Monday, February 26, 2018

अच्छा व्यवहार किसी के लिए किसी को देवता बना सकता है

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, वृक्ष और बाहर
उठ जाग मुसाफिर भोर भई, सड़क पर जगते लोग ।

सुबह टहलने निकले। पप्पू की दुकान खुल चुकी थी। भगौने में चाय चढ़ी थी। उबलने में देर थी। बन गयी होती तो रुकते शायद।


सामने से अलसाया सांड चला आ रहा था। नींद में चलते हुए आदमी की तरह इधर-उधर होते हुए बगल से निकल गया।
एक आदमी लपकता हुआ सड़क पर अखबार पढ़ते चला जा रहा था। बगल से कुछ देर साथ गुजरते हुए अखबार में खबर दिखी-'बीपीएल परिवारों को मुफ्त रोडवेज सफर।' एक करोड़ परिवारों के मजे।
आगे चलते हुए उस आदमी ने अखबार एक ठेलिये पर रख दिया। हमने पूछा तो बोला - 'सब खबरें बांच चुके। इसलिए रख दिया।' ठेलिया के पास खड़े होकर हमने भी कुछ खबरें बाँची। बांचकर अखबार अगले के लिए धर दिया।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, महासागर, बाहर, प्रकृति और पानी
नदी की सड़क पार करती नाव
एक झोपड़ी के बाहर एक बच्ची गोद में बच्चे को लिए खिला रही यही। पालिथीन के पैकेट से नमकीन लंबी डंडी जैसी नमकीन खिलाती जा रही थी। दूसरी झोपड़ी के पास कुछ लोग आग ताप रहे थे। एक बच्ची झाड़ू लगा रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में ढीली होती झाड़ू को सड़क पर पटककर कसती जा रही थी। मन किया उसका वीडियो बनाकर केजरीवाल को भेज दें। शायद उनको सीख मिले की झाड़ू को कैसा कसकर रखा जाता है।
आगे सड़क पर लोग उठ रहे थे। जागते हुए अंगड़ाई ले रहे थे। एक आदमी रोड़ी के ढेर पर बैठा दातुन कर रहा था। देखते-देखते एक दूसरा आदमी तेजी से झोपड़ी से निकलकर आया और सड़क पर नाक छिड़ककर वापस चला गया।
गंगा किनारे बने घरों के पास से नीचे उतरे। एक बच्ची दूसरी बच्ची को डांटते हुए संभाल रही थी। दूसरी बच्ची वहीं प्लास्टिक के टब की तलहटी तक पहुंचे पानी को हाथ से छूते हुए मुंह धो रही थी।
नीचे गंगा किनारे चलते हुए सूरज भाई को देखा। गुडमार्निंग हुई। सूरज भाई गंगा में उतरकर नहा रहे थे। जिस जगह नहा रहे थे वह जगह आंखों को चौंधिया रही थी। आगे एक जगह सूर्य चालीसा का पन्ना फटा हुआ रेत पर पड़ा था। सूर्य चालीसा पर सूरज की किरणें कबड्डी खेल रहीं थीं।
लौटते हुए सड़क किनारे गोबर के कंडे दिखे। यह ईंधन के रूप में न जाने कब से इस्तेमाल किये जा रहे हैं। एक आदमी गाय दुह रहा था। दूध दुहने के बाद उसने गाय के पीछे के पांव खोल दिये। गाय भी पूंछ हिलाकर इधर-उधर टहलने लगी।
लौटते में गुप्ता जी मिले। खटिया पर बैठे। उनका बेटा बगल में सो रहा था। बताया कि आंख अब ठीक है। सफेद वाला चश्मा लगना है अब।
एक साइकिल वाला पहिया खोलकर पंचर बनाने में जुट गया था।
एक जगह बाप बेटा खेल रहे थे। बच्चा अपने हाथ की उंगलियां मुंह में घुसाए चूस रहा था। बाप ईंट गारे का काम करता है।
पीछे एक बुजुर्ग जागकर बैठ गए थे। एक महिला उनके लिए चाय और एक कागज में रोटी लपेटकर लाई। पता चला यहीं सोते हैं। एक दुकान वाला 300 रुपये और दूसरा 200 रुपये माहिने देते हैं। 200 रुपये घर से नाश्ता भी लाते हैं। देवता जैसे हैं इनके लिए।
200 रुपये , एक समय नाश्ता और अच्छा व्यवहार किसी के लिए किसी को देवता बना सकता है।
इसके अलावा संजय नगर में कई बच्चों को पढ़ाने जाते थे। 30-40 बच्चों तक को पढ़ाते थे। 100 से 200 तक मिल जाते थे। अब कई दिन से जा नहीं पाए। तबियत खराब है। डॉक्टर ने किडनी बताई है। चलना मुश्किल । पास के सुलभ शौचालय तक जाने के लिए रिक्शा करना पड़ता है। 5 रुपये लगते हैं।
हरदोई के रहने वाले हैं बुजुर्गवार। चुन्नीलाल सविता नाम है। दो बच्चे हैं। छोटे ने इंटरकास्ट किया है। वह अपनी माँ को मानता है। बड़ा बाप को मानता है। लेकिन उसका दिमाग खराब है। अपसेट हो गया।
पत्नी शुक्लागंज में रहती है। लेकिन उसने छोड़ दिया चुन्नीलाल को। 12 साल हो गए अलग रहते। एक दिन गए किसी के साथ। बोला चलो मास्टर साहब हम ले चलते हैं। घण्टे भर बैठे रहे घर के बाहर। लेकिन पत्नी ने लौटा दिया। अनपढ़ है पत्नी। चुन्नीलाल 12 पास हैं।
किडनी की आयुर्वेदिक दवा करते हैं। सब पैसे खतम हो गए हैं। अब जाएंगे अस्पताल कमला देवी। बहुत बातें हैं सुनाने को उनके पास। हर आदमी के पास तमाम कुछ होता है सुनाने के लिए । सुनने वाला मिलते ही आदमी खुलता जाता है।
देर हो रही थी दफ्तर के लिए। लौट आये। घर में वही अखबार मिला। रूप की रानी रही नहीं यह खबर सबसे पहले थी। फिर रमानाथ अवस्थी की कविता याद आई:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।

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Sunday, February 25, 2018

पंकज बाजपेयी से मुलाकात

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
चाय का बर्तन थामे पंकज बाजपेयी

