Wednesday, August 31, 2016

व्यंग्य के बहाने -१


व्यंग्य लेखन के बारे में अक्सर छुटपुट चर्चायें होती रहती हैं। लोग अपने अनुभव के हिसाब से बयान जारी करते रहते हैं। शिकवा, शिकायतें, तारीफ़, शाबासी भी चलती ही रहती है। कभी-कभी लम्बी चर्चा भी होती रहती है। कुछ बातें जो अक्सर सुनने में आती रहती हैं:
१. व्यंग्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
२. व्यंग्य में मठाधीशों का कब्जा है।
३. नये-नये लोग लिखने वाले आते जा रहे हैं।
४. नये लोगों को लिखना नहीं आता, उनको जबर्दस्ती उछाला जाता है।
५.पुराने लोग नये लोगों को तवज्जो नहीं देते।
६. नये लोग पुरानों की इज्जत नहीं करते।

इसी तरह की और भी बातें उछलती रहती हैं। समय-समय पर। खासकर किसी इनाम की घोषणा के समय। जिसको इनाम मिलता है, वह बेचारा टाइप हो जाता है। सामने तारीफ़ होती है, पीछे से तारीफ़ को संतुलित करने के लिये जबर खिल्ली उड़ाई जाती कि इसको भी इनाम मिल गया, इसको तो लिखना भी नहीं आता, अब तो भगवान ही मालिक है व्यंग्य का। कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनको कोई भी पुरस्कार मिलता है तो कहा जाता है इनाम सम्मानित हुआ है इनको सम्मानित करने से। वह बात अलग है कि उनके  भी किस्से चलते हैं कि कैसे इनाम जुगाड़ा गया, क्या समझौते हुये। लेकिन इनाम की छोडिये- इनाम तो हमेशा छंटे हुये लोगों को मिलता है।

सबसे पहले बात मठाधीशी की। आज की तारीख में छपने, छपाने, पाठकों तक पहुंचने की जैसी सुविधा है उसके चलते मठाधीशी जैसी स्थिति कत्तई सम्भव नहीं है। अगर किसी के पास लिखने का हुनर है तो उसको छापने के अनगिनत मंच हैं। अगर कोई अच्छा लिखता है तो वह किसी ने किसी तरीके से देर-सबेर लोगों तक पहुंचता ही है। कोई भी खलीफ़ा किसी को अपने पाठकों तक पहुंचने से रोक नहीं सकता। किसी की मठाधीशी नहीं चल सकती आज के समय में किसी भी विधा में। लोग अपने-अपने ग्रुप बनाकर अपने पसंदीदा की तारीफ़ करें, अपने पसंदीदा को देवता बनाकर पूजें वह बात अलग है। संविधान भी अनुमति देता है अपने हिसाब से पूजा पाठ के लिये।
-आगे भी लिखा जाये क्या ? 

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कानपुर आते ही भाव बढ़ गए

आज सबेरे जब निकले तो घर के बाहर ही एक पिल्ला अपने मम्मी पापा के साथ बैठा सड़क पर धूप सेंक रहा था। हम हार्न बजाए जोर से कि भैया जाय देव ड्यूटी। लेकिन वो सुना नहीँ। हम फिर हल्ला मचाये लेकिन वो बैठा रहा। सोचा पास ले जाएँ तो भागेगा कि किकिआते हुए। लेकिन फिर गाडी उसकी बायीं तरफ से निकाली। ज्यादा घूम गयी तो बगल की फेन्स से टकराते बची। जरा सा चूक जाते तो कल खबर बनती -'कुत्ते को ओवर टेक करने की कोशिश में अफसर घायल।' लगा कि जो बाएं से ओवरटेक न करने का नियम है वह गाड़ी और कुत्ते दोनों पर लागू होता है।

आज सड़क पर कुछ जमावड़ा ज्यादा था। खरामा-खरामा चलते रहे। एक महिला स्कूटर पर पीछे बैठी मोबाईल पर झुकी थी। हमें लगा कि शायद हमारा ही स्टेटस लाइक कर रही हो। शक्ल देख नहीं पाये वरना कन्फर्म भी हो जाता।

आगे क्रासिंग बंद देखकर ऑटो वाले ने अपना ऑटो उलटी तरफ लगा दिया जिस तरह चुनाव आते देखकर संभावना के हिसाब से एक पार्टी से दूसरी में टहल लेते हैं। हम भी इंजन बन्दकर मोबाईल में मुंडी घुसा लिया। क्रासिंग खुलते ही ऑटो वाले ने गाडी क्रासिंग पर वज्रगुणन वाले अंदाज में निकाली और फिर हमारी लाइन में हो गया। हमसे आगे।

आज पंकज बाजपेयी से मुलाकात हुई। कल भी हुई थी। बात भी हुई। शीशा नीचे करके बतिया रहे थे तो बोले-' ये कूलर काहे चल रहा है।' हम बताये-'कूलर नहीं एसी चल रहा है। बतियाने के लिए खिड़की खोले हैं।' पता चला कि दो दिन जब दिखे नहीँ पंकज जी तो वो सामने की पट्टी पर चाय की दुकान पर थे और वहां से हमको गुजरते देख रहे थे। मतलब उनको भी हमारा इंतजार रहता है।

हमने बताया कि हमारे मित्रों ने याद किया है उनको। बातचीत से पता चला कि पंकज बाजपेयी बीए पास हैं। हलीम मुश्लिम कालेज से सन 1982 के स्नातक हुए हैं। फैक्ट्री की देरी न हो रही होती तो और गुफ्तगू करते।

आगे सड़क किनारे तीन आदमी उकड़ू बैठे बतिया रहे थे। त्रिभुज के तीन बिंदुओं की तरह आराम से बतियाते देखकर थोड़ी जलन टाइप हुई। लेकिन वे मेरी जलन से बेपरवाह आपस में बतियाने में मशगूल रहे। हम हड़बड़ी में थे दफ़्तर पहुँचने की इसलिए जलन स्थगित करके सामने देखने लगे। जबलपुर में होते तो थोड़ा और रूककर बतियाते शायद।

कानपुर और जबलपुर में यह बड़ा अंतर है। वहां पुलिया पर जिस तसल्ली से बतियाने का सुकून था उत्ता यहां नहीं। वहाँ दफ़्तर, मेस सब जगह सीधे कुदरत के सीधे संपर्क में थे। यहां दफ़्तर में बैठे रहो तो पता ही नहीं चलता कि बहार झमाझम बारिश हो रही या सूरज भाई का जलवा पसरा है। वहां कमरे की खिड़की दरवाजा खोलते ही शानदार प्रकृति का पूरा नजारा दीखता था।

सूरज भाई से मिले तो हफ्तों बीत जाते हैं। जब कभी मिलते हैं मुंह फुलाये रहते हैं। मानो कहना चाहते हों -'कानपुर आते ही भाव बढ़ गए।' किरणें भी बात नहीं करतीं जैसे कोई बॉस जब किसी से खफा होता है तो बॉस के चमचे, चेले भी उससे मुंह फिरा लेते हैं, बात बन्द कर देते हैं यह सोचकर कि कहीं बॉस उनसे भी खफा न हो जाए।

सबसे बड़ी असुविधा फोन और इंटरनेट की है। दफ्तर पहुँचते ही इंटरनेट और फोन कनेक्शन मोबाइल से अपना नेट कनेक्शन अपना समर्थन वापस ले लेता है। जब कब्बी ऑनलाइन पेमेंट करना होता है कभी तो अर्दली को बाहर भेजते हैं। वह बाहर किसी ऐसे कोने में खड़ा होता है जहां सिग्नल आता है। जैसे ही वन टाइम पासवर्ड आता है नेट में टप्प से वह भागकर मेरे पास आता है। दस में से बीस बार ऐसा होता है कि जब तक वह मेरे पास तक आता है, पासवर्ड भरने की मियाद खत्म हो जाती है। पैसे भले बचते हैं लेकिन बचत के खुशनुमा एहसास पर कभी-कभी खीझ हाबी हो जाती है।

हमारे यहां तो खैर गनीमत है कि सिग्नल बिल्कुलै गोल रहते हैं। आते ही फोन तहा के धर देते है। फोन मेज पर मार्गदर्शक की तरह निस्पंद पड़ा रहता है। लफ़ड़ा उनके यहाँ होता है कुछ-कुछ जगह सिग्नल की एकाध डण्डी आती है। उनमें से कुछ तो शांत भाव से सिग्नल देखते रहते हैं। लेकिन सिग्नल डण्डी आते ही अगर कोई फोन भी आ जाता है तो इत्ती तेजी से बाहर की तरफ भागते हैं फुल सिग्नल वाली जगह की तरफ कि देखकर लगता है कि अगर इतना तेज ओलम्पिक में भागते भारत की तरफ से तो बोल्ट को रजत पदक से ही संतोष करके रिटायर होना पड़ता।

लेकिन यह सब तो चलता रहता है। यहां मोबाइल सिग्नल न मिलने की वजह से बैटरी बचती है। नेट का खर्च कम होता है। बार-बार चार्ज न करने के चलते चार्जर और चार्ज करने वाली डोरी अभी तक चल रही है। जिसको फोन करना भूल जाओ तो परमानेंट बहाना , मुआ फोन मिलता ही नहीँ। असुविधा से भी सुविधा का एहसास खींच लेते हैं।

इन सब बाधाओं के बीच भी दिन में एकाध पोस्ट घसीट ही देते हैं। ये वाली कविता को मूर्तिमान करते हुए:
"देखकर बाधा विविध बहुत विघ्न घबराते नहीं।"
खैर यह सब तो राज-काज हैं जिंदगी के। मजे से रहना चाहिए। झींकने से कोई फायदा नहीं। है कि नहीं ?
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Tuesday, August 30, 2016

