Saturday, October 31, 2020

परसाई के पंच-89

 

1. राजनीति में हारे हुये की बड़ी दुर्गति होती है।
2. क्रान्ति हुई है तो कुछ तो बदलना चाहिये, न बदले तो जनता कहेगी कि क्रान्ति हुई ही नहीं। अब क्रान्ति तो यही हो सकती है कि पुराने बेईमानों की जगह नये बेईमान बिठाये जायें। पुराने स्वार्थियों की जगह नये स्वार्थी फ़िट हों। यही तो क्रान्ति है।
3. चुनाव के बाद यही तो बुनियादी परिवर्तन हुआ है कि पुराने बेईमान की जगह नया बेईमान बैठ गया है। यह अच्छा भी है। पुराने बेईमानों से जनता बोर हो गयी थी। नये बेईमान आने से उसे ताजगी का अनुभव हुआ।
4. एक वर्ग ऐसा है, जो कभी किसी चीज के लिये नहीं लड़ता। लड़ना इसके स्वभाव में है ही नहीं।
यह वर्ग केंचुए की तरह है। इसकी रीढ़ की हड्डी नहीं होती। मेरुदण्डविहीन वीरों का वर्ग है यह। यह जूतों पर सिर रखकर सुविधा लेने वाला वर्ग है। यह चूहे की तरह स्वस्थ जीवन मूल्यों को कुतरता है। यह दो-मुंहा, दो-रूपी होता है। समाज की किसी समस्या से इसे मतलब नहीं। यह दिखावट में जीता है।
5. धरने पर बैठे, सत्याग्रह पर बैठे, अनशन पर बैठे आदमी से कोई कुछ नहीं कह सकता। ये लोग निर्दोष, नैतिक और पवित्र हो जाते हैं।
6. धर्म, अनुष्ठान, मन्त्र, यज्ञ का जोर एटमी शक्ति को तो नष्ट कर सकता है, मगर चोरों से हार जाता है। ज्यादा सही यह है कि धर्म, यज्ञ, मन्त्र, वगैरह चोरों की सहायता करते हैं।
7. हर तरह के चौर कर्म- घूस, कालाबाजारी, मुनाफ़ाखोरी, राजनैतिक बेईमानी, पाखण्ड सबकी साधना धर्म की मदद से होती है।
8. शासकों को जितनी लुच्चई, बदमाशी, झूठ, पाखण्ड, छल, कपट, अत्याचार –चाणक्य ने सिखाये उतने दुनिया के किसी राजनैतिक गुरु ने नहीं सिखाये। हमारे शासक जो जनता में अज्ञान, भाग्यवाद, अन्धविश्वास फ़ैलाते हैं, यह चाणक्य की ही शिक्षा है।
9. चाणक्य ने लिखा है कि जनता को मूढ़ और अन्धविश्वासी कर देने से राजा निष्कंटक राज करता है। यज्ञों की भरमार, कथा-प्रवचन, चमत्कार, तन्त्र-मन्त्र, योगी, स्वामी और भगवान – ये सब शासक और शोषक वर्ग द्वारा प्रोत्साहित किये जा रहे हैं। यह चाण्क्य-नीति है।
10. इस देश के लोग अब जन-कल्याण करने वालों, निस्वार्थ देशसेवकों, गरीबों पर बलि चढ़नेवालों से बहुत तंग हो चुके हैं। वे हाथ जोड़कर कहते हैं –हमें बख्शो ! हमें छोड़ो। हमें चैन लेने दो। मेहरबानी करके हमारा कल्याण करना छोड़ो। और उन्हें जबाब मिलता है –तुम्हारा कल्याण कौन बेवकूफ़ कर रहा है? हम तो हमारा कल्याण कर रहे हैं। तुम अपने कल्याण के भ्रम से परेशान क्यों होते हो?
11. ईमानदारी कितनी दुर्लभ है कि कभी-कभी अखबार का शीर्षक बनती है। ऐसी खबर और शीर्षक का दूसरा गहरा अर्थ भी है। वह यह कि गरीब लोग बेईमान होते हैं। जो गरीब नहीं होते, वे ईमानदार होते हैं। इन बेईमान गरीबों में कोई रिक्शावाला या मजदूर ईमानदारी का काम कर बैठता है। यह चमत्कार है, जैसे दो सिरवाले बच्चे का पैदा होना। इसलिये यह समाचार विशेष रूप से छपना चाहिये।


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Thursday, October 29, 2020

हम आप से भी बड़ी तैयारी से मिलते हैं

 तकल्लुफ से,तसन्नों* से अदाकारी से मिलते हैं

हम अपने आप से भी बड़ी तैयारी से मिलते हैं।
बहुत जी चाहता है दोस्तों से हाल-ए-दिल कहिये
मगर क्या कीजिये कि दोस्त भी दुश्वारी से मिलते हैं।
हमारे पास भी बैठो अगर फुरसत कभी पाओ
हम दरवेश हैं सबसे रवादारी(खुलेपन) से मिलते हैं।
यहां अब आस्तीनों में कोई खंजर नहीं वाली
एक दूसरे से लोग होशियारी से मिलते हैं।
- स्व. वाली असी
*तसन्नों-बनावटीपन

