Friday, May 30, 2008

ब्लागजगत -आप इत्ता हलकान क्यों हैं जी?

http://web.archive.org/web/20140419212928/http://hindini.com/fursatiya/archives/443

ब्लागजगत -आप इत्ता हलकान क्यों हैं जी?

कल अखिलेशजी के बारे में लिखा। उनकी कहानी चिट्ठी मैंने पहले इसी ब्लाग में पोस्ट में की थी लेकिन पता नहीं क्या लफ़ड़ा हुआ कि बिला गयी। सो इसे दुबारा प्रकाशित करने की कोशिश की। लेकिन कहानी मुई पोस्ट नहीं हुयी इस ब्लाग पर। न जाने क्या लफ़डा है। फ़िर इसे अपने पुराने ब्लाग पर पोस्ट किया। आप इसे वहां बांचें। कहानी मजेदार है। सबको अपने कालेज के दिन याद आ जायेंगे। :)
तद्भव पत्रिका आप यहां बांच सकते हैं।
ब्लागजगत में बड़ा हल्ला है कि बड़ी खराब हालत है यहां। जैसे सत्यनारायण जी की कथा बांची जाती है वैसे किसी न किसी ब्लाग में कोई न कोई ब्लागर दुखी होते हुये कहता है-हाय राम यहां भी इतनी गंदगी। कुछ लोग तो यहां से बिस्तरा समेटने की बात भी कहते रहते हैं। मतलब कि वो कहा जाता है न! -इस शहर में हर शक्स परेशान सा है।
आप देखें कि केवल दो ठो ब्लाग पर सनसनी हवा चलती है। वे दो ब्लागर भी ब्लागर नहीं , कम्पोजीटर हैं ज्यादा सही होगा कहना सनसनी लपेटर हैं। अपना खुद बहुत कम लिखते हैं। दूसरे के लिखे पर सनसनी लपेट के पेश करते हैं। उनसे इतने हलकान क्यों हैं जी?
ब्लाग की स्तरीयता पर काफ़ी लोग सवाल उठाते हैं। ब्लाग पर स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है। ऐसे ब्लाग नहीं हैं जिनको पढ़ने का मन करे। इस बारे में क्या कहा जाये! :)
हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी महोदय ने अपने विदाई भाषण में कहा- मैंने प्रयास किया कि जो काम मैं खुद नहीं सकता उसको दूसरा अगर न कर पाये तो उसे नालायक न समझूं। स्तरीय लेखन के अभाव के लिये हलकान होने वाले भाई लोग आगे बढ़कर नजीर पेश करें और बतायें कि देखो ऐसे लिखा जाता है।
ब्लाग जैसा मैं मानता हूं -सहज अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। इसमें घर-परिवार के लोग, आसपास के लोग और आम लोग अपने जौहर दिखलाते हैं। तो वे तो वैसा ही लिखेंगे जैसा उनको आता होगा। धीरे-धीरे कौन जाने इनमें से ही कोई आगे चलकर ऐसा रचनाकार बने जिसके बारे में बताते हुये आप रस्क करें कि ये तो हमारे समय के ब्लागर हैं।
उदाहरण के लिये सौम्या का ब्लाग देखिये। ये बच्ची कक्षा नौ में पढ़ती है। इसके ब्लाग में अपने घर परिवार की बातें हैं। आंधी आना, गेहूं बटोरना आदि। इसमें ऐसा कौन सा कालजयी लेखन है? लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगता है, तमाम लोगों को लगता होगा। कौन जानता है कल को यही बिटिया प्रख्यात हस्ती बने जिसमें इसकी इन अभिव्यक्तियों का भी योगदान हो।
मेरा मानना है कि ब्लागजगत के निकृष्ट और सनसनीकारक लेखन से हलकान से परेशान होने की बजाये ऐसे आसपास के सहज लेखन का लुत्फ़ उठाया जाये। जो बात मन को छू जाये उसको प्रोत्साहित करें। यह समझें कि उसका सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी है।
जब हम ब्लागिंग में घुसे थे तब कुल जमा पचीस तीस लोग थे। महीने में अधिक से अधिक चार-पांच पोस्ट लिखते थे। पहली पोस्ट में कुल इत्ता लिख पाये थे – अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है । बाद में साथियों के उकसावे पर इतना लिखने लगे कि लंबी पोस्टों का मतलब ही फ़ुरसतिया पोस्ट हो गया। जब ब्लाग जगत में सक्रिय-असक्रिय ब्लागों की संख्या नब्बे से सौ के बीच बढ़ रही थी तब हम लोग हर पल नये बनते ब्लाग के इंतजार में टकटकी लगाये रहते थे और सांस रोके ब्लाग संख्या के सौ तक जाने का इंतजार करते रहे। शायद महीने भर लगे होंगे ब्लाग संख्या को सौ का आंकड़ा छूने में। देबाशीष उछल पड़े थे और इसकी सूचना पर दी थी अस्सी, नब्बे पूरे सौ। :)
आज प्रतिदिन बीस से पचीस ब्लाग जुड़ रहे हैं हिंदी ब्लाग जगत में। आलोक /चिट्ठाजगत के माध्यम से इसकी खबर मिलती है। अफ़सोस भी होता है कि सबका उत्साह वर्धन नहीं कर पाते नियमित। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि नये लिखना शुरू करने वालों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिये। ब्लाग संकलकों की तो बिल्कुल ही नहीं। :)
अगर नये साथी अपने बारे में लोगों को बताना चाहते हैं तो सबसे सुगम उपाय है दूसरों के ब्लाग पर जाकर अपनी टिप्पणी छोड़ने का। इससे सुगम और मुफ़ीद उपाय कोई नहीं पाठक, टिप्पणी और अटेंशन पाने का।
मेरा कहना सिर्फ़ इतना है कि ब्लाग जगत के चंद चिरकुटों से हलकान से होने की बजाय आप इसके सौंदर्य को देखें। इसके धांसू च फ़ांसू , फ़ड़कते और तुतलाते लेखन पर लहालोट हों। कामा, फ़ुलस्टाप की गलतियों के बावजूद इसकी सहजता की तारीफ़ करें। यह सहजता आजकल का दुर्लभ गुण है। जिससे सहज होने को कहो वो और असहज हो जाता है। सहज साधना बहुत मुश्किल है।
आप खराब लोगों से दुखी होकर और उसका रोना रोकर अपनी और अपनी आसपास के दूसरे अच्छे लोगों की अच्छाईयां की उपेक्षा कर रहे होते हैं।
ऐसा तो नको करें जी।