गुरु अगर आज बोले नहीं, तो बड़ा बवाल होगा

गुरु अगर आज बोले नहीं, तो बड़ा बवाल होगा
गूंगा तो नहीं है कहीँ, फ़ौरन ये सवाल होगा ।
जिनको स्कर्ट पहन के न आने को समझाया है
वो गमछा पहन के आ गए, तो जबर धमाल होगा।
सोच रहे थे, आज मोहब्बत की कोई बात कर ही डालें,
थम गए ये सोच के, चेहरा बहुत गुलाबी, लाल होगा।
-कट्टा कानपुरी

Monday, August 29, 2016

हम बूढे लोगों की एक ही नियति है

आज सुबह जरा जल्ली निकले। जल्ली मतलब आठ के पहले- जब रोज निकल लेना चाहिये कायदे से। असल में हम रोज यह सोचकर कर चलते हैं गोया पूरी सड़क हमारे लिये ही बनाई गयी है। बाकी सब फ़ालतू हैं में आ जाते हैं। फ़िर जब क्रासिंग मिलती है, टेम्पो , रिक्शा आगे आता है तो यार ये कहां से आ गये। जानवर तो खैर सड़क पर रहेंगे ही, आदमी रहे न रहे।
निकलते ही जेब में धरा मोबाइल का न जाने कौन हिस्सा दब गया कि नंदन जी की कविता बजने लगी:

"सुनो,
अब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे तुम्हारी आंख में ठिठके हुये
बेचैन समन्दर की याद आती है।"

नंदन जी समन्दर किनारे काफ़ी दिन रहे इसलिये उनकी कविताओं में समन्दर जब मन आता है टहलता चला आता है। एक किस्सा विश्वास टूटने का :

'खारे पन का एहसास मुझे था पहले से
पर विश्वासों का दोना सहसा बिछल गया,
कल मेरा एक संमंदर गहरा-गहरा सा
मेरी आंखों के आगे उथला निकल गया।'

सपने और यथार्थ के अंतर का एक बिंब है:
'आंखों में रंगीन नजारे
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है
जैसे बालू बीच खड़े।'

इसको याद करते ही हम सड़क पर आ गये। आर्मापुर मोड़ पर एक टेम्पो वाला कान पर हाथ धरे कव्वालों वाले अंदाज में बैठा था। ध्यान से देखा तो मोबाइल पर किसी से बतिया रहा था। छुटके मोबाइल पर।

आगे फ़ैक्ट्री के बाहर गेट मीटिंग हो रही थी। कर्मचारी लोग तमाम विसंगतियों के बारे में अपने प्रतिनिधि का भाषण सुन रहे थे। संगठित क्षेत्र के लोग अपनी मांगों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन कर सकते हैं। कर रहे थे।

वहीं बगल में भीख मांगती महिला सड़क पर फ़सक्का मारे बैठी थी। उसका पति रिक्शा चलाता है । जीवन उसका भीख पर निर्भर नहीं है। इसलिये उसके मांगने में दैन्य नहीं है। सामने धरा है कटोरा। जिसकी गरज हो, जिसको अपना परलोक सुधारना हो वो चुपचाप कटोरे में डाल के जाये पैसा। उसके नंगधड़ंग बच्चे वहीं खेल रहे थे। एक छुटका बच्चा फ़टी बनियाइन पहने अपना पिछवाड़ा सड़क पर आते-जातों को दिखाता मजे से अपनी बहन के साथ खड़ा था। उसका सीना सड़क किनारे की फ़ुटपाथ की ऊंचाई के बराबर देखकर लगा मानों कोई जहाज का कप्तान जहाज की रेलिंग पर सीना टिकाये समन्दर निहार रहा है।
इस्स एक बार फ़िर आ गया समंदर। फ़िर एक शेर और हो जाये इसी बात पर समंदर पर। कृष्णबिहारी नूर साहब फ़र्माते हैं:

'मैं कतरा सही मेरा वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।'

अस्तित्व की अहमियत भले ही कोई कितना छोटा न हो हमेशा से होती आई है। पहले भी कहा जाता है बूंद के होने न होने से समुद्र की विशालता में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन समुद्र में मिलने बूंद का बूंदपन खतम हो जायेगा:

"जैईहै बनि बिगरि न वारिधिता वारिधि की,
बूंदता बिलैहै बूंद विवश बिचारी की।"

आगे झगड़ेश्वर बाबा मंदिर के सामने नल से पानी झन्नाटेदार धार से आ रहा था। लोग अपने प्लास्टिक के डब्बों में बाल्टियों में पानी भरते जा रहे थे। वहीं एक बुजुर्ग आदमी लगभग गले केले बेंचने के लिये ठेलिया पर लगाये खड़ा था। जिस आत्मीयता से निहार रहा था वह केलों को उससे लग रहा था कि वह केलों से कह रहा होगा - ’हम बूढे लोगों की एक ही नियति है। कोई हमको पूछता नहीं है।’

वहीं रिक्शे पर वजनी पाइप ले जाते मजूर अपनी कमर की रस्सी रिक्शे बांधे चले हईस्सा करते चले जा रहे थे। कुछ लोग पेड़ के नीचे रुककर उन पाइपों के ऊपर ही बैठे सुस्ता रहे थे।

आज जरीबचौकी की क्रासिंग मेरे स्वागत में दोनों बाहें फ़ैलाये खोले मिली। हम सर्र से निकल गये । समय था तो सोचा आज पंकज बाजपेयी से बतियायेंगे तसल्ली से। लेकिन वे आज दिखे नहीं ठीहे पर। उनका झोला झंडा वहीं डिवाइडर पर धरा था। बिना पंकज जी के झोला ऐसा लग रहा था मानो किसी ट्यूब से हवा निकाल दी गयी हो और गुड़ी-मुड़ी करके वहीं धर दिया गया हो। कल भी नहीं दिखे थे। लगता आने में देर कर दिये या कहीं निकल लिये।

बगल में नल में पानी के इंतजार में पचीसों प्लास्टिक के डब्बे लाइन में खड़े थे। अलग-अलग कंपनियों के डब्बे खाली होने के बाद एक ही जगह इकट्ठा हुये देखकर लगा अलग-अलग धर्मों के इन्सान अपनी दुनियादारी खतम करके एक ही तरह से ऐसे ही विदा होते होंगे।

इसके बाद फ़ुर्ती से गाड़ी भगाते हुये आये और फ़ैक्ट्री में समय के पहले जमा हो गये। जब आज जमा हुये तब कल निकले थे घर से। 
अब बकिया फ़िर। आप मजे से रहिये। अपना ख्याल रखियेगा और थोड़ा सा हमारा भी

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शेरनी को बताकर आते हैं

शेर लिखकर कहा, चलो तुमको स्टेटस बनाते हैं,
शेर फूट लिया कहकर - शेरनी को बताकर आते हैं।
एक चिरकुट सा लेख लिखा, अख़बार से खबर आई,
थोड़ा और घटिया बनाकर भेजो, फौरन छपवाते हैं
वो मिले राह में बोले इमेज इत्ती चौपट बनाई तुमने
लफ़ड़ा क्या है यार, लोग तुमको भला आदमी बताते हैं।
-कट्टा कानपुरी

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Sunday, August 28, 2016

साहित्य जीवन की तरह ही है

साहित्य जीवन की तरह ही है। यहां खूबसूरत , बेहद खूबसूरत फूल भी खिलते हैं तो कम खूबसूरत माने जाने वाले रंगबिरंगे फूल भी। अच्छा-खराब भी हमेशा सापेक्ष ही होता है। तथाकथित अच्छे लिखने वाले तथाकथित खराब लिखने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं यह गली-मोहल्लो वाली छुटभैयों की गुंडई जैसी हरकत है। अनगिनत स्तर होते हैं समाज के। उसी के अनुरूप उस स्तर के लोगों की अभिव्यक्ति भी। जो किसी स्तर के लिए शानदार, जबरदस्त , जिंदाबाद हो सकता है वही दूसरों के कूड़ा, फालतू, बकवास हो सकता है।

साहित्य कोई बतासा नहीं है जो खराब लेखन (जिसे नवांकुरों द्वारा लिखा बताया गया) की बारिश मे घुल जायेगा। सबको खिलने, खुलने, पनपने का एकसमान हक़ है यहाँ।

क्या फ़ायदा ऐसी अफ़सरी का

कल शाम दफ़्तर से निकले तो दिहाड़ी पर काम करने वाले अर्दली जी गेट पर मिल गये। बोले - ’आप आर्मापुर तक जायेंगे। हमको विजयनगर तक लेते चलिये।’
अर्दली का नाम याद नहीं था मुझे लेकिन दिन में कई बार आते-जाते भेंट होती है। कल शनिवार दोपहर देर तक चली मीटिंग में नाश्ते पानी ( जलेबी, मठरी) की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी।
हमने सोचा एक से भले दो। साथ रहेगा। बोले -’चलो।’
चले तो देखा पेट्रोल एकदम खतम था। कल से ही गाड़ी पीला निशान दिखा रही थी। आज लाल हो गया था निशान। सोचा पहले पेट्रोल ही भरवाया जाये वर्ना धक्का परेड करवानी पड़ेगी गाड़ी की।
पेट्रोल पम्प के पहले भीड़ थी सड़क पर। पता चला कि एक मारुति में चलते-चलते आग लग गयी। बीच सड़क पर। मने गाड़ियां तक तनाव में चल रही हैं। क्या पता पेट्रोल के रोज-रोज दाम ऊपर-नीचे होते देख माथा गरम हो गया हो गाड़ी का और सुलग गयी हो।
आग बुझा दी गयी थी। कुछ देर में भीड़ भी छंट गयी। हमने गाड़ी पेट्रोल पम्प पर ले जाकर ठढिया दी। पंप वाले ने पूछा कित्ते का तो जेब टटोली। पाया कुल मिलाकर सत्तर रुपये थे जेब मे।