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Monday, October 26, 2020

परसाई के पंच-87

 

1. आदमी के मरने पर उसके कुरते या जूते को उसके साथ नहीं जलाते, पर स्त्री को जला देते हैं। धन्य है यह महान संस्कृति।
2. धार्मिक समारोह जूते चुराने और जेब काटने के लिये होते हैं। यही सच्ची भक्ति है।
3. सच्चा राजनेता ऐसा ही होता है। वह जीत के बाद निर्लज्ज और अनैतिक हो जाता है। हार के बाद नैतिक और लज्जाशील हो जाता है।
4. सच्चा सिपाही वह होता है जो उसी खजाने को लुटवा देता है, जिसकी रक्षा के लिये वह तैनात है।
5. लड़की की शादी में जैसे लड़कावाला दहेज लेता है वैसे ही दक्षिणपन्थी इन पार्टियों का टिकट जब किसी को पेश किया जाता है, तो वह पूछता है –साथ में रुपये कितना दोगे? गोया इन पार्टियों का टिकट कानी लड़की है, जिस पर खासा दहेज लगता है।
6. हमारे देश में फ़ासिस्ट संगठन हैं। प्रजातन्त्र-पद्धति के विरोधी हैं। पर ये प्रजातन्त्र की कसम खाते हैं और अब कह रहे हैं कि देश में प्रजातन्त्र का नाश हो रहा है। यह ऐसा ही हुआ कि एक लड़के ने अपने मां-बाप को मार डाला। जब अदालत में पेश किया गया तो न्यायाधीश से कहता है- हुजूर , मुझे माफ़ किया जाये, मैं अनाथ हूं।
7. खण्डन उस आदमी का कारगर होता है जिसके बारे में लोग यह विश्वास करते हों कि यह सच भी बोलता है। जब लोग यह माने बैठे हैं कि ये तो हमेशा झूठ ही बोलते हैं, तब खण्डन को एक और झूठ मान लिया जाता है।
8. छोटे लोग जब किसी दुर्घटनावश या भाग्यवश सत्ता के पदों पर पहुंच जाते हैं, तब वे मुंह ऊपर करके देखते हैं कि हमारे ऊपर कौन है। उन्हें ऊपर कोई दिख जाता है कुछ उस पर थूकने की कोशिश में अपने ऊपर ही थूक गिरा लेते हैं।
9. कुछ लोग अपनी कब्र पर लगाया जाने वाला पत्थर खुद तैयार करवा लेते हैं। कुछ अपना श्राद्ध खुद कर डालते हैं। ये लोग बड़े दूरदर्शी होते हैं।
10. फ़िल्म-व्यवसाय ऐसी ऊंची किस्म के भौंड़ों के हाथों में है कि प्रेम के दृश्य में वे यह दिखाने की इच्छा रखते हैं कि प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे को सलाद के साथ खा रहे हैं।
11. दुहरी नैतिकता में जीने वाले हम लोग कमाल करते हैं। कृष्ण की चीर-हरण-लीला को भक्तिभाव से सुनते हैं, क्योंकि वह भगवान कृष्ण का मामला है। पवित्र है। कालिदास और जयदेव के घने वासना-प्रसंगों को पढ़ने –पढ़ाने देते हैं, क्योंकि वे संस्कृत में, देववाणी में हैं और देवता या सामन्त के विलास के बारे में हैं। कालिदास या जयदेव ने यह कहीं नहीं लिखा कि कोई नौकर नौकरानी का चुम्बन ले रहा था। छोटे-टुच्चे लोगों का प्रेम ही अनैतिक और अपवित्र होता है।

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Sunday, October 25, 2020

परसाई के पंच-86


1. इस देश में हर शुभ काम स्केण्डल हो जाता है, बदनामी का वायस हो जाता है। अकालपीड़ित-राहत-कोष इकट्ठा होता है तो वह काण्ड हो जाता है। बाढ़-पीड़ित-सहायता फ़ण्ड बन जाता है तो वह भी स्केण्डल हो जाता है। कई बदनाम हो जाते हैं।
2. सबसे निरर्थक आन्दोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आन्दोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से कोई नहीं डरता। यह एक प्रकार का मनोरंजन जो राजनैतिक पार्टी कभी-कभी खेल लेती है, जैसे कबड्डी का मैच। इससे न सरकार घबड़ाती , भ्रष्टाचारी घबड़ाते, न मुनाफ़ाखोर, न कालाबाजारी। सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं।
3. इस देश में हर आदमी दूसरे को सदाचारी बनाना चाहता है कि मैं तो भ्रष्टाचार करूं पर दूसरा न करे, इसलिये नारे लगाऊं।
4. अपनी धांधली पर आंच आती है, तब अमेरिका को धर्म, मानवीयता, स्वतंत्रता की याद आने लगती है।
5. अमेरिका अपने सिवाय किसी को सभ्य मानता नहीं है।
6. हिटलर का मशहूर कथन है –’जनता बड़े झूठ के जाल में छोटे झूठ की अपेक्षा आसानी से फ़ंसती है, इसलिये बड़ा झूठ बोलें।’
7. कोई भी आदमी जो हमें पसन्द नहीं , सदन में बैठ नहीं पायेगा। यह लोकतन्त्र की सच्ची भावना है।
8. इसे लोकतंत्र कहते हैं जिसमें जन को लात मार दी जाती है।
9. यदि कोई स्त्री पुलिस थाने में रिपोर्ट करने जाये कि उस पर बलात्कार हुआ, तो भारतीय पुलिस बड़ी मुस्तैदी से अपना कार्य करती है। पुलिस वाले खुद उस स्त्री पर प्रयोग करके पक्का कर लेते हैं कि जो हुआ वह ऐसा ही हुआ, जैसा हमने किया।
10. बलात्कार को ’पाशविक’ कहा जाता है,पर यह पशु की तौहीन है। पशु बलात्कार नहीं करते। सुअर तक नहीं करता, मगर आदमी करता है।
11. हम बहुत पाखण्डी लोग हैं। हम अपने को प्राचीनतम और महान संस्कृति वाले कहते हैं, आदर्शवादी समझते हैं, नैतिक मानते हैं, मगर हमसे ज्यादा क्रूर और नीच जाति दुनिया में नहीं है। अफ़्रीका के जंगली कबीलों में भी नारी पर उतने अत्याचार नहीं होते, जितने हम करते हैं और कहते हैं कि नारी पवित्र है, पूज्या है, माता है, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं।

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Monday, October 19, 2020

परसाई के पंच- 81


1. नये खून को सोचना चाहिये कि उसके सामने तो पूरी जिन्दगी पड़ी है, कभी भी पद पर बैठ सकेंगे। पर पुराने खून के दिन गिने-गिनाये हैं, उन्हें कुछ दिन और रह लेने दो।
2. जब विधानसभाओं और संसद के आधे से अधिक सदस्य एम्बुलेंस में सभा-भवन जाया करेंगे और हर सदस्य के बगल में एक डॉक्टर बैठा करेगा, तब समझेंगे कि हमारा जनतन्त्र सयाना(मैच्योर्ड) हो गया।
3. सयानेपन से जो काम होते हैं उनसे मंगल होता है। दशरथ अगर कैकेयी से विवाह न करते तो राम को वन कौन भेजता? और राम वन न जाते तो रावण का नाश कैसे होता?
4. अंगरेजी में मुहावरा है- ’डाई इन हारनेस’, यानी घोड़ा हो तो उसे कसे-कसाये और आदमी हो तो पद पर काम करते-करते मरना चाहिये। यह बड़े गौरव की बात है। राज-पद पर जो व्यक्ति कसा-कसाया मृत्यु को प्राप्त होता है उसकी अन्त्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ होती है। जिन्हें राजकीय सम्मान से अन्येष्टि कराना है, वे पद क्यों छोड़ें?
5. पुराने खून के स्थान पर नया खून आ गया, तो बड़े पैमाने पर ’अनएम्प्लायमेण्ट’ (बेकारी)बढेगी। सयानों की बेकारी बड़ी खराब होती है। बेकार आदमी ’फ़्रस्टेशन’ (हताशा) से पीड़ित रहता है और उपद्रव करता है।
6. राष्ट्र का हित इसी में है कि पुराने नेता बेकारी की समस्या से पीड़ित न हों। उन्हें संस्मरण तक लिखने की फ़ुरसत नहीं मिलनी चाहिये, वरना संस्मरण में ही ऐसा कुछ लिख देंगे कि गड़बड़ पैदा हो जायेगी।
7. पुराने आदमी को चुनाव जीतने की सब तरकीबें मालूम हैं। वह जानता है कि किससे कैसे वोट लिया जा सकता है। उसका जीतना निश्चित है। नया आदमी एक चुनाव तो सीखने में ही हार जायेगा। पार्टी नये खूनों को टिकट देकर क्या चुनाव हारेगी?
8. हमारी हजारों सालों की महान संस्न्कृति है और यह समन्वित संस्कृति है, यानी यह संस्कृति द्रविड़, आर्य, ग्रीक, मुस्लिम आदि संस्कृतियों के समन्वय से बनी है। इसलिये यह स्वाभाविक है कि महान समन्वित संस्कृति वाले भारतीय व्यापारी इलायची में कचरे का समन्वय करेंगे, गेहूं में मिट्टी का, शक्कर में सफ़ेद पत्थर का, मक्खन में स्याही सोख कागज का। जो विदेशी हमारे माल में ’मिलावट’ की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह मिलावट नहीं है, ’समन्वय’ है तो हमारी संस्कृति की आत्मा है।
9. सामन्त इज्जत के लिये जान दे देता था, तो वह मारनेवाले की जान ले लेता था और अपनी दे देता था। पर व्यापारी को कहे कि एक जूता मारकर 5 रुपया दूंगा, तो वह कहेगा कि तू मुझे दस जूते मार ले और पचास रुपये दे दे- कमीशन काटकर चालीस में भी मार सकता है।
10. अपनी संस्कृति-सभ्यता नहीं छोड़े जाते। यह राष्ट्रीय विशेषता है और हम यह बच्चों को छोटी उम्र से ही सिखाते हैं। उनके संस्कार के लिये गणित में यह पढाते हैं- एक ग्वाला 21 रुपये मन के भाव से 2 मन दूध खरीदकर उसमें 20 सेर पानी मिलाता है और उसे एक रुपये में दो सेर के भाव बेचता है, तो उसे कितना लाभ होगा?
11. जिस युवक को अच्छी स्त्री का प्यार चाहिये, वह उचक्कापन अवश्य करेगा। शरीफ़ों को कोई स्त्री नहीं चाहती। यह अटल फ़िल्मी सत्य है।

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Sunday, October 18, 2020

परसाई के पंच-78

 

1. यह गद्दार है ! यह शब्द खूब जबान पर चढा है। यदि कोई सौदा लेने जाय और दुकानदार कम तौले, तब यदि ग्राहक कहे , ’यार, पूरा तौलो। डण्डी क्यों मारते हो?’ तो दूकानदार हल्ला मचा सकता है, ’यह गद्दार है।’ भीड़ इकट्ठा हो जायेगी। जगह-जगह डण्डी मारी जा रही है और इसकी तरफ़ इशारा करने वाला गद्दार कह दिया जाता है।
2. एक तो भारतीय साहित्यकार और, विशेषकर हिन्दीवाला बहुत ही भोला होता है। उसके पास ’आत्मा’ नाम की ऐसी चीज होती है, जो सब कुछ सहज कर देती है। उसकी आत्मा में जो सहज उठ आता है, वह सत्य होता है।
3. कभी-कभी अशिक्षा ही आत्मा बन जाती है –कभी स्वरक्षण का छिपाव भी आत्मा का रूप ले लेता है, कभी-कभी आत्म-छल आत्म ज्ञान बन जाता है। कभी अवसरवाद भीतर बैठकर बोलता है और हम समझते हैं कि यह हमारी शुद्ध आत्मा बोल रही है। यह ’आत्मा’ बहुत अविश्वसनीय चीज है। एक तो यह बाहर नहीं देखने देती है और भीतर , न जाने क्या-क्या बातें सुझाती रहती है।
4. धर्म के नाम पर अपना देश न्योछावर होता है। धर्म के नाम पर विधवाओं को बेचने से लेकर दंगे तक हम कर लेते हैं।
5. भारत में अच्छी नौकरी लगने तक बुद्धिमान क्रान्तिकारी होता है। इसके बाद वह अंग समेटने में लग जाता है। आधी जिन्दगी क्रान्ति का बिगुल फ़ूंकने में काम आती है और शेष आधी कैफ़ियत देने में कि नहीं, मैं वैसा नहीं हूं।
6. जब तक कोई आन्दोलन अपने को लाभ पहुंचाये, तब तक उसमें रहना चाहिये। और जब उस विश्वास के कारण थोड़ा नुकसान उठाने का मौका आ जाये, तो झट दूर होकर उस सबको बुरा कहना चाहिये।
7. जिस अखबार पर दो-चार मानहानि के मुकदमें न चलते रहें वह अखबार नहीं सिनेमा का पर्चा हुआ !
8. हिन्दी में कोई किसी को तब तक साधु नहीं मानता जब तक वह पाठ्य-पुस्तक समिति का सदस्य न हो जाये।
9. नया लेखक बाजार में अपना माल खपाना चाहता है, इसलिये जमे हुये व्यापारियों के माल को घटिया कहता है। यह साहित्यिक विवाद नहीं , आर्थिक स्पर्धा है।
10. कवि में राजनीतिज्ञ और नेता उसी तरह छिपे रहते हैं जिस तरह मरी भैंस के चमड़े में जूते और सूटकेस।
11. अच्छा सफ़ल लेखक वही है, जो दिल्ली की तरफ़ मुंह करे और चला जाये बम्बई। ऐसे सफ़ल लेखकों की एक लम्बी सूची बन सकती है जिनकी दशा कुछ दिखती है पर वे जा रहे होते हैं किसी और दिशा में।

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सूरज भाई और मोबाइल मीडिया

 

सुबह घर के पीछे बरामदे में देखा सूरज भाई आसमान पर विराजमान थे। विराजमान मतलब दैदीप्यमान। दो पेड़ों के बीच एकदम सुर्ख लाल। पेड़ सीधे खड़े थे- कमांडों की तरह। सूरज भाई के चेहरे से एकदम शांत वीआईपी पन टपक रहा था।
सूरज भाई के जलवे देखकर जलन हुई। उनसे मजे लिए -'भाई जी, ड्रेस तो बड़ी शानदार है। एक दम ठेके पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों की ड्रेस सरीखी।'
'भाई जी' हमने इसलिए लिखा क्योंकि (आपको भी पता ही होगा) दोस्तों पर तंज नजदीकी का नाटक करते हुए किये ही किये जाते हैं। हमको तो सिर्फ मजे लेने थे इसलिए 'भाई जी' कहकर ही बात की। हमला करना होता तो 'हम आपकी बहुत इज्जत करते हैं' के ब्रह्मास्त्र से बात शुरू करते। बात की शुरुआत ही अगर कोई 'इज्जत करने के उद्घोष 'से करे तो बिना समय गंवाए 'इज्जत का बीमा' करा लेना चाहिए, निकट की पुलिस चौकी से' इज्जत की सुरक्षा' के लिए पुलिस मांग लेनी चाहिए।
सूरज भाई आदतन मुस्कराए। अपनी खिंचाई को मुस्कराते हुए ग्रहण करने वाले लोग या तो बहुत समर्थ होते हैं या बहुत बड़े 'चिरकुट घाघ'। समर्थ लोग आलोचना का बुरा नहीं मानते। 'चिरकुट घाघ' आलोचना करने वाले को आने वाले समय में निपटाने का निश्चय करते हुए मुस्कराते हैं -एक मुर्गा और मिला निपटाने को।
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -'हमको पता है कि चिरकुटई तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , तुम इसे करके रहोगे। करने की कोशिश की भी लेकिन जमी नहीं। हमारी ड्रेस तुमको दिहाड़ी मजदूर सरीखी दिखी यह कहकर तुमने यह कहना चाहा कि हमारी औकात दिहाड़ी मजदूर सरीखी है। लेकिन सच तुम भी जानते हो दिहाड़ी मजदूर तो अनगिनत हैं, रोज बढ़ रहे हैं, एक चाहोगे सौ क्या हजार मिलेंगे लेकिन अपन अकेले हैं -'जिस दिन नहीं निकलेंगे 'शांत' हो जाओगे।'
हमने सूरज भाई की मिजाज पुर्सी करने के लिहाज से कहा -'नहीं भाई जी, हमारा कहने का मतलब वह नहीं था। आप मेरी बात का गलत मतलब निकालने लगे।'
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -'बात तुमने कही, अब मतलब निकालना हमारा काम है। हमारे बारे में कही बात का मतलब हम निकालेंगे कि तुम? '
खेत में खिले धान के पौधे हवा के सहारे हिलते हुए सूरज भाई की बात का समर्थन करते हुए दिखे। यही बालियां मेरी बात का भी इतनीं ही तेजी से सर्मथन कर रहीं थी। धान की बालियों की हरकत मुझे किसी राज्य के विधायकों सरीखे लगीं जो सरकार बना सकने में समर्थ पार्टी को आंख और अक्लमूँद कर ज्वाइन कर लेते हैं।
हमने सूरज भाई का फोटो लिया। आसमान में सुर्ख लाल दिखते सूरज भाई फोटो में पीले दिखे। जो सूरज भाई अभी भी मुझे एक दम लाल दिख रहे हैं, उनको यह बदमाश पीला दिखा रहा है। एकदम मीडिया की तरह धूल झोंक रहा है मेरी आँखों में। किससे पैसे खाये हैं इसने, देखना पड़ेगा।
मन तो कर रहा है अपने मोबाइल का नार्को टेस्ट करा दूं। लेकिन यह विचार आते ही मन दहल गया कि इसका 'नार्को टेस्ट' होगा तो अपना 'नरक टेस्ट' हो जाएगा।
हमने कदम वापस खींच लिए क्रीज में और समझदार नागरिक की तरह भली बातें सोचने लगे।

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Saturday, October 17, 2020

कैसे रहोगे

 

अपने दुख
तुम मुझसे नहीं कहोगे
तो किससे कहोगे
और दुनिया में तुम्हारा
है ही कौन ?
मैंने देखा वह मक़ाम
जहाँ दुनिया पीछे छूट चुकी थी
और दुनिया का मतलब
मेरे लिए
सिर्फ़ तुम थीं
और तुम भी
एक असमाप्य दूरी से
सुनती थीं मेरी पुकार
उस निपट असहायता में
मैं फूट-फूटकर रो पड़ा
तुमने कहा :
कहते तो हो
कि रह लूँगा
पर मेरे बिना
कैसे रहोगे ?
अपने दुख
तुम मुझसे नहीं कहोगे
तो किससे कहोगे ?

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Friday, October 16, 2020

परसाई के पंच-72

 

1. प्रेम की तरह चुनाव लड़ने की भावना हृदय में अपने-आप पैदा होती है और फिर जैसे प्रेमी को समझाना असम्भव है, वैसे ही उम्मीदवार को भी। दोनों कफ़न का पेशगी इंतजाम कर लेते हैं।
2. एक 'स्टेज' के बाद लेखक साहित्य की जमीन से उड़कर राजनीति, व्यवसाय या नौकरी के पेड़ पर बैठ जाता है।
3. लोभ से कोई अछूता नहीं है। नकारने का कारण हमेशा निर्लोभ ही नहीं होता।
4. देश के इस दौर में हृदय को सही-सलामत रखकर कोई तरक्की नहीं कर सकता। ठेकेदारी सभ्यता की यह बड़ी वैज्ञानिक देन है कि सफल आदमी बन्द हुए हृदय को लेकर भी जिंदा रहता है।
5. डरा हुआ देशभक्त 'बेडरूम' में नहीं पाखाने में छिपता है। 'बेडरूम' में छिपने वाले वीर 18 वी शताब्दी तक होते थे। रनिवास उनका इंतजार करता रहता था कि वीर भागकर अब आये, अब आये।
6. क्रांति करने की तरह ही जरूरी है, क्रांति के शील की रक्षा। असावधानी के कारण दुनिया की कई क्रांतियों का शीलभंग हो चुका है।
7. आंदोलनों की यही 'ट्रेजडी' कभी-कभी हो जाती है। इनके झंडे मुर्दों के हाथ में यह सोचकर दे दिए जाते हैं कि जब चाहेंगे छीन लेंगे -आखिर मुर्दा ही तो है। पर मुर्दा झंडे को जकड़ लेता है और अपने साथ चिता पर ले जाता है। कितने ही झंडे मुर्दो के साथ चिता पर चले गए हैं।
8. इस महान देश में हर पवित्र और पूजनीय चीज दंगे के काम आती है।
9. सुखद यात्रा का एक नुस्खा यह है कि बगलवाले से बातचीत का सम्बंध मत जोड़ो। सम्बन्ध जोड़ा कि वह तुम्हारा चैन हराम कर देगा।
9. चौकन्नापन का टैक्स हर एक को चुकाना पड़ता है। कोई शरीर के स्तर पर चुकाता है, कोई चेतना के स्तर पर। जो इस टैक्स की चोरी कर लेते हैं , वे बड़े सुखी होते हैं।
10. हम छोटी-छोटी चीजों से मरते-जीते हैं। मध्यमवर्गीय आदमी शक्कर के अभाव में गुड़ की चाय पीता है, तो सोचता है, इसके आगे भगतसिंह का बलिदान कुछ नहीं है। अगर भारतवासी 1920 से 1930 तक गुड़ की चाय पीते , तो 1931 में ही देश आजाद हो जाता।
11.इस देश का आम आदमी अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिया गया है। वह अपने ही मकान में किराए से रहता है।

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Tuesday, October 13, 2020

परसाई के पंच-69

 

1. स्त्री के लिये अभी भी पत्नी के पद पर नौकरी सबसे सुरक्षित जीविका है ।
2. सहकारी दूकान के सामने कतार लगी है और पीछे के दरवाजे से चीजें कालाबाजार में चली जा रही हैं। क्षेत्र में कोई काम कोई करता है और टिकट दूसरे को मिल जाती है । हम किसी को महान भ्रष्टाचारी घोषित करते हैं और वह सदाचार अधिकारी बना दिया जाता है ।
3. सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं ।
4. शुद्द बेवकूफ़ एक दैवी वरदान है , मनुष्य जाति को । दुनिया का आधा सुख खत्म हो जाये, अगर शुद्ध बेवकूफ़ न हों ।
5. गिरने के बड़े फ़ायदे हैं । पतन से न मोच आती , न फ़्रैक्चर होता । कितने ही लोग मैंने कितने क्षेत्रों में देखे हैं, जो मौका देखकर एकदम आड़े हो जाते हैं । न उन्हें मोच आती है, न उनकी हड्डी टूटती । सिर्फ़ धूल लग जाती है , पर यह धूल कपड़ों में लगती है, आत्मा में नहीं ।वे उसे झाड़ लेते हैं, और इस शान से चलते हैं, जैसे आड़े होकर गिरे ही नहीं ।
6. हड्डी टूटने के हड्डी चाहिये। किसी ने सुना है कि किसी केंचुये का कभी ’फ़्रेक्चर’ हुआ ? उसकी हड्डी ही नहीं है । लहरिया मारकर किलकिलाकर बड़े-बड़े गड्डे पार कर लेता है।
7. बहुत आदमियों की रीढ की हड्डी नहीं होती । उन्हें चाहे तो आप बोरे में भी डालकर ले जा सकते हैं । ले ही जाते हैं । मैं लगातार देख रहा हूं कि राजनीति और साहित्य में बहुत लोग आपरेशन करवा के रीढ की हड्डी निकलवा लेते हैं । फ़िर इन्हें चाहे बोरे में भर लीजिये या सूटकेस में डाल लीजिये और कुली पर लदवाकर चाहे जहां जाइये।
8. सम्मान से आत्मा में मोच आती है और पुरस्कार से व्यक्तित्व में ’फ़्रेक्चर’ होता है।
9. वजनदार माला गर्दन झुकाने के काम आती है। तीन-चार किलो की माला गर्दन में डाल दो तो अच्छी-अच्छी गर्दनें झुक जाती हैं।
10. पिट भी जाओ और साहित्य-रचना भी न हो। यह साहित्य के प्रति बड़ा अन्याय है। लोगों को मिरगी आती है और वे मिरगी पर उपन्यास लिख डालते हैं ।
11. जब उद्घाटन भाषण पूरा होने से पहले ही पुल गिर जाता है, तो जांच पड़ताल , जांच कमीशन वगैरह की जरूरत ही नहीं है। यह युग सत्य है और सत्य को स्वीकार करनी ही चाहिये। पहले असत्य से शर्म आती थी, अब सत्य से शर्म आती है।