पिछले दिनों पंकज बाजपेयी जी से कई बार मुलाकात हुई। इधर वो हाईटेक हुए हैं। पकड़वाने वालों के भी नए नाम जुड़े हैं। पिछली बार मिसाइल ट्रैप करवाने को बोले। बोले - 'वी के मिसरा को पकड़वाईये। वो मिसाइल अटैक करवा देगा। मिसाइल ट्रैप करना जरूरी है।'
एक दिन हाथ बढाकर पैर छूने की मुद्रा में आ गए। जैसे तमाम कनपुरिये हाथ बढाकर पांव छूने का पोज बनाते हैं। अगला आशीष पोज बनाता है। ' प्रणाम पोज' का जबाब 'आशीर्वाद पोज'। न पूरा प्रणाम होता है न ही पूरा आशीर्वाद । बस पोज होते हैं। बहुत बड़ा पोज घोटाला हो रहा है शहर में। सब देख रहे हैं लेकिन बोलता कोई नहीं है क्योंकि शहर के सब बड़े लोग इस पोज घोटाले में शामिल हैं। शहर में इज्जत बचाये रखने के लिए हवाई इज्जत करने वालों और पांव छूने से बचना बहुत जरूरी है। पांव छूने से बचा लिए समझ लो काम भर की इज्जत बच गयी।
बहरहाल जब पंकज बाजपेयी जी ने पांव छूने का पोज बनाया तो हमने मना किया। गले लगाया तो बोले -'मम्मी जी डांटेंगी कि तुम पैर नहीं छूते हो उनके।' हमने उनके बड़े होने का तर्क देते हुए समझाया तो फिर कोहली की गिरफ्तारी पर जोर देने लगे।
चाय पीने के लिए गए। अपना बर्तन निकालकर चाय ली। चाय की दुकान वाली बोली -'अभी पीकर गए हैं। चाय इनको दिन भर पिलाये रहो। पीते रहेंगे।' हमें और अपनी तरह लगे पंकज बाजपेई ।
महिला उनके बारे में तमाम बातें बताने लगी-' पढने में बहुत होशियार थे। आई ए एस का इम्तहान दिया है। बम्बई गए। दिमाग खराब हो गया। आसपास के सब मकान उनके हैं। रिश्तेदारों का कब्जा है। इलाज कोई नहीं कराता। डरते हैं याददाश्त ठीक हो गयी तो कब्जा चला जायेगा। खाना देते रहते हैं। बस्स।'
मिठाई के शौक़ीन हैं। हमने कहा -'लाएंगे किसी दिन मिठाई।' मुस्कारते हुए बोले -'अच्छा।' फिर बोले -'हम आपके घर आ जाएंगे।'
एक दिन बोले -'हाजी मस्तान ने मेरे बच्चे उठवा लिए। उसको पकड़वाईये।'
हमने कहा -' आपका इलाज करवाते हैं।' बोले -' हम ठीक हैं। आप कोहली को पकड़वाईये। बच्चो को खराब कर रहा है। सीबीआई लगवाइए।'
हमने कहा -'आपकी शादी करवा देते हैं। ' बोले -'हमारी शादी हो गयी। बच्चे भी हैं। हमने कहा -' कहां हैं ?' बोले -बम्बई में।
हमने कहा -' एक शादी और करवा देते हैं।' बोले -'चार शादी हो गईं हमारी।' और कुछ बात करें तब तक बात फिर दाऊद, कोहली , हाजी मस्तान की तरफ मुड़ गयी।
बेसिर-पैर की असंबद्ग बातेँ सुनते हुए लगता हूँ मानो उनका दिमाग फ्रीज हो गया है इन बातों के आसपास। अपना समाज जैसे जकड़ गया है हिन्दू, मुसलमान, मंदिर, मस्जिद, जातिवाद में। वैसे ही पंकज जी के दिमाग का ताना बाना इसी के आसपास घूमता रहता है।
आंय-बांय बातें करते हुये एकदम भोले बच्चे जैसे लगते हैं। लंबे कद के पंकज जी जब खड़े होकर बात करते हैं, एक तरफा , तो लगता निराला जी आखिरी दिनों में इनके जैसे ही लगते होंगे। बोलते समय गले की नशे फूल जाती हैं। लंबी नाक वाले बोलते चले जाने वाले पंकज जी को देखते हुए मुझे अक्सर अपने दिवंगत बड़े भाई की याद आती है। उनको तमाम शिकायतें थीं लोगों से। जब कभी बात करते तो बीते हुए समय में चले जाते। सुनने वाले को भी घसीट ले जाते।
पता नहीं किस मौके पर और किस समय इनके दिमाग के तार हिले होंगे। कनेक्शन हिल गया होगा दिमाग से और सीमित रह गया होगा कोहली, दाऊद, हाजी मस्तान , बच्चे और औरतों को खराब करवाने की खतरे में। उनकी बात में आज की कोई चर्चा नहीं होती। न बैंक घोटाले की न, स्पेक्ट्रम घोटाले की। इंडिया टीम की जीत की नहीं और न ही शहर में जाम की।
पता नहीं क्या ताना-बाना बनता हो दिमाग के मदरबोर्ड के तार हिल जाने पर। अनगिनत भावनाओं को कोई स्टेच्यू जैसा बोल देता हो जैसे। अटल जी की याददाश्त चली सी गयी है। सुना है लोगों को पहचान नहीं पाते। उनको कोई उनके भाषण , कविताएं सुनाता होगा तो न जाने कैसे प्रतिक्रिया करते हों। पिछले दिनों बशीर बद्र को देखा एक वीडियो में। अपने ही मशहूर शेर बमुश्किल याद कर पा रहे थे। दिमाग में इस कदर ब्लैक आउट हो गया है कि अपना शेर 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो' याद नहीं कर पा रहे थे। दिमाग की गलियों में गहरी रात हो गयी है।
पंकज जी का कोई बचपन का पक्का दोस्त हो तो शायद उनको कुछ याद दिला सके उनसे जुड़ी यादें। उनके पसंदीदा हीरो-हीरोइन। नायक , नेता। बड़े होते हुए उनके क्या सपने , इरादे, अरमान रहे होंगे इस बारे में बता सकता।
पंकज जी तो एक इंसान हैं। उनका अकेले याददाश्त ठहर जाना बड़े समाज के लिए ज्यादा मायने नहीं रखता। लेकिन जब यह बात किसी बड़े समूह, समाज के साथ होती है तब गड़बड़ी की ज्यादा सम्भावना होती है। समझिए कोई समाज 10-12-13 -16-17 सदी की मान्यताएं लिए जी रहा है। आंख के बदले दो आंख, एक गर्दन के बदले हजार मुंडिया को जायज ठहराते हुए उसको अमली जामा पहनाने के लिए तैयार हो रहा हो, उसके लिए तर्क गढ़ रहा हो तो आने वाला समय कितना भयावह हो सकता है इसके बारे में सोचकर डर लगता है।
ऐसे समाज के इलाज के बारे में भी लोग फिकर नहीं करते। उनको डर होगा कि लोगों के सहज हो जाने पर उनकी दुकानें बंद हो सकती हैं।
एक इंसान अपने आप में मुक्कमल इतिहास होता है। उसके जीवन से जुड़ी घटनाओं पर उपन्यास लिखे जा सकते हैं। पंकज जी जैसे अनगिनत लोग हमारे आसपास दिखते, मिलते, रहते हैं। हम उनको अनदेखा करते हुए मजे से जीते रहते हैं, बिना यह एहसास किये कि ऐसा करते हुए हम भी उन्हीं की तरह ठहरे हुए हैं। पंकज भाई दाऊद, कोहली, मिसरा, बच्चे, सीबीआई में ठहरे हुए हैं। समाज के रूप में हम भी इन्ही बातों के आसपास बने हुए हैं। बहुत ज्यादा फर्क नहीं है दोनों की हालत में।
इसी लिए हमको पंकज बाजपेयी अपने जैसे लगते हैं। इसीलिए उनसे बार-बार मिलने का मन होता है। मिलते भी रहते हैं।

Saturday, February 24, 2018

कमजोर दिल के घपलेबाज


आजकल बैंकिग घोटालों की बमबम मची है। एक के बाद एक ताबड़तोड़ घपले किलकते हुये पैदा हो रहे हैं। ’मीडिया रैम्प’ पर सुन्दरियों की तरह इठलाते हुये कैटवॉक कर रहे हैं। एक घपले के सौंदर्य को जी भरकर निहार भी नहीं पाते कि भड़भड़ा के सामने आया दूसरा घोटाला अपने हनीट्रैप में फ़ंसा लेता है।
घपले करने वाले ताबड़तोड़ बैटिंग वाले अंदाज में स्कोर टांगते जा रहे हैं। जनता बेचारी न्यूट्रल अम्पायर की तरह चुपचाप किनारे खड़ी घपलचियों के जलवे देख रही है। घपलावीरों की हिट की हुई हर गेंद बाउंड्री के बाहर जा रही है। मीडिया चीयरलीडरानियों की तरह हर घपले पर मटक रहा है। घोटालचियों की अदाओं का सौंदर्य निहारते हुये उनको मधुर अंदाज में धिक्कारता है जैसे वधू पक्ष की महिलायें वरपक्ष के सम्मान में मंगलगालियां देती हैं।
उधर कई गुज्जू भाइयों मिलकर हज्जारों करोड़ पार किये। इधर कनपुरिया कोठारी जी ने भी ताव में आकर अकेले ही ’कलट्टरगंज झाड़ दिया।’ मसाला प्रेमी कनपुरिया मुंह के मसाले से सड़क का मुंह रंगते हुये कह रहा है- ’यार इज्जत रख ली अगले ने कानपुर की। अब कोई मना भी करे लेकिन अपन बिटिया की शादी में बरातियों का स्वागत पान पराग से ही करेंगे।’
फ़रवरी में मध्यवर्ग आयकर कटौती के हमलों से हलकान होता है। अपने खर्चे काटता हुआ किसी तरह महीना गुजर जाने का इंतजार करता है। इस समय आयकर की कटौती प्रतिद्वन्दी लेखक को मिले सम्मान सी अखरती है। ऐसे में बैंकिग घोटाले ’बुरा न मानो होली है’ सा कहते हुये हौसला बंधा रहे हैं - ’देख बाबू, देश के हज्जारों करोड़ लुट गये फ़िर भी वह मुस्करा रहा है। तुम अपने चंद रुपयों की कटौती पर बिलख रहे हो।’ बाबू देशभक्ति के नाम पर मुस्कराने की कोशिश करता है तब तक पता चलता है उसके पीएफ़ पर भी कैंची चल गयी। बिना समझाये वह समझ जाता है कि देशभक्त होने के नाते देश का नुकसान उसको ही झेलना पड़ेगा।
घपले पहले भी होते रहे हैं। लेकिन हाल में हुये घपले अलग तरह के हैं। पहले घपलेबाज पकड़े जाने पर शरमाते थे। मुंह छिपाते थे। घपला करने के बाद पछताते थे। अपने बहक जाने की बात बताते थे। कुछ तो मारे शरम के चुल्लू भर पानी में डूब तक जाते थे। इसका कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी होती थी। उनको लगता था कि उन्होंने गलत किया है। पकड़े जाते ही वे शर्मिन्दगी वाले मोड़ में चले जाते थे। वे कमजोर मन वाले घपलेबाज होते थे।
लेकिन हाल के घपलेबाजों में अलग तरह का आत्मविश्वास दिखता है। माल्या जी उधर लंदन से हड़काते हुये कहते हैं-’हमको ज्यादा उकसाओगे तो सबकी पोल खोल दूंगा।’ पोल खुलने की घमकी से तो नंगा तक डरता है। इसलिये लोग सहम गये।
घपलेबाज भाई भी ने बैंक और मीडिया को धमकाया है कि उनके खुलासे के चलते उसकी साख में बट्टा लगा। अब कोई पैसा वापस नहीं करेंगे। ’जबरा लूटे, रोवन न देय।’
हमें तो धुकुर-पुकुर मची है कि अगला कहीं देश पर मानहानि का दावा न ठोंक दे। घपले की रकम से दोगुने का हर्जाना न मांगने लगे। खुदा न खास्ता अगर ऐसा हो गया तो अभी तो पीएफ़ कम हुआ है, आगे कहीं तन्ख्वाह भी न दुबली हो जाये।
इस लिहाज से कनपुरिया घपलेबाज संस्कारी डिफ़ाल्टर हैं। घपले का खुलासा होते ही देशभक्त हो गये। पासपोर्ट जब्त हो जाने के चलते सिस्टम में सहज विश्वास पैदा हो गया था। कानून की जकड़ में आया आदमी न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने लगता है। इसी विश्वास के चलते उन्होंने कानपुर छोड़कर न जाने की धमकी दी है। जिस बैंक से लोन लेकर पैसा पीटा, तमाम कनपुरियों को पान मसाले के जरिये कैंसर भेंट किया उनको ही चूना लगाते हुये कनपुरिया जुमले - ’ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं’ को अमली जामा पहनाया। कानपुर को ऐसे शहर प्रेमी वीर पर गर्व होना चाहिये।
हर खाया पिया आदमी देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहता है। महापुरुष बनना चाहता है। पुराने समय में लोग महान बनने के लिये जिन्दगी भर परोपकार करते थे। स्कूल कालेज खुलवाते थे। कुंये-बावड़ी बनवाते थे। देश के लिये जेल जाते थे। जिन्दगी गुजर जाती थी तब कहीं महापुरुषों के खाते में नाम दर्ज हो पाता था। महान बनने के चक्कर आदमी की जिन्दगी परोपकार में ही हलकान हो जाती थी। घपलों-घोटालों ने महानता के नये रास्ते खोले हैं। इस रास्ते पर चलकर आदमी ऐश करते हुये भी इतिहास की किताब में घुस सकता है। आज बच्चा-बच्चा विजय माल्या और नीरव मोदी का नाम जानता है।
हाल में सामने आये घपलों के कारीगर बिना कुछ खर्च किये अहिंसक तरीके से मीडिया में छाये रहे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अगर घपलेबाजों से सीखते तो उनको अपनी सरकार के विज्ञापन करने के लिये आधी रात को अपने सचिव से मारपीट नहीं करनी पड़ती।
लेकिन इन घपलों से हमको परेशान नहीं होना चाहिये। हमको इनके धवल पक्ष देखने चाहिये। बैंक में हुये घपलों से बैंको की सुरक्षा मजबूत हो होगी। जरूरत मंदों के लोन मुश्किल हो जायेंगे। घोटालेबाजों से लुटने की भड़ास बैंक वाले शिक्षा लोन लेने वालों पर निकालेंगे। इसका फ़ायदा यह होगा कि बच्चे पढने लिये विदेश कम जायेंगे। प्रतिभा पलायन में कमी आयेगी। जो युवा दुनिया की उन्नति में योगदान देते वे देश में ही रहते हुये रोजगार की तलाश में भटकेंगे। राजनीतिक कार्यकर्ता बनकर जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारों से आसमान गुंजायेंगे। मारकाट करते हुये देश की जनसंख्या कम करने में सहयोग करेंगे। देश आगे बढायेंगे।
हम सदियों से पैसे को हाथ का मैल मानते आये हैं। हमें सोचना चाहिये कि गबन करके विदेश भागे लोग देश की गंदगी लेकर भागे हैं। देश के स्वच्छता अभियान में अप्रतिम योगदान है यह उनका। यह पैसा भी कोई हमेशा के लिये थोड़ी गया है बाहर। जहाज के पंछी की तरह यह फ़िर वापस आयेगा देश में। घपलों के रुपयों का देश से तगड़ा लगाव होता है। जरूरत पड़ते ही वापस आयेगा। देश में चुनाव, दंगे, अराजकता की पुकार पर दौड़ता भागता चला आयेगा। जहां जरूरत होगी, खप जायेगा। देश के घपले का पैसा अंतत: देश में ही खपता है। घपले के पैसे की देशभक्ति में संदेह नहीं करना चाहिये। घपलों में देश की बरक्कत देखना चाहिये।
घपलों का सामना हमको उदारता से करना चाहिये। ’वसुधैव कुटम्बकम’ के हिसाब से घोटाले करने वालों को अपना भाई-बहन मानना चाहिये। जिन घपलों से भाई-बहनों का भला होता हो उनका बुरा नहीं मानना चाहिये। घपलेबाजों की इज्जत करनी चाहिये। ’बुरा न मानो होली है’ कहते उनको गले लगाना चाहिये।

