मन के बीहड़ एक्टिवट (सक्रिय लेखक) को बहुत प्यार करने जरूरत है।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221352628138652

Tuesday, December 15, 2020

कहीं का सामान कहीं पर डिलीवरी

 दो-तीन दिन पहले हम घर पर थे। लंच पर आए थे। फोन आया -'आपका कोरियर है।'

हमने पूछा -'किधर हो ? कहां से आया है कोरियर?'
'फैक्ट्री गेट पर हूँ। डीटीडीसी से आया है कोरियर'-उधर से बताया गया।
कुछ किताबें मंगाई थीं। हमने सोचा वही होंगी। कह दिया -'फैक्ट्री गेट पर दे दो।'
कोरियर वाले ने दरबान से बात कराई। हमने कहा -'ये कोरियर ले लो। फैक्ट्री आएंगे तो गेट पर ले लेंगे या मेरे आफिस भेज देना।' नाम नहीं पूछा दरबान का। इसलिए कि नाम अक्सर गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। दूसरे यह तसल्ली भी रहती है हमेशा कि सामान इधर-उधर नहीं होगा। यह सहज विश्वास बनाये रखने के लिए किसको शुक्रिया अदा करूँ , समझ नहीं आता।
शाम को चलते समय कोरियर की याद आई। पूछा -'कोरियर आया होगा। किधर है?'
'कोरियर तो कोई नहीं आया।' -दफ्तर में बताया गया।
हमने कहा-' गेट पर पता करो। दोपहर को आया था। तीन बजे करीब।'
पता चला गेट पर कोई कोरियर नहीं आया । हमने कहा कोरियर वाले से पूछो किसको दिया।
कोरियर वाले को फोन किया तो उसने कहा -'गेट पर दे आये थे। दरबान को।'
इधर कोरियर वाला कह रहा गेट पर दे आये। गेट पर कह रहे कोई कोरियर नहीं आया। तो गया किधर?
बाद में बात खुली कि सामान जबलपुर की व्हीकल फैक्ट्री में डिलीवर हुआ है। फैक्ट्री जहां हम साढ़े चार साल पहले थे (जनवरी 2012 से अप्रैल 2016 तक)। हमको लगा कि किताब आर्डर करते समय जबलपुर का पता डाल दिये होंगे।
फोन किया जबलपुर। गेट पर जिसकी ड्यूटी थी उसने कहा -'ये गेट नम्बर एक है। आपका सामान गेट नम्बर छह पर आया होगा। अभी वह बन्द है। सुबह पता करके बताएंगे।'
हमने कहा -'ठीक है। पता करके बताना।'
इस बीच उस स्टाफ ने यह भी कहा -'आपकी पोस्ट नियमित पढ़ते रहते हैं।'
हमको सुनकर अच्छा लगा। ऐसा अक्सर हमसे लोग कहते हैं। कुछ लोग तो किसी पोस्ट का जिक्र भी करते हैं। इससे लगता है कि सही में लोग पढ़ते हैं भले ही प्रतिक्रिया न व्यक्त करें। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं -'आपकी कविताएं आपके ब्लाग पर पढ़ते रहते हैं। बहुत बढ़िया कविताएं लिखते हैं आप।' हम कविता लिखते नहीं फिर भी लोग पढ़ लेते हैं मेरी कविताएं ऐसे पाठक कितने अच्छे होते हैं। 🙂
बहरहाल अगले दिन पता किया तो मालूम हुआ कि पत्र था फैक्ट्री का। उसमें मेरा फोन नम्बर लिखा था क्योंकि मैं पहले था वहां। इसीलिए कोरियर ने मुझे फोन किया। इसके बाद , इसी बहाने जबलपुर में और लोगों से बात हुई। पुरानी यादें ताजा हुईं।
इस सिलसिले को दुबारा सोचा तो लगा कि कोरियर वाले ने मुझे जबलपुर में ही मानकर फोन किया। मैंने उसे शाजहाँपुर में समझा। इसके बाद मुझे यह भी याद नहीं रहा कि जिस किताब की बुकिंग मैंने की थी वह 15 के बाद डिलीवर होनी है। जबलपुर में भी पता आफिसर्स मेस का दिया होता है। फैक्ट्री का नहीं। बिना कुछ कन्फर्म किये इधर-उधर फोनियाते रहे। सहज विश्वास और अतिआत्मविश्वास के सहज साइड इफेक्ट हैं यह।
यह तो हुई कोरियर की बात। कहीं का सामान कहीं डिलीवर हो जाता है।
दुनिया में भी कुछ ऐसा ही घाल मेल चलता होगा। किसी की मेहनत किसी और के खाते में जमा हो जाती होगी। किसी के हिस्से का दुख किसी दूसरे के खाते में चढ़ जाता होगा। किसी के हिस्से की खुशी का कोरियर कोई दूसरा छुड़ा लेता होगा।
कई बार ऐसा भी होता होगा कि कुछ सुख इसलिए डिलीवर नहीं हो पाते होंगे हमको क्योंकि उनपर पता गलत लिखा होगा होता होगा।
दुनिया को दुरुस्त करने के लिए इसका डिलीवरी सिस्टम ठीक करना होगा। इसके लिए हमको खुद को दुरुस्त करना होगा। पते सही लिखने होंगे और याददाश्त दुरुस्त रखनी होगी। 🙂

