Tuesday, January 30, 2007

गांधीजी, निरालाजी और हिंदी

http://web.archive.org/web/20140419215313/http://hindini.com/fursatiya/archives/237

गांधीजी, निरालाजी और हिंदी

निराला जी विलक्षण, स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे जिन लोगों का बेहद सम्मान करते थे उनसे भी अपनी वह बात कहने में दबते न थे जिसे वे सही मानते थे। किसी का भी प्रभामंडल उनको इतना आक्रांत न कर पाता था कि वे अपने मन की बात कहने में हिचकें या डरें।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को निराला बहुत मानते थे। हिंदी में लिखना शुरू करने पर उनका आशीर्वाद मांगा। एक बार अपने गांव गढ़ाकोला(उन्नाव) से दौलतपुर(उन्नाव) की १६-१७ मील की दूरी पैदल तय करके द्विवेदीजी से मिलने गये।
जब निरालाजी ने ‘मतवाला’ निकालना शुरू किया तो ‘सरस्वती ‘ पत्रिका की कुछ आलोचना भी की। सरस्वती पत्रिका से द्विवेदी जी जुड़े रहे थे इसलिये स्वाभाविकत: उन्हें अच्छा न लगा। इसके बाद निरालाजी ने अपनी एक कविता द्विवेदी जी के पास सम्मति के लिये भेजी तो उन्होंने ‘मतवाला‘ का पूरा अंक रंग डाला। उसकी तमाम अशुद्दियां दिखाकर उसे निराला के पास भेज दिया।
निराला ने उनको लिखा-सरस्वती-सम्पादक के विषय म लिखै बैठेन तो हमहूं ५/६ पन्ना लिखि डारा। मुला पीछे जाना कि तुम्हार समय अकारण नष्ट होई तब फारि डारा।( सरस्वती संपादक के विषय में लिखने बैठा तो हमने भी ५/६ पन्ने लिख डाले लेकिन जब सोचा कि आपका समय बेकार मेंनष्ट होगा तो उनको फाड़ डाला)
मतलब निरालाजी ने अपने गुरुदेव को बताया कि हमने आपके प्रिय पत्र की आलोचना नहीं की इसलिये कि आपका जवाब देने में बेकार समय नष्ट होगा।
निराला नयी कविता के प्रवर्तक थे। ‘छायावाद‘ शब्द प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने जहां किसी को नयी कविता की नुक्ताचीनी करते पाया कि उस पर दुहत्था वार किया। लतीफे और चुटकुले उनको खूब याद थे। इनका उपयोग बड़े कौशल से करते थे। किन्हीं स्वामी नारायणानन्द सरस्वती ने छायवादी कविता का मजाक उड़ाया था। निराला ने उन्हें आड़े हाथों लिया,” ‘छायावाद‘ पर आपने जो कुछ लिखा है, उसे पढकर हमें एक देहाती कहावत याद आ गयी। किसी लड़के ने अपने पिता से कहा था, बाबूजी मैं भी ‘फफीम’ खाउंगा। पिता ने जवाब दिया, पहले नाम सीख लो, फिर ‘फफीम’ खाना।” मतलब पहले कविता सीख लो तब उसकी आलोचना करना!
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के छायावाद विरोधी कवित्त का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा-”साहित्य में इस तरह की आवाज, प्रचार आदि यद्यपि इस समय असभ्यता और गंवारपन का परिचय देते हैं, परन्तु हमारे लिये इसको स्वीकार करने के सिवा दूसरा उपाय ही क्या है? अतएव शुक्लजी गद्य में लिखें, हम उन्हें उत्तर देने के लिये तैयार हैं। अवश्य पद्य में इस तरह की बकवास करन हम नहीं जानते।
‘विशाल भारत’ के सम्पादक बनारसी दास चतुर्वेदी छायावाद के प्रखर विरोधी थे। उन्होंने लिखा- “गदर मचा हुआ है। कहां? हिंदी साहित्य में। जाने कहां-कहां के वाद ढूंढ़ निकाले हैं, छायावाद,कायावाद, मायावाद।”
जोशी बन्धुओं ने भी निराला की आलोचना की। निराला ने लेख लिखा- ‘कला के विरह में जोशी बन्धु’। उन्होंने लिखा- “जिस रोज मैंने साहित्य के खाते में नाम लिखाया, उसी रोज से हिंदी साहित्य के आचार्यों ने पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया कि जब तक जियो, अपने हाथों अपनी नाक काट कर दूसरों का सगुन बिगाड़ते रहो, बस साहित्य सेवा के यही मायने हैं।”
निराला के विरोधी जितना ही दांत पीस रहे थे, निराला उन पर उतना ही हंस रहे थे, उन्हें और चिढ़ा रहे थे। जैसे कोई बड़ा पहलवान किसी नौसिखिये को खिला-खिलाकर अखाड़े में पटकता है, वैसे ही निराला ने जोशी बन्धुओं को उछाला फिर से पटका। उनके अनर्गल शब्दजाल को अपनी तीक्ष्ण तार्किक निगाह से छिन्न-भिन्न कर डाला।
रवीन्द्र नाथ टैगोर निराला के प्रिय कवि थे। उनके गीत वे गाते-गुनगुनाते रहते। लेकिन बात जब भाषाऒं की तुलना की आ जाये तो वे अपने को टैगोर कम नहीं मानते थे। बांगला भाषा से उनकी सहज प्रीति और टैगोरे की तारीफ की बात अलग थी लेकिन जब बात हिंदी और हिंदी कवियों से तुलना की आती तो निराला बंगाली की तमाम कमियां गिनाने लगते और गुरुदेव के आध्यात्मिक काव्य दोष गिनाने लगते।
ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी जो कि हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे उनसे भी निराला जी भिड़ गये। महात्मा जी ने इंदौर के साहित्य सम्मेलन में अपने उदगार व्यक्त किये- “इस मौके पर अपने दुख की भी कुछ कहानी कह दूं। हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने, मैं उसे छोड़ नहीं सकता। तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिंदी पर मेरा मोह रहेगा ही। लेकिन हिंदी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं? प्रफुल्लचन्द्र राय कहां हैं? जगदीश बोस कहां हैं? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरी अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छा मात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले हैं। लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आशा रखी ही जायेगी।”
निरालाजी जगदीश चन्द्र बोस और प्रफुल्लचन्द्र राय का नाम तो जल्दी भूल गये लेकिन उनके मन में एक नाम अटका रहा-रवीन्द्रनाथ। गांधीजी पूछ रहे हैं- “हिंदी में रवीन्द्रनाथ कहां है?”
फिर लखनऊ में महात्मा गांधी से मुलाकात करके निरालाजी अपनी बात कहनी चाही कि हिंदी में रवीन्द्रनाथ कौन है लेकिन महात्माजी के पास समय नहीं था उनको सुनने का।
इस बातचीत का विवरण निरालाजी ने दिया है अपनी आत्मकथा में। यह विवरण पढ़िये और देखिये कि किस तरह निरालाजी ने गांधीजी को एक तरह से टोंका कि जब वे हिंदी के बारे में कुछ जानते नहीं तो उसके बारे में बयान क्यों जारी करते हैं।
यह उन दिनों बहुत बड़ी बात थी कि गांधीजी, जिनको पूरा देश अपना मसीहा मानता हो, एक हिंदी का साहित्यकार टोंके कि आपको जब हिंदी के बारे में पता नहीं तो आप फतवे क्यों जारी करते हैं।
लेकिन यह निराला ने किया। क्योंकि वे निराले थे। किसी से भी दबते नहीं थे। सम्मान अपनी जगह लेकिन स्वाभिमान अपनी जगह।
यहां निराला जी से गांधीजी से बातचीत दी जा रही है। निरालाजी के इस लेख से उस समय की स्थिति का अन्दाजा भी लगता है। इस बातचीत के बाद ही निरालाजी कविता/ पैरोडी दी जा रही है जो उन्होंने बापू के प्रति लिखी थी।