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Tuesday, February 20, 2018

हवा में उड़ता जाये, मेरा लाल टुपट्टा मलमल का

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 4 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग बैठ रहे हैं, बच्चा और बाहर
धूप में 'हर हर गंगे' करता परिवार। हाथ में कैथा लिए बच्ची।

शुक्लागंज पुल पर पहुंचकर देखा कि गंगा जी तसल्ली से बह रही थीं। एकदम वीकेन्ड मूड में। एक तरफ़ कुछ लोग नहा रहे थे। नावें खरामा-खराना चल रहीं थी। पुल पर सवारियां आ-जा रहीं थीं। एक आदमी साइकिल के हैंडल पर अपने बच्चे को लिये चला जा रहा था। जब तक कैमरा सटायें , वह सर्र से निकल गया बगल से।

गंगा के तट पर जाने के लिये नीचे उतरने की सोचते रहे कुछ देर। फ़िर इरादा पक्का बनाया। सड़क से उतरकर नीचे आये। उसके बाद और नीचे जाने के लिये कुछ दूरी तक पक्की सीढियां थीं। उसके आगे कच्चा रास्ता। आसपास के लोगों ने उन सीढियों पर मूत्रदान करके रास्ते को अगम्य बना दिया था।
हम बगल के बने घरों के साथ के रास्ते आगे बढे। एक घर के बाहर एक आदमी चारपाई पर बैठा चिल्ला रहा था-’माचिस लाओ।’ एक बच्ची ने हल्ला तेज किया- ’पापा के लिये माचिस लाओ।’ एक और बच्ची लपकती हुई आई और माचिस थमाकर धूप में खड़ी हो गयी। आदमी ने इत्मिनान से सिगरेट सुलगाई। मोबाइल में गाना सुनते हुये सिगरेट-सुट्टा लगाने लगा। उसके चेहरे पर हर फ़िक्र को धुंये में उडाने का इश्तहार चस्पा था। मोबाइल पर गाना बज रहा था - ’हवा में उड़ता जाये, मेरा लाल टुपट्टा मलमल का।’ गाना सुनकर गंगा की लहरें हल्का-हल्का थिरकते हुये बह रहीं थीं।
पापा और उनके बच्चे धूप में ’हर हर गंगे’ कर रहे थे। एक बच्ची कैथा लिये खड़ी थी। कैथा ऊपर से दो फ़ांक हुआ था। जवान कैथे के अंदर से सफ़ेद गूदा बाहर झांक रहा था। गोले के आकार के कैथे देखकर स्कूल के दिनों में गोले के हिस्सों के आयतन और पृष्ठ क्षेत्रफ़ल निकालने के दिन याद आ गये। लेकिन फ़ार्मूला अचानक याद नहीं आया। इस्तेमाल न करने पर चीजें बिसराने लगती हैं।
एक बच्ची वहीं दूसरे बच्चे को चारपाई पर लेटाये हुये कपड़े पहना रही थी। संयुक्त परिवारों में बच्चे बचपन से ही बड़े होना सीखने लगते हैं। एक दूसरी बच्ची कटोरी में गाजर का हलवा निपटा रही थी। पता चला कि बच्चों के पापा हलवाई का काम करते हैं। काम का ठेका लेते हैं। जो बनाते हैं बच्चों के लिये ले आते हैं।
बात करने पर पता चला कि भाई जी मधुबनी के रहने वाले हैं। यहां आकर रह गये। गंगा किनारे की कुठरियां खाली मिली टिक गये। हमने मधुबनी पेंटिंग की बात करते हुये आगे बतियाना चाहा तब तक वे फ़ोनियाने लगे। हम पेंटिंग और उनको वहीं छोड़कर आगे बढे।
पगडंडी से नीचे उतरते हुये देखा एक बुढिया धूप में कंघी से अपने बाल काढ रही थी। बाल उलझे हुये थे शायद इसलिये झटक-झटककर सुलझा रही थी। वहीं दो बच्चे झाड़ियों में अपनी खोई हुई गुल्ली खोज रहे थे। डंडा बगल में धरा था। बताया कि जोर से मारा तो यहां कहीं आकर गिरी। खुद बनाई थी। कुछ देर तक हम भी खोजने में मौखिक सहायता करते रहे। फ़िर निकल लिये।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश और बाहर
रेल की पटरी किनारे जिंदगी
गंगा किनारे लोगों के खुले में निपटने की निशानियां जगह-जगह छितराई हुई थीं। मीडिया में खुले में निपटने के खिलाफ़ रोज विज्ञापन के बावजूद नदियों के किनारे के लोग नदी किनारे ही निपट रहे हैं। क्या पता कल कोई ’निपटान घोटाला’ सामने आये और अलग-अलग दल बयान देते हुये हल्ला मचायेंं -’ये हमारे समय का नहीं है।’ क्या पता कोई ’कार्बन डेटिंग’ तकनीक निपटान की उमर तय करे। हो तो यह भी सकता है कि कोई निपटान को संबंधित आदमी से लिंक करने की कोई तकनीक निकाल ले और निपटने वाले पर जुर्माना ठोंकने की सिफ़ारिश कर दे। फ़िर कोई दल ’निपटान जुर्माना’ माफ़ करने का वादा करते हुये चुनाव लड़े और बड़ी बात नहीं कि जीत भी जाये।
धूप में एक आदमी बैठा हुआ कुछ मंत्र बुदबुदा रहा था। बुदबुदाते हुये बालू में ’कटटम-कट्टा’ के निशान बनाता जा रहा था।
आगे घाट पर एक मछुआरा जाल से मछली निकालते हुये नाव में डालता जा रहा था। कुछ मछलियां जिन्दा थीं। नाव में डाले जाने पर फ़ड़फ़ड़ाते हुये कुछ देर में शांत हो जातीं। एक मछली पानी में शांत थी लेकिन नाव में रखते हुये कुछ हिली-डुली। उसने पानी में डालकर जांचा कि जिन्दा है क्या? लेकिन वह पानी में हिली नहीं। उसने उसको ’मर गई’ कहकर निस्पंद भाव से उसको नाव में डाल दिया।
नदी में पानी कम हो गया था। एक बोला - ’पैदल पार जाते आदमी को देखा हमने अभी। ’ नाव वाले ने बताया गंगा बैराज में रोक लिया गया है पानी। वहां गेट खोल दें तो अभी भर जाये यहां। दुष्यंत कुमार ऐसे ही थोड़े कहें हैं:
"यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।"
घाट किनारे चबूतरों/तख्तों पर बैठे हुये लोग ताश खेल रहे थे। कोटपीश टाइप का खेल। साथ में बाजी भी लगाते जा रहे थे। छोटा जुंआ चल रहा था। बगल में एक आदमी गत्ते का टुकड़ा लिये हिसाब नोट करता जा रहा था किसने कित्ते की बाजी लगाई। कोई तुरुप का पत्ता फ़ेंककर किसी के पत्ते को काटते हुये ऐसे तेज पटकता पत्ते को कि लगता अब गया तख्त।
लौटते हुये एक तख्त पर दो कुर्सियां बंधी देखीं। लगा ये अपने लड़ाई-भिड़ाई करके जीतकर आने वालों के इंतजार में बुढी गईं हैं। गांव-घरों में कमाई-धमाई के लिये परदेश जाने वालों के घरों की स्त्रियों अपने पतियों के इंतजार दिन बिताती महिलाओं सरीखी कुर्सियां। बचपन में शादी होकर बुढापे तक उन पतियों का इंतजार करती महिलाओं जैसी भी जिनके पति शहर में पढलिखकर अपने हिसाब से दूसरा घर बसा लेते हैं।
लौटते हुये एक दुकान में चाय पिये। एक औरत दूसरी से गुस्साते हुये कह रही थी- ’ हमारा आदमी मर गया और उसने हमको खबर तक नहीं दी। हम उसके दरवज्जे मूतने तक न जायेंगे। हमारे बच्चे अनाथ हो गये।’ गुस्साते-गुस्साते वह महिला रोने लगी। उसके साथ शायद उसका बच्चा उसके कन्धे सहलाता हुआ उसको चुप कराने की कोशिश करा रहा था। अनाथ हुए बच्चे अचानक बड़े हो जाते हैं।
कुछ बच्चे खेलने के लिये बीच सड़क पर स्टंप लगाने का जुगाड़ देख रहे थे। पप्पू चाय वाले के पास से गुजरे तो उसने बताया कि दिन पर दिन धंधा मंदा होता जाता रहा है। अंदर कैंटीन खुल गयी है इसलिये लोग यहां कम आते हैं।
हमको लगा कि ऊर्जा संरक्षण के नियम की तरह ’रोजगार संरक्षण’ का भी नियम होता होगा। दुनिया में कुल रोजगार की मात्रा नियत है। एक जगह रोजगार मिलता है तो दूसरी जगह छिनता भी होगा।
कहां-कहां की बातें करने लगे हम भी सुबह-सुबह। यह बात तो इतवार की है। अब तो मंगलवार हो गया। बोल बजरंगबली की जय।