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221311744796594

Tuesday, December 08, 2020

सड़क पर ईंट, टट्टर ,शहीद स्तम्भ और बोरा लादे बुजुर्ग

 

मंघई टोला में घुरहू उर्फ़ राजाराम से मुलाक़ात करते हुए लौटे।ज़िंदा रहने के लिए नाम रखा गया घुरहू। बाद में रखा गया राजाराम। मंगतो के मोहल्ले का किस्सा सुनाया उन्होंने। कितना सच होगा, कितना गढ़ा हुआ कहना मुश्किल। लेकिन रोचक। और भी न जाने कितने किस्से होंगे उनके पास सुनाने के लिए। हर इंसान के पास होते हैं। हर व्यक्ति अपने में एक महाआख़्यान होता है।लेकिन सबको बांचने का वक्त हमारे पास नहीं होता।
आगे एक जवान होता एक लड़का सड़क किनारे बैठा चाय पी रहा था| सामने उसका घर था| शायद उसकी बहन उसको चाय और दालमोठ और एक ब्रेड दे गयी थी| गुनगुनी धूप में बैठे नाश्ता करता हुए बच्चे के चेहरे पर जवान होने की ऐंठ भी दिख रही थी- गोया जवान होते हुए वह एहसान कर रहा था| दुबले-पतले , हल्की चेसिस वाले बच्चे के चेहरे से जवानी हल्ला मचाते हुए फूट रही थी|
केरुगंज चौराहे से वापस लौटे| लोग अलग-अलग हो गए। केरुगंज से कोतवाली वाली सड़क से लौटे। शाहजहांपुर शहर में दो मुख्य सड़क हैं। एक सदर , बहादुरगंज, घंटाघर , चौक होते हुए केरुगंज जाती है। दूसरी कचहरी , कोतवाली, जीआईसी , एबिरीच इंटर कालेज होते हुए केरुगंज। रेल की पटरियों की तरह दो समान्तर सड़को पर शहर की रेल गुजरती है। इन सड़कों के आसपास दूसरी भी सड़के जुड़ती हूं, शहर के अंदर जाती हैं , शहर को गुलजार करती हैं।
लौटते हुए एक जगह खड़ी गाड़ी देखी। उसको रोकने के लिए ईंट उसके नीचे रखी गयी होगी। बाद में गाड़ी किनारे हो गयी। लेकिन ईंट वैसे ही रखी रही। साबुत ईंट सड़क पर रखी। अचानक सामने दिखी तो झटके से बगलिया के निकले। जरा सा चूकते तो अगला पहिया ईंट पर चढ़ने की कोशिश में हमको चारो खाने चित्त भले न गिरते लेकिन संतुलन तो गड़बड़ा ही जाता। क्या पता किस कोने गिरते। जमीन से जुड़ जाते या हवा में टँगे रहते।
ईंट पर चढ़कर गिरने से बचकर आगे निकलकर सोचा कि किनारे कर दें ईंट लेकिन सोच पर अमल करें तब तक आगे बढ़ गए थे। एक बार आगे बढ़ने पर कौन लौटता है फिर पीछे। हम भी नहीं लौटे। ईंट पता नहीं अभी वहीं होगी या किनारे हो गयी होगी पता नहीं।
आगे कुछ जगहों काम हो रहा था। बड़े अहातों में सामान रखा था। लोहे के गेट की जगह बांस के टट्टर लगे थे गेट पर। कम खर्चे में सुरक्षा का जुगाड़। फोटो लेने का 'आइडिया' जब आया तब तक हम बीस पैडल आगे बढ़ गए थे। 'आइडिए' को देरी से आने के लिए हमने बहुत तेजी से हड़काया। आइडिया सर झुकाकर खड़ा हो गया। फिर हमसे कुछ कहते नहीं बना।