हिंदी बनाम हिंदुस्तानी : बापू से दो बातें

कौन है हिंदी में रवीद्रनाथ ठाकुर, जगदीशचंद्र बसु, प्रफ़ुल्लचंद्र राय?”
इस आवाज पर हिंदी के पात्रों ने आवाजाकशी की। इत्तिफ़ाक, लखनऊ-कांग्रेस शुरू हुई। महात्माजी आए। हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के संग्रहालय का उदघाटन था, महात्माजी दरवाजा खोलने के लिये बुलाए गए। उस वक्त उन्होंने फ़िर वैसी ही एक आवाज लगाई।
हर आवाज का अच्छा मतलब भी हासिल होता है, हम निकाल लेते हैं, लेकिन व्यवहार में भी अगर आवाजाकशी हुई, तो संभले-से-संभला आदमी भी नही संभल
सकता। चूंकि महात्माजी लखनऊ में टिके हुए थे, इसलिये पता लगाना लाजिमी हो गया, उन्होंने यह आवाज लगाई या आवाजाकशी की।
तबियत में आया, महात्माजी से बातचीत की जाय, ‘हिन्दी मे कौन है रवीन्द्रनाथ’ कहकर महात्माजी क्यों रह-रहकर चौंक उठते है; लेकिन मेरे लिये उस वक्त महात्माजी रहस्यवाद के विषय हो गए, कहीं खोजे ही नही मिले।
उनके कुछ भक्तों ने कहा, पता बताना मना है, लोग महात्माजी को परेशान करते है। कांग्रेस-आफ़िस में पूछने पर मालूम हुआ, उधर कहीं गोमती पार रहते है।
इतना विशद पता प्राप्त कर, गोमती के पुल के किनारे आकर खड़ा बाट जोह रहा था कि बापू की बकरी तांगे पर बैठाए एक आदमी लिए जा रहा था, और कुछ लखनउए लड़के ठहाका मार रहे थे। उनकी बातचीत से मुझे मालूम हुआ कि यह बापू की बकरी जा रही है। मै समझ गया, इसी रास्ते पर आगे कहीं ठहरे हैं। घर लौटा, और कपड़े बदले, फ़िर बापू के दर्शन के लिये एक्का कर के चला।युनिवर्सिटी के आगे जाते हुए रास्ते के दाई ओर एक बंगले मे महांत्माजी ठहरे थे। दिन, आठ का समय। जब गया, तब एक कमरे मे गांधीजी जवाहरलालजी और राजेन्द्रप्रसादजी आदि से बाते कर रहे थे, मालूम हुआ।
दरवाजे पर एक स्वयंसेवक पहरा दे रहा था। मैं बापू से मिलना चाहता हूं,सुनकर पहले उसी ने फ़ैसला दे दिया-’मुलाकात नही होगी।’
यद्यपि सिपाही से मजाक करना नियम नहीं, फ़िर भी मजाक का बदला चुकाने में कोई दोष भी नही,सोचकर मैने पूछा- “क्या आप महात्माजी के सिकत्तर है या पर्सनल असिस्टेंट?”
स्वयंसेवक झेंपा, और अपनी झेंप मिटाने कि लिये एक मर्तबा भीतर चला गया। मैंने एक चिट्ठी दी थी, वह उसने पहले ही वापस कर दी थी। दुबारा आने पर
मैने वह चिट्ठी फ़िर दिखाई, और कहा – “इतना तो आप पढ़े ही होंगे कि यह चिट्ठी किनके नाम. है उनके पास पहुंचा दें।”
चिट्ठी में मिलने की इच्छा जाहिर करते हुए वक्त पूछा गया था। स्वयंसेवक चिट्ठी भीतर रखकर क्षण-भर में लौटा, और कहा- “शाम को आइए। महात्माजी के
सेकेटरी महादेवजी देसाई की आज्ञा है।”
मेरे घर में कई कांग्रेस-दर्शक टिके थे। मै महात्माजी के दर्शनों के लिए उनसे बातचीत करने कि लिये शाम को जा रहा हूं, सुनकर उनमें दो साथ होने को
हुए- पं० वाचस्पतिजी पाठक और कुंवर चंद्रप्रकाशसिंह।
शाम को इन लोगो के साथ मैं चला। जब पहुंचा, तब स्त्रियों और पुरूषो का एक बड़ा दल इकट्ठा था। कुछ भीतर टहल रहे थे, कुछ रास्ते के दोनों बगल की कम
ऊंची दीवारों पर बैठे थे। मालूम हुआ, यह शाम की प्रार्थना में शरीक होने के लिये आए है।
किसी से परिचय न था। बिना परिचय के प्रवेश में सब जगह अड़चन पड़ती है। इसी समय शीतलासहाय, हिंदी के सुप्रसिद्ध निबंध-लेखक, बंगले से बाहर निकले।
इन्होंने मुझसे आने का कारण पूछा। मैंने बतलाया। इन्होंने कहा-”महात्माजी आजकल किसी से मिलते नही।”
मैंने कहा- “सुबह मैंने बहुतों से बातचीत करते देखा है।”
इन्होने- “वे बड़े-बड़े नेता हैं, उनसे सलाह लेने आते है।”
मैनें कहा- “ये जितने बड़े नेता है, मै उनसे बड़ा साहित्यिक हूं, और हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को मुझसे मिलने में किसी तरह का संकोच न होना चाहिए।”
बाबू शीतलासहाय बहुत खुश हुए। बोले-” अभी जरा देर बाद महात्माजी बाहर प्रार्थना के लिये निकलेंगे, उस वक्त आप आइएगा, मै भी हूं, देसाईजी से आपको मिला दूंगा। अगर आज मुलाकात नहीं होगी, तो समय निर्धारित हो जायगा।”
मै बाहर आई०टी० कांलेज की तरफ़, पं० वाचस्पति पाठक और कुंअर चंद्रप्रकाशसिंह के साथ, टहलता हुआ निकल गया। रास्ते में सम्मिलित प्रार्थनार्थी कई जोड़े तपाक से बढ़ते हुए दिखे। मुझे खद्दर के वेश में देखकर उद्वेग से पूछा-”क्या प्रार्थना समाप्त हो गई।”
मैंने कहा-”नहीं।”
वे और तेज कदम बढ़े।
धीमे तिताले टहलता हुआ दोनो साहित्यिक मित्रों के साथ मैं आया कि प्रार्थनाथियो की पल्टन ध्यानावस्थित तदगतेन मनसा बैठी हुई देख पड़ी।……. मैं बैठना ही चाहता था कि एक महाशय ने जल्दबाजी करते हुए मुझे एक धक्का-सा देकर वह जगह छीन ली। वह कोई कांग्रेसी थे। मेरी इच्छा हुई कि कलाई पकड़कर घसीटूं, लेकिन महात्माजी आ गए थे. मैने शांति-भंग करना उचित नही समझा!
हम लोगों की तरफ़ से पं० वाचस्पति पाठक एक अच्छी जगह डट कर बैठे थे। मैं जमीन पर बैठा। अधिक-से-अधिक पांच मिनट वक्त लगा होगा, प्रार्थना समाप्त
हो गई। महात्माजी उठे और भीतर चले गए।
एक तो दुर्भाग्य से उस समय तक मैंने देसाईजी को देखा नही था, दूसरे ,मुंह-अंधेरे मुझे मालूम दे रहा था, यह आर०एस० पंडित है, तब भी शंका होती थी कि यह उनसे ज्यादा तगड़े है। इसी समय बाबू शीतलासहाय आए। मैने गर्जमंद की आवाज में उनसे कहा-”मै देसाईजी को पहचानता नही, आप मिला दीजिए।”
शीतलासहायजी मुझे देसाईजी के पास ले चले, और कुछ शब्दों में उनसे मेरी तरीफ़ की-जैसा कि कहते है- ये बड़े होनहार हैं। इसी समय श्रीमती कस्तूरी बाई उधर से गुजरी । मैं खड़ा था। उनका सिर मेरी कमर के कुछ ही ऊपर था, लेकिन भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर मैंने उन्हें प्रणाम किया।
देसाईजी से बाते होने लगी। देसाईजी को यह मालूम होने पर कि मैं सुबह आया था, एक चिट्ठी दी थी, और स्वयंसेवक के कथनुसार देसाईजी ने शाम को मुझे
आने की आज्ञा दी है, देसाईजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने कहा- “न मुझे आपको कोई चिट्ठी मिली है, और न मैंने आपको आने को कहा है।”
इसके बाद उन्होंने पूछा-”आप महात्माजी से क्यों मिलना चाहते है?”
मैने कहां-”मै राजनीतिक महात्माजी से नही मिलना चाहता, मैं तो हिंदी-साहित्य के सभापति गांधीजी से मिलना चाहता हूं।”
इससे बातचीत का विषय स्पष्ट हो गया। देसाईजी एक शिष्ट, सभ्य, शिक्षित मनुष्य की तरह मुझे बंगले के भीतर प्रतीक्षा करने कि लिये कहकर महात्माजी
के कमरे की तरफ़ गए।
मै बंगले के बीचवाले कमरे में एक कोच पर बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। तब मेरे बाल बड़े-बड़े थे, कवि की वेश-भूषा। नौजवान और नवयुवतियां मुझे सहर्ष
देख-देख जाने लगी। वायुमंडल, मनोमंडल, बदन-मंडल और भावमंडल मुझे बड़ा अच्छा लगा। महात्माजी की लोगों पर, युवक-युवतियों पर, जो छाप थी, उसकी
ह्रादिनी शक्ति ज्ञात हो गई।
महादेवजी देसाई आए, और कहा-”महात्माजी आपसे मिलेगे, बीस मिनट आपको वक्त दिया है, जाइए।”
मै भीतर चला, मेरे साथ पं० वाचस्पति पाठक और कुं० चंद्रप्रकाश। उत्तर तरफ़ के कमरे में महात्माजी थे, पास बाबू शिवप्रसादजी गुप्त, उनके सेक्रेटरी हास्य-रस के प्रसिद्ध लेखक अन्नपूर्णानंदजी मंगलाप्रसाद-पारितोषिक-प्रदाता स्व०मंगलाप्रसादजी के लड़के बैठे थे। उस समय तक व्यक्तिगत रूप से केवल बाबू शिवप्रसादजी को जानता था। महात्माजी सूक्ष्म मन के तार से इन लोगों से मिले, आगंतुक के लिये कुछ अपने में खिंचे, तैयार होते हुए-से दिखे।
कमरे के भीतर जाने के साथ मेरी निगाह महात्माजी की आंखो पर पड़ी। देखा, पुतलियों में बड़ी चालाकी है। हर्डल रेस, कुश्ती और फ़ुटबाल से मेरे दोनों पैरो मे गहरी चोटें आ चुकी है,इसलिये एकाएक घुटने तोड़कर भूमिष्ट प्रणाम नहीं कर सकता, फ़िर उन दिनों से अब तक बाएं पैर में वात या सायिटका। मैंने खड़े-ही-खड़े महात्माजी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
प्रणाम-संबंध में मेरे साथियों ने मेरा अनुसरण किया। प्रणाम कर मैं महात्माजी के सामने बैठ गया। मेरे साथी भी बैठे। महात्माजी ने, मेरे बैठ जाने पर, उसी तरह हाथ जोड़कर मुझे प्रति नमस्कार किया। आंखों मे दिव्यता, जो बड़े आदमी में ही देखती है-बड़े धार्मिक आदमी में लेकिन द्रष्टि आधी बाहर-दुनिया को दी हुई जैसे, आधी भीतर- अपनी समझ की नाप के लिये। मेरा पहनावा विशुद्ध बंगाली, पंजाबी कुर्ता, धोती कोंछीदार, ऊपर से चद्दर खद्दर की।
महात्माजी ने पूछा-”आप किस प्रांत के रहनेवाले है?”
इस प्रश्न का गूढ़ संबंध बहुत दूर तक आदमी को ले जाता है। यहां नेता,राजनीति और प्रांतीयता की मनोवैज्ञानिक बातें रहने देता हूं, केवल इतना ही बहुत है, हिंदी का कवि हिंदी-विरोधी बंगली की वेश-भूषा में क्यों?
मैने जवाब दिया-” जी मैं यहीं उन्नाव जिले का रहनेवाला हूं।”
महात्माजी पर ताज्जुब की रेखाएं देखकर मैने कहा-”मै बंगाल मे पैदा हुआ हूं और बहुत दिन रह चुका हू।”
महात्माजी की शंका को पूरा समाधान मिला। वह स्थितप्रज्ञ हुए, लेकिन चुप रहे; क्योकि बातचीत मुझे करनी थी, प्रश्न मेरी तरफ़ से उठना था।
मैनें कहा-”आप जानते हैं, हिंदीवाले अधिकांश मे रूढ़िग्रस्त हैं। वे जड़ रूप ही समझते है, तत्त्व नही,। जो कथाएं पुराणों में आई हैं, उनके स्थूल रूप में सूक्ष्मतम तत्त्व भी है। संपादक और साहित्यिक भी, अधिक संख्या में, इनसे अज्ञ है। वे समझने की कोशिश भी नही करते, उल्टे मुखलिफ़त करते है। हम लोगों के भाव इसीलिए प्रचलित नही हो पाए। देश की स्वतंत्रता के लिये पहले समझ की स्वतंत्रता जरूरी है। मैं आपसे निवेदन करने आया हूं कि आप हिंदी की इन चीजों का कुछ हिस्सा सुने।”
महात्माजी-”मै गुजराती बोलता हूं. लेकिन गुजराती का साहित्य भी बहुत कुछ मेरी समझ में नहीं आता।”
“मैंने गीता पर लिखी आपकी टीका देखी है। आप गहरे जाते है और दूर की पकड़ आपको मालूम है, आपने उसमें समझाने की कोशिश की है।”
महात्माजी- “मैं तो बहुत उथला आदमी हूं।”
मैं-”हम लोग उथले में रहे हुए को गहरे में रहा हुआ साबित करने की ताकत रखते हैं।”
महात्माजी चुप रहे।
मैने कहा-”आपके सभापति के अभिभाषण मे हिंदी के साहित्य और साहित्यिकों के संबंध में, जहां तक मुझे स्मरण है, आपने एकाधिक बार पं० बनारसीदास चतुर्वेदी का नाम सिर्फ़ लिया है। इसका हिंदी के साहित्यिको पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या आपने सोचा था?”
महात्माजी-”मै तो हिंदी कुछ भी नही जानता।”
मै-”तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी मे रवींद्रनाथ ठाकुर कौन हैं?
महात्माजी- “मेरे कहने का मतलब कुछ और था”।
मैं-” यानी आप रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जैसा साहित्यिक हिंदी मे नही देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या बोबुल-पुरस्कार-प्राप्त मनुष्य देखना चाहते है, यह?”
कुल सभा सन्न हो गई। लोग ताज्जुब से मेरी तरफ़ देखने लगे। कुं० चंद्रप्रकाश से पहले मै कह चुका था कि महात्माजी की बातें लिख लें, लेकिन वह इस समय तक तन्मय होकर केवल सुन रहे थे। मैंने उनकी तरफ़ देखा, तो वह समझकर लिखने लगे। साथ ही महादेव देसाई के हाथ में जैसे बिजली की बैटरी लगा दी गई, वह भी झपाटे से लिखने लगे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त का दल जैसे दलदल मे फ़ंस गया हो। शिवप्रसाद हैरान होकर मुझे देख लेते थे। उनके सेकेटरी बाबू अन्नपूर्णानंद मुझे देख-देखकर जैसे बहुत परेशान हो रहे हो।
मैंने स्वस्थ-चित्त हो महात्माजी से कहा-”बंगला मेरी वैसी ही मात्र-भाषा है, जैसे हिंदी। रवींद्रनाथ का पूरा साहित्य मैने पढ़ा है। मैं आपसे आधा घंटा समय चाहता हूं। कुछ चीजें चुनी हुई रवीद्रनाथ की सुनाऊंगा, उनकी कला का विवेचन करूंगा, साथ कुछ हिंदी की चीजें सुनाऊंगा।”
महात्माजी-”मेरे पास समय नही है।”
मै हैरान होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी -साहित्य-सम्मेलन का सभापति है, लेकिन हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नही देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बंगले झांकता है!
मैनें अपना उल्लिखित मनोभाव दबा लिया। नम्र होकर कहा- “महात्माजी, मेरी चीजों की आम जनता में कद्र नही हुई। इसकी वजह है। आप अगर कुछ सुन लेते,
तो मुमकिन, अच्छा होता।”
महात्माजी -”आप अपनी किताबें मेरे पास भेज दीजिएगा।”
जैसे किसी ने चांटा मारा। अब किसी की आलोचना से, किसी की तारीफ़ से आगे आने की अपेक्षा मुझे नहीं रही। मैं खुद तमाम मुश्किलों को झेलता हुआ,
अड़चनो को पार करता हुआ, सामने आ चुका हूं।
मैने मजाक में कहा- “आप अपने यहां के हिंदी के जानकारों के नाम बतलाइए, जो मेरी किताबों पर राय देगे। आपको हिंदी अच्छी नही आती, आप कह ही चुके हैं।” कहकर मैं हंसा।
महात्माजी भी खूब खुलकर हंसे।
मैने कहा-” एक है पं० वनारसीदास चतुर्वेदी, विशाल भारत के संपादक, पत्र के साथ जिनका नाम शायद आपने दो बार लिया है। यह कुछ दिन रहे हैं आपके पास और कुछ दिन रवींद्रनाथ के यहां। विशाल भारत के संपादक के लिये यही उनकी सबसे बड़ी योग्यता ठहरी!”
महात्मा गांधी- “हां”
मैं-”अगर मैं भूलता नही तो, कवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त के साकेत की भाषा को आपने मुश्किल कहा।”
महात्माजी-”हां”।
मै-” फ़िर मेरे तुलसीदास की भाषा का क्या हाल होगा?”
महात्माजी कुछ दुचित्ते-से हुए। तुलसीदास के नाम पर मुमकिन, भ्रम हुआ हो, मैं तुलसीदास की भाषा का जिक्र कर रहा हूं।
अब तक बीस मिनट पूरे हो चुके थे। महात्माजी मौन हो गए। मैंने कहा- “महात्माजी, अगर वक्त हो गया हो तो मै प्रणाम कर विदा होऊं?”
महात्माजी ने कहा- “हां, मै तो पहले ही कह चुका हूं।”
उठकर, मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और शिवप्रसादजी से फ़िर दर्शन करने के लिये कहकर बाहर निकला।
घर आने पर महात्माजी की रायवाली बात पर मुझे एक लोकोक्ति याद आई। सोचा, इस लोकोक्ति से महात्माजी को पत्र लिखूं। लोकोक्ति यह है-
किसी महाजन के एक घोड़ा था। वह उसकी बड़ी देख-भाल रखते थे। एक दिन उनके किसी पड़ोसी को कहीं जाना था। वह महाजन के यहां गए, और कहा- “सवारी के लिये मुझे आप अपना घोड़ा दे दीजिए।”
महाजन ने कहा-” घोड़ा नहीं है।”
पड़ोसी को विश्वास न हुआ। वह वही खड़े रहे। कुछ देर बाद घोड़ा हिनहिनाया।
पड़ोसी ने कहा -” आप कहते थे, घोड़ा नही है, घोड़ा तो है।”
महाजन ने कहा-” तुम हमारी आवाज नही समझे, घोड़े की आवाज समझे।”
पत्र में मै इतना और लिखता- “महात्माजी, मैं आप ही की आवाज पहचान गया। किताब भेजकर आपके घोड़े की आवाज नही पहचानना चाहता”।
कवि सियारामशरणजी को अपने पत्र का मजबून सुनाया, तो उन्होंने कहा-” महात्माजी का स्वास्थ्य आजकल अच्छा नही हैं, आप ऎसा न लिखे।”
मेरी पसन्द


“बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या भजते होते तुमको
ऎरे-गैरे नत्थू खैरे;
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि? बापू,तुम मुर्गी खाते यदि,
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता,
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
तो क्या अवतार हुये होते
कुल-के-कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम-भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या पटेल, राजन, टण्डन,
गोपालाचारी भी भजते?-
भजता होता तुमको मैं औ’
मेरी प्यारी अल्लारक्खी,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?

विचार, साप्ताहिक, कलकत्ता, में १४ जुलाई, १९४० को प्रकाशित

9 responses to “गांधीजी, निरालाजी और हिंदी”

  1. समीर लाल
    एक सांस में पढ़ गये, गजब अभिव्यक्ति है भाई. ऐसी ही श्रृंखला जारी रखें और ज्ञानवर्धन करते रहें, यही उम्मीद है आपसे. :)
  2. pankaj
    आपसे ऐसे ही लेख की उम्मिद हर बार की जाती है। वाह.. मजा आ गया.
  3. संजय बेंगाणी
    अच्छा लेख. अंत में कविता की पंक्तियो का दोहराव क्यों?
    निरालाजी के व्यक्तित्व के कई पहलू जानने को मिले. सच्चे दिल का आदमी ही किसी के आभा-मण्डल से चुंधियाता नहीं, तथा सही बात कहने से हिचकता भी नहीं.
    गाँधीजी स्वभाव से महात्मा थे. जब हम स्वभाव से बाहर के काम में हाथ डालते हैं तो बंटाधार होना तय होता है.
  4. Laxmi N. Gupta
    बहुत ज्ञानवर्धक लेख है। मुर्गी वाली कविता निराला जी की है?
  5. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    बचपन में एक कविता पढी थी, “जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अन्धेरा जहां पर कहीं रह न जाये”
    काफी समय से इस कविता को खोज रहा हू परन्तु अभी तक असफलता ही हाथ लगी है. क्या आप इस संदर्भ में मेरी कुछ सहायता कर सकते हैं, जैसे कि कवि का नाम जिससे कि कविता खोजने में कुछ सहायता मिले.
    साभार,
    नीरज
  6. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    कविता का लिंक देने के लिये आपका धन्यवाद.
    लगे हाथों मैने इस कविता का यूनिकोड में टंकण करके विकिपीडिया पर कविता कोश में दर्ज कर दिया है.
    साभार,
    नीरज
  7. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.पुराने साल का लेखा-जोखा 2.पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं 3.चल पड़े जिधर दो डग-मग में 4.सबको सम्मति दे भगवान 5..आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायकू 6.१८५७ के पन्ने: मदाम एन्जेलो की डायरी 7.यह कवि है अपनी जनता का 8.यह कवि अपराजेय निराला 9.ठिठुरता हुआ गणतंत्र 10.पहिला सफेद बाल 11.काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े’ 12.गांधीजी, निरालाजी और हिंदी [...]