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Sunday, February 18, 2018

सबके भाग्य में नौकरी कहां धरी है

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, स्टेज पर लोग, वृक्ष और बाहर
साथ-साथ काम करते मियां - बीबी

सुबह टहलने निकले। घर के बाहर एक महिला को बैठी देख बतियाने लगे। बताया पास के सिलाई कारखाने में काम करती है। सिले हुए कपड़ों से धागा निकालने का काम है।

चार बच्चों की माँ घर बड़ी बच्ची के सहारे छोड़कर आती है। वही खाना बनाती है। पति घण्टाघर के किसी होटल में काम करता है। कुछ देर बात करने पर भोजपुरी अंदाज आया बोली में। पता चला पटना के रहने वाले हैं दोनों मियां-बीबी।
छांह में बैठी महिला को हमने धूप में बैठ जाने को कहा। वह बोली -'धूप में जलन लगती है।'
सुबह 9 से शाम तक के 130/- रुपये मिलते हैं। न्यूनतम मजदूरी अकुशल श्रमिक की 500 रुपये से ऊपर है। उसकी एक चौथाई में लोग काम कर रहे हैं, करवा रहे हैं। पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी घपला चल रहा है। इसके उल्लंघन पर सजा का प्रवधान है। लेकिन सजा होती किसी को नहीं है।
पीएनबी घोटाला 13000 करोड़ का माने तो इस महिला के 100 करोड़ दिन की मजदूरी लेकर फूट लिए मामा-भांजे। औसत उमर कमाई की अगर 50 साल माने तो 50 हजार लोगों से ऊपर की जिन्दगी भर की कमाई !
सड़क पर मुर्गे वाला मुर्गे पिंजड़े में रखे ठेलिया पानी से धो रहा था। मुर्गे पिंजड़े में फड़फड़ा रहे थे। उनमें से किसी को पता नहीं होगा कौन कटेगा आज।
आगे एक आदमी बीच से तीसरे दांत में बीड़ी फ़ंसाये हुये कुछ सोचता हुआ चला जा रहा था। शायद बीड़ी सुलगाने के उचित मुहूर्त के इंतजार में हो।
मोड़ पर एक पुलिस की जीप बीच सड़क पर खड़ी हुई थी। गाड़ी में बैठे सिपाही ने मुंड़ी निकालकर रास्ता पूछा। जीप आगे बढ गयी।
कोने पर एक ’बेंच हेयर कटिंग सैलून’ से बाल कटवाकर निकले आदमी ने तगड़ी अंगड़ाई लेते हुये सीना फ़ुलाया। फ़ूले हुये सीने को देखकर हमें लगा 56 इंच से कम क्या होगा? 56 इंच के सीने की बात ध्यान आते ही लगा कि कहीं यह बीच सड़क पर खड़े होकर पाकिस्तान को न हड़काने लगे। ऐसा हुआ तो सड़क पर जाम पक्का लगना था। लेकिन वह आदमी समझदार था शायद। गृहस्थ रहा होगा। सीना समेटकर ख्ररामा-खरामा चला गया।
दीवार पर ’नशा मुक्ति केन्द्र’ का इश्तहार लगा हुआ था। पता नहीं कौन से नशे से मुक्ति का केन्द्र है वह। कूड़े पर गाय बैठी थी उसकी पीठ पर बैठा एक बगुला नुमा पक्षी अलसाया सा अपनी चोंच से पीठ खुजा रहा था। दोनों में से कौन कोई नशे में नहीं दिख रहा था मुझे। उनमें से कोई भी पीएनबी घोटाले की बात करते नहीं सुनाई दिये मुझे। इनको कोई चिन्ता ही नहीं इत्ते बड़े घपले की। दीवार के सहारे सालों से निर्माणाधीन ओवरब्रिज में लगने वाले कंक्रीट के स्लैब रखे थे।
सड़क किनारे मूंगफ़ली की कई दुकानें हैं। लोग बाहर बैठे बतिया रहे थे। एक दुकान के बाहर आदमी-औरत मिलकर मूंगफ़ली के दाने साफ़ कर रहे थे। गृहस्थ जीवन में बराबर की हिस्से दारी।
आगे एक दुकान में छोटी बच्ची मूंगफ़ली के साथ में दिये जाने वाले नमक की पुडिया बना रही थी । उसके बगल में खड़ी उसकी छोटी बहन उघारे बदन खेल रही थी। बच्ची छुटकी को खेलने से बरजती हुई नमक की पुड़िया बनाती जा रही थी। छुटकी उसके बरजने से बेखबर खेलने में मस्त थी।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, भोजन
नमक की पुड़िया बनाती और संग में खेलती बच्ची
अपन उन बच्चियों से बतियाने लगे। इस बीच उससे बड़ी एक बच्ची झुपड़िया से निकल आई। हाथ में नोकिया का गरीबों वाला मोबाइल। हमारे हाथ में फ़ोन देखकर बतियाने लगी। बोली -
’अंकल, आप कहां से ? फ़ोटो खींच रहे क्या?’