आगे शहीद स्तम्भ दिखा। आजादी की पहली लड़ाई के शहीदों के सम्मान में बने शहीद स्तम्भ पर तीन शहीदों का उल्लेख है:
1. शायर मुहम्मद हसीं जिया शाहजहाँपुरी को 1857 की क्रान्ति के समर्थन में नज्म लिखने व क्रांतिकारियों की सहायता करने पर सजा-ए-मौत दी गयी। इसके नीचे यह शेर लिखा था:
'रहेगी जब तलक दुनिया यह अफसाना बयाँ होगा
वतन पर जो फ़िदा होगा, अमर वो नौजवां होगा'
2. अहमद यार खां- ब्रिटिश सेना द्वारा जलाबाद में हमला कर झूठे आरोप 28 अप्रैल 1858 में सार्वजनिक रूप से फांसी दी गयी।
3. गुलाम गौस खां (तिलहर) -झांसी की रानी के तोपखाने की रक्षा करते हुए 1857 में शहीद हुए।
शहीदों की याद में बने शहीद स्तम्भ के पास साइकिल खड़ी करके हम कुछ देर खड़े रहे। सामने पुलिस के सिपाही खड़े , टहल रहे थे।हमारे देखते-देखते वहां एक बुजुर्ग एक बोरे को पीठ पर लादे निकले। उनके पीछे एक बाबा टाइप बुजुर्ग उनकी गर्दन पर गन्ने की चुसी हुई चिफुरी घुमा रहा था। पीठ पर बोरा लादे बुजुर्ग गर्दन इधर-उधर करते हुए रुक गए। पीछे बाबाजी मजे लेते रहे। बोरा लादे बुजुर्ग ने जब ठहरकर बाबा बुजुर्ग को देखा तो दोनों हंसने लगे।
पता चला दोनों दोस्त हैं। बुजुर्ग की एक आंख में कुछ कमी है। कम दिखता है। बताया -'डाक्टर को दिखाया था। डॉक्टर बोला -'कोरोना टेस्ट करवाओ। हमारा और साथ वाले का भी। कहाँ से कराते। नहीं कराया। न दिखाई आंख दुबारा। अब ये कोरोना निपटे तब दिखाएंगे आंख। तब तक ऐसे ही काम चल रहा है।'
जिस बेतकुल्लुफी और बेफिक्री से दोनों हंस रहे थे, मजे-ठिठोली कर रहे थे उसको देखकर बहुत अच्छा लगा। लगा कि खुशी किसी साधन की मोहताज नहीं होती। काश हम लोग भी, सब लोग ऐसी निश्चिन्त, निश्च्छल हंसी हंस पाते।
हमको बुजुर्ग से बतियाते देखकर पुलिस वाला टहलता हुआ सड़क पार करके आया। हमको आंखों से टटोलता हुआ बुजुर्ग का बोरा हाथ से टटोला। पूछा -'क्या है इस बोरे में?'
बुजुर्ग ने बताया -'गोभी के पत्ते हैं। गाय के खाने के लिए।'
सिपाही और टटोलने के मूड में था लेकिन बोरे पर जमी धूल को देखकर उसने इरादा बदल दिया। टहलता हुआ वापस सड़क पार करके ड्यूटी बजाने लगा। उसके साथी वहां बैठे अखबार पढ़ रहे थे।
इसके बाद हम खरामा-खरामा चलते हुए घर आ गए। घर हमारा इंतजार कर रहा था।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221264501735547

Monday, December 07, 2020

जली कोठी, गौशाला और मंगतों का मोहल्ला

 