Monday, January 29, 2007

काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े’

http://web.archive.org/web/20140419214457/http://hindini.com/fursatiya/archives/236

काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े’

पिछले दिनों शिल्पीजी ने सुभाष जयन्ती के अवसर पर नेताजी को याद करते हुये एक लेख लिखा। उस लेख में उन्होंने हमारी एक पुरानी टिप्पणी का उल्लेख करते हुये नेताजी की तुलना महाभारत के कर्ण से की। हमने ‘मर्द की जबान एक होती है’ का सबूत देने के चक्कर में अपनी पुरानी टिप्पणी का समर्थन किया और यह बताया कि हां, हम अब भी यही मानते हैं कि हमारे महापुरूष इसने खराब नहीं थे कि आपस में एक-दूसरे के खिलाफ़ साजिश रचते रहें।
अब जैसे मर्द की जबान वैसे ही लेखक का लेखन भी अटल सत्य होता है। फिर इस विषय पर शिल्पीजी ने सालों शोध किया था इसलिये अधिकार-पूर्वक उन्होंने हमारी बातों को अबोध करार करते हुये उसे खारिज कर दिया। हम चुपा गये- सोचते हुये- चुपाइ रहौ दुल्हिन मारा जाई कौआ।
फिर कुछ दूसरे साथियों ने टिप्पणियों को व्यक्तिगत रुख न देने का आवाहन करते हुये तमाम ज्ञान-गूढ़ बातें लिखीं हम उनको मूढ़ी हिला-हिलाकर ग्रहण करते गये। फिर आये प्रियंकर जी। उन्होंने शिल्पीजी की नयी सोच की तारीफ़ की और मेरे बारे में बताया कि:-

१.गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है।
२.अनूप शुक्ला को गोडसे भक्त सागर के बयान पठनीय और गांधी विरोधी प्रेमेन्द्र के बयान ओजस्वी लगते रहे।
३.उनमें मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है।
४.उनका अभिजात्य उन्हें अंतर्जालीय ‘चेंगडों’ से दो-दो हाथ करने से रोकता है।सज्जनों को सीख देते समय वे सौरव गांगुली की तरह फ़ॉर्म में आ जाते हैं। इस मामले में वे बाबा तुलसीदास की परम्परा में हैं जो कहते हैं: ‘बंदउं संत असज्जन चरना’ । असज्जन की वंदना इसलिये कि दुष्ट आदमी दो मिनट में आपके अभिजात्य को छियाछार कर सकता है — उस अभिजात्य को जिसे आपने परत-दर-परत बरसों से बड़े जतन से अपने व्यक्तित्व पर चढाया है।

यह टिप्पणी मुझे सागर ने दिखाई जब वे आनलाइन मिले। वे उत्तेजित भी थे। मैं उनसे मौज लेता रहा- क्या यार तुम भी टीन-टप्पर की तरह झट से गरम हो जाते हो। लिखने दो उनको जैसा ठीक समझें। तुम भी मस्त रहो।
इसके बाद सागर ने कुछ लिखा। फिर और लोगों ने भी टिप्पणी करके बातों को व्यक्तिगत रुख न देने का आग्रह किया।
अगले दिन जब फिर मैंने देखा तो मैंने अपनी टिप्पणी लिखी। जिसके जबाब में मैंने टिप्पणी लिखी। इस पर फिर उन्होंनेऔर जरूरी बातों के अलावा लिखा- चलते-चलते एक बात और कहूंगा, चेले मूड़ना आसान है, उनके किये पर आंख मींच लेना और भी आसान, पर उन पर काबू रखना जरा मुश्किल है ।
इसके अलावा और भी तमाम टिप्पणियां थीं लेकिन सबसे आश्चर्यजनक टिप्पणी मुझे देबाशीषजी की लगी जिसमें उन्होंने प्रियंकर की पूरी टिप्पणी को समयोचित और सभ्य लगी जिसके लिये प्रियंकरजी को पढ़ कर थोड़ी तसल्ली हुई
पहले तो मैंने समझा शायद देबाशीषजी नेताजी सुभाष चन्द्रजी के बारे में पढ़कर इतना उत्साहित हो गये कि उनको मेरे बारे में की गयी टिप्पणियां दिखीं नहीं लेकिन जब सागर, पंकज और संजय बेंगाणी के एतराज के बाद उन्होंने लिखा -मुझे और कुछ लिखने की ज़रूरत नही क्योंकि सबको अपनी राय रखने का हक है। इसका मतलब प्रियंकरजी ने मेरे बारे में जो भी लिखा वह देबाशीषजी सच मानते हैं।
मैंने इस बारे में बहुत विचार किया। कई बार सोचा। पहले सोचा कि शिल्पीजी के लेख पर अपनी सोच के बारे में विस्तार से लिखूं लेकिन फिर यह सोचकर छोड़ दिया कि उनके सालों के अध्ययन ने निकले निष्कर्ष के जवाब में मेरे तर्क कहां ठहरेंगे। और सच तो यह है मैं इस बारे में कुछ लिखना भी नहीं चाहता। न मेरा माद्दा है मन! शिल्पीजी का अपना अध्ययन है, जब लिखेंगे पढ़ लूंगा पाठक की हैसियत से। अगर कोई विचार होगा तो उसे रख लूंगा मन में। उनके लेखन के बारे में टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचूंगा।
प्रियंकरजी की मेरे बारे में की गयी टिप्पणी मुझे तात्कालिक तौर पर मात्र एक टिप्पणी लगी। और सच तो यह है कि अगर बाद में देबाशीषजी और प्रियंकरजी की टिप्पणियां न होंती तो मैं अभी भी यही सोचता। लेकिन जब प्रियंकरजी ने बाद में भी चेले पालने वाली बात लिखी तो मुझे लगा कि मेरे बारे में सच में उनके मन में यही धारणा है और देबाशीषजी भी यही मानते हैं। शायद यही उनका मेरे साथ किया ‘पोयटिक जस्टिस’ है कि
प्रियंकरजी सागर, प्रेमेन्द्र आदि को मेरा अन्तर्जालीय चेंगड़ा बताये और देबाशीष उनकी इस टिप्पणी को ‘समयोचित और सभ्य’ बतायें!
मैंने इस बारे में कई बार लिखने की सोची लेकिन टाल गया -क्या फायदा ,कहानी सुनाने का। मैं जो हूं वह लोग समझें न समझें लेकिन मैं तो जानता हूं। कई दोस्तों ने भी यही कहा -छोड़ो यार! कहां टाइम बरबाद करते हो।
लेकिन आज जब मैंने फिर से सारी टिप्पणियों को देखा तो मुझे यह लगा कि बात केवल मुझ तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ तो पहले से ही ऐसा होता आया है। देबाशीष से शुरू होकर, जब उन्होंने मुझे अपने लेखन की भाषा पर ध्यान रखने की सहज सलाह दी थी और मैंने इस बारे में अपनी बात लिखी थी, हमारे ऊपर जूते-चप्पल तक चलाने का आवाहन भाई लोग कर चुके हैं। अब प्रियंकरजी ने मेरे व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से लिखा। लेकिन इस बार बात मेरे तक ही सीमित नहीं थी। मेरे साथ सागर, प्रेमेन्द्र और मेरे तमाम अन्तर्जालीय चेंगडों के बारे में टिप्पणी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपना कोई अखाड़ा खोले हूं और मेरे पहलवान मेरे इशारे पर उछल-कूद मचाये रहते हैं जिसकीं मैं अनदेखी करता रहता हूं इस डर से कि अगर टोंकूंगा तो ये मुझे ही उठाकर पटक देंगे। इस टिप्पणी से स्वाभाविक रूप से सागर, प्रेमेन्द्र और बेंगाणी बन्धुऒं को तकलीफ हुई और जाने-अनजाने में इसका माध्यम बना। इसलिये इस सम्बन्ध में मैंने अपनी बात कहना जरूरी समझा। ऊपर प्रियंकरजी की टिप्पणियों के वे अंश जिनका जवाब देना मैंने जरूरी समझा वे क्रमवार दिये हैं।
आगे कुछ लिखने के पहले बता दूं कि यह लिखते समय मेरे मन किसी किस्म का आक्रोश नहीं है न ही किसी को दुखी करने या चोट पहुंचाने मन्तव्य। मेरा मकसद केवल प्रियंकरजी की बातों के बारे में अपना पक्ष रखना है।
१.गांधी पर हुई बहस में मेरा रुख: प्रियंकरजी ने लिखा कि गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है।
इस पर मेरा यही कहना है कि अगर आपको ऐसा लगता है तो मुझे इस बारे में कोई एतराज नहीं है। जो आप पढ़ते हैं उस पर आपको अपनी राय बनाने का पूरा हक है। वैसे अगर आप मेरा गांधीजी पर लेख देखें तो पायेंगे शायद मैंने लिखा है कि न मैं गाधीवादी हूं और न ही गांधी साहित्य का मर्मज्ञ। मैंने जो लिखा वह एक सामान्य जानकारी युक्त भारतीय की तरह लिखा। उसमें अगर आप या कोई भी पाठक कुछ गलतियां पाता है और उसके अनुसार मेरे रुख को संदिग्ध मानता है तो इस बारे में मुझे न कोई एतराज है न किसी से कोई शिकायत। हां, अगर कोई यह पूछे कि ऐसा मैंने क्यों लिखा तो वह मैं पूरी ईमानदारी से बताने का प्रयास कर सकता हूं।
२.गोडसे भक्त सागर के बयान पठनीय और गांधी विरोधी प्रेमेन्द्र के बयान ओजस्वी:-सागर और प्रेमेन्द्र की किस पोस्ट पर मैंने इस तरह की टिप्पणी की इस बारे में कोई सफ़ाई दिये बगैर मैं यह कहना चाहता हूं कि न मुझे सागर के गोडसे भक्ति के बयान ठीक लगते हैं और न ही प्रेमेन्द्र के अति उत्साही बयान। मैं जितना इन लोगों को जानता हूं ये दोनों प्रखर राष्टवादी विचार के हैं। इनकी अपनी सोच है। उसके हिसाब से ये अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं। मैंने अबतक लगभग २०० से पोस्ट लिखीं हैं। क्या किसी में इस तरह के रुझान के दर्शन होते हैं? मेरे ख्याल से मेरी ऐसी सोच कतई नहीं है। और जहां तक टिप्पणी का सवाल है उसके लिये आपके ब्लाग जगत में टिप्पणी का मनोविज्ञान समझना पड़ेगा। ज्यादातर टिप्पणियां उत्साहवर्धन के लिये की जाती हैं। आपस में
लोगों का पाठक समुदाय है। लोग उनके चिट्ठों को पढ़ते हैं जिनसे वे किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। और जब पढ़ते हैं तो कभी-कभी या अक्सर (और समीरलाल जी तो हमेशा ऐसा करते हैं) कुछ न कुछ टिप्पणी कर देते हैं। टिप्पणी में आमतौर पर तारीफ़ ही की जाती है। बुराई या कमी वाली टिप्पणियां स्वीकार करने और उनको सच मानने का माद्दा बहुत कम लोगों में होता है। इसी पोस्ट में शिल्पीजी आलोचनात्मक टिप्पणी को पचा नहीं पाये और अपनी त्वरित टिप्पणी
मेरे अर्थ को घटिया बताया। और यह भी कि सत्य को उदघाटित करके शीध्र ही मेरे जैसे ‘आम आदमी’ तक सामने लायेंगे। तो मेरा अनुरोध है कि मेरी मात्र उत्साह वर्धन के लिये की गयी टिप्पणियों को यह न माना जाये कि मैं उनके मत का समर्थन कर रहा हूं। और अगर यह माना ही जाये तो यह भी देखा जाये कि सागर द्वारा अनजाने में कवि प्रदीप को गांधीजी का चाटुकार मानने की बात का समर्थन करने पर उनको टोंकने वाला कौन था? शिल्पीजी, देबाशीषजी, प्रियंकरजी या अनूप शुक्ला।
३.उनमें मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है:-इस बात का आधार क्या है मुझे नहीं पता लेकिन अगर ब्लाग पर टिप्पणियां इनका आधार हैं तो यह ब्लाग जगत से जुडे़ हर लेखक का अपना पाठक है और हर पाठक के अपने-अपने पसंदीदा ब्लाग। एक पाठक की हैसियत से मुझे अपनी पसन्द के ब्लाग पढ़ने और उन पर मनोनुकूल टिप्पणी करने का अधिकार है। एक ही पोस्ट/टिप्पणी को देखकर पाठक पर उसकी मन:स्थिति के हिसाब से अलग-अलग प्रतिक्रियायें होती हैं। इसी टिप्पणी को पढ़कर पहले मुझे हंसी आई, फिर सोचा कि शिल्पी के सारे लेखन की पड़ताल करूं, फिर सोचा कड़ा प्रतिवाद करूं लेकिन धीरे-धीरे सारे विचार खारिज होते चले गये। यह सोचा कि छोड़ो जिसको जो समझना है समझे। लेकिन आज यह विचार किया कि अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं। इसी तरह टिप्पणियों और प्रतिक्रियाऒं के बारे में है। जितनी सहजता से मैं जीतेन्द्र, समीरलाल, स्वामी, आशीष और अतुल की पोस्ट ्पर टिप्पणी कर सकता हूं उतनी सहजता से दूसरे साथियों की पोस्ट पर नहीं। इसी तरह जितनी जरूरत मुझे सागर आदि अपेक्षाक्रत नये लेखकों के ब्लाग पर उत्साह वर्धन की लगती है उतनी स्थापित लेखकों के ब्लाग पर नहीं। फिर टिप्पणी आदि करने में व्यक्तिगत सम्बन्ध वाली बात होती है। जिनसे रोज-रोज या दिन में कई-कई बार होती है उनके साथ व्यवहार में और जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते उसमें कुछ तो अन्तर होगा ही। अब अगर इसी को प्रियंकरजी मुंह देखकर तिलक करने की बात कहते हैं तो मुझे उनकी यह बात स्वीकार्य है और इसके लिये मुझे कुछ नहीं कहना। इसके अलावा यदि और कुछ उनकी बात का मतलब हो तो बतायें!
४. मेरा अभिजात्य, अंतर्जालीय चेंगड़े और मेरा डर:-इस बात के जवाब में मैं क्या कहूं लेकिन यही वह बात है जिसके लिये मैंने यह पोस्ट चाहा है क्योंकि सबसे ज्यादा इसी बात से न सिर्फ मुझे अफसोस हुआ बल्कि यही वह बात है जिसके कारण सागर, पंकज बेंगाणी और संजय बेंगाणी को भी तकलीफ़ हुई। और यही वह बात है जो सच से सबसे ज्यादा दूर है।
‘चेंगड़े’ का मतलब नहीं मिला शब्दकोश में मुझे लेकिन मैं अन्दाजा लग सकता हूं कि इसका मतलब ‘बिगड़ैल चेले’ टाइप कुछ होता होगा। तो कुल लब्बोलुआब यह कि सागर, प्रेमेन्द्र और अन्य साथी मेरे अन्तर्जालीय बिगड़ैल चेले हैं और मैं इनसे डरता हूं इसलिये कि अगर इनके विरोध में मैं कुछ कहूंगा तो ये मे्रे व्यक्तित्व का छियाछार कर देंगे यानि की ऐसी- तैसी कर देंगे। यह बात प्रियंकरजी ने कही और देबाशीषजी ने इसे ‘समयोचित और सभ्य’ बताया।
पहले सागर और प्रेमेन्द्र के बारे में। प्रेमेन्द्र अभी ग्रेजुयेशन कर रहे हैं। इन्होंने जब ब्लाग लिखना शुरू किया तब उसी समय कुछ गलतफहमी के कारण इनके साथ परिचर्चा में कहा-सुनी हो गयी। ये अकेले पड़ गये थे और ब्लाग-स्लाग लिखना बंद कर चुके थे। यह बात मुझे बहुत देर से पता चली क्योंकि मैं आम तौर पर परिचर्चा मंच पर जा नहीं पाता। चाहे जिस कारण हो लेकिन जब मुझे इनके साथ हुयी बात का पता चला तो मुझे यह बड़ा नागवार गुजरा। इसलिये नहीं कि ये बहुत अच्छा लिखते थे और इनके न लिखने से हिंदी को कोई अपूरणीय क्षति हो जाती। बल्कि हिंदी चिट्ठा जगत से जुड़े होने के नाते मुझे लगा कि यहां से कटु स्म्रतियां लेकर कोई जाये यह ठीक नहीं होगा। फिर मैंने प्रेमेन्द्र से आनलाइन बात की। इनके घर फोन पर बात की और अनुरोध किया कि ये लिखते रहें। इनके भाईसाहब से भी बात की। फिर ये लिखने लगे। अब तो बहुत दिन हो गये बात ही नहीं होती। प्रेमेन्द्र के ब्लाग पर मेरी टिप्पणियां भी कम ही हैं। कभी-कभार उत्साह वर्धन के लिये मौका मिला तो टिप्पणी भी कर देता हूं। कुछ अच्छी पोस्ट भी इन्होंने लिखी हैं। जिसमें एक टेनिस सुन्दरी की तस्वीर मेरे दिमाग में अब भी है। इसी तरह मेरे ब्लाग पर भी प्रेमेन्द्र गाहे-बगाहे ही नजरे इनायत करते हैं। क्या इतने कार्यकलाप मात्र से प्रेमेन्द्र मेरे ‘चेंगड़े’ हो गये?
सागर से भी बातचीत बहुत देर में शुरू हुयी। पहले वे एक बार ब्लाग जगत छोड़ने की धमकी दे चुके थे। फिर तमाम साथियों के और मेरे भी समझाने पर इन्होंने दुबारा लिखना शुरू किया। अपना काम करते हैं। भावुक हैं। जल्दी उत्तेजित होते हैं उससे जल्दी शांत हो जाते हैं। इनकी वैचारिक ईमानदारी मैं कायल हूं। मुझे ये भाई साहब कहते हैं और मानते भी हैं। एक बार चिट्ठाचर्चा में देबाशीष की टिप्पणी से अनावश्यक रूप से बमक गये और लम्बी पोस्ट लिख डाली। मैंने इनसे बात की और देबाशीष की तरफ़ से बिना कुछ कहे अफसोस जाहिर किया और झटके में माफी भी मांग ली। इतने में ही सागर बाबू को रोना आ गया और इन्होंने अपने सारे गिले-सिकवे तहा के अलग रख दिये। सागर की संवेदनशीलता के लिये मेरे मन में इज्जत है। जितनी आसानी से वे एक घायल को बिना उपचार कराये छोड़ आने के अपराध बोध को स्वीकार सकते हैं उतनी आसानी से मैं नहीं कर सकता। सागर के प्रति मेरे मन में आदर के साथ प्रेम भी रहा है। यह उनके प्रति मेरा लगाव ही था कि मैंने खोजकर फिराक गोरखपुरी की करीब २० पेज लंबी नज्म ‘मां’ पोस्ट की और उनकी एक कविता ‘बोछकी’ अभी भी खोज रहा हूं। क्या यह सब मैं इसलिये करता रहा कि ये मेरे ‘चेंगड़े’ हैं? क्या मुझे भाई साहब कहने वाला और मेरे एक बार कहने मात्र से अपनी पोस्ट तक हटा लेने के लिये तैयार शक्स और मेरे बीच केवल खलीफा और बिगड़ैल चेले का ही सम्बन्ध हो सकता है! क्या मैं इनसे डरता हूंगा कि कल को अगर मैं कुछ इनके खिलाफ़ लिखूंगा तो ये मेरी ऐसी-तैसी कर देंगे?
इसी तरह बेंगाणी बन्धु। संजय बेंगाणी की विचारधारा से मेरा कोई तालमेल नहीं है। बातचीत भी कभी-कभी ही होती है। लेखन सामयिक घटनाऒं सामाजिक हलचलों पर रहता है। कभी वर्तनी की गलती भी रहती हैं। लेकिन इसके बावजूद मेरे में संजय के प्रति सम्मान भाव है जबकि वे मुझसे उमर में छोटे हैं। यह सम्मान भाव इसलिये नहीं कि मैं उनका गुरू हूं या वे मेरे हमविचार हैं या इनसे हमें या हमसे इनको कोई फायदा हो सकता है। यह सम्मान इसलिये है कि इन्होंने अपनी ईमानदारी बचाके रखी है और अपनी इनकी खुद की समझ है और उस समझ पर पूरी ईमानदारी से अमल करते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी के इशारे पर नाचा नहीं करता। न वह चेले बनाता है न खुद किसी का पिछलग्गू बना घूमता है।
पंकज बेंगाणी भी अपने भाई को ही अपना आदर्श मानते हैं। ये खुद ही मास्साब कहलाते हैं कोई इनका खलीफ़ा क्या बनेगा? और प्रियंकर जी ने इनकी जिस भाषा का जिक्र किया वह तो ये सुधार सकते हैं लेकिन जिस सिद्ध भाषा में इनको हमारा चेंगड़ा बताया गया उसमें क्या गुंजाइश है। बकौल कवि विनोद श्रीवास्तव-
चोट तो फूल से भी लगती है,
सिर्फ पत्थर कड़े नहीं होते ।

और पंकज केवल उजड्ड होते तो किसी पाठक के एतराज जताये जाने पर अपनी बंदर सीरीज का लेखन न छोड़ते।
मेरे अभिजात्य के छियाछार होने डर की बात करने वाले प्रियंकरजी को भले पता न हो लेकिन देबाशीषजी को अच्छा तरह पता होगा कि हिंदी ब्लाग जगत में
तमाम बार साथियों में उठापटक हुई। जीतेंद्र, अतुल, स्वामीजी और देबाशीष भी समय-समय पर ताल-ठोंक कुस्ती लड़ते रहे समय-समय पर। आज अगर सब एक मत न हों फिर भी सहयोग की भावना है तो उसमें मेरा कुछ न कुछ इस बात का योगदान रहा कि मैं इन लोगों को साथ लाने और मतभेद भुलाने का माध्यम बना। ऐसा नहीं कि मेरा व्यक्तित्व इतना चमत्कारी है जिसके आलोक में चकाचौंध होकर ये अपने मतभेद भूल गये। मैंने केवल इनसे मतभेद समाप्त करने का आग्रह किया और ये इनकी महानता रही कि मेरे कहने पर इन लोगों ने अपने मन की आवाज सुनी। तो क्या ये महापुरुष भी हमारे चेंअड़े हैं? क्यों भाई देबाशीष कुछ बताओ!
हिंदी ब्लाग जगत में इतने दिनों में मैंने बहुत कुछ पाया। तमाम दोस्त, तमाम प्रशंसक, तमाम भाई कहने वाले दोस्त और गुरुदेव हमने वाले ऐसे लोग जो हमारे भी गुरू हैं। इनमें से कई लोगों से मेरी रोज की बातचीत है। राकेश खंडेलवाल ने हमें अभी दो दिन पहले अमेरिका से फोन करके निराला जी पर लिखे लेख की तारीफ की तो इंग्लैंड से राकेश दुबे मुझसे मिलने आये जिनसे मेरा सिर्फ इतना परिचय था कि वे मेरा ब्लाग पढ़ते हैं।
ऐसा नहीं कि मुझे अपने लेखन के प्रति कोई गलतफहमी हो। दोस्तों की तमाम प्रशंसाऒं के बावजूद मैं जानता हूं कि कुछेक लेखों के अलावा मेरा सारा लिखना बकौल निधि ‘ऐं-वैं टाइप’ ही है। ब्लागिंग मेरे लिये शौकिया माध्यम है न कि रोजी-रोटी का जुगाड़। फिर मैं ऐसा गैंग टाइप का किसलिये बनाऊंगा कि जिसके लिये मुझे ‘चेंगड़े’ पालने पड़ें।
मैं सामान्य व्यक्ति की तरह रहना चाहता हूं। मौज-मस्ती से रहने की आदत है। अपने लिये महाब्लागर, वरिष्ठ चिट्ठाकार जैसी उपाधियां मुझे बकवास और बोझ लगती हैं। इसको अपने ऊपर चस्पां देखकर असहजता महसूस होती है। ऐसा व्यक्ति किस कारण अपने गुर्गे टाइप चेले तैयार करेगा। कौन सा कालिज हथियाने के लिये लिये ‘छोटे पहलवालों’ का गोल जुटायेगा!
अपने सभी साथियों से मुझे लगाव है। उम्र में बड़े कुछ चिट्ठाकारों के प्रति मेरे मन में आदर भाव भी है।मैं बावजूद मौज-मजे के उन लोगों के प्रति कुछ भी अशोभनीय बात कहने से बचता रहने का प्रयास करता हूं। और यह सब मैं अपने सुख के लिये करता हूं यही मेरा लालच है जैसा याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-
न वा अरे मैत्रेयी पुत्रस्य कामाय पुत्रम प्रियम भवति, आतमनस्तु वै कामाय पुत्रम प्रियम भवति।आत्मनस्तु वै कामाय सर्वम प्रियम भवति।
(अरे मैत्रेयी पुत्र की कामना के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता बल्कि अपनी कामना के लिये पुत्र प्रिय होता है। अपनी ही कामना के लिये सब कुछ प्रिय होता है।)
पता नहीं मैं अपनी बात सही तरह से कह पाया कि नहीं लेकिन मुझे खुशी है कि प्रियंकरजी और देबाशीषजी के बहाने मुझे कुछ कहने का मौका मिला और उन्होंने एक तरह से मुझे टोंका भी। इस बारे में मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे टोंकने वाले लोग मौजूद हैं क्योंकि मेरी दीदी कहती हैं – वह व्यक्ति अभागा होता है जिसको टोंकने वाला कोई नहीं होता।
देबाशीष भाई से भी गुजारिश है कि वे उन कारणों की तलाश करें कि कैसे छह महीने पहला का उनका ‘बड़भैया’ऐसा माफिक हो गया कि ‘अन्तर्जालीय चेंगड़े’ पालने लगा।
सागर, प्रेमेन्द्र, संजय बेंगाणी और पंकज बेंगाणी के लिये मैं अपनी तरफ़ से अफसोस जाहिर करता हूं कि मेरे कारण जाने-अनजाने उनको असहज टिप्पणियां मिलीं और उनको कष्ट हुआ।
मेरी पसंद
खारे पन का अहसास मुझे था पहले से
पर विश्वासों का दोना सहसा बिछल गया
कल,
मेरा एक समंदर गहरा-गहरा सा
मेरा आंखों के आगे उथला निकल गया।
डा.कन्हैयालाल नंदन

30 responses to “काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े’”