22 responses to “ब्लागजगत -आप इत्ता हलकान क्यों हैं जी?”

  1. balkishan
    बात केवल हलकान होने की नई है साब जी.
    और भी बहुत कुछ है.
    कुछ ना समझो ऐसे तो आप नादान नही हो साब जी.
    और फ़िर जैसे वे हैं वैसे ही ये भी तो हैं.
  2. आलोक
    सहज लेखन – जी हाँ, यही तो शब्द मैं ढूँढ रहा था। चिट्ठा लेखन सहज लेखन है।
    सनसनी लपेटर – कतई पसन्द आया आपका नामकरण। वास्तव में यह लपेटर चिट्ठों की दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। शायद अन्तर्जाल पर वह अपनी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हों।
    बिला गयी – मतलब बिल में घुस गई, गायब हो गई?
    हलकान यानी क्या?
    अग्रिम शुक्रिया।
  3. सुनील
    मुझे भी लोगों के अपने जीवन के बारे में सादगी से लिखे चिट्ठे पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, और अनूप तुम्हारे लेख चाहे छोटे हों या फ़िर फुरसतिया वाले, वह भी अच्छे लगते हैं.
  4. अभय तिवारी
    दुरुस्त है जी!
  5. यूनुस
    1. फोकट में हलाकान होने की फुरसत ना हमारे पास है ना फुरसतिया के पास ।
    2. धांसू च फांसू लेखन पर लहालोट जरूर हो रहे हैं ।
    3. मुझे समझ में नहीं आता कि ब्‍लॉग जगत को लेकर लोग इत्‍ते चिंतित क्‍यो हैं ।
    4. अरे जब हाफ पैन्‍ट पहनने की उम्र में बच्‍चा सायकिल चलाना सीखता है तभी से क्‍या आप इस बात के लिए चिंतित हो जाते हैं कि आगे चलकर वो कार को भी अईसे ही जगह जगह टकराएगा ।
    हंय । थोड़े कहे को बहुत समझिये । टेलीग्राम को चिट्ठी समझिये । फुरसतिया पोस्‍ट पर फुरसतिया टिप्‍पणी कईसे दें । ऐसा तो नको करेंगे जी ।
  6. डा० अमर कुमार
    वही तो ?
    हम क्यों गला फाड़ फाड़ कर मीडिया के अन्य माध्यम
    की तरह मौज़ूदा गंदगी देखें और दिखायें ?
    वहाँ से ऊब कर यहाँ आते हैं, गंदगी पसंद प्रजातियाँ
    भले वहाँ लोट लगा रही हों, इनकी उपेक्षा किया जाना
    ही एक सभ्य प्रतिकार होगा ।
    हम सृजन का दंभ लेकर यहाँ आते हैं, समीक्षा करने तो
    कत्तई नहीं । पहले तो मैं भी भड़का था, लेकिन अब…
    सब ठीक है जी !
  7. sachin rao
    सही लिखा है आपने। आज जब हर जगह टुच्चे लोग टुच्चापन कर रहे है तो ब्लॉग टुच्चों से कैसे अछुता रहेगा। इसलिए विचलित होने के बजाय अपना काम करते रहिये। अपना समय सृजन मे लगाएं। चिंता न करे चिन्तन करे.
  8. आलोक पुराणिक
    जमाये रहियेजी।
    हलकान होने का टैम किसके पास है जी। लहालोटीकरण से ही फुरसत ना है, बाकी आईपीएल मैचों ने परेशान कर रखा है। इ
  9. Dr.Anurag Arya
    अब अगली पोस्ट आप भी कुछ मजेदार सी लिखियेगा ….इस दुःख से बोरियत सी होने लगी है…….
  10. Gyandutt Pandey
    एक लम्बी फुरसतिया पोस्ट की जरूरत है कि कम्पोजीटर/सनसनी लपेटर कैसे बनें। हम जैस को यह गुर आते नहीं, और रोज रोज लाइमलाइट ये लपेटर गण लिये जा रहे हैं।
  11. Amit Gupta