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Sunday, October 11, 2020

परसाई के पंच-68

 

1. जो दिखाया न जा सके, वह घाव बेकार चला जाता है। जिस दर्द को भुना न सकें , वह खोटा सिक्का है ।
2. पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिये सचेत रहती है । अपने पवित्र होने का अहसास आदमी को ऐसा मदमाता बनाता है कि वह उठे हुये सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाला है, बच्चों को रगेदता है । पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पांव में घुंघरू बांध दिये जाते हैं। वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गन्दी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है । यह इत्र गन्दगी के डर से शीशी में ही बन्द रहता है।
3. शाश्वत साहित्य लिखने का संकल्प लेकर बैठने वाले मैंने तुरन्त मरते देखे हैं ।
4. हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रण्डी बना दिया है, जो पैसे के लिये किसी के भी साथ सो जाती है । सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते।
5.पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मन्दिर के पास से शराब की दूकान हटाने की मांग लोग करते हैं, तब पुजारी बहुत दुखी होता है, उसे लेने के लिये दूर जाना पड़ेगा । यहां तो ठेकेदार भक्ति-भाव में कभी-कभी मुफ़्त भी पिला देता था ।
6. सम्पादकों की बात मैंने कभी नहीं टाली । वे कहें कि रो दो, तो मैं रो पड़ूंगा । वे कहें कि नंगे हो जाओ, तो नंगा हो जाऊंगा । साहित्य में नंगेपन का पेमेण्ट अच्छा होता है ।
7. लेखकों को मेरी सलाह है कि ऐसा सोचकर कभी मत लिखो कि मैं शाश्वत लिख रहा हूं । शाश्वत लिखने वाले तुरन्त मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज मरते देखते हैं, वही अमर होते हैं।
8. जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं हैं, वह अनन्त काल के प्रति क्या ईमानदार होगा !
9. गालिब की याद में जो गालिब अकादमी बनी है, उसका बाथरूम भी अगर उसे रहने को मिला होता तो वह निहाल हो जाता ।
10. कुछ लेखक तो सहज ही निष्प्रयास नीच हो लेते हैं । मुझे उनसे ईर्ष्या होती है।
11. कोर्स का लेखक वह पक्षी है , जिसके पांवों में घुंघरू बांध दिये गये हैं। उसे ठुमककर चलना पड़ता है। ये आभूषण भी हैं और बेडियां भी । रायल्टी मिलने लगी है तो लगता है कि ’सत्साहित्य’ ही लिखो, जिससे लड़के-लड़कियों का चरित्र बने । उसे आचार्यगण तुरन्त गले लगा लेंगे । परेशानी यही है कि ’सत्साहित्य’ कुल आठ-दस वाक्यों में आ जाता है, जैसे सत्य बोलो, किसी को कष्ट मत दो, ब्रह्मचर्य से रहो, परायी स्त्री को माता समझो, आदि।

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Saturday, October 10, 2020

व्यंग्य के बवाल

 बड़ा बवाल है व्यंग्य में आजकल।

व्यंग्य के बाद 'विधा' हम जानबूझकर नहीं लिखे। 'विधा' और 'स्पिरिट' में अभी भी तनातनी है। वैसे लफड़ा तो 'विधा' और 'स्पिरिट' की पहचान में भी है। हमारे एक ज्ञानी दोस्त के अनुसार 'विधा' , विधि (कानून) का पति है और स्पिरिट , प्रवृत्ति वाली नहीं है बल्कि यहां 'स्पिरिट' का मतलब वो वाली 'स्पिरिट' से है जिसकी दुकाने खुलते ही कोरोना काल में भी भीड़ उमड़ पड़ी थी।
बहरहाल कहने का मतलब यह कि व्यंग्य में बहुत बवाल, कन्फ्यूजन है, अफरा-तफरी है। धड़ल्ले से लिखा जा रहा है, पढा जा रहा है। किताबें आ रही हैं, विमोचन हो रहे हैं, समीक्षाएं हो रही हैं। खूब बयान बाजी हो रही है। मतलब व्यंग्य बाजार में मामला गुलजार है। चहल-पहल है। हलचल है। व्यंग्य का हलका एकदम बाजार की तरह गुलजार है। दीवाली में सरार्फा बाजार की तरह चमकदार है।
इतना हसीन मंजर है फिर क्या बवाल? बवाल जैसी कोई बात नहीं, वो तो ऐसे ही लिखे जरा बात में वजन लाने के लिए। हुआ यह कि हम पिछले दिनों मोबाइल से पुरानी फोटो, कूड़ा साफ कर रहे थे कि व्यंग्य के अखाड़े के दो खलीफाओं के परस्पर विरोधी बयान दिखे। 2015 में लालित्य ललित Lalitya Lalit जी कहते पाए गए :
'हम लोगों को व्यंग्य लिखना सिखाते हैं।'
उस समय के व्यंग्य लेखकों की जनगणना करते हुए लालित्य जी ने यह बताया था कि 30 लोग व्यंग्य लिख रहे हैं। उनके बयान को प्रेम जनमेजय जी का बाहर से समर्थन रहा होगा क्योंकि उन्होंने उसके बाद बोलते हुए भी इसका खंडन नहीं किया।
सनद रहे कि लालित्य ललित जी ने यह बयान व्यंग्य के शीर्ष पुरोधा माने जाने वाले परसाई जी के शहर में जारी किया था। जिस शहर की हर गली में व्यंग्यकार मिलते हों, ऐसी जगह व्यंग्य सिखाने की बात कहना व्यंग्य के क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राइक सरीखा था। लेकिन किसी जबलपुरिये ने इस बात का कोई नोटिस न लेते हुए यह बताया कि जबलपुर को संस्कारधानी क्यों कहा जाता है।
लालित्य ललित जी ने 2015 में जो व्यंग्य लिखना सिखाया तो अभी पिछले हफ्ते व्यंग्य लेखक की संख्या 30 से बढ़ाकर 135 कर ली। व्यंग्य लेखकों का संग्रह भी छपा दिया। 2015 में 30 से शुरू करके 2020 तक 135 तक ले आये व्यंग्यकारों को। मतलब 5 साल में 105 लोगों को व्यंग्य लिखना सिखा दिया। मतलब हर साल 21 लेखक औसतन बनाये। बहुत बड़ा योगदान है यह साहित्य की किसी भी विधा (या स्पिरिट) के लिए।
हम लालित्य ललित जी की तारीफ करने की सोच ही रहे थे कि प्रख्यात व्यंग्यकार और आलोचक Subhash Chander जी का बयान दिख गया। उनका कहना है:
'व्यंग्य लिखना कोई नहीं सिखा सकता।'
अब यह बयान तो लालित्य ललित जी के बयान के एकदम उलट है। ललित जी कहते हैं हम व्यंग्य लिखना सिखा रहे हैं, उधर आलोचक श्रेष्ठ कहते हैं व्यंग्य लिखना कोई सिखा नहीं सकता। हमें समझ नहींआता किसकी बात सही माने। अगर कोई सिखा नहीं सकता तो ये जो 30 व्यंग्य लेखकों से 75 होते हुए 135 तक पहुंची संख्या उनकी व्यंग्य की डिग्री फर्जी है क्या ?
दोनों लोग व्यंग्य के बड़े उस्ताद हैं। एक तरफ लालित्य ललित जी धुंआधार लिखते हैं और हर महीने एक नई किताब आ जाती है उनकी। उनकी नेशनल बुक ट्रस्ट के जरिये साहित्य के प्रसार की जबर्दस्त मेहनत है। दूसरी तरफ सुभाष जी हैं जो व्यंग्य की डिग्री देने वाले एकमात्र विश्वविद्यालय है। उनकी व्यंग्य लेखन के इतिहास में दर्ज हुए बिना कोई व्यंग्यकार कैसे कहला सकता है। उनकी बात का समर्थन न करना मतलब अगले 'व्यंग्य के इतिहास में' के अगले संस्करण में नाम गायब होने का खतरा।
हमारी हालत कवि भूषण की तरह हो गयी है जो अपने दोनों आश्रयदाता राजाओं की तारीफ करते हुए कहते हैं -'शिवा को सराहूं कि सराहूं क्षत्रसाल को।' सवाल पूछते ही उन्होंने दोनों की मिजाजपुर्सी कर ली। हम भी करना चाहते हैं लेकिन करने से बच रहे हैं क्योंकि अभी समय कम है। फिर कभी।
फिलहाल तो अभी आप बताओ कि किसकी बात सही लगती है आपको लालित्य ललित जी की व्यंग्य लिखना सिखाने वाली बात कि सुभाष चन्दर जी की व्यंग्य लिखना कोई सिखा नहीं सकता वाली बात।
आप अपनी राय बताइए तब तक हम दफ्तर होकर आते हैं। ठीक ?

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