  1. eswami
    व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों, फ़िर सुलह-सफ़ाईयों वाले लेख व टिप्पणियां न जाने कितने अच्छे पाठकों और ब्लागर्स को खिन्न करते हैं. ये समझ सकता हूं की आपने ने ये लेख कतई ना लिखा होता यदी अन्य नामों को “चेला” “चेंगडा” जैसे विशेषण ना मिले होते – मजबूरी रही.
    कई अच्छे लोगों का इस विधा से इस प्रकार के विवादों के चलते मोह भंग हुआ है. कितनों का लेखन कम हुआ है – कितने निरुत्साहित हुए हैं. मेरे अपने अतीत से मैंने ये सीखा है की शब्दों से उकसाना और उकसना किसी का भला नहीं करता.
    हां, आप पर व्यक्तिगत आक्रमण कर के और सीन क्रियेट कर के अटेंशन तो ली जा सकती है लेकिन इस प्रकार की बातों और हरकतों के साईड-इफ़ेक्ट विधा पर और समूह पर क्या होते हैं अगर सोचा जाता तो ज्यादा सम्माननीय कर्म होता. सकारात्मक प्रयत्नों से सब खुश होते हैं उन पर ज़रा ध्यान दिया जाता तो मेरी तरह दूसरे भी पाते की आप कितने ही अच्छे प्रयासों के पीछे रहे हैं और वो ज्यादा महत्वपूर्ण है. मुझे मालूम है आप क्या करेंगे – माफ़ करेंगे और अपना काम करते रहेंगे! हमेशा की तरह:)
  2. श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'
    भाईसाहब आपको किसी को सफाई देने की जरुरत नहीं। मैं तो ब्लॉगजगत में अभी आया हूँ, मेरा कोई गुट नहीं, लेकिन मुझे आपको पक्ष न्यायोचित लगता है। मैंने पहले भी कहा कि सब के विचार अलग-अलग होते हैं। अब मान लीजिए संजय बेंगाणी भी राष्ट्रवादी हैं और मैं भी लेकिन फिर भी हमारे कई विचार भिन्न होंगे ही। इसलिए एक दूसरे के लिखे लेखों पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन दिक्कत तब है जब लोग व्यक्तिगत तौर पर एक-दूसरे के पीछे पड़ जाते हैं।
    एक-दूसरे के लेखों की समालोचना करना बुरा नहीं, आखिर स्वस्थ चर्चा यही तो है, लेकिन यहाँ कुछ लोग ऐसे हैं जो बिला वजह मन में खुन्दक पाले रहते हैं। इस बारे में शीघ्र ही कुछ लिखूँगा।
    बाकी आपकी लेखन-शैली का मैं कायल हूँ, आप किसी की टाँग खींचते हैं तो भी बुरा नहीं लगता। किसी की टाँग खींचना अलग बात है और किसी के प्रति अशिष्ट शब्दों का प्रयोग अलग बात। अब तक के मेरे पढ़े आपके लेखों में कहीं भी भाषा स्तरहीन नहीं देखी।
    कृपया अपने छोटे भाईयों के समूह ‘अन्तर्जालीय चेंगड़ों’ में मुझे भी शामिल कर लें। :)
  3. हिंदी ब्लॉगर
    अंतर्जालीय चेंगड़ा विवाद पर आपका लंबा पोस्ट पढ़ कर यही लगा कि इस पर इतनी ऊर्जा ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं थी. सच कहूँ तो आपका ताज़ा पोस्ट कमलेश्वर जी पर केंद्रित रहने की अपेक्षा थी.
  4. हिंदी ब्लॉगर
    लीजिए चेंगड़ा का अर्थ भी ढूँढ लाया.
    चेंगड़ा(स्त्री.चिंगड़ी)- छोटी बच्चा. शिशु.
    (इस शब्द की उत्पत्ति का तो मुझे पता नहीं. वैसे, राँची प्रवास के दौरान सुना था. इसलिए संभव है, बांग्ला उत्पत्ति हो.)
  5. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    मेरी इस टिप्पणी को किसी के समर्थन अथवा विरोध के रूप में न समझा जाये.
    सर्वप्रथम, मुझे ये कभी समझ नही आया कि जब हम दो महान व्यक्तियों की तुलना करते हैं तो जाने/अनजाने किसी एक व्यक्तित्व को क्षुद्र बनाने का प्रयास क्यों करते हैं.
    क्या गांधी को महान बताने के लिये सुभाष बाबू की निन्दा अथवा सुभाष को महिमामंडित करने के लिये गांधी के व्यक्तित्व को तार तार करना कहां तक उचित है. इस विषय पर एक उदाहरण देता हूं. कक्षा आठ तक मेरी शिक्षा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर में हुई है. मैं संघ का कार्यकर्ता नहीं हूं परन्तु संघ का निश्चित रूप से सम्मान करता हूं. मैं संघ की कुछ नीतियों का कट्टर विरोधी भी हूं. जब मुझे सरसंघचालक श्री के. एस. सुदर्शनजी से साक्षात्कार का सुअवसर मिला था तो एक गोष्ठी में मैने अपने मत प्रकट किये थे. सुदर्शनजी ने मेरे प्रश्नों के सप्रेम उत्तर दिये थे और मुझे ऐसा नही लगा कि हमारे वैचारिक मतभेदों का उनके मेरे प्रति व्यवहार पर कोई प्रभाव पडा हो. महापुरूषों का व्यक्तित्व ही ऐसा होता है.
    उन्मुक्तजी द्वारा गूगल वीडियो के दिये गये लिंक पर श्री ब्रजेन्द्र अवस्थी की वीर रस की कविताओं में उन्होनें गांधीजी की सुभाषबाबू एवं चन्द्रशेखर आजाद से तुलना की थी. उन कविताओं में उन्होने गांधीजी को नीचा दिखाने का प्रयास नही किया. मुझे उनकी कविताये एक स्वस्थ मानसिकता की परिचायक लगीं.
    मै स्वयं को गांधीवादी कहता हूं, संघ का समर्थक भी हूं, स्वतन्त्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के प्रति नतमस्तक भी, वामपंथियों की कुछ नीतियों का समर्थक, ह्रदय से समाजवादी, लोकतन्त्र में धर्मनिरपेक्षता का हिमायती, एक गर्वित हिन्दू, मुस्लिम कट्टरवादिता का धुर विरोधी, और पता नहीं क्या क्या.
    मुझे कष्ट तब होता है जब मुझे कहा जाता है कि संघी होकर वामपंथी नहीं हो सकते और समाजवादी एक गर्वित हिन्दू कैसे हो सकता है. वामपंथी और संघी दोनों ही मुझे अपशब्द कहते हैं. ऐसा लगता है कि उस क्षण कोई तलवार लेकर मेरे ह्रदय के टुकडे कर रहा हो.
    क्या हमारा ह्र्दय इतना तंग हो चला है कि उसमें गांधी और सुभाष साथ नही रह सकते?
  6. अनूप भार्गव
    विवाद में कौन सही है और कौन गलत , ये तो नहीं जानता और ना ही ये जानना मायने रखता है लेकिन यदि ऐसी बातों से खिन्न हो कर आप के लेखन पर प्रभाव पड़े या आप का लेखन कम हो जाये तो यह हिन्दी ब्लौग जगत की क्षति होगी । इस आशा के साथ कि ऐसा नहीं होगा ।
  7. समीर लाल
    क्या आप उन्हीं पंकज और संजय की बात कर रहे हैं, जिनसे आज तक मेरी मुलाकात नहीं है और मात्र मुझे सम्मान देने की खातिर, मेरी एक गुजारिश पर, अपने उपर होते व्यत्तिगत आक्षेपों के बावजूद, वो परिचर्चा के एक संवाद से बिना किसी शर्त अलग हो गये. क्या ये वही पंकज नहीं जिसने हर मौके पर अपने बड़ों की बात को ऊँचा रखने के लिये खुद को खुद ही के सामने झुका लिया. तकलीफ तो उसे भी हुई होगी, युवा है, पढ़ा लिखा है, जागरुक है.
    मानता हूँ कि उसने कभी कुछ ऐसी चलती भाषा का प्रयोग ब्लाग पर कर लिया मगर क्या मन्तव्य वही था और क्या वो उसको करता चला गया, एक बार समझाईश के बात. क्या उसे उसके उम्र की थोड़ी बहुत छूट भी न मिले. तब तो मेरा बेटा बचपन से सिर्फ पिट रहा होता. क्या ब्लाग पर साहित्यिक इतिहास के पन्ने लिखे जा रहे हैं या यह सार्वजनिक डायरी का एक स्वरुप है. अगर कोई इसे साहित्यिक इतिहास के पन्ने मानता है तो शायद उसने बहुतरे अंग्रेजी ब्लाग के पन्ने नहीं पढ़े, जिसमें इसे so called defusion का सार्वजनिक माध्यम माना गया है.
    सागर, जो सबको सिर्फ सम्मान देना जानता है. उत्तेजक हो जाता है कभी कभी. मगर अगर आप अपने आपको को ज्ञानी मानते हैं तो जरा गौर से उन्हें पूरा पढ़ें. वो जितना जल्दी उत्तेजित होते हैं उससे भी ज्यादा जल्दी संवेदनशील. पुनः मेरी उनसे मुलाकात नहीं है, मगर उनकी व्यवाहरिकता और सज्जनता मुझे अपनी अगली भारत यात्रा में हैदराबाद जाकर उनसे मिलने को प्रेरित करती है. उनमें और बैंगाणी बंधु में कुट कुट कर भरी संस्कारिता किसी बड़े तथाकथित साहित्यकार के सत्यापन की मोहताज नही और कम से कम मेरे लिये वो हमेशा सत्यापित है. मै तो गुजराती खाना और राजस्थानी खाना जरुर खाऊँगा दोनों जगह, क्योंकि दोनो क्योंकि दोनो को मैं अपना परिवार का अंग मानने लगा हूँ और पंडित के घर का खाना तो ड्यू है ही फुरसतिया जी के यहाँ और इलाहाबादी खाना हमारी ससूराल के मित्र परमेन्द्र के यहाँ.
  8. Jagdish Bhatia
    जब इन्सान यह सोच ले कि केवल आपसी रिश्ते मैं उन लोगों से ही बनाऊंगा जिनके विचार मेरे विचारों से मेल खायेंगे तो शायद ही कोई रिश्ता चल पाये। आप ‘कंडीशन्स एप्लाई’ वाला सितारा लगा कर कोई भी सामाजिक ताना बाना नहीं बुन सकते।
    दस मिनट की बात करके फोन पर कैसे दूसरे के साथ आप (अनकंडीशनल) रिश्ता गढ़ लेते हैं इसका अनुभव मुझे भी है।
  9. pankaj
    सब लोग कहते हैं कि, आप क्यों यह सब लिखकर अपनी उर्जा व्यर्थ करते हैं। जरूरत क्या है?
    पर मै समझता हुँ जरूरत है। जरूरत है उन लोगों को जवाब देने कि जो स्वम्भू महान होने गलतफहमी पाल बैठे हैं। उनको लगता है जैसे सबकुछ उन्ही कि वजह से चल रहा है, और उनके ना रहने से आफत आ जाएगी।
    ऐसे लोगों को होश ही नही रहता कि कब उनका व्यंग्य मजाक का रूप लेकर सामने वाले को आहत करने लग जाता है। उनके लिए उनकी विचारधारा से असहमत लोग “कच्ची कौडी” के हैं। कमाल है!
    तो इन पक्की कौडी वाले महाशय ने आजतक कितने तीर मार लिए हैं, वो भी पता चले।
    गलतफहमी में जीने वाले लोगों को सारी दुनिया “तुच्छ” और सब लोग “चैंगडे” ही नजर आते हैं!
    हिन्दी के कठीन से कठीन चुने हुए शब्दो को लिखकर, और वाक्यों तो तोड मरोड कर अर्थ का अनर्थ कर कर इन लोगों को लगने लगता है कि उन्होने साहित्यिक उपलब्धि को प्राप्त कर लिया है!!
    क्यों ना ये लोग गलतफहमीयाँ छोडकर सबको साथ लेकर चलना सीख सकें।
    आप महान हैं, पर यकीन मानिए यह आपका गुमान है।
  10. संजय बेंगाणी
    आपका आभार व्यक्त करता हूँ की अपना समय इस प्रकार की प्रविष्टी लिखने में लगाया तथा हम सब के सम्बन्धो की स्थिति स्पष्ट की.
    अखरी तो केवल एक बात कि इस लेख में वो वाली व्यंग्यात्मक पुट नहीं थी, जिससे कायल हो आपकी लम्बी-लम्बी पोस्टे पढ़ते रहे है.
    अगर ध्येय समान हो तो वैचारिक मतभेद के बाद भी एक-दुसरे के प्रति सम्मान का भाव कायम रहता है. हम सबको यही बात जोड़े हुए है.