इतवार की सुबह कुछ जल्दी ही हो गयी। हम राजा बाबू बनकर निकल लिये। इस बार गेट पर दरबान ने भी नहीं रोका। हमको थोड़ा खराब लगा -दरबान ने हमारे विश्वास की रक्षा नहीं की। हम खुद ही रुक गये। हाल-चाल पूछा गेट पर तैनात जवानों से। रात भर ड्यूटी करने के बावजूद चेहरा चमक रहा था।
गेट के बाहर सूरज भाई एकदम चमकायमान थे। शपथ ग्रहण के समय सुबह तो लाल कपड़े पहने थे वो बदलकर अब वर्किंग ड्रेस में आ गये थे। सुबह की मुलायमियत गोल हो गयी थी। पीली, गर्म किरणों की बौछार से पूरी धरती को गुनगुना बना रहे थे।
इस बार केरुगंज होते हुए गौशाला तक जाने का प्रोग्राम था। आर्मी गेट से गौशाला जाना और वापस आना मतलब लगभग 20 किलोमीटर।
रास्ता साफ़ था| सुबह सब लोग शांत मोड में थे। पूरी कायनात आहिस्ते-आहिस्ते जगने का मूड बना रही थी। बन्दर लोग अपने कुनबे के साथ अलसाए से बैठे थे। सिपाही अपनी ड्यूटी बजा रहे थे| मंदिर के बाहर भिखारी भी लाइन से जमे हुए थे| शायद सुबह ही आ गए होंगे।
रोड के किनारे नाली में कीचड़ काली बर्फी जैसा जमा था। ऐसा लगा कि चाकू से काटकर कहीं परोसे जाने के इंतज़ार में हो। कीचड़ के परोसे जाने की बात लिखते हुए तनिक अटपटा सा लगा। लेकिन फिर लगा ऐसा होना असंभव भी नहीं। पूरी दुनिया में गुंडे-बदमाश माने जाने लोग जब अपने समाजों के कर्णधार बन रहे हैं तो जमे हुए कीचड़ के बर्फी की तरह बिकने की बात भी संभव हो सकती है। कुछ भी असंभव नहीं। नेपिलियन जी कहे भी हैं –‘असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोष में पाया जाता है।’
किसी बात को असंभव कहकर इंकार करके कौन बेवकूफ अपना नाम बेवकूफों में शामिल करवाना चाहेगा।
सदर, बहादुरगंज होते हुए घंटाघर पार हुए। घंटाघर चौराहे पर पुलिस वाले जीप में तैनात थे। अनजान चौकी के बाहर दो आदमी रोड की सफाई कर रहे थे। बाकी जगहों पर कचरा तसल्ली से आरामफर्मा था|किसकी हिम्मत जो उसको डिस्टर्ब करे।
आगे जली कोठी दिखी। ऐतिहासिक महत्त्व की इस कोठी का सम्बन्ध आजादी के पहले आन्दोलन से है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शाहजहांपुर के अहमद उल्लाह शाह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके कारण अंग्रेजों ने उनका सर काटकर शहर के बीचो-बीच कोतवाली पर बहुत उंचाई पर इसलिए टांग दिया गया था ताकि कोई बगावत करने की हिम्मत न कर सके। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने अग्रेजों का कत्लेआम जारी रखा। कुछ अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों के इस रूप के कारण डरकर घंटाघर रोड पर स्थित एक नबाब की कोठी में शरण ली थी। परन्तु अपने साथी की मौत के कारण उग्र क्रांतिकारियों ने उस कोठी में आग लगा दी जिसमें इस कोठी में छिपे सभी अग्रेजों की मौत हो गयी थी। वह कोठी आज भी जली कोठी के नाम से मशहूर है।
जली कोठी में अंग्रेजों के जलाए जाने की बात सोचकर लगा कि सामूहिक संहार में तमाम मासूम लोग भी कुर्बान हो जाते हैं। जो लोग जल गए होंगे जली कोठी में उनमें से कुछ बिलकुल निर्दोष रहे होंगे। कुछ भले भी होंगे। लेकिन सामूहिक हत्याएं दोषी और निर्दोष देखकर नहीं होती।