एटीएम के चलन ने पैसे पास में लेकर चलने की अनिवार्यता कम कर दी है। लेकिन एटीएम दूर था। सोचा साथ की सवारी से मांग लें। फ़िर सोचा दुनिया भर में हल्ला मचेगा कि सवारी से पैसा उगाहते हैं। फ़िर सोचा एक लीटर ही भरा लेते हैं। आगे फ़िर पैसा निकालकर भरवायेंगे। लेकिन फ़िर तब तक अकल भी आ गयी साथ में और हमने पूछा - ’पैसा पेमेंट वाली मशीन है?’ उसने बोला है। हमने कहा तो फ़िर तौल देव हजार रुपये का तेल।

तेल भरवाकर आगे बढे तो बतियाने लगे साथ की सवारी से। पता चला कि चार साल से दिहाड़ी पर मजूरी कर रहे हैं फ़ैक्ट्री में। फ़िलहाल महीने के 7000/- रुपये मिलते हैं। मतलब कुछ लोगों के वेतन में जित्ती बढोत्तरी हुई है सातवें वेतन आयोग के बाद वो एक दिहाड़ी मजूर की महीने के कमाई से तीन गुनी से भी अधिक है।

भारत में स्थाई और अस्थाई मजूर की दिहाड़ी में अमेरिका और हिन्दुस्तान का अंतर है।
बतियाते हुये ही सवारी के घर परिवार के बारे में बात हुई। बताया तीन बच्चे हैं। दो लड़की , एक लड़का। मतलब तीसरा बच्चा लड़का न होता तो जनसंख्या और बढती। पत्नी भी कुछ काम करती है। खुद का भी कुछ बिजनेस है। बच्चे पढ़ते हैं। खुद भी घर जाकर पढाते हैं।

जिस तरह अधिकार पूर्वक हमसे लिफ़्ट मांगी हमारे दफ़्तर के अर्दली ने उससे हमें लगा -’बताओ यार, हमसे कोई डर ही नहीं अगले के मन में। दन्न से कहा -साथ लेते चले। मतलब हमको सीधा और भला आदमी ही समझा जाता है दफ़्तर में। क्या फ़ायदा ऐसी अफ़सरी का।’

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी कि दिहाड़ी मजूर का भी यह आत्मविश्वास है कि वह बराबरी के स्तर पर बात कर सकता है। हमारा दोस्ताना रवैया तो खैर रहा ही होगा इसका कारण।


जब पता चला कि आर्मापुर से ओपीएफ़ तक बस/आटो का किराया 13 रुपया है तो दो विचार आये दिमाग में। पहला तो यह कि रोज टेम्पो से आया-जाया करें। काम भर के पैसे बचेंगे। दूसरा आइडिया यह आया कि आते-जाते आर्मापुर से ओपीएफ़/स्टेशन की सवारी बैठा लिया करें। सोचा तो यह भी को ओला/उबेर टैक्सी वालों से संपर्क कर लें और आते-जाते उनकी सवारिया लादे लिये जाया करें। आप बताइये कौन सा तरीका ठीक रहेगा?

हम यह सब सोच ही रहे थे कि टाटमिल चौराहे पर एक पुलिस वाले ने गाड़ी रोककर कागजात दिखाने को कहा। हमारे सारे कागज उसको सौंपते ही कागजों में उसकी दिलचस्पी खतम हो गयी। लेकिन हम डरते ही रहे कि कोई कागज गलत न ठहरा दिया जाये। लेकिन उसने ऐसा जुल्म किया नहीं। बल्कि डिक्की खोलने को कहा। पता चला कि जो लोग एलपीजी सिंलिंडर गाड़ी में लगाये चल रहे हैं उनकी जांच चल रही है। लेकिन अगले दिन अखबार में पढ़ा कि विस्फ़ोटक बरामद हुये हैं तो हम दहल गये। लेकिन जब पुलिस वाले ने मुक्त करते हुये थैंक्यू कहा तो मन अच्छा हो गया।

शाम हो गयी थी। सूरज भाई अपना शटर गिराकर अपनी किरणों को समेटे हुये खरामा-खरामा निकल लिये। विजय नगर चौराहे पर अपनी सवारी उतारकर जब हम घर पहुंचे तब तक रात ने अपनी खटिया बिछाना शुरु कर दिया था।

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Saturday, August 27, 2016

हवा में उड़ता जाये, तेरा लाल टुपट्टा मलमल का

दफ़्तर रोज जाते हैं। घर से निकलते ही कैमरा आन कर देते हैं। दांये-बायें निहारते हुये बीच-बीच में मोबाइल में समय देखते जाते हैं। घड़ी 1992 से छोड़ दिये हैं। उसका भी मजेदार किस्सा है। कभी सुनायेंगे।

सबेरे जब दफ़्तर जाते हैं तो हड़बडाये ही रहते हैं। पहली रुकावट विजय नगर क्रासिंग पर होती है। कोई न कोई गाड़ी आकर मुंह अड़ा देती है हमारी गाड़ी के आगे। नयी-नयी बच्चा गाड़ियां तक हमारी बुजुर्ग गाड़ी के आगे अड़ जाती हैं। लगता है गाड़ी न हो आजकल के लौंडे - लफ़ाड़े हों जो बुजुर्गों की इज्जत करने में अपनी बेइज्जती महसूस करते हों।

आगे जरीब चौकी क्रासिंग पर जब फ़ाटक बन्द मिलता है तो पहला विचार यही आता है -’आज तो हो गये लेट। देर नहीं करना चाहिये निकलने में। कल से जल्दी निकला करेंगे।’ क्रासिंग खुलते ही ऐसे फ़ुर्ती से भागते हैं जैसे मार्च के महीने में ग्रांट आते ही बाबू लोग चुस्तैद हो जाते हैं बजट निपटाने में। कुछ दुपहिया वाहन क्रासिंग बन्द देखते ही उल्टी तरफ़ पहुंचकर सबसे आगे खड़े हो जाते हैं। क्रासिंग खुलते ही गाड़ी का वज्रगुणन टाइप करके फ़र्राटा भरते हुये निकल लेते हैं।

कल एक बच्ची साइकिल पर स्कूल जाती दिखी। उसका टुपट्टा हवा में उड़ रहा था। टुपट्टा उड़ते देख गाना याद आना चाहिये :
हवा में उड़ता जाये, तेरा लाल टुपट्टा मलमल का।

लेकिन हमको गाना नहीं याद आया। हमको दो दिन पहले किसी इजरायली जाहिल नेता का दिया हुआ बयान याद आया। उसने कहा था- ’पांच साल से ज्यादा उमर की लड़कियों को साइकिल नहीं चलानी चाहिये। उससे देखने वाले को उत्तेजना होती है।’

हमको लगा भला हो भगवान का, पाक परवरदिगार का (ज्यादातर धतकरम जिनके नाम पर भी ही होते हैं) कि नमूने कम ही बनाये हैं उन्होंने दुनिया में। क्या पता कल को कोई जमूरा बयान दे बालिग लड़कियों को खुले में सांस नहीं लेनी चाहिये। उनके सांस लेने से, उतार-चढ़ाव से देखने वाले को उत्तेजना होती है।

फ़जलगंज क्रासिंग के आगे एक पेड़ धड़ाम हो गया था। सड़क पर आने-जाने का रास्ता बंद। आगे भीड़ देखकर हम एक गली में मुड़ गये। गली क्या कुलिया थी। मुख्य सड़क से सटी गली में दोनों तरफ़ सुस्ताया हुआ समाज था। हमारी गाड़ी रेंगती हुयी निकली गली थी। दोनों तरफ़ दुकानें आधी सड़क पर पसरी हुई थीं। लोग इतने आराम-आराम से आ-जा रहे थे कि उनको डिस्टर्ब करते हुये शरम आ रही थी मुझे। लेकिन दफ़्तर जाना था इसलिये पों-पों करते हुये निकले।

आगे पंकज बाजपेयी बैठे मिले। रोज मिलते हैं। चाय पिये नहीं थे। बोले - ’अब जायेंगे पीने। मामू के यहां।’ चलते समय रोज कहते हैं- ’गन्दी चीज नहीं खाना।’

दफ़्तर जाने की हड़बड़ी में ज्यादा बात नहीं हो पाती लेकिन मिलते जरूर हैं रोज। हाथ भी मिला लेते हैं अक्सर। लेकिन कल लफ़ड़ा हुआ।

हुआ यह कि जैसे ही डिवाइडर के पास उस जगह पहुंचे जहां पंकज बाजपेयी का ठीहा है तो हमने गाड़ी रोक दी उनको नमस्ते करने के लिये। हम उनसे बतियाने लगे। इस चक्कर में हम भूल गये कि सड़क हमारे अलावा दूसरों के लिये भी बनाई गयी है। लेकिन हमारे पीछे आने वाले मोटरसाइकिल वाले भाई जी यह नहीं भूल पाये थे। वे हमारे एकदम पीछे सटे हुये चले आ रहे थे। मतलब ’असुरक्षित दूरी’ बनाकर चल रहे थे। हमारे गाड़ी रोकते ही उनको भी ब्रेक मारने पड़े। जित्ता ब्रेक गरम हुये होंने उससे दोगुने ज्यादा वे सुलग गये। अपना जरूरी काम छोड़कर  उन्होंने हमारी गाड़ी का दरवाजा खटखटाया। ’अंखियों से गोली मारने’ वाली मुद्रा देखते ही हमने हाथ जोड़ दिये। चेहरे पर दीनता और थोड़ी सी मुस्कान का पैक लगा लिया। वे भाई साहब भुन्नाते हुये चल दिये।

हम भी चल दिये। लेकिन हमको फ़िर लगा कि बताओ एक फ़टफ़टिया वाला एक सैंट्रो वाले को हड़का जाये। बीच सड़क पर। बड़ी गाड़ी वाला आदमी मजबूर होता है छोटी गाड़ी वाले आदमी को अपने से हीन समझने के लिये। आदमी जिस गाड़ी की सवारी करता है वह गाड़ी भी आदमी के सर पर सवार रहती है।

यह याद आते ही हमने गाड़ी दौडाई। सोचा उसको हड़काते हैं। किस बात पर हड़कायेंगे यह नहीं पता था लेकिन यह तय था हड़काना है। मन ही मन यह डर भी लग रहा था कि कहीं आगे मिल न जाये। लेकिन डर के साथ बड़ी गाड़ी के चलते वीर रस हाबी थी लल्लन मियां वाला:

फ़ूंक देंगे पाकिस्तान लल्लन
दो सौ ग्राम पीकर देखो।

हमने दो सौ ग्राम पिये बिना तय कर लिया कि अब मिलते ही फ़टफ़टिया वाले को हड़काना ही है। बहाना भी तय कर लिया कि देखते ही कहेंगे-’ फ़टफ़टिया को सैंट्रो को सटाकर चलाते हुये शरम नहीं आती। ऊपर से गरमी दिखाते हो।’

आगे दिख भी गया अफ़ीमकोठी पर जामकृपा से। हड़काने का बहाना भी मिल गया एक और। वह हेलमेट नहीं लगाये था। सोचा हड़कायेंगे -’ बिना हेलमट लगाये फ़टफ़टिया धारी तुम सीट बेल्ट धारी सैंट्रो सवारी को हड़काते हो। शरम नहीं आती।’ हम लपककर उसके बगल में पहुंचे। लेकिन उसका भाग्य तगड़ा था (उससे ज्यादा हमारा तगड़ा रहा होगा) कि वह बीच सड़क से किनारे होते हुये दूसरी तरफ़ चला गया।

इसके बाद हम चुपचाप चलते हुये चले आये। मोटरसाइकिल पर सवारियों के बिना हेलमेट सर गिनते हुये। न जने कब लोग यह समझेंगे कि हेलमेट लगाना उनके लिये जरूरी है उनकी सुरक्षा के लिये।
खैर अब फ़िलहाल हमारे लिये निकलना जरूरी है। हम निकलते हैं। आप मस्त रहिये।

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Friday, August 26, 2016

हेड आफ़िस के गिरगिट

पिछले दिनों उप्र हिन्दी अकादमी के पुरस्कार घोषित हुये तो पता चला अरविन्द तिवारी जी को भी दो लाख रुपये का इनाम मिला। अरविन्द जी कुछ दिन से फ़ेसबुक पर मित्र हैं। मेरी पोस्टस पढते रहते हैं, अकसर हौसला आफ़जाई भी करते रहते हैं। लेकिन उनके बारे में बहुत कम पता था मुझे।
जब इनाम , वह भी दो लाख रुपये, मिला अरविन्दजी को उनके बारे में सहज जिज्ञासा हुई। पता चला उनके व्यंग्य उपन्यास ’हेड आफ़िस के गिरगिट’ पर इनाम मिला है (भूल सुधार- अरविन्द जी को उत्त र प्रदेश साहित्य अकादमी का श्रीनारायण चतुर्वेदी पुरस्कार उनके संपूर्ण व्यंग्य लेखन पर मिला है) । बधाई देते ही मंगाया गया उपन्यास। किताबघर से छपा है उपन्यास। फ़ूंक दिये तीन सौ तीस रुपये किताब और डाकखर्च के।
किताब समय पर आ गयी। खोली तो गिरगिट के पलछिन बदलते रंग के उलट गाढे काही रंग का कवर देखकर लगा कि गिरगिट ने सही में गच्चा देने के लिये रंग बदल लिया है और बहुरंगी के बदले एकरंगी हो गया है।
खैर, किताब आई तो उलट-पुलट कर देखी। पढ़ना शुरु किया। अच्छा लगा तो पढ़ना बन्द करके रख दिया कि अब पूरा पढ़ा जायेगा। किताबों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि जिस किताब को अच्छा समझते हैंउसको आराम-आराम से पढते हैं यह सोचकर कि जब यह किताब खत्म हो जायेगी तो क्या पढेंगे।
उस दिन से किताब हमारे साथ रहने लगी। दफ़्तर जाते तो ’लोटपोट’ वाले बैग में चार-पांच किताबें साथ जातीं। इनमें ’हेडआफ़िस का गिरगिट’ के अलावा अनुराधा बेनीवाल की - ’आजादी मेरा ब्रांड’, कमले श पांडेय की -’आत्मालाप’ के अलावा खुद की ’बेवकूफ़ी का सौंदर्य’ शामिल थी। ये सब किताबें आजकल एकसाथ बांच रहे थे। किताबें यह सोचकर ले जाते कि लंच टाइम में पढेंगे। लेकिन किताबें दफ़्तर में पढी नहीं गयीं। लौटकर घ र में सोचते सोते समय पढेंगे, लेकिन उसमें सोने का काम पहले शुरु हो जाता लिहाजा पढ़ना स्थगित होता गया।
लेकिन पहले इतवार फ़िर रक्षाबंधन और आज जन्माष्टमी के मौके का फ़ायदा उठाकर हमने किताबें पढ़ने में स्पीड पकड़ी और जिस किताब को कछुये की गति से पढ़ना शुरु किया था उसको खरगोश की चाल से पढ़कर निपटा दिया। इस सफ़लता में नि:सन्देह ’हेडआफ़िस के गिरगिट’ की सहज पढनीयता और रोचकता का पूरा हाथ रहा।
’हेडआफ़िस के गिरगिट’ अरविन्द तिवारी जी के शिक्षा विभाग के अनुभवों के आधार पर लिखा गया है। शिक्षा विभाग उसमें भी उसके दफ़्तरी पक्ष की विसंगतियां बहुत रोचक ढंग से वर्णित हैं इस व्यंग्य उपन्यास में। शिक्षा विभाग की मासिक शिविरा के संपादन काल (1996- 1999) के अनुभव भी जरूर इस उपन्यास में शामिल रहे होंगे।
अरविन्द जी का उपन्यास पढ़ने के पहले मैंने लेखकों के पेशे से जुड़े कुछ उपन्यास जो पढे थे वे निम्न थे:
१. हृदयेश जी का - ’सफ़ेद घोड़ा काला सवार’- अदालत से जुड़े अनुभव
२. ज्ञान चतुर्वेदी जी का - नरक यात्रा- डाक्टरी जीवन से जुड़े अनुभव
३. सुरेश कांत की का - ’ब से बैंक’ -बैंक से जुड़े अनुभव
अरविन्द जी का उपन्यास पढ़ते हुये सहज ही इन उपन्यासों से तुलना करने का मन हुआ। ’सफ़ेद घोड़ा काला सवार’, ’नरक यात्रा’ बहुत पहले पढे थे इसलिये अभी तुलनात्मक अध्ययन करना संभव नहीं लेकिन अब जब ”हेडआफ़िस का गिरगिट’ पढ चुका हूं तो मन कर रहा है कि फ़िर से इन सभी उपन्यासों को पढा जाये और तुलना की जाये कि अपने अनुभव को किस लेखक ने सबसे बेहतर तरीके से व्यक्त किया है।
’हेडआफ़िस के गिरगिट’ पढ़ना शुरु करते समय तो साधारण सा उपन्यास लगा लेकिन जैसे-जैसे आगे बढते गये यह बेहतर और बेहतर लगता गया। अब जब इसको पूरा पढ चुका तो कहने में कोई संशय नहीं कि एक बहुत अच्छा उपन्यास पढ़ने से न जाने कब तक वंचित रहता अगर लेखक को उत्तर प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलता।
यह मेरे लिये व्यक्तिगत तौर पर अफ़सोस की बात है कि व्यंग्य की विधा से कई सालों तक जुड़े रहने के बावजूद एक बहुत बढिया उपन्यास इतने दिनों बाद पढ़ पाया। इसमें लेखक में ’अपने मुंह तुम आपनि बरनी’ वाली पवृत्ति का अभाव और हिन्दी साहित्य में अच्छी किताबों के भी कम चर्चित रह जाने की परम्परा का हाथ है।
उपन्यास शुरु होता है उपन्यास के पात्र अंबुज जी के हेडआफ़िस ज्वाइन करने से और इसका खात्मा होता अंबुज जी के लाइन हाजिर होने में। इस बीच शिक्षा विभाग और सच कहें तो भारतीय नौकरशाही के काम करने के तरीके का विहंगम अवलोकन करते हुये उसकी विसंगतियां भी दिखाते चलते हैं अरविन्द जी। सारे किस्से एक -दूसरे से ऐसे गु्थे हुये हैं कि पढ़ने में बोझिल नहीं लगते। हां, कहीं-कहीं यह जरुर लगा कि जो दफ़्तरों , परियोजनाओं और पदों के प्रचलित नाम जस के तस न देकर और साधारणीकरण होता तो शायद बेहतर होता।
शिक्षा विभाग का दफ़्तरी बखूबी चित्रित हुआ इस उपन्यास में। विद्यालयी किस्से भी कुछ और होते तो शायद और मजे आते। लेकिन जो देखा उसे लिखा यह अपने आप में उपलब्धि है अरविन्द जी की। हो सकता है उनके पहले उपन्यास ’दिया तले अंधेरा’ में फ़ील्ड के किस्से हों।
विवरणात्मक अंदाज में लिखा गये इस उपन्यास में सार्वजनिक जुमले के तौर कुछ संवाद आप भी मुलाहिजा फ़र्मायें:
१. गद्दे जो थे वे भारतीय लोकतंत्र की तरह चीकट हो चुके थे।
२. गेस्ट हाउस की समस्त व्यवस्थायें कार्यालयी भ्रष्टाचार से प्रेम विवाह कर चुकी थीं।
३.भारत में भ्रष्टाचार और दफ़्तर की धूल , दोनों का एक ही स्वभाव है , चाहे जितना झाडू मारो, अपनी जगह नहीं छोड़ते।
४. टेबल-क्लाथ का फ़ायदा यह है कि उसे झाड़ते ही मेज की धूल गायब हो जाती है।
५.उनके कान भारतीय हुकूमत की तरह ऊंचा सुनने लगे थे।
६.कम सुनने वाला अफ़सर शिक्षा विभाग के लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता था।
७.हमारा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है। जो गालियां उत्तर भारत में प्रचलित हैं , उन्हीं का प्रचलन दक्षिण भारत में भी है।
८.ब्यूरोक्रेसी में व्यक्ति का दुखी होना हास्यास्पद माना जाता है, मांजने वाला नहीं।
९.टोपियां बदलने से खोपड़ियां नहीं बदला करतीं।
१०.चालू पत्नी का पति , प्राय: चरित्रवान पाया जाता है।
2014 के अंत में छपे इस उपन्यास को उसी वर्ष किताबघर के ’आर्य स्मृति सम्मान’ से नवाजा गया। डेढ साल बाद अभी इस किताब का पहला संस्करण ही चल रहा है। इससे हिन्दी पाठकों की साहियिक किताबें पढ़ने की रुचि का पता चलता है साथ ही हिन्दी में पाठकों तक पहुंचने की प्रकाशन विभागों की उदासीन रुचि का भी अंदाज होता है। शिक्षा विभाग और ब्यूरोक्रेसी से जुड़े लोगों को के लिये यह उपन्यास पढ़ना मजे का अनुभव होता।
सरकारी अनुभागों के धतकरमों के सहज अनुभवों के साथ मियां-बीबी जब एक साथ सरकारी अधिकारी हों तो उनके किस्से कैसे उछलते हैं इसका भी मजेदार विवरण मैडम उजला और रोहित के बहाने लिखा गया है। मियां-बीबी जब एक साथ नौकरी में हों तो आमतौर पर पत्नी को बेहतर अधिकारी मानने की परम्परा का है इसका भी जिक्र है। सन 2007 में पहली पहली बार हमने अपने एक अधिकारी के मुंह से सुना था -’रूल्स आर फ़ार फ़ूल्स’। मुझे लगा कि उसका इजाद किया हुआ संवाद है। लेकिन ’हेडअफ़िस के गिरगिट’ पढकर पता चला कि यह अन्यत्र भी प्रचलित है। मेरे बास बिना मूल स्रोत बताये इसको कहीं से हथिया लिये थे।
अरविन्द तिवारी जी का यह उपन्यास पढकर मुझे उनके अन्य उपन्यास भी पढ़ने का मन है। ’दिया तले अंधेरा’ और ’शेष अगले अंक में’ उपन्यास भी जुगाड़ करते हैं। सुभाष चन्दर जी ने जिस तरह ’हिन्दी व्यंग्य का इतिहास’ ’दिया तले अंधेरा’ का जिक्र किया है उससे लगता है यह उपन्यास भी धांसू है।
यहीं पर सुभाष चन्दर जी तारीफ़ भी करने का मन हो रहा है। कच्चा-पक्का , अच्छा-खराब जैसा भी काम उन्होंने सुभाष चन्दर जी ने ’हिन्दी व्यंग्य का इतिहास’ लिखकर किया है वह काबिले तारीफ़ है। व्यंग्य से संबंधित कोई भी जानकारी पाने की कोशिश की तो कुछ न कुछ तो मिला ही इस किताब में। सुभाष चन्दर जी की मेहनत को सलाम!
बहरहाल ’हेडअफ़िस का गिरगिट’ पढ़ने के बाद एक अच्छे उपन्यास को पढ़ने का आनन्द तो मिला ही साथ ही यह भी अंदाज हुआ कि व्यंग्य में जिन लोगों , किताबों का हल्ला है उससे भी इतर बहुत कुछ लिखा गया है जो उनसे कमतर नहीं जिसका हल्ला है। उसको भी पढना चाहिये। यह एहसास बनाने के लिये अरविन्द जी के उपन्यास की शानदार भूमिका रही। अरविन्द जी को बधाई।
उपन्यास - हेडआफ़िस के गिरगिट
लेखक- अरविन्द तिवारी
प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ - 176
कीमत -300 रुपये हार्डबाउन्ड
आनलाइन किताब खरीदने का लिंक
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Subhash Chander