    बिलकुल सही लिखा है अनूप जी। हर कोई अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार पढ़ने के लिए स्वतंत्र है। तो जिन ब्लॉग को नहीं पढ़ना या जो अच्छे नहीं लगते उनको न पढ़ा जाए, वे लोग भी कोई जबरदस्ती थोड़े ही कर रहे हैं, वे भी उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और माध्यम का उपयोग कर रहे हैं जिसका अन्य लोग करते हैं। रही बात पसंद-नापसंद की तो यदि देखना भी पसंद नहीं है तो ब्लॉग-एग्रीगेटरों में आजकल सिर्फ़ अपनी पसंद के ब्लॉग पढ़ने की सुविधा भी है, तो उस सुविधा का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन लोगों की आदत है, मनुष्य प्रवृत्ति है कि ऐसी सनसनीखेज चीज़े देखनी/पढ़नी अवश्य हैं, उसके बिना खाना हज़म नहीं होता लोगों का(और क्या कारण है कि आजकल के समाचार चैनल धंधा चला पा रहे हैं)। ;)
  12. Sanjeet Tripathi
    अईसा नई कर रहे हैं जी, चिंता नक्को!
    पन क्या है न कि कभी-कभी जब सोचने जैसी गलती हो जाती है तो यही सोच आ जाती है कि आखिर क्यों इतना फ़्रस्ट्रेशन दिखता है लोगों में।
    खैर, बात बस यही है कि जहां इंसान होगा वहां इंसानी फितरत तो रहेगी ही!!
  13. Ghost Buster
    सॉरी है जी. अब नहीं होंगे.
  14. Shiv Kumar Mishra
    जो सनसनी लपेटर होने की औकात नहीं रखते वही हलकान हुए फिर रहे हैं….हमरे जैसे…और हमरे जैसे लोग सनसनी लपेटर से बहुत जलते हैं…क्या करें हमरी औकात नहीं है जो उनके जैसा बन सकें..
    इसीलिए हम थोड़ा हलकानियत करके हलके होने की कोशिश कर रहे थे..आगे से नहीं होंगे हलकान…वैसे सनसनी लपेटर शब्द बहुत धाँसू लगा…:-)
  15. संजय बेंगाणी
    रोना रोकर अपनी और अपनी आसपास के दूसरे अच्छे लोगों की अच्छाईयां की उपेक्षा कर रहे होते हैं।
    यह मार्के की बात कही.
  16. meenakshi
    shat pratishat aapki baat sahi hai. aapne man ki baat keh di… saumya ko padte hain aur khoob aashirvad detain hain. sach kaha aapne sehjata durlabh gun hai… agar ho to kaya kehna…
  17. समीर लाल
    पूर्णतः सहमत हूँ आपसे. इस आवश्यक आलेख के लिए आपका आभार.
  18. vijaygaur
    “अपना अनुभव है कि नये लिखना शुरू करने वालों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिये।”
    बात दुरस्त है. बिना अनुभव के कला का कोई भी छेत्र संभव नहीं. ब्लाग लेखन इस दौर की कला की एक विधा है. और तय है लगातार अभ्यास और जीवन के अनुभव से ही कलात्मक सौन्दर्य को हांसिल किया जा सकता है
  19. anitakumar
    पहले तो हलकान का मतलब बता दिजिए, ये कानपुर सच्ची में जुमलों की नगरी है। हमें तो आप की हर पोस्त में कोई न कोई नया जुमला मिल जाता है। बाकी बात आप ठीक कह रहे हैं । उस गंदगी की त्रफ़ देखने की जरुरत ही नहीं और अपनी बंसी बजाए जाओ अपने ब्लोग के पेड़ के नीचे, अब आप कह रहे हैं तो शायद आगे चल कर हमारे भी अच्छा लिखने की कोई संभावना बने। हम आशावादी हो गये
  20. फुरसतिया » …वर्ना ब्लागर हम भी थे बड़े काम के
    [...] पिछली पोस्ट में आलोक ने लिखा – हलकