Tuesday, July 23, 2019

लेह की सुबह



रात देर लौटकर आये। आराम से बतियाते हुए सो गए। सबेरे-सबेरे लगा कि कोई खिड़की खड़खड़ा रहा है। देखा तो हवा थी। शायद हमको उलाहना दे रही थी कि यहां क्या सोने आये हो? उठो, निकलो, देखो बाहर के नजारे। अभी मुफ्त हैं, क्या पता कल टैक्सिया जाएं।
छह बजे गए थे। बाहर निकले। सुबह हो चुकी थी। आसमान पर सूरज भाई की सरकार बन चुकी थी। हर तरफ उनका जलवा बिखरा हुआ था। हर पहाड़ पर उनकी ही किरणें बिखरी हुईं थी।
सामने एक पहाड़ पर थोड़ी ऊंचाई पर देखा एक कुतिया अपने पिल्ले को बेहद अपनापे से प्यार कर रही थी। उसके पूरे बदन को चूमती हुई। दुलराती हुई। पुचकारती हुई। दूर होने के चलते फोटो साफ नहीं आया। लेकिन याद के लिए जूम - फोटो तो ले ही लिए।
सबेरा हो गया लेकिन चाय अभी तक नदारद थी। जिस जगह ठहरे थे वहां आसपास कोई दुकान भी नहीं कि जाकर चाय पी आएं। मेस थी। उस दिन इतवार भी था। कुक को आराम से आना था , यह भी बाद में पता चला।


थोड़े इंतजार के बाद चयास बढ़ी तो वीरबालक की तरह किचन में धंस गए। किचन किसी कुंवारे बालक की रसोई की तरह बेतरतीब सा बिखरा हुआ था। वहां पहुंचते ही हमारे स्वागत में एक डम्प्लाट चूहा निकल कर आया। शायद किचन का यही प्रोटोकाल होगा।
हमको लगा कि हमको देखकर चूहा डरकर भाग जाएगा। लेकिन वह पट्ठा तो एक रैक से दूसरी रैक, एक डिब्बे से दूसरे डब्बे पर चढता-उतरता रहा। किचन में इस तरह निर्बाध टहलता रहा जैसे किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष एक देश से दूसरे देश टहलता हो या फिर रिटायरमेंट की बढ़ता हुआ कोई अफसर एक के बाद दूसरा ताबड़ तोड़ दौरा करता हो।


जब चूहा हमसे डरा नहीं तो हमने भी उसको नजरअंदाज कर दिया। वह भी अपने करतब दिखलाकर किसी डिब्बे में सोने चला गया। हमने फिर चाय बनाने के लिए, चीनी के डब्बे और दूध की खोज शुरू कर दी। सब मिल गए लेकिन पानी नदारद। कमरे में जाकर पानी लाये और चाय बनाई। चाय की पत्ती किसी भी ब्रांड की रही हो लेकिन पीते हुए मन हुआ कहें -'वाह ताज।' लेकिन फिर कहा नहीं । कारण आपको पता ही है।


ड्राइवर लखपा अपने समय से पांच मिनट पहले हाजिर हो गए। हम तब तक तैयार नहीं हुए थे। देरी की तोहमत एक-दूसरे पर डालने की कोशिश की। लेकिन देरी की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली। अंततः तय हुआ कि अभी देर नहीं हुई है। यह तय करने के बाद सबने सुकून की सांस ली।
सुकून की सांस लेने के बाद सब लोग दूसरे से जल्दी तैयार होने की बात कहते हुए आराम-आराम से तैयार हुए। तैयार होकर नाश्ता किया। चलते हुए मेस का बिल दिया। सत्रह सौ करीब आया बिल जिसमें एक हजार कमरे का किराया था।


चलते समय देखा कि काम करने वाले आ गए थे। आसपास के गांवों से आते हैं। गावों में खेती भी है। लेकिन खेती के लिए वे बारिश पर नहीं निर्भर रहते। पहाड़ से पिघलने वाली बर्फ के पानी से सिंचाई होती है। पहाड़ की बर्फ लेह-लद्दाख की जीवन रेखा है।
हम सारा सामान गाड़ी में लादकर निकल लिए। हमारा अगला पड़ाव नुब्रा घाटी था।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217229987635216