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Wednesday, August 24, 2016

ख्याल कौन हमारा दिहाड़ी का मजूर है

कल सुबह सड़क पर सरसराते हुये चले जा रहे थे। एकदम सीधे। रोज वही सड़क, वही किनारे, वही चौराहा, वही पेड़, वही कूड़ा, वही नजारे देखते हुये आते-जाते आदमी की जिन्दगी  किसी जिप ( स्लाइड फ़ास्नर)के रनर सरीखी हो जाती है। आये-जाये चाहे जितनी फ़ुर्ती से लेकिन आना-जाना उसी जिप के दांतो के बीच है। आने पर जिप बन्द, जाने पर खुली। बन्द होने-खुलने की ही प्रक्रिया में जिन्दगी बीत जाती है जिप के रनर की। जरा कहीं अगल-बगल, ऊपर नीचे होने की कोशिश की बस बाहर कर दिये गये जिप से।

विनोद श्रीवास्तव इसी बात को इस तरह कहते हैं:

पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंक्षी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।

जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नही हैं हम।

जरीब चौकी क्रासिंग बंद मिली। मालगाड़ी खरामा-खरामा गुजर रही थी। देश के किसी सुदूर अंचल में आराम-आराम से गुजरते दिन सरीखी। मन किया जब तक खड़े हैं तब-तक डब्बे ही गिन लें मालगाड़ी के। लेकिन जब तक यह ’ख्याल’ आया तब तक कई डब्बे आगे निकल गये थे।

डब्बे आगे निकल गये तो मन किया कि ’ख्याल’ को देरी से आने का नोटिस थमा दें। लेकिन फ़िर सोचा क्या फ़ालतू में टाइम बरबाद करना। ख्याल कौन हमारा दिहाड़ी का मजूर है। सैकड़ों जगह आना-जाना लगा रहता है उसका। कहीं-कहीं तो कभी फ़टकता ही नहीं। लोग फ़टे-पुराने ख्याल से ही काम चलाते रहते हैं जिन्दगी भर। इस बीच कहीं आवाज आई साहब ये ख्याल बहुत सुस्त चाल से आता है। आप ”आइडिया’ ट्राई करो। उसकी सर्विस फ़ास्ट है। हम कुछ करते तब तक क्रासिंग खुल गयी।
जरीब चौकी चौराहे पर ट्रैफ़िक पुलिस का सिपाही ट्रैफ़िक को खींच-खींचकर आगे बढा रहा था। हमारे दायी तरफ़ से आती गाडियों को ऐसे घसीटकर निकाल रहा था जैसे शादी-व्याह में चलने वाले जनरेटर में लपेटी रस्सी खींचकर जनरेटर स्टार्ट किया जाता है।

लेकिन पता नहीं क्या हुआ कल कि उसने हमारी गाड़ी को देखते ही ट्रैफ़िक को रुकने के लिये ’थम’ का इशारा दिया। हमें कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ। हमारी 17 साल पुरानी राणा सांगा की तरह अनगिनत घाव खाई गाड़ी के लिये (जिसका बंपर बुडौती में गायब दांत की तरह एक तरफ़ से उख्ड़ा है ) ट्रैफ़िक वाले सिपाही का व्यवहार समझ में नहीं आया मुझे। उस समय जित्ता अच्छा लगा , चौराहा पार करने के बाद उत्ता ही डर भी लगा मुझे। मुझे लगा कि चौराहे की ट्रैफ़िक वाला मुझे पहचान गया है। हमको एक दिन पहले की घटना याद आ गई।

एक दिन पहले इसी चौराहे के पार एक छुटके डम्पर पर जाते एक ड्राइवर को रोककर पुलिस वाले ने ड्राइवर की तरफ़ वाला दरवाजा खुलवाया और खुलते ही उसको थपड़ियाना शुरु कर दिया। ड्राइवर ने भी पिटने में पूरा सहयोग दिया। पीटने वाले हाथ अकेलापन न महसूस न करें इसलिये पिटाई करते हुये पुलिस वाले ने गालियों की संगत भी शुरु कर दी। हम सोचे कि उसके रोकें लेकिन फ़िर यह सोचकर झिझके कि कहीं ड्राइवर की जगह हमको ही न थपड़ियाने लगे। शाम के झुटपुटे में जबतक दिखे कि वह कौन, हम कौन तब तक अपना हाथ साफ़ कर ले हमारे गाल, पीठ पर।

थोड़ी देर में कुछ भीड़ जमा हो गयी और पीटते हुये थके पुलिसवाले ने हाथ रोककर सिर्फ़ गालियों से काम लेना शुरु किया और भीड़समूह को बताया-’ साला दारू पीकर गाड़ी चला रहा है। सलमान खान समझ रखा है खुद को। दस-बीच पर चढा देगा नशे की झोंक में।’ इस तरह ड्राइवर सार्वजनिक पिटाई को सार्थक ठहराते हुये पुलिस देवता हाथ झाड़कर चलते बने। ड्राइवर से ट्रक किनारे लगवाकर आगे का हिसाब-किताब शुरु हुआ होगा बाद में।

अपनी पुलिस इस मामले में न्यायालय की मजबूरी समझती है। जानती है कि न्याय मिलने में बहुत देर हो जाती है न्यायालय से इसलिये किसी भी अपराध  कि सजा घटनास्थल पर ही थमा देती है। दारूबाज को थपडिया दिया, किसी को चोर समझकर निपटा दिया मतलब जैसा बना वैसा न्याय थमा दिया जैसे सड़क चलतेे बच्चों को कुछ उदारमन वाले लोग कम्पट टाफ़ी बांटते रहते हैं।