फ़िर उघारे बदन बच्ची को गोद में उठा लिया। पांच में पढने वाली बच्ची इत्ती समझदार टाइप। पीछे से उसकी मां भी आ गई। बताने लगी -’ दो-तीन महीने काम रहता है मूंगफ़ली का।फ़िर चना रखते हैं। अब जिसको जो काम मिलता है वही करना पड़ता है। कोई सरकारी नौकरी तो मिली नहीं। सबके भाग्य में नौकरी कहां धरी है।’
धूप में चेहरे के एक तरफ़ की त्वचा सिंक सी गयी है महिला की। सूरज भाई फ़िर भी उसके चेहरे पर किरणों की बमबार्डिंग किये पड़े हैं। लगा कि समझाना पड़ेगा। लेकिन जब तक समझायें तब तक वे बादलों की ओट हो लिये। लगा कि खुद ही समझ गये।
आगे वाली दुकान में एक बच्ची एक गत्ते के पैकिंग बॉक्स और उसके ढक्कन को धागे से जोड़े हुये सड़क पर रेल की तरह चला रही थी। नाक से निकला हुआ मोटा रेंहट होंठ के पास ठहरा हुआ था। बच्ची इस सबसे बेपरवाह अपनी रेल चलाने में मुस्तैद थी।
सड़क पर तमाम रिक्शे वाले अपने रिक्शे साफ़ कर रहे थी। साप्ताहिक सफ़ाई दिन होगा रिक्शेवालों का। आगे शुक्लागंज का पुल दिख रहा था।

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Saturday, February 10, 2018

जयपुर की सुबह

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, वृक्ष, बाहर और प्रकृति
आइसक्रीम के कोन जैसे सिंहासन में गुड़ी-मुड़ी सूरज भाई


आज सुबह जयपुर में हुई। टहलने निकले तो सड़क पर इक्का दुक्का लोग दिखे। सर्दी कम टाइप। 'चाय कमीज' (टी शर्ट)में टहलते दिखे लोग।

सूरज भाई अभी निकले नहीं थे। शायद उनको पता नहीं होगा कि हम उनको जयपुर में खोज रहे। गुडमार्निंग के लिए।
निकले भले न हों लेकिन सूरज भाई के निकलने की तैयारी हो रही थी। आसमान में लाल-पीली कालीन बिछ गई थी। कूंची से थोड़ा आड़ी-तिरछी बनाई गई थी कालीन ताकि थोड़ी स्वाभविक लगे।
सड़क पर कुत्ते जमा थे। मुझे लगा सूरज भाई की अगवानी में खड़े हैं। निकलते ही कड़क गार्ड ऑफ ऑनर ठेल देंगे। एक कुत्ता तो आगे आकर पूंछ हिलाते हुए खड़ा हो गया। ऐसे जैसे मुझसे पूंछ रहा हो -'कुछ खबर मिली कब आएंगे, सूरज भाई।'
आगे सड़क पार करके देखा तो सूरज भाई टाई-साई लगाकर निकलने ही वाले थे। आसमान एकदम लाल कर लिये अपने अगल-बगल। जैसे नेता निकलते हुए अपने को कमाण्डो से घेर लेता है, लगुये-भगुये चिपक लेते हैं वैसे ही सूरज भाई को चारों तरफ से उजाले, रोशनी, किरणों ने घेर लिया। चिड़ियां लोग उनके सम्मान में समर्पित मीडिया की तरह चहकने लगीं।
पलटकर देखा तो कुत्ते लोगों को कोई आदमी सड़क पर फेंककर बिस्कुट खिला रहा था। ग्लूकोश के बिस्कुट के टुकड़े करते हुए सड़क पर फेंकता जा रहा था। कुत्ते लपकते हुए खाते जा रहे थे। उनको सूरज के निकलने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। बिस्कुट खिलाने वाले भाई ही उनके लिए सूरज थे। अब मुझे पता लगा कि वे पूंछ हिलाते हुए मुझसे सूरज भाई के बारे में नहीं बल्कि 'बिस्कुट भाई' के बारे में पूंछ रहे थे। हरेक का सूरज अलग-अलग होता है।
बिस्कुट वाले भाई बिस्कुट जमीन पर फेंकते हुए कह रहे थे-'बहुत पाप करते हैं हम लोग। थोड़ा पुण्य भी कर लेना चहिये। इसलिए बिस्कुट खिलाते हैं हम इनको।'
दुनिया के तमाम अच्छे काम पाप कम करने के लिए किये जाते हैं। पुण्य बैंक में बचत की तरह जमा किये जाते हैं ताकि पाप की वसूली आये तो पुण्य से भुगतान किया जा सके। लेकिन अब दिन पर दिन बचत मुश्किल होती जा रही है। पीपीएफ भी बंद होने की बात चल रही है। पाप-पुण्य का झूला झूलने वाले मिडिलची कि मरन है।
पलट कर देखा तो सूरज भाई आसमान पर गद्दी संभाल चुके थे। किसी आइसक्रीम के कोन में घुसी बहुरंगी आइसक्रीम सरीखे गुड़ी-मुड़ी से लगे। खूबसूरत लग रहे थे। मुस्कराते हुए नमस्ते किया तो और मुस्कराने लगे। लगता है कोई धांसू डायलॉग सोच रहे थे जिसको मारकर अपना जलवा जमा सकें।
लेकिन अब उनको कौन समझाये की धांसू डायलॉग सोचकर नहीं मारे जाते , सहज आते हैं। कोई नहीं, समझ जाएंगे साथ उठते-बैठते। सबकुछ सिखाने-बताने से नहीं आता। बहुत कुछ देखते-सुनते अपने आप आता है।
है कि नहीं ? सुबह हो गयी। मजे करिये। मस्त रहिये।