Monday, July 22, 2019

लेह में पहला दिन




जैसा लोगों ने बताया था उससे लगा कि लेह पहुंचते ही सांस लेने में तकलीफ होने लगेगी। चलते हुए हांफने लगेंगे। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। मौसम एकदम चमकदार और चकाचक था। हमको लगा कि मौसम के यह दांत दिखावटी हैं। कुछ देर बाद असली रंग दिखेगा। हम उसके इंतजार में थे।

एयरपोर्ट पर ड्राइवर हमको लेने आये थे। नाम लखपा। हमारे दोस्त अंकुर के मार्फ़त । रहने की व्यवस्था एयरपोर्ट के पास ही एक मेस में थी। वहां जाने के रास्ते में सेना द्वारा व्यवस्थित 'हाल आफ फेम' दिखा । इसमें लद्दाख के बारे में और सेना के विविध आपरेशन के बारे में जानकारियां हैं। उनको बाद में देखने के लिये सोचते हुए हम अपने ठिकाने पहुंचे।
मेस में पहुंचते ही चाय-पानी हुआ। इसके बाद डायमोक्स खा कर लेट गए। अनुशासित मुद्रा में। सब कुछ सामान्य सा महसूस करते हुए लगा कि लेह में खराब मौसम का हल्ला अफवाह ही है।


कुछ देर बाद बाहर टहलने निकले। बगल में ही निर्माण का काम चल रहा था। बातचीत हुई। पता लगा कि वे लोग पास के ही गांव के रहने वाले हैं। बड़े-बड़े पत्थर को स्थानीय मिट्टी के गारे से जोड़ते हुए दीवार खड़ी कर रहे थे।
बातचीत के दौरान पता चला कि कुछ साल की अस्थाई मजदूरी के वे स्थाई कर्मचारी हुए। सभी अनपढ़। उम्र का कोई कागज नहीं। स्थाई करते समय अधिकारी ने उनकी सेहत और शायद व्यवहार के चलते अंदाज से उम्र लिख दी। जो लिख गयी सो लिख गयी।
कामगारों ने 'बूझो तो जाने' वाले अंदाज में अपनी उम्र का अंदाजा लगाने को कहा। हमने कुछ लगाया लेकिन वह गलत बताया उन्होंने। पता चला कि एक कि उम्र 71 साल है और उसके रिटायर होने में अभी भी कुछ साल बाकी हैं। दूसरे ने भी अपनी उम्र साठ पार बताई। यह बताते हुए उन्होंने कहा -'पहले सब ऐसे ही हो जाता था। अब तो इतना कागजबाजी होता है कि हम तो भर्ती ही न हो पायें।'


मेस में काम करने वाले भी कोई महाराष्ट से कोई झारखण्ड से। लेह कठिन स्टेशन है। यहां से शायद दो साल बाद वापस तबादला हो जाता है। कई लोग उसके इंतजार में थे। जाड़े के कठिन मौसम के किस्से भी सुनाये लोगों ने।
मेस में पानी की टंकियों से सप्लाई होता है। 'वाटर बाउजर' हम लोग जबलपुर की फैक्ट्री में बनाते थे। वहां की सप्लाई यहाँ दिखी। अच्छा लगा।
मैदान में जगह-जगह बंकरनुमा गोडाउन बने थे। बादल आसमान में मुफ्तिया ठहलाई कर रहे थे। एक जगह पेट्रोल पम्प नुमा जगह दिखी। देखा तो मिट्टी के तेल का पम्प था। मिट्टी का तेल यहाँ जरूरत है , शायद नियामत भी।






शाम हुई तो लगा कि टहल लिया जाए। हमने ड्राइवर साहब को बुलाया। वे आ गए। बाजार टहलने निकले। सड़कों पर जाम बचाने के लिए गाड़ियां अनुशासन में खड़ी दिखीं। हमारी गाड़ी भी पार्किग में रही।
बाजार में एक जगह चबूतरे पर एक बुजुर्ग लोगों को उनका भविष्य बता रहे थे। एक यन्त्र की सहायता से। लोगों के पूछने के अंदाज से लगा कि वे भी मजे ले रहे हैं। पूछने वाले -बताने वाले दोनों एक ही घराने -'टाइम पास' घराने के लगे। यह बात अलग कि बताने वाले को कुछ आय भी होने की आशा थी।
बाजार टहलने के बाद पास के ही एक बौद्ध स्थल देखने गए। शांति स्थल।
बौद्ध स्थल थोड़ा ऊंचाई पर है। पहुंचते ही वहां लोगों को कैमरा बाजी में जुटते देखा। आजकल लोगों के मोबाइल में कैमरे का साइड इफेक्ट यह भी है कि कहीं भी पहुंचते ही लोग वहां के दृश्यों को दुश्मन को देखते ही गोलियों से छलनी करने वाले अंदाज में शूट करने करने लगते हैं। हमने भी किया। कुछ फोटो बावजूद तमाम लापरवाही के अच्छी भी आईं।


बुद्ध स्थल से लौटकर हमने रात का खाना बाहर ही खाया। तीन लोगों के खाने का खर्च 400 रूपये से कम ही रहा। यह इसलिए बताया कि अंदाज लग सके कि लेह-लद्दाख में खाना-पीना किसी और शहर जैसा ही है। महंगा नहीं।




खाते-पीते हुए रात हो गयी थी। बाजार बंद हो रहे थे। हम वापस लौट आये। अगले दिन हमको नुब्रा जाना था। ड्राइवर ने जल्दी तैयार होकर चल देने के लिए कहा। हमने भी हामी भर ली। लेकिन खाली हामी भरने से क्या होता है।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217223242466591

Sunday, July 21, 2019

लेह-लद्दाख वाया लखनऊ-दिल्ली


लेह-लद्दाख घूमे पिछले हफ्ते। कानपुर से लखनऊ, दिल्ली होते हुए लेह पहुंचे। लेह का मौसम बहुत हाहाकारी बताया था हमारे दोस्तों ने जो पिछले महीने यहाँ से घूमकर गये थे। सर्दी इतनी कड़क बताई थी कि हम तमाम स्वेटर और ठंड वाले कपड़े लादकर लाये थे। लेकिन जब लेह पहुंचे तो मौसम एकदम आशिकाना सा था। बड़ी गर्मजोशी से खिली धूप ने स्वागत किया। सर्दी कहीं दाएं-बाएं हो गई थी। शायद उसको भी हमारी और सूरज भाई की दोस्ती का अंदाज लग गया था।



लेह लखनऊ दिल्ली होते हुए आये। लखनऊ एयरपोर्ट पर चाय की दुकान पर चाय लेने गए। साथ में चिप्स भी। छोटा पैकेट लिये तो सेल्सबच्ची ने मजे लिए -'पैसे बचा कर क्या करेंगे।' बिना उसकी बातों के झांसे में आये उससे बतियाये। पता चला कि मुंबई से आई है नौकरी करने। घर आजमगढ़ है। सुबह छह बजे से ड्यूटी। खुद चाय पी कि नहीं पूछने पर बोली -'पहले पेट पूजा, बाद काम दूजा।'
जहाज में चढ़ने पर पता चला कि इकोनामी वाला टिकट अपग्रेड होकर चौड़ी सीट वाला हो गया। पचास मिनट के मुफ्तिया अपग्रेडेशन का खराब असर यह हुआ कि हम हर बार बोर्ड करते हुए सोचते कि यहां भी वीआईपी सीट हो जाये।
दिल्ली से लेह जाते हुए खूबसूरती खिलने लगी। बादल, पहाड़, धूप, बर्फ की चमकदार जुगलबंदियाँ दिखने लगीं। हर जुगलबंदी पहले से अलग और अपने में अनूठी। लेह में उतरे तो मौसम खिला-खिला और खुला-खुला दिखा।
लेह में एक दिन मौसम से तालमेल बिठाया गया। ऊँचाई पर लगभग जरूरी सी दवाई डायमोक्स लेना शुरू किया। जब तक पहाड़ पर रहे लेते रहे।
हालांकि लेह में पहला दिन आराम का ही रहता है लेकिन दोस्ताना मौसम देखकर शाम को बाहर निकले। बाजार चकाचक सजा था लेकिन कोई हड़बड़ी नहीं थी किसी को। फुटपाथ के अधिकतर दुकानदार या तो बगल के दुकानदारों से बतिया रहे थे या मोबाइल में व्यस्त थे। फुटपाथ में कतार से सब्जी बेचती महिलाएं या तो स्वेटर बुन रहीं थी या फिर मोबाइलिया रहीं थीं।
बाजार की बीच की बड़ी फुटपाथ पर बनी बेंचो पर बैठे हुए तमाम बुजुर्ग समय को आहिस्ते, बुजुर्गियत और तसल्ली से बीतते देख रहे थे। कई लोग इन बेंचों के आसपास अलग-अलग पोज में फोटो खिंचा रहे थे। एक लड़का साइकिल को चलाते हुए झटके से उठाकर फुटपाथ पर चढ़ाने का स्टंट टाइप कर रहा था।
बाजार में पर्यटकों के अलावा तमाम ऐसे भी लोग थे जो यहां काम खोजने आये थे। इनमें से अधिकतर लोग बिहार, झारखण्ड के मिले।