कभी-कभी जनता का रुख भेी वैज्ञानिक हो जाता है। वह न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया लागू कर देती है। जैसा कल कल्याणपुर थाने में हुआ। थाने में कुछ पुलिस वालों ने छुटभैयों की मदद से मासिक वसूली के दौरान कुछ लोगों को थपडिया दिया। इलाके की जनता ने थाने वालों पर न्यूटन का तीसरा नियम लागू कर दिया। दरोगा और सिपाही को पीट दिया। थाने वालों जनता की पिटाई से हासिल हुये ”पलायन वेग’ से थाने से पलायन कर गये। अब 100-200 लोगों  पर मुकदमा हुआ है। न्यायालय की शरण में जायेंगे लोग।

ओह, हम भी कहां फ़ंस गये। चलें वर्ना हम भी कहीं फ़ंसे तो फ़िर देर हो जायेगी ’ख्याल’ की तरह। आप मजे से रहिये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208886589215470

Monday, August 22, 2016

सूरज भाई मुस्कराने लगे

कल घर से बाहर निकले तो सूरज भाई अपना जलवा फ़ैलाये हुये थे। सब किरणों को चारो तरफ़ छितरा रखा था। इंच दर इंच कब्जा किया हुआ था। हर पेड़, पौधे फ़ूल, कली, पत्ती, कोने-अतरे पर किरणों की फ़ौज तैनात कर रखी थी। मने कोई जगह छूट न जाये कब्जियाने से। अब उनको कोई रजिस्ट्री तो करानी नहीं पडती जमीन पर कब्जा करने के लिये। भूमाफ़िया की तरह हैं इस मामले में सूरज भाई!

बीहड़ मूड में दिख रहे थे सूरज भाई। लग रहा था कि सूरज भाई भी सिंधू का मैच देखकर उत्साहित हो गये और इस मूड में आ गये कि हर तरफ़ उनकी बच्चियों का ही रुतबा पसरा दिखे।

बगीचे में कुछ तितलियां फ़ूलों का रस चूस रही थीं। सुबह का नाश्ता करके दफ़्तर की तरफ़ भागते नौकरी शुदा कर्मचारियों की तरह फ़ूलों को जल्दी-जल्दी चूस-चूम कर तितलियां फ़ुर्र हो जा रही थीं। तितलियां जैसे ही फ़ूलों ऊपर से उडतीं , फ़ूल हिलते हुये तितलियों की फ़्राक पकड़ने की कोशिश सी करने लगते। क्या पता वे गाना भी गाते जा रहे हों:

अभी न जाओ छोड़कर
कि दिल अभी भरा नहीं।

कालपी रोड पर आये तो देखा सड़क चकाचक धूप-धुली हुई थी। सूरज भाई किरणों की धार मारते हुये सड़क एकदम चेकोलाईट बनाये दे रहे थे। अरबों-खरबों फ़ोटान हर सेकेन्ड दनादन धरती पर उडेले दे रहे थे सड़क पर। हमने पूछा सूरज भाई, इत्ते किरणें उड़ेले जा रहे हो लेकिन इसमें कोई पैकिंग नहीं दिखाई दे रही। कैसे लाते-ले जाते हो उत्ती दूर से यहां तक इत्ती किरणें? इस पर सूरज भाई मुस्कराने लगे। सड़क और चमक गयी।

एक मोर सड़क के दायीं तरफ़ लगे पेड़ से उड़ा और पंख फ़ड़फ़ड़ाता हुआ बायीं तरफ़ के पेड़ पर विराज गया। दोनों तरफ़ के पेड़ एक जैसे ही थे। मोर का दायीं तरफ़ से बायीं तरफ़ आना ऐसे ही लगा जैसे चुनाव के समय जनसेवक लोग पार्टी बदलते हैं देशसेवा के लिये। भले ही दोनों पार्टियां नाम छोड़कर एक जैसी ही होती हों। चुनाव आते ही देश बेचारा सहमा हुआ अपने सेवकों की बढ़ती हुई संख्या देखकर मन ही मन कांपता होगा। लेकिन बेचारे की मजबूरी है, कुछ कर भी नहीं सकता सेवा कराने के अलावा।

फ़ील्डगन के पास एक गुब्बारे वाला पचीस-तीस गुब्बारे फ़ुलाये हुये साइकिल के कैरियर पर डंडे में बांधे चला जा रहा था। रंगीन गुब्बारे देखने में अच्छे लग रहे थे। हम और गुब्बारे वाला दोनों अपनी-अपनी दिहाड़ी कमाने चले जा रहे थे। हमने आगे निकलकर कार रोककर उसका फ़ोटो लिया तो वह मुस्कराते हुये आगे बढ़ गया। उसको रुककर बात करने की फ़ुरसत नहीं थी। देरी करने में गुब्बारों से हवा निकल सकती थी। गुब्बारे वाले की भी। 
ऊपर आसमान में एक पक्षी ऊपर उडते हुये हम लोगों को देख रहा था। शायद हवाई सर्वेक्षण पर निकला हो सुबह का कीड़े-मकोड़े का नाश्ता निपटाकर। हमको रमानाथ अवस्थी की यह कविता याद आ गई हम दोनों दिहाड़ी कमाऊ लोगों के लिये:
"मेरे पंख कट गये हैं
वर्ना मैं गगन को गाता।"

विजय नगर चौराहे पर दो बच्चे सड़क पार करते हुये दिखे। मेरी गाड़ी देखकर बच्चे रुक गये। बच्चे ने बच्ची का हाथ पकड़ लिया। भाई-बहन थे साथ दोनों। बच्चे की पकड़ ’भैया पकड़’ थी। दोनों रुककर मेरी कार निकलने का इंतजार करने लगे। लेकिन हमने अपनी गाड़ी रोक चौराहे पर रोक दी। वे घूमकर गाड़ी के पीछे की तरफ़ से आगे निकलने के लिये बढे लेकिन हमने आगे से ही निकलने का इशारा किया तो दोनों बच्चे झटट से सड़क पार कर गये। पार करके घूमकर हमाई तरफ़ देखा। हम भी उनको देखकर मुस्कराये। यह सब देखकर सूरज भाई को एकबार फ़िर मुस्कराते हुये करोड़ों फ़ोटान धरती पर ठेलने का बहाना मिल गया।

अनवरगंज के पास पंकज बाजपेयी सड़क की तरफ़ पीठ लिये डिवाइडर पर बैठे थे। हम वहां रुककर हाल-चाल लेने लगे। बतियाये भी। पंकज जी बोलते गये-’ पुराने नोट जलाना नहीं, हमारे पास लेकर आना। हम सर्टिफ़िकेट देंगे। हमको पावर है। कमिश्नर को पावर नहीं है। हनीफ़ सब गड़बड़ करता है। दीदी से उसकी शिकायत करनी है।’

इसी तरह की असम्बद्ध बातें करते रहे पंकज जी। पूछा तो बताया अभी तक चाय नहीं पिये हैं। अब जायेंगे सामने मामू के यहां चाय पियेंगे। सामने सड़क पार की दुकानें दिखाते हुये बोले-’ वो मामा की दुकान है, वो दीदी हैं, वो भाभी हैं।’

हम थोड़ी देर बतियाने के बाद उनको नमस्ते करके पास के घर में चलती रद्दी की दुकान वाले वाले से पंकज के बारे में पूछने लगे तो बताया –’ हमारे बड़े भाई के साथ पढ़ते थे पंकज। बहुत अच्छे थे पढने में। सामने का हाता इनके परिवार का है। एक फ़्लैट भी है जहां रहते हैं। सालों से यहीं ऐसे ही दिखते हैं। पता नहीं कैसे दिमाग गड़बड़ा गया। बहुत सलीके से बात करते हैं। बहुत ज्ञानी है।’

हमारा मन किया कि समय होता तो और बात करते। एकाध दिन के घर लेकर आते पंकज को। बतियाते। लेकिन मन से क्या होता है। मन तो पागल है।

दफ़तर की तरफ़ जाते हुये सोच रहे थे और अभी भी कि मानो कल को हमारा भी दिमाग का साफ़्टवेयर गड़बड़ा गया। कुछ तार हिल गये। वायरिंग हिल गयी दिमाग की तो यार-दोस्त हमारे बारे में भी बतायेंगे लोगों को- ’रोज पोस्टें लिखता था, बड़ी-बड़ी पोस्ट। पढें भले न लेकिन लाइक जरूर करते थे। जिनके बारे में लिखता था उनके जैसा ही हो गया।’

लेकिन फ़िर सोचे कि यह सोच वैसी ही है जैसे हम किसी खराबी के बारे में सोचें तो उसको ठीक करने के बजाये उस जैसा ही हो जाने के बारे में सोचें। मेहनत से बचने वाली सोच। गड़बड़ाने में मेहनत नहीं करनी पड़ती न। आराम का मामला होता है न। यह एहसास होते ही हमने इस सोच को अपने मन की पार्टी से निष्काषित कर दिया।

आगे अफ़ीमकोठी के पास एक बच्चा एक डंडी में तीन गुब्बारे लगाये हुये चला जा रहा था। गुब्बारों के रंग अपने झंडे के रंग से अलग थे। हमको बड़ा खराब लगा। लगा कि कम से कम गुब्बारों के रंग तो झंडे के रंग जैसे होने चाहिये। यह भी कि गुब्बारे तीन के सेट में बिकने चाहिये। झंडे के रंग गुब्बारे का पूरा सेट जो न खरीदे उसकी देशभक्ति सवाल उठा दिया जाना और मौका मिलते ही हाय, हाय कर देना चाहिये। बातचीत वाला हलो, हाय वाला नहीं सच्ची वाला हाय, हाय। वो वाला हाय, हाय जिसके साथ जिन्दाबाद, मुर्दाबाद अपने-आप नत्थी हो जाता है।