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Friday, February 09, 2018

सूरज भाई अपनी 'किरण टार्च'

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, बादल, ट्विलाइट, बाहर और प्रकृति
आसमां में धूप का अलाव सुलगाये सूरज भाई

बहुत दिन बाद कल सूरज भाई से मुलाकात हुई। आसमान में धूप का अलाव जैसा जलाए ताप रहे थे। उनको कौन पैसा पड़ना है। जहां मन किया लाख - दो लाख फोटान जलाकर ताप लिए। कोई पूछने वाला थोड़ी है। अरबों-खरबों के फोटॉन में लाख-दो लाख की क्या गिनती?

मामला ऐसे समझिए कि कोई हलवाई मिठाई बनाते-बनाते खुद कुछ मिठाई चखने लगे। या फिर ऐसा जैसे करोड़ों - अरबों के ठेकों का निपटारा करता कोई मंत्री लाखों के ठेके अपने चेलों, चमचों, कुनबों, समर्थकों में प्रसाद की तरह बांट दे।
गाड़ी स्टेशन पर खड़ी है। सूरज भाई ने किरणों का बोरा ऊपर से खोल दिया। किरणें अदबदा के पेड़ पर धप्प से गिरीं आकर। पत्ती-पत्ती हिल गयी। चिड़ियां थोड़ा चहचहा के ऊपर उड़ीं फिर वापस आ गईं। रोज का किस्सा है यह। लेकिन जब झटके से कोई पेड़ पर आकर बैठता तो चिड़िया सहम सी जाती हैं। इस मामले में शायद उनके मन भी महिलाओं जैसे ही होते हैं। हर आहट पर चौंक जाती हैं।
किरणें पेड़ पर टहलती हुई आपस मे आईस-पाइस खेल रही हैं। छिपती हैं। हवा के झोंके से बाहर आ जाती हैं। एक दूसरे को देखकर हंसने लगती हैं। कभी-कभी तो ठहाका तक लगाने लगती हैं। लेकिन कोई उनको टोंकता नहीं है। लगता है कायनात ने कोई रामायण नहीं पढ़ी है।
पेड़ पर न जाने कितने दिनों की धूल है। सूरज भाई अपनी 'किरण टार्च' मार-मार कर धूल सबको दिखा रहे हैं। हवा पेड़ को हिला-हिलाकर उसकी धूल हटाने की कोशिश कर रही है। पेंड की पत्तियों के बीच से सीटी बजाते हुए रोज गुजरती है। कभी आराम फरमा भी हो जाती है। पेड़ की बेईज्जती उसको बर्दाश्त नहीं होती इसलिए तेज हिलाती है उसको। लेकिन पेड़ घामड़ की तरह थोड़ा हिलडुल कर फिर वैसे ही रहता है। बौरा गया है शायद। वसंत अभी तक सवार है उस पर। पत्तियां धूल की गलबहियां होते हुये शायद गाना गा रही हों:
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
तोड़ेंगे दम मगर, तेरा साथ न छोड़ेंगे।
सूरज भाई पूरी कायनात पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं। सरपट धूप की किरणों का छिड़काव कर रहे हैं। कोई-कोई पेड़ उनको रोकता है तो उसके बगल में छाया कर देते हैं। बगल की जमीन पर धूप से वंचित कर देते हैं। मतलब पेड़ का बदला जमीन से। वही बात धोबी से जीते न पावें तो गदहा के कान उमेठे।
सूरज भाई हमारे मोबाइल में झांककर देखते हैं तो मुस्कराकर दायें-बायें होते हुए किरणों से कहते हैं -'ये चलो, लिखने तो इनको नहीं तो तोहमत हमारे ऊपर लगाएंगे।'
उनके इस तरह बरजने पर तमाम किरने ठठाकर हंसने लगीं। कुछ मुस्कराने भी लगीं। उनकी हंसी और मुस्कान देखकर हमको हंसी पर लिखी यह बात याद आई:
हंसी की एक बच्ची है,
जिसका नाम मुस्कान है
यह बात अलग है कि
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
अब अभी सूरज भाई के साथ चाय चल रही है। आपका भी मन करे तो चले आईये। चाय पीजिये साथ में और बल भर मुस्कराइए।

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Monday, February 05, 2018

धूप सेंकती नदी

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बालू का तिकोन मानो नदी परिवार नियोजन का प्रचार कर रही हो


कल बहुत दिन बाद साइकिल 'स्टार्ट' की। हफ्तों खड़ी रहने के बावजूद टायर की हवा निकली नहीं थी। मर्द साईकल है भाई। हफ्तों बाद भी अकड़ बनी हुई है।