तिब्बत रिफ्यूजी बाजार में भी ज्यादातर दुकानदार तसल्ली से बैठे थे। ग्राहकों पर झपटने, उन पर कब्जा करने और सामान टिका देने की नीयत नहीं दिखी।
तिब्बती बाजार के बाहर सड़क पर एक बच्ची चलते हुए अपने टैब पर कुछ पढ़ती हुई दिखी। वहीं बाहर चाय की दुकान पर लोग अलग-अलग तरह की चाय पीते दिखे। और भी अलग-अलग तरह के चित्र जो अब यादों में गड्ड-मड्ड हो गए हैं।






लेह लद्दाख के दिन 'नेट विपश्यना' के दिन रहे। किसी भी कम्पनी के प्रीपेड पर फोन बंद। बीएसएनएल के अलावा पोस्ट पेड केवल लेह में चला। बाकी सब जगह केवल बीएसएनएल के पोस्ट पेड फोन ही चले। अच्छा ही हुआ, वरना हम प्रकृति सुषमा निहारने की बजाय नेटबाजी ही करते रहते।


अब जब वापस लौट आये हैं तो पुराने किस्से सारे गड्डमड्ड हो गए । किसको सुनायें , किसको छोड़ दें तय करना मुश्किल। दूसरी तरफ झउआ भर फोटुएं हल्ला मचाये हैं कि हमको दिखाओ, हमारे बारे में बताओ, हमको मंच दो। रास्ते के कई खूबसूरत वीडियो भी हैं। उनको जितनी बार देखते हैं , फिर देखने का मन करता है। कोशिश करेंगे कि उनमें से कुछ आपको भी दिखा सकें।





https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217216171569823

Monday, July 08, 2019

'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी ' का सड़क पर विमोचन


कल पंकज बाजपेयी से मिले। बहुत दिन बाद। गए तो ठीहे पर नहीं थे। ठीहा मतलब डिवाइडर जहाँ वो बैठे मिलते हैं। ठीहे पर नहीं मिले तो इधर-उधर देखा। लगा कि कहीं निकल गए होंगे। लेकिन ज्यादा खोजना नहीं पड़ा। वहीं मोड़ पर सड़क पार करते दिख गए। आवाज दी तो रुक गए। लौटे। पास आकर बोले -' कहां चले गए थे? बहुत दिन बाद आये।'

जलेबी-समोसा लेकर खुश हो गए। हाल चाल बताया सब ठीक है। बोले - ' मम्मी से मिल लेना।'
किताब साथ ले गए थे। दिखाई तो खुश हुए। बोले बहुत बढ़िया है। किताब में उनसे जुड़े कई किस्से हैं। पढ़वाया तो पढ़ते हुए बोले -' ये तो हमारे बारे में लिखा है। हमको देना पढेंगे।'
हमने कहा -' यह किताब तुम्हारे लिए ही लाये हैं। ले लो।'
बोले -' अभी हम देर में घर जाएंगे। अगली बार आना तब लेते आना।'


हमने किताब को पंकज बाजपेयी को दिया। विमोचन मुद्रा में फोटो लेने के लिए कहा। एक हाथ में कई दिन पुराना अखबार और झोला थामे पंकज जी ने एक हाथ से किताब सामने करके पोज दिया। हमने कहा -' झोला नीचे धर दो। दोनो हाथ से पकड़कर करो विमोचन। '
इस पर बोले -' सड़क पर गंदगी बहुत है। झोला गन्दा हो जाएगा।' लेकिन हमारी बात मानकर किताब दोनों हाथ में पकड़कर फोटो खिंचाये।
इस तरह बीच सड़क पर घूमते हुए सम्पन्न हुआ - 'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी' का विमोचन।
विमोचन के पहले चाय भी पी गयी। चाय वाला भी कह रहा था - 'बहुत दिन बाद आये।'
विमोचन के बाद हालचाल हुए। इसके बाद मोलभाव। पंकज बक़जपेयी बोले - 'अबकी बार बहुत दिन बाद आये हो। ज्यादा पैसे लेंगे। '
हमने पूछा - ' कितने ?'
बोले -' पचास । '
हमने बचे हुए फुटकर सारे पैसे उनको थमा दिए। कहा - 'पचास रुपये ले लो।'
पंकज जी ने पचास रुपये गिनकर निकाले। बाकी वापस कर दिए। दो बार गिने पैसे - कहीं, कम ज्यादा तो नहीं हो गए।