यह सोच ही रहे थे कि अचानक धूमिल की कविता के पंक्तियां बिना पूछे दिमाग में दाखिल हो गयीं:

’क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

यह सोचते-सोचते फ़ैक्ट्री आ गयी और हम फ़ैक्ट्री में जमा हो गये। हमारी सोचने की आदमी फ़ाइलों में कहां गुम हो गयी पता ही नहीं चला।

Friday, August 19, 2016

आक्रामकता आज की जरूरत हो गयी है

सुबह निकलने के लिये कार स्टार्ट की तो गाड़ी के नीचे बैठा कुत्ता कुंकुआता हुआ बाहर निकला। निकलते समय तो पूंछ दबाये हुये था क्योंकि उस समय तो जान बचाने की जल्दी थी लेकिन सुरक्षित दूरी तक पहुंचकर पूंछ को झंडे की तरह तेजी से दांये-बांये लहराने लगा। मानो बता रहो कि कार वाले को परास्त कर दिया। हिम्मत नहीं हुई कि कुचलकर निकल जायें।

जीवन की हर सामान्य घटना को भी युद्ध की तरह देखना और उसमें विजयी होने का एहसास  पालना आज आदमी की ही नहीं कुत्ते तक की मजबूरी हो गयी है। आक्रामकता आज की जरूरत हो गयी है।

निकलते समय अखबार वाले राजेश मिश्रा जी मिले। पिछले साल उनपर जो लेख लिखा था वह आज के ही दिन प्रभात खबर में छपा था। उनसे अखबार लिया और घर में ताला मारकर निकल लिये।
http://fursatiya.blogspot.in/2015/08/blog-post_16.html

घर के बाहर एक बच्ची साइकिल पर स्कूल जाती दिखी। उसको देखकर कल ओलम्पिक में साक्षी मलिक और सिंधु की जीतें याद आ गयीं। कल मैंने पहली बार सिंधु का मैच देखा। उसको जीतते देखना सुखद अनुभव था। आज फ़ाइनल है शाम साढे बजे देखना है यह तय किया है।

सिंधु के बारे में सोचते हुये गोपीचंद के बारे में सोचने लगे। गोपीचंद ने कई बैडमिंटन खिलाडियों को अपनी एकाडमी में तैयार किया है। यह भी याद आया कि उन्होंने कोला का विज्ञापन ठुकरा दिया था इस सोच के साथ कि कोला स्वास्थ्य के लिये अच्छा नहीं। अच्छा खिलाड़ी होने के साथ बेहतर इंसान भी है गोपीचंद।


सोचते-सोचते विजयनगर क्रासिंग पार कर गये। सड़क किनारे एक ट्रक की आड़ में एक बुजुर्ग खड़े-खड़े धरती सींचे रहे थे। धार नीचे की तरफ़ गिराते हुये सर ऊपर उठाये आंख मींचे कुछ सोच रहे थे। शायद सूरज भाई से आंख बचा रहे हों।

जरीब चौकी क्रासिंग के पहले एक बच्चा पतंग उड़ाने की तैयारी कर रहा था। शायद स्कूल के झांसे में आने से रह गया था बच्चा।

क्रासिंग के आगे एक बस बीच सड़क पर खड़ी होकर सवारी भरने लगी। उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस जहां खड़ी हो जाये वहीं स्टाप। सवारी भरने के बाद बस चली फ़िर हम भी चल दिये। इस बीच ढेर सारी कार्बन डाई आक्साइड छोड़ते रहे वहीं खड़े-खड़े।

चले तो याद आया कि यहीं आगे पंकज बाजपेयी डिवाइडर पर बैठते हैं। याद आते ही कार का एसी बंद करके दायीं तरफ़ की खिड़की खोल ली। आगे मिले पंकज बाजपेयी बैठे हुये। हमने कार रोककर नमस्ते किया तो बोले- " कहां जा रहे हो? तुम हमारी रक्षा की चिंता करते हो। हमारी चिंता मत करो। हम ठीक हैं।"

हम बोले - "दफ़्तर जा रहे हैं। शाम को लौटेंगे। शाम को कहां रहते हो आप?"

वे बोले- " शाम को कभी-कभी मिलते हैं। इधर ही रहते हैं।"

खड़े होकर बात कर रहे थे पंकज। हम कार पर। उनका पैंट नीचे से नुचकर बरमूडा टाइप घुटन्ना बन गया तथा। बदन पर केवल जैकेट धारण किए झोला बगल में धरे बैठे थे।

अफ़ीमकोठी चौराहे के आगे एक कुत्ते का जोड़ा एक दूसरे से दो फ़ीट की दूरी पर बैठा था। दोनों आपस में कुछ बोल नहीं रहे थे। इससे लगा कि दोनों आपस में पार्टनर हैं और किसी बात पर सुबह-सुबह दोनों में खटपट हो गयी है। इसीलिये भन्नाये, मुंह फ़ुलाये बैठे हैं। दोनों में कोई भौंक इसलिये नहीं रहा है शायद कि जो बोलेगा उसकी गलती साबित होगी। मन किया रुककर उनको अंसार कंबरी की कविता सुना दें:

पढ सको तो मेरे मन की भाषा पढो
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पडो।

लेकिन एक तो दफ़्तर की देरी और दूसरे यह सोचकर कि फ़िर दोनों हमारे ऊपर भौंक पड़ेंगे -’ तुम कौन होते हो हम पार्टनरों के बीचे में बोलने वाले’ हम आगे बढ गये।

पंकज जी हाथ मिलाकर हम आगे निकल आये। झकरकटी पुल पर एक महिला स्कूटर के पीछे बैठी जा रही थी। स्कूटर चालक सड़क पर स्कूटर लहराते हुये ऐसे चला रहा था मानो साइन वेव बना रहा हो।

टाटमिल के पुल के आगे सड़क की बायीं तरफ़ बच्चयियां कड़क्को खेल रहीं थीं। कुछ महिलायें खटिया पर बैठी बतिया रहीं थीं। बच्चियों को स्कूल नहीं जाना था और महिलाओं को दफ़्तर नहीं इसलिये वे मजे से बैठीं थीं लेकिन हमको तो समय पर पहुंचना था इसलिये निकल लिये आगे।

आज विश्व फ़ोटोग्राफ़ी दिवस है। इस मौके पर पेश है आज से पांच साल पहले खींची गयी यह फ़ोटो। हुमायूं का मकबरा देखने गये थे। दो बच्चे हाथों में फ़ूल लिये भागते दिखे। उनकी तस्वीर खैंच ली हमने। सामने से खैंचने के चक्कर में बहुत देर कैमरा साधे रहे लेकिन वो पोज न मिला। विश्व फ़ोटोग्राफ़ी दिवस के बहाने दिखा दिये आपको फ़िर से।

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Wednesday, August 17, 2016

’जस्ट इन टाइम’ पहुंच गये

आज जब चले घर से तो पानी बहुत हल्का बरस रहा था। घर से निकलते ही सीट बेल्ट कसी। एक्सेलेटर पर कस के पांव धरते ही गाड़ी और घूउउउउउउन करते हुये दौड़ ली। हमने टोंका अरे धीरे चल री सजनी कोई विकास पथ पर थोड़ी भागना है।

गाड़ी मेरी बात से थोड़ा नाराज सी हुई। स्पीड ब्रेकर धचका देकर गुस्से का इजहार भी किया। हम थोड़ा गाड़ी धीमी किये और हल्का सा मुस्कराये तब जरा मूड ठीक हुआ कार का। कार का क्या अपन का ही और बेहतर हो गया हो गया होगा मुस्कराते ही इसलिये कार का भी ठीक लगा।

यूको बैंक के पास एक आदमी साइकिल चलाता जा रहा था। अचानक पैर पैडल से फ़िसला। साइकिल थोड़ा लडखड़ाई। वह सड़क की तरफ़ थोड़ा झुका। इस बीच उसके पीछे से कार सर्राती हुयी निकली। बाल-बाल टाइप बचा आदमी। कार वाले ने खिड़की ने बाहर झांका मानो अंखियों से गोली मार रहा हो साइकिल वाले को।

फ़ैक्ट्री का समय हो रहा था। सब हड़बड़ाये हुये भाग रहे थे। मेरे आगे एक आदमी एक महिला को मोटरसाइकिल पर बैठाये चला जा रहा था। अचानक स्पीड ब्रेकर से पर मोटरसाइकिल उछली। महिला भी साथ में गेंद की तरह उछली। जरा देर में फ़िर वापस आ गयी। हमको हाईस्कूल का भौतिक विज्ञान वाला पाठ याद आ गया -हवा में उछाली गेंद वापस हाथ में कैसे वापस आ जाती है।

विजय नगर चौराहे पर एक कार वाला गोविन्दनगर की तरफ़ से तेजी से आया। उसने कोशिश की हमसे पहले निकल जाये चौराहा पार करके। हम भी कोई कम चालू थोड़ी । हम समझ गये कि अगर वो पहले पार करेगा तो उसके पीछे की तीन गाडियां और लगी थीं, चमचों की तरह। मतलब एक मिनट की देरी। हम दबा के आगे बढाई गाड़ी और चौराहे के बीच पहुंच गये। अब एक कार गल्ला मण्डी की तरफ़ से हमारे रास्ते में कोशिश की आने की। लेकिन एक टेम्पो वाला उसके आगे आ गया और उसकी आगे निकलने की तमन्ना वहीं रह गयी। तमन्ना से हमने गाना याद कर लिया- पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाये। 
एक बार विजय नगर चौराहा पार किये तो फ़िर जरीब चौकी ही पहुंचे। एक कुत्ता जरीब चौकी के पहले डिवाइडर के बगल में आराम से बैठा ऊंघ रहा था। हमने उसको छेड़ा नहीं। कौन उसको ड्यूटी पर जाना था।