बाहर निकलते ही सड़क पर जिंदगी धड़कती मिली। एक कुत्ता जीभ निकाले आंख बंद किये धूप सेंक रहा था। जीभ गोया उसका सोलर पैनल हो जिससे उसकी चार्जिंग हो रही हो।
क्या पता कुछ सालों में हमारे पास धूप इसी तरह पहुंचे। कहीं मील भर दूर किसी पैनल से इकट्ठा हुई धूप हमारे कमरे में आकर फैल जाए। धूप की मात्रा कम/ज्यादा की जा सके। जनवरी में जून का स्विच दाबकर धूप की तेजी बढा ली जाए।
आगे एक महिला धूप में प्याज के छिलके उतार रही थी। जो प्याज खराब हो से हो गए थे वे छिलके उतरते ही चमकने लगे थे जैसे कोई बेवकूफ टाइप अफसर बढ़ी कुर्सी पाते ही चेकोलाइट हो जाता है। कोई गुंडा मंत्री बनते ही माननीय हो जाता है।
उसकी दुकान पर ठेलिया बिना पहिये के खड़ी थी।ठेलिया पर सब्जी की दुकान सजी थी। खड़ी ठेलिये का उपयोग। इसी तरह जड़/ठस रूढ़ियों और परंपराओं पर लोग अपनी राजनीति की दुकान चलाते रहते हैं।
नदी पूरी तसल्ली से लेती धूप सेंक रही थी। पानी कम सा था। कई जगह नीचे का तल दिख रहा था। पानी की सतह पर एक जगह ऐसे निशान बने थे मानो नदी धूप में लेती हुई अपना बदन खुजा रही हो और नाखून के निशान उसके शरीर पर बन गए हैं। कुछ देर में निशान खत्म हो गए। नीचे की बालू से मिलकर तेज बहते पानी में बुलबुले उठते दिखे। ऐसा लगा नदी के पेट में गैस बन रही हो। नदी गैस निकालते हुए तसल्ली से धूप में लेटी रही।
पानी की कमी के चलते नदी के बीच टापू निकल आया है। शुरुआत में तिकोन सा बन गया है। मानो नदी परिवार नियोजन का आह्वान कर रही हो। छोटा परिवार रहेगा, तभी पानी बचेगा।
पुल के नीचे से निकलकर पानी खिलखिलाता सा बह रहा था। सूरज की किरणें उसको और चमकाए दे रहीं थीं। पुल के ऊपर मालगाड़ी गुजर रही थी। नीचे नावों पर आवाजाही कर रहे थे।
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साइकिल की दुकान पर धूप सेंकते बुजुर्ग
लौटते हुए साईकल की दुकान पर रुकते हुये बतियाये। बुजुर्गवार की आंख अब ठीक हो रही है। कुछ दिन में चश्मा बनना है। लड़का शादी नहीं किया है। 38 साल की उम्र। बोला - 'भोले बाबा की सेवा करना है। पिता की सेवा करना है। शादी करेंगे तो कैसे चलेगा यह सब।'
नदी किनारे रहते हैं लेकिन पानी ख़रीदकर नहाते हैं। 20 रुपये में चार डब्बा पानी खरीदते हैं। 16 लीटर का डब्बा। मतलब करीब 30 पैसे लीटर। पानी वाले की तारीफ करते हैं बुजुर्गवार। मेहनती लड़का है। सुलभ शौचालय अब मुफ्त है। तीन माह पहले 5 रुपये निपटान के देने होते थे।
रिक्शे वाले छुट्टी पर हैं शायद। अपने रिक्शे चमका रहे हैं। टेढ़ा करके टायर धो रहे हैं।
एक महिला मोटर साइकिल पर अपने शौहर के साथ जा रही है। गन्ने का रस पीते हुए बुरका हटाकर अपने बच्चे को प्यार कर रही है। गन्ने का रस भी पिला रही है।
मूंगफली की दुकानें सज रही हैं। मूंगफलियां धूप में अपने को गरमा रही हैं। मस्तिया रही हैं।
रेडियो पर पाकिस्तान द्वारा सीमा पर हमले की खबर आ रही है। चार जवान शहीद हो गए। अब वे धूप नहीं सेंक पाएंगे। संतुलन के लिए पाकिस्तान की चौकियां तबाह करने की खबर भी चल रही है। स्कूल बंद कर दिए गए हैं। करारा जबाब दिया जा रहा है।
एंकर चिल्लाते हुए पूंछ रही है - 'पाकिस्तान को एक बार सबक क्यों नहीं सिखा देते।' हमारे कने एंकर के सवाल का जबाब नहीं है। हमको फैक्ट्री भी जाना है। देश को मजबूत करने के लिए साजो-सामान बनाना है।
उधर एक खबर और चल रही है। दिल्ली में अंकित को जब मारा गया तो लोग वीडियो में आते-जाते दिख रहे हैं। लेकिन कोई सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा है।
एक बहुत डरे हुए , बर्बर समय में जी रहे हैं हम लोग।
हम चलते हैं। आप अपना ख्याल रखना। बाकी का किस्सा भी जल्ली ही सुनाएंगे।

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Thursday, February 01, 2018

गरीबी में भयंकर वंशवाद है

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गाड़ी रुकने के इंतजार में बच्चियां
दफ्तर से लौटते हुए अक्सर नरोना चौराहे पर सिग्नल नहीं मिलता। मतलब लाल बत्ती । रुकना पड़ता है। रुकते ही चौराहे पर खड़े बच्चे लपकते हैं गाड़ी पोंछने के लिए। मना करते-करते कपड़ा मार ही देते हैं। इस बीच गाड़ी चल दी तो ठीक वर्ना जिद करते हैं सफाई करने की। कुछ मिल जाये इस लालच में।
10-12 साल की उम्र के बच्चे माँगने के काम में लग जाते हैं। जब गाड़ी नहीं रुकती हैं तो आपस में खेलते रहते हैं। लड़ाई-झगड़े करते हुए ट्रैफिक सिग्नल लाल होने का इंतजार करते हैं। गाड़ी रुकते ही लपकते हैं कपड़ा लेकर।
अब तो इस तरह किसी को कुछ देने के खिलाफ कानून बन गया है। लेकिन तमाम कानून होते ही हैं अपना उल्लंघन करवाने के लिए। कानून बनने से मांगना थोड़ी कम हो जाएगा।

राजनीति में वंशवाद पर आये दिन हल्ला मचता है। गरीबी में भयंकर वंशवाद है। गरीब घर की अनगिनत पीढियां गरीबी के ही फेंटे में फंसी हैं। गरीबी में वंशवाद खत्म करने के लिए कोई चिंतित नहीं दिखता।
ऐसे ही एक दिन शाम को दो बच्चियां मिलीं। चलते-फिरते माँगने का काम करती। कुछ मिल गया तो ठीक। वरना हंसती-खेलती-बतियाती आगे बढ़ जाती।
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नफीसा और ताजबानों
बातें करते पता चला उनके पिता फेरी लगाते हैं। हाइवे के किनारे झोपड़ी में रहते हैं घर वाले। शाम हुई तो अम्मी ने भेज दिया मांगने के लिए। सौ-पचास रोज मिल जाते हैं।
बच्चियों के नाम नफीसा और राजबानों हैं।एक के हाथ में दोने में आलू टिक्की और दूसरे के हाथ मे लिट्टी है। किसी दुकान वाले ने दी है। उसे तसल्ली से खाने के लिए पकड़े है हाथ में।
एक के छह भाई बहन हैं, दूसरी के चार। गरीबी है और मांगना आसान सा इसलिए चौराहे पर आ गईं। भीख मांगने वाले धन के समान वितरण में सहयोग का प्रयास टाइप करते हैं। कुछ लोगों के पास बहुत मात्रा में पैसा जमा है इसलिए उसको निकालने के लिए ज्यादा मांगने वाले चाहिए। इसीलिए शायद मांगने वालों की संख्या बढ़ रही है। मांग और आपूर्ति का नियम।
बच्चियां पढ़ने नहीं जाती। कभी नहीं गयी। सीधे जिंदगी के स्कूल में दाखिल हो गईं। जहां कोई एडमिशन फीस नहीं लगती।
समय बिताने के लिए कुछ बात करने टाइप करते हुए हम उनसे स्कूल जाने के लिए कहते हैं। पत्नी जी कहती हैं , चलो हमारे घर वहां रहना। स्कूल में नाम लिखा देंगे, पढ़ना।
बच्चियां कहती हैं-अम्मी से पूछकर बताएंगे।
इसके बाद से मुलाकात नहीं हुई उन बच्चियों से। लेकिन उन जैसे बच्चे रोज दिखते हैं।
बजट पेश होगा आज। उनमें गरीबों के लिए तमाम योजनाएं होंगी। लेकिन वे सब इन बच्चों तक पहुंच नहीं पहुंच नहीं पाती हैं। वहीं कहीं दिल्ली के जाम में फंस जाती हैं।
चौराहों पर मांगने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती जाती है।

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