पैसे देने के बाद हमने पूछा -' क्या करोगे इसका ?'
बोले -' चाय पियेंगे।'
हमने कहा -' चाय तो तुमको सब मुफ्त में पिलाते हैं। फिर किसका पैसा?'
बोले -' मिठाई नहीं खिलाते हैं।'
फिर बोले - 'हम तुमको इसका सर्टिफिकेट देंगे। नोट जलाने का सर्टीफिकेट।'
इसके बाद गाडी की तारीफ की। बोले-' इसको बेंचना नहीं। ' इसके बाद बोले -' इसके शीशे में आटोमैटिक सिस्टम क्यों नहीं है।'
इसी तरह की और भी तमाम बेतरतीब बातें जिनका कोई तारतम्य जोड़ना मुश्किल। मानसिक रूप से टहल गए इंसान की बातें समझना मुश्किल बात।

इस तरह देखा जाए तो हम लोग ही कौन तरतीब से बातें करते हैं। न जाने क्या आंय-बांय-सांय लिखते-बोलते-छपाते रहते हैं। इस किताब में भी ऐसा ही तमाम कुछ है । किताब जिसका कल विमोचन हुआ। किताब जिसका नाम है -' घुम्मकड़ी की दिहाड़ी।'
सड़क पर घूमते हुए इकट्ठा किये हुए किस्सों की किताब का सड़क पर घूमते हुए इंसान द्वारा विमोचन । अरविंद तिवारी जी के शब्दों में - 'ग़ज़ब लेखक की पुस्तक के अजब विमोचनकर्ता ।'

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217127547354273

Saturday, July 06, 2019

सपने में साहित्य

 सबेरे उठे तो देखा पानी बरस रहा था। बहुत धीमे-धीमे। गोया कोई बुजुर्ग (मल्लब अकल बुजुर्ग) लेखक समसामयिक साहित्य की दशा पर टसुये बहा रहा हो। बुजुर्गवार को बड़ा ख़राब टाइप फील हो रहा है कि साहित्य का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है। दर्द गिरने का, पतन का उत्ता नहीं है जित्ता इस बात का कि सारा पतन उससे बिना पूछे हुआ जा रहा है। मल्लब उनको मार्गदर्शक साहित्यकार बना दिया गया हो। साजिशन।

बीच में पानी तेज हुआ। लगा बुजुर्ग हड़काने लगे हों। लेकिन जल्दी ही हांफकर फिर टसुये मोड में आ गये। पानी सहज गति से गिरने लगा।

ऊपर वाली पतन कथा में करेला में नीम इस बात पर कि पतन में भी सामूहिकता की भावना गायब होती देखकर बुजुर्ग का मन खून के आंसू रोने का कर रहा था । वे रोने की तैयारी भी कर चुके थे। बस शुरू ही होने वाले थे कि उनको याद आया कि खून की रिपोर्ट में हीमोग्लोबिन कम निकला था। मन मसोसकर सिर्फ टसुये बहाकर रह गए।

पानी गिर रहा था। तेज गिर रहा था। मानो बादल पानी गिराकर कहीं फूट लेना चाहते हों। जैसे सरकारें विकास करके निकल लेती हैं किसी इलाके से। सड़क खोदकर, तालाब पाटकर, घपले करके, व्यवस्था चौपटकर और जाते-जाते यह 'नियति टॉफ़ी' थमाकर :