जरीब चौकी चौराहा पार करते ही फ़िर तो सरपट मार लिये। कोई आगे धीरे चलते दिखा तो पों, पों करते हुये आगे निकल लिये। नहीं हटा तो बायें से फ़िर पों पों किये। एकाध को जगह मिली तो दांये से काट लिये। आगे निकलने के बाद अपने को हड़काया कि गल्त बात है। मन किया सौ रुपये का चालान काटकर दायीं जेब से पैसे निकालकर बायीं में रख लें। लेकिन फ़िर और देरी होती इसलिये मटिया दिये यह इरादा, जुर्माना माफ़ कर दिये।

अफ़ीमकोठी चौराहे पर एक बूढा माता चार छोटे बच्चों को अपने में समेटे सड़क पार करा रहीं थी। बच्चे स्कूल ड्रेस में थे। माता जी खुद चलने में लबढब-लबढब कर रहीं थीं लेकिन बच्चों को पहुंचाने जा रही थीं। सोचा:

खुद के हाल बड़े खस्ता,
लादे हुये हैं बच्चोंं का बस्ता।

सड़क पर कार पर चलते हुये आदमी को बाकी छोटी सवारियों की उपस्थिति अतिक्रमण सरीखी लगती है। लगता है काहे को ये पैदल वाला सड़क पर चल रहा है। तीन लड़के खरामा-खरामा चलते हुये आ रहे थे। हमने सोचा बताओ इत्ती सड़क घेरे चल रहे हैं लड़के। आगे पीछे चलना चाहिये। पंक्तिबद्द होकर। दो लड़कों के बराबर जगह बचती। मतलब कार पर चलता आदमी पैदल चलते हुये आदमी को उसी निगाह से देखता है जिस निगाह से विकसित देश अविकसित देशों को देखते होंगे।

वैसे भी जब साधनसम्पन्न और साधनहीन एक ही राह पर जा रहे हों तो सम्पन्न ,'हीन' के पीछे रहे, यह उसकी बेइज्जती है।

एक रिक्शे पर एक आदमी खूब सारे लोहे के पाइप लादे जा रहा था। वजन ज्यादा था। चढाई पर रिक्शा पीछे न फ़िसले इसलिये उसने रिक्शे से एक रस्सी बांधकर उसको खुद से बांध रखा था। बंधुआ मजूर हो गया था अपने रिक्शे का। आगे चलकर तीन चार और रिक्शे वाले ऐसे ही मिले। एक जगह वे रिक्शा रोके सड़के के किनारे की दुकान पर बैठकर चाय पी रहे थे। कुछ देर के लिये सुस्ताते हुये न जाने क्या सोच रहे होंगे। हम तो यही सोच रहे थे कि वजन बहुत ज्यादा है रिक्शे में।
कुछ बच्चे सड़क किनारे खड़े पतंग उड़ा रहे थे। शायद स्कूल जाना बन्द कर दिया हो बच्चों ने।

हम इस सब सड़क संसार को निहारते हुये जब फ़ैक्ट्री गेट पर गाड़ी की मुंडी घुसाये तो घड़ी ठीक साढे आठ बजा रही थी। मतलब हम आज ’जस्ट इन टाइम’ पहुंच गये दुकान पर।

Tuesday, August 16, 2016

तसल्ली से ’सड़क नजारा’

आज समय पर निकले। तसल्ली से ’सड़क नजारा’ देखते हुये। एस.ए.एफ़. फ़ैक्ट्री के सामने सभा हो रही थी। एक व्यक्ति माइक पर कुछ बोल रहा था। उससे पचीस कदम दूरी पर खड़े लोग उसको और आसपास की बातों को सुन रहे थे। सब सावधान मुद्रा में खड़े थे। भाषण देता हुआ आदमी हमेशा चिल्लाता हुआ सा लगता है मुझे। कभी-कभी झल्लाता हुआ भी।

विजय नगर चौराहे के पास फ़ल वाले अपनी-अपनी ठेलियों से बरसाती झाड़कर दुकान सजा रहे थे। एक बुजुर्ग एक टुकनिया में कुछ अमरूद लिये सर झुकाये बैठे थे। शायद सोच रहे हों अमरूद बिक जायें तो कुछ पैसे मिल जायें। 

चौराहे के पहले गुमटी पर दो सिपाही बैठे थे। एक डिवाइडर के ऊपर रखी मोटरसाइकिल पर, दूसरा गुमटी की खिड़की पर। दोनों अपने-अपने मोबाइल में झुके कुछ देख रहे थे।

चौराहे के आगे एक कुत्ता अपनी पूंछ उठाये अकड़ा सा चला जा रहा था। पूंछ ऐसे शान से उठाये था मानो उसकी शान की प्रतीक हो। सड़क खाली थी इसलिये उसकी चाल में कुछ वीआईपी पन भी था। मानों कहीं मौका मुआयना करता अधिकारी, या फ़िर किसी परेड का गार्ड आफ़ आनर लेता हुआ कोई राष्ट्राध्यक्ष।

उसको अकेले सड़क पर टहलते देखकर कुछ कुत्ते भौंकने लगे। वह भी जबाब में भौंकने लगा। पहले तो लगा नमस्कारी-नमस्कारा हो रहा हो रहा होगा। लेकिन जब देर तक चला भौंकना तो लगा शायद उनमें आरोप-प्रत्यारोप टाइप कुछ हो गया हो। क्या पता आपस में गाली-गलौज हो गयी भी हो गयी हो। हो तो यह भी सकता है कि किसी कुत्ते ने किसी कुतिया के बारे में कोई गन्दी बात कही तो दूसरे को गुस्सा आ गया और उसने उसको कस के गरियाया हो –’आदमियों की तरह हरकतें करते शर्म नहीं आती।’ दूसरे कुत्ते को भी शायद आदमी से तुलना खल गयी हो और वह भी कुछ ऐसे ही कहने लगा हो।

चौराहे के पार जाने पर दो सिपाही एक आदमी को हथकड़ी पहनाये ले जाते दिखे। हथकड़ी से बंधी लंबी रस्सी सिपाही के हाथ में थी। पकड़ा गया आदमी लम्बा, चौडा, तगड़ा, भरपूर मर्द टाइप था। घनी दाढी मूंछ वाला चेहरा रोआबदार टाइप था। लेकिन हथकड़ी हाथ में देखकर रोआब छुट्टी पर चला गया था और दीनता और मजबूरी ने उसका काम संभाल लिया था।

जरीब चौकी चौराहे पर हल्का जाम लगा था। मेरे बगल में एक रिक्शा वाला एक बैटरी टेम्पो (ई-रिक्शा) की तरफ़ देखकर बोला-’ इनकी भी हवा बस निकलने ही वाली है। साल भार में सबके होश ठिकाने आ जायेंगे।’

हमने पूछा- कैसे ? 

उसने विस्तार से बताया-’ अभी कहीं भी घुसा देते हैं अपना आटो, कौनौ गली, सड़क, कुलिया में पिल जाते हैं। जाम लगा देते हैं। कौनौ पूछै वाला नहीं। अब इनका भी परमिट बनने वाला है। जगह तय हो जायेंगी वहीं चलना पड़ेगा तो आ जायेंगे ठिकाने पर।’

आगे आर्थिक दृष्टिकोण समझाते हुये रिक्शावाला- ’ एक लाख दस हजार रुपए का आता है ई-रिक्शा। 24 हजार की बैटरी आती है। छह महीने चलती है। साल में 48 हजार ठुकेंगे तो हुलिया टाइट हो जायेगी।’

और कुछ ज्ञान ले पाते तब तक जाम खुल गया। सब लोग भर्र-भर्र करते हुये निकल लिये।

एक जगह देखा कि एक गंदगी के ढेर पर खड़े होकर सुअर गंदगी को अपने थूथन के सहारे और फ़ैला रहा थे। सड़क किनारे की गंदगी को बीच सड़क तक फ़ैलाने की मंशा से। उनकी हरकतें उन जनप्रतिनिधियों सरीखी लग रही थीं जो अपने बेहूदा बयानों से किसी संवेदनशील मसले को तनावपूर्ण बनाने के लिये मेहनत करते रहते हैं। सुअरों के बीच एक गाय की बछिया एकदम सीधी बच्ची सी खड़ी थी। शायद वह कई सुअरों के बीच अपने को असुरक्षित समझकर सहमी हुई हो। लेकिन सुअर गंदगी फ़ैलाने के काम में ही जुटे इंसान में शायद यही बुनियादी फ़र्क होता हो। सुअर शायद अभी तक आदमी की तरह हरकतें करना नहीं सीखे।

टाट मिल चौराहे पर एक लोडर रुका। कुछ होमगार्ड के सिपाही लपककर उस पर चढे और मवेशियों की तरह पीछे खड़े हो गये। लोडर हिलता डुलता हुआ चल दिया। होमगार्ड के सिपाही ऊपर उठा लोहा पकड़कर आपस में हंसते-बतियाते दूर चले गये।

हमारे आगे की गाड़ी अचानक धीमी हुई। हमने ब्रेक मारा। तब तक हमारे बंपर पर पीछे से किसी ने टक्कर मारी। ’पीठ दिखौआ शीशे’ में देखा तो एक बच्ची मोपेड पर थी। टक्कर बहुत हल्के से लगी थी। बच्ची ने सर हिलाते हुये थोड़ा झटका सा दिया। शायद उसने अपने देर से ब्रेक लगाने के लिये अपने को हल्का हड़काया हो। उसके सर के बाल की लटें हवा में उछलीं। हमने गाड़ी आगे करके उसके लिये जगह दे दी। वह फ़र्राटा मारते हुये आगे निकली। हम उसको आत्मविश्वास के साथ मोपेड लेकर आगे जाते देखते हुये अधबने सीओडी ओवरब्रिज तक आये। पुल पर रोजमर्रा की दुकानें लग गयीं थीं।

हमारी भी दुकान सज गयी है। अब अपना काम किया जाये। आप मस्त रहिये

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