    इतिहास में देखें तो सावरकर से मिलने गाँधीजी स्वयं जाते है, अतं में दोनो स्वीकारते है की उनके वैचारिक मतभेद है. किंतु कभी सावरकर ने गाँधीजी के लिए अपशब्द नहीं कहे. यह बात और है की एक कॉग्रेसी सावरकर का नाम सेल्युलर जेल से हटा कर खुश होता है. अलग होने पर भी समय समय पर गाँधीजी नेताजी सुभाष को याद करते रहे थे. सिंगापुर से रेडीयो प्रसारण में सुभाष ने गाँधीजी को महनतम नेता कहा था.
  11. जीतू
    इ का है?
    इत्ता सेंटी होकर काहे लिखे हो पहलवान? (ध्यान रखना, हमने अखाड़े वाला पहलवान नही कहा)
    देखो, दुनिया मे हर तरह के लोग होते है, कुछ लोग सीन क्रिएट करके ध्यान आकर्षित करते है और कुछ लोग अच्छा लिखकर। तुम अच्छा लिखने वालों की श्रेणी मे हो, सीन क्रिएट करने वालों को करने थे, थक-हार कर बैठ जाएंगे,जल्द ही। तुम ना परेशान हो।
    मैने बहुत पहले ही कहा था, परिवार बढने के साथ साथ, विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग भी आएंगे, साथ मे अपने अपने एजेन्डे लाएंगे। तो दादा, तुम उनसे व्यथित काहे होते हो, तुम हम सबके बड़े भाई थे और हो और हमेशा रहोगे। हर राह चलते की बात का जवाब दोगे तो निभा नही सकोगे। इसलिए मौज लो और मौज करो।
  12. आशीष
    हम हिन्दी ब्लागर जी का आंख मूंद कर समर्थन करता हूं और उम्मीद करता हूं कि आपका अगला लेख कमलेश्वर जी पर होगा और जल्दी ही होगा !
  13. सृजन शिल्पी
    आशा है इस परिहार्य पोस्ट के बाद आपके मन में “Catharsis” की प्रक्रिया पूरी हो चुकी होगी और आप कमलेश्वर को श्रद्धांजलि स्वरूप एक यादगार पोस्ट हमलोगों के लिए लिखेंगे।
    आप मेरे समग्र लेखन की पड़ताल करना चाहें और करें, यह मेरे लिए अति सौभाग्य की बात होगी। आज इसका प्रसंग भी बनता है क्योंकि आज ही हिन्दी चिट्ठाकारी में मेरे एक वर्ष पूरे हो रहे हैं।
    मुझे स्वयं इस बात को लेकर खेद रहा है कि मेरा लेखन हिन्दी चिट्ठाजगत में कभी-कभी इतने अप्रिय विवादों का निमित्त क्यों बनता है? पहले भी आरक्षण, गाँधीजी और भूमंडलीकरण के मुद्दे पर मेरे लेखों के कारण चिट्ठा जगत में हंगामे-जैसा माहौल पैदा हुआ है। लेकिन अपने मन, वचन और कर्म के प्रति ईमानदारी मुझे प्रेरित करती है कि मैं जनहित के मुद्दों पर अपने अध्ययन और अनुभव जनित निष्कर्षों को तथ्यपूर्ण ढंग से सबके सामने रखूँ। ऐसा करने के पीछे मेरा कोई वैचारिक एजेंडा नहीं है और न ही अपने व्यक्तित्व को चमकाने की कोई कोशिश है। मैं अपनी निजी पहचान तक ऑनलाइन जगत में जाहिर करना जरूरी नहीं समझता। यदि विचारों में दम होगा तो लोग उसकी सराहना करेंगे और नहीं होगा तो लोग आलोचना करेंगे। और, मुझमें आलोचनाओं को पचा सकने और उनका जायज और जरूरी शब्दों में माकूल प्रत्युत्तर दे सकने की क्षमता है।
    जैसा कि टी.एस.इलियट ने कहा है, भोक्ता (The man who suffers) और रचनाकार (the man who creates) के बीच सदा अंतर रहना चाहिए और यही सच्चे लेखन की सबसे बड़ी कसौटी है। हम चिट्ठाकारों को ब्लॉग जगत में इस कसौटी का ध्यान रहे तो कोई विवाद ही पैदा न हो।
  14. सृजन शिल्पी
    :-)
  15. सागर चन्द नाहर
    इतनी टिप्पणीयों को पढ़ने के बाद पता नहीं चल रहा कि क्या लिखुं, सभी मित्रों और सभी बड़े भाइयों को विशेषकर समीर लाल जी और अनूप शुक्ला जी को धन्यवाद कि उन्होने इतना प्रेम दिया।
    अनूप दा और समीरलाल जी समेत देवाशिष जी, जीतू भाई आदि का मैं चेला हूँ या नहीं पर मैं उन्हें मैं उन्हें गुरु मानता हूँ और उनके लेखन से प्रेरणा लेकर अपने लेखन को सुधारने कोशिश करता हूँ।
    ई-स्वामी जी ने सही कहा कि अगर विवादास्पद पोस्टें लिखीं ही नहीं होती तो यह सब सुनना नहीं पडता, मैं उनकी इस बात से सहमत होते हुऎ आगे ध्यान रखूंगा कि आगे से मैं किसी भी विवाद का निमित्त नहीं बनूं और पोस्ट लिखने या टिप्पणियाँ देने में सावधानी बरतुंगा। (एक विचार मन में फ़िर यही आता है कि अपने विचारों को प्रकट करने के लिये क्या किया जाय? यहाँ प्रकट होने पर अनावश्यक विवाद हो जाता है)
  16. rachana
    जैसा की स्वामी जी ने कहा //व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों, फ़िर सुलह-सफ़ाईयों वाले लेख व टिप्पणियां न जाने कितने अच्छे पाठकों और ब्लागर्स को खिन्न करते हैं//…ये बातें अच्छे पाठक और ब्लागर्स को ही नही बल्कि मेरे जैसे सामान्य पाठक को भी खिन्न करते हैं!
    बाकी मै हिन्दी ब्लागर और आशीष जी का समर्थन करते हुए कहूँगी की आप कमलेश्वर जी पर कुछ लिखें.
  17. Pratik Pandey
    कबीर ने कहा है -
    हाथी चले बजार में, कुत्ता भोंके हजार
    साधुन को दुर्भाव नहीं, जो निन्दे संसार
    आपने बिना किसी दुर्भावना के साफ़गोई से अपनी बात रखी, यह निश्चय ही आपकी साधुता का परिचायक है।
  18. अतुल
    जबरदस्त चर्चा पढ़ने को मिली , यहाँ भी और सृजन शिल्पी के यहाँ भी। एक जबरदस्त प्लाट सूझा है- “हिंदी ब्लाग जगत में विवाद” । इस पर शोध ग्रंथ तैयार कर रहा हूँ, सन्यास से वापस आने पर पोस्ट करता हूँ।शायद तब तक एकाध संग्राम और हो जाये भगवान के फजल से।
  19. PRAMENDRA PRATAP SINGH
    achachha laga pad kar.
  20. अभिनव
    अभी अभी मैंनें भी ब्लाग जगत पर यह पूरा प्रकरण देखा। अनूपजी श्रेष्ठ रचनाकार हैं तथा सृजन शिल्पी को तो हमनें वोट भी दिया है। अतः पढ़ते पढ़ते लगा कि कहीं ये लोग आपस में कुट्टी ना कर लें। पर खुशी की बात है कि दोनों सरदार पटेल की तरह समझदार हैं ;)।
    कहीं पढ़ा है अंग्रेज़ी में, हिंदी कर रहा हूँ,
    “संभव है कि मैं तुम्हारी बात से सहमत ना होऊँ,
    संभव है कि मैं तुम्हारी बात सुनकर मेरा खून खौल उठे,
    फिर भी मैं तुम्हें अपनी बात कहने देने के लिए,
    अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता हूँ,
    यह तुम्हारा अधिकार है।”
    खैर, यहाँ फिलहाल यह टिप्पणी न्योछावर।
  21. पंकज बेंगाणी
    मुझे बडी बडी बाते करनी नहीं आती चाचु, यह आप भी जानते हैं।
    और कोई भी ईंसान हो वो जहाँ कहीं भी खडा हो कहीं ना कहीं का तो हो ही जाता है, तो कहीं का नहीं कैसे रहता है? हा हा हा हा….
    खैर आपकी आज्ञा का पालन मैने हमेंशा किया है, तो आगे से कोई टिका टिप्पणी नहीं होगी। पर गेरेंटी हमेशा एक ही तरफ से क्यों मिलती है? लेकिन इन फालतु के पचडों में समय व्यर्थ करने से कुछ नही होने वाला… जिसके जो जी में आए कहे… मैं अपनी राह चलता रहुंगा।
    अब जबकी मदारीपने से उपर उठना पडा है, मजबुरी में.. :) तो यह भी सोचना है कि अब क्या लिखुं… लगता है मुझे “मेरा मोहल्ला” में फिर से जाना पडेगा।
  22. प्रियंकर
    अनूप भार्गव जी के ‘अंतिम शब्द’ के बाद भी सृजन शिल्पी की उस पोस्ट पर टिप्पणियां आ ही रहीं हैं और अब तो अलग से यह पोस्ट ‘काव्यात्मक न्याय और अंतरजालीय चेंगड़े’ भी लिखी जा चुकी है. सो थोड़े पेशोपस में हूं . 26 जनवरी की शाम से 09 फ़रवरी की दोपहर तक शहर से बाहर था . सागर भाई को उनकी मेल के संक्षिप्त जबाब में सूचित करके गया था . आज ही लौटा हूं .उनके जवाब का इन्तज़ार है.
    मूल बातों को दरकिनार कर बेवजह शहीदी बाना धारण किया जा रहा है और जिनका जिक्र कहीं हाशिये पर था या नहीं भी था, उनका नाम बड़ी होशियारी से कई-कई बार लेकर ‘हुसकाया’ जा रहा है . वैसे ही जैसे बकौल अनूप सुकुल नाहर जी ने उनके शांत मन की मौज़ को उत्तेजना के वाइरस से दूषित कर दिया . अब यह अलग बात है कि पूरा लेख पढ कर लगता है कि वे तो पूंछ उठाये बैठे ही थे उत्तेजित होने के लिये. बस किसी सामान्य से उत्प्रेरक की प्रतीक्षा में टकटकी लगाये बैठे थे . बेचारे नाहर जी बिलावजह बदनाम हो गये. शिवपालगंज के वैद जी महाराज का पूरा हुनर दिख रहा है .
    और वैसे भी अगर कोई दोष है तो मेरा है . अतः अनूप गुरू का आशीर्वाद भी मुझे मिलना चाहिये . बेवजह देबाशीष पर इतनी कृपा क्यों ? क्या विरोधी के समर्थन की एक भी आवाज़ इतनी तकलीफ़ देती है .
    वैसे भी अनूप जी को मेरे पहले आक्षेप पर न तो कोई शिकायत है और न ही कोई ऐतराज़ . दूसरे बिंदु पर भी उन्होंने कोई खास विरोध नहीं किया सिवाय मुझे टिप्पणी का मनोविज्ञान समझने की नसीहत देने के . तीसरे बिंदु के जवाब में उन्होंने मुहं देखकर तिलक करने की अपनी प्रवृत्ति का विश्लेषण कर स्वीकार्यता की मोहर लगाई ही है .
    अब उन्हें अफ़सोस हुआ है तो केवल चेंगड़ों का गुरु होने अथवा कहलाने पर . वैसे भी ऐसे चेंगड़े जिसके भी चेले-चांटे हों उसे शर्म आएगी ही . अनूप जी मना कर रहे हैं तो अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है . मैं उनकी बात पर पूरा भरोसा करता हूं और मानता हूं कि ऐसे ‘अज्ञ’ और ‘असंस्कारी’ उनके चेले होने लायक नहीं हैं . मित्र होने लायक हैं कि नहीं यह अनूप जी जानें .
    हां यदि मेरी टिप्पणियों से अनूप जी को कोई तकलीफ़ पहुंची हो तो (हालांकि अपने परदुखकातर स्वभाव के कारण वे हमेशा दूसरों की तकलीफ़ से ही दुखी हो कर हथियार/लेखनी उठाते हैं) यह जरूर कहूंगा कि मेरा एकमात्र उद्देश्य सुधारात्मक ही है और यदि मेरी किसी भी टिप्पणी को प्रतिशोधात्मक समझा जायेगा तो यह मेरे प्रति घोर अन्याय होगा . और जो इसे सीन क्रियेट कर ध्यानाकर्षण का तरीका समझते हैं तो उन्हें क्या कहूं . वे न भाषा की गरिमा समझते हैं न जीवन की .मुझे तो खैर वे जानते ही नहीं हैं .
    वैसे आप हैं भाग्यशाली . आप चेले मूड़ना नहीं चाहते और चेले हैं कि कहीं और जाना नहीं चाहते (संदर्भ:श्रीश शर्मा की टिप्पणी).
    कानपुर आऊंगा तो बड़ी दीदी के चरण स्पर्श करना चाहूंगा . वे वास्तव में बहुत बड़ी हैं.
    पता नहीं मुझे अब और हस्तक्षेप करना चाहिये कि नहीं .
  23. Srijan Shilpi » Blog Archive » गांधी की डगर और मैं
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