होइहै सोई जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ाबहि शाखा।

ऊपर पानी की टोंटी खोले हुए बदली बगल की बदली से बतियाती भी जा रही थी। बता रही थी कि एक बादल कुछ दिन उसके साथ रहा। जब तक पानी बरसाने का आर्डर नहीँ हुआ तब तक उसके आगे-पीछे घूमता रहा। लेकिन जैसे ही पानी बरसाने की ड्यूटी लगाई गयी वो निगोड़ा बादल मुम्बई की तरफ भाग गया। बोला - 'हिरोइन को ही भिगोयेगें।' हमने बहुत समझाया -'अरे पानीभरे हीरोइनें बारिश के पानी से थोड़ी नहाती हैं। उनके लिए अलग से रेन डांस का इंतजाम किया जाता है। यहीं कुली कबाड़ियों के शहर में बरस। खुश रह। नहीँ माना। भाग गया मुंबई। आज फोन आया था। सारा पानी किसी सड़क पर उड़ेलकर खलास हो गया था। हमने कहा - 'सड़क, सीवर पर ही उड़ेलना था पानी तो कानपुर क्या बूरा था।'
सहेली जरा साहित्यिक टाइप थी। बोली -'सही कह रही डियर। कूड़ा ही लिखना है तो क्या अखबार, क्या पत्रिका।' लेकिन तक तक उसकी सहेली बगल के बादल से बतियाने लगी थी। बादल उसके आगे- पीछे होते हुए 'लेडीज फर्स्ट' सोचते हुए चुप रहा। बदली उसकी इस बेवकूफी पर रीझने को हुई कि इस गबद्दु को यह तक पता नहीं कि बातचीत की शुरुआत पहले बादल को करनी होती है। 'लेडीज़ फर्स्ट'गलत सन्दर्भ में ले रहा है पगला।

बदली का एक बार मन किया कि बादल की बेवकूफी बताते हुए वह ही शुरू करे लेकिन फिर मन मार लिया उसने। उसको लगा कि अगर बादल सही में बेवकूफ हुआ तो फिर वह अपनी बेवकूफी कहां खपायेगी। यह सुनते हुए कि जो नायिकाएं बेवकूफी की हरकतें मासूमियत से कर लेती हैं उन पर नायक जल्दी फ़िदा होते हैं, बदली ने बेवकूफी और मासूमियत के मरजावां नमुने (अंग्रेजी में कहें तो डेडली कंबीनेशन) के तौर पर खुद को तैयार किया था। इश्क मोहब्बत में बेवकूफी-बेवकूफी का जोड़ा मिलता नहीं। पिक्चर तक में हीरो-हीरोइन अमीर-गरीब टाइप चलते हैं। दोनों गरीब हों तो इश्क की गाडी जाम में फंस जाती है।

पानी अचानक बहुत तेज हो गया। मानों सीमा पर बमबारी हो गयी हो। या फिर कोई महगाई से पीड़ित कोई वीर रस का कवि माइक पाकर पाकिस्तान को गरियाने लगा हो। रामचरित मानस की चौपाई याद आ गयी:
बूँद अघात सहैं गिरि कैसे
खल के वचन सहैं संत जैसे।

लेकिन अब गिरि मतलब पहाड़ बचे कहां जो बारिश की बूंदे उन पर गिरें। सब पहाड़ तो जमीन से मिला दिए गए। स्टोन माफिया काट ले गए उनको। और अब संत भी ऐसे कहां बचे जो खल के वचन सहन करें। अब तो संत को कोई कुछ बोले तो उनकी भक्तमंडली खल के मुंह में त्रिशूल घुसेड़ कर मुंह चौडा कर दें, कटटा मुंह में डाल के खाली कर दें। इसीलिये तमाम खल अब संतों के यहां ड्यूटी बजाते हैं।
अचानक बादल गरजने लगे और दूसरी चौपाई बिना पूछे सामने आकर इठलाने लगी:
घन घमंड गरजत नभ घोरा
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।
लेकिन हमारा डर ये वाला नहीँ है। दूसरा है। थोड़ा क्यूट टाइप है। स्वीट भी। अब आपको क्या बताएं , आप तो सब जानते हैं।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217112107648290