आगे का चौक में सुनहरी मस्जिद मिली। पता चला कि नेहरू जी यहां आये थे। भाषण दिया था। सुनहरी मस्जिद के गुम्बद में कंटीले तार लगे हुए थे। शायद गुम्बद में सोना लगा हो। मंहगी इमारतों की यह भी एक त्रासदी होती है। पहले उनको कीमती बनाओ। इसके बाद उनकी सुरक्षा की चिंता करो।
चौक में एक जगह दिहाड़ी मजदूर अपने ग्राहकों का इंतज़ार कर रहे थे। एक चबूतरे पर कुछ वरिष्ठ नागरिक गप्पाष्टक कर रहे थे। शायद अपने बीते समय को याद करते हुए वर्त्तमान को खारिज कर रहे हों।
केरुगंज के आगे एक मोहल्ले होते हुए गौशाला की तरफ चले। पुराने मोहल्ले की गलियां फिसलपट्टी सरीखी थी। ढाल नीचे की तरफ। साइकिल उनपर ब्रेक के सहारे सरपट चली गईं। मोहल्ला पार करके खेत ही खेत दिखे। इधर-उधर गोबर के ढेर। गोबर के कंडे दीवारों पर तसल्ली से सुख रहे थे। खेतों में गन्ने बकैतों की तरह खड़े थे।
आगे गौशाला का गेट का बंद था। गेट पर बोर्ड लगा था – ‘बिना आज्ञा गौशाला में प्रवेश करना सख्त मना है।’ शहर में इधर-उधर रास्तों पर घूमती हुई गायें शायद इसीलिये गौशाला के अन्दर नहीं आ पाती होती होंगी। बोर्ड की सूचना ही देखकर लौट जाती होंगी। आज्ञा के इंतज़ार में शहर की गलियां गुलज़ार करती रहीं।
गौशाला से ज़रा दूर पर हाइवे है। हम राजपथ तक गए| वहां एक बुजुर्ग झाड़ू लगा रहे थे। एक झोले में मशाला के पाउच धरे थे। बताया –‘मशाला बेचते हैं। दो दिन से दूकान लगा रहे हैं। पास के गांव में रहते हैं। कमाई के लिए मशाला बेचना आम बात है। हर अगली दूकान पर मशाला बिकता है। मुंह के कैंसर का बड़ा कारण है मशाला| लेकिन बिक रहा है धक्काड़े से देश भर में। कानपुर से शुरू हुई यह बीमारी देश भर में फ़ैल गयी है।
लौटते हुए एक झोपड़ी के बाहर कुछ बुजुर्ग बैठे थे।धूप सेंकते। बतियाने लगे। मोहल्ले का नाम पूछा तो बताया –‘यह मंगतों का मोहल्ला है। यहां मंगते रहते हैं।’
मंगतो के मोहल्ले की बात से उत्सुकता हुई। बात करने लगे बुजुर्ग से। मोहल्ले के नाम के बारे में पता किया तो बताया –‘ गर्रा नदी यहां से बहती थी। एक दिन राजा साहब नाव पर जा रहे थे। मल्लाह ने बीच नदी में नाव रोक ली। कुछ मांगा। राजा साहब ने गर्रा से खन्नौत तक की जमीन उन मल्लाहों को दे दी। मांग कर बसी जमीन पर बसे होने के कारण मोहल्ला मंगतो का मोहल्ला के नाम से मशहूर हुआ। वैसे मोहल्ले का नाम मंघई टोला लिखा था। क्या पता मांग कर बसे होने के कारण मंगाई टोला नाम पड़ा हो जो बिगड़कर मंघई टोला हो गया हो। क्या पता मांगने वाले मल्लाह का नाम मंघई रहा हो। उनके नाम पर ही मोहल्ले का नाम मंघई टोला पड़ा हो।
बुजुर्गवार बड़े मजे से मजे लेकर किस्से सूना रहे थे। उनका नाम पूछा तो बताया –घुरहू। घुरहू नाम क्यों पड़ा ? यह पूछने पर बताया –‘ पैदा हुए थे तो घूरे में फेंक दिए गए थे। वहीं नाल कटी। इसलिए नाम पड़ा –घुरहू। घूरे पर फेंके जाने का कारण यह कि इसके पहले बच्चे बचते नहीं थे। किसी ने बताया कि घूरे पर फेंक दिया जाए बच्चा तो बच जायगा।'
बिंदास बतियाते बुजुर्ग से जब यही बात कैमरे पर बोलने को कहा तो सकुचा गए। सकुचाते हुए बोले –‘अब तो नाम राजाराम है।’
कैमरा इंसान को असहज बनाता है।
मंघई टोला से निकलकर हम केरुगंज आये| केरुगंज का नाम अब अग्रसेन चौक हो गया है लेकिन लोग कहते इसे केरुगंज ही है| यादों में बसे हुए नाम आसानी से मिटते नहीं| केरुगंज से हम वापस लौट लिए|

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221258805913155