घुमक्कड़ी की दिहाड़ी



कनपुरिया घुमक्कड़ी के किस्से - घुमक्कड़ी की दिहाड़ी। Puranik जी ने इसका नामकरण (हमारी किताबों का नामकरण उनके ही जिम्मे है) के पीछे का तर्क बताया - घूमने में जो अनुभव हुए वही असली कमाई है बाकी सब फर्जी है। किताब की भूमिका भी आलोक पुराणिक जी ने ही लिखी है। आलोक पुराणिक कहते हैं :
"दुनिया तमाशा है यह कहने के लिए दार्शनिक औऱ फुरसतिया और दोनों एक साथ होना बहुत जरुरी होता है। अनूप शुक्लजी दोनों एक साथ हैं-दार्शनिक औऱ फुरसतिये भी। सिर्फ दार्शनिक होने से काम ना चलता, सौ सौ जूते खाये, तमाशा घुसके देखे-वाली प्रतिबद्धता आवश्यक है। दुनिया कई तरह की है। हरेक की अपनी दुनिया है। दफ्तर से घर, घऱ से बाजार, बाजार कभी लोकल बाजार, कभी महंगा माल, बच्चों जैसी उत्सुकता से दुनिया को देखने का अलग आनंद है, अलग दुख भी है। निस्पृह होकर देखो, तो बंदा दर्शन की ओर जा सकता है। अनूप शुक्लजी एक साथ आवारा, दार्शनिक और समाजसेवी की भूमिका में घूमते रहते हैं। कुल मिलाकर वह ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो हर तमाशे को पूरी संजीदगी से वक्त देकर देखते हैं, हालांकि उनके पास वक्त होता नहीं है। पर ऐसी नावक्ती में भी पूरी गंभीरता से आवारगी के लिए वक्त निकालना यह दर्शाता है कि वह अगर कुछ जिम्मेदारियों से बंध ना गये होते, तो मार्को पोलो या मेगस्थनीज टाइप ग्लोबल घुमक्कड़ वृत्तांतकार बन सकते थे।"
आलोक पुराणिक यह भी कहते हैं:
"यूं आलोक पुराणिक जब अनूप शुक्ल को वृत्तांत कार बताते हैं तो अनूप शुक्ल इसे साजिश मानते हैं आलोक पुराणिक की, कि वह अनूप शुक्ल जी को व्यंग्य के मैदान में उतरने से रोकना चाहते हैं।इसलिए उनको सिर्फ वृत्तांत कार मानकर सीमित कर देते हैं। पर वृत्तांत कार का कैनवस बहुत बड़ा होता है।"
आगे की कहानी किताब में ही। फिलहाल तो किताब उपलब्ध होने की सूचना।
किताब कानपुर के बचपन के दोस्तों को समर्पित है। लिखने में हमारे नियमित पाठकों का योगदान रहा जिनकी प्रतिक्रियाएं हमको लिखने को उकसाती रहीं। सभी का आभार।
किताब मंगाने की कड़ियां नीचे दी गई हैं:

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217112182490161

Thursday, July 04, 2019

अवसाद का तारतम्य और बेवकूफी की बातें

कल एक बच्ची कोने में खड़ी सुबक रही थी। उसके पापा "लो बीपी" के चलते आई.सी.यू. में भर्ती हैं। हमने उसको समझाया। चुप कराने का प्रयास किया। कहा -"चिंता मत करो। सब ठीक हो जायेगा।" फिर भी वह सुबकती रही। फिर मैं उसके पापा की बीमारी के बारे में पूछने लगा। वह सुबकते हुए बताती रही।पता चला वह एक स्कूल में टीचर है।

मैंने पूछा -क्लास में कितने बच्चे हैं?
उसने बताया-35
इस पर मैंने कहा। 35 नहीं अब तो 36 हो गये। तुम बच्चों की तरह रो रही। टीचर भी अब बच्ची में ही गिनी जायेगी न!
यह सुनते ही वह सुबकना स्थगित करके मुस्कराने लगी। फिर सुबकना बंद ही कर दिया।
अवसाद का तारतम्य तोड़ने के लिए अक्सर बेवकूफी की बातें भी बड़ा काम आती हैं।
आज मिलने पर फिर मैंने पूछा- तुम्हारे स्कूल में प्रार्थना कौन सी होती है।
"वी शैल ओवरकम वन डे।" उसने बताया।
फिर प्रार्थना यहाँ कैसे भूल गयी?
सुनकर वह फिर मुस्कराने लगी और मेरी माँ की तबियत के बारे में पूछने लगी।
[ पांच साल पहले का किस्सा । जब अम्मा के इलाज के लिये हम इंदौर अस्पताल में डेरा डाले थे। 🙂 ]

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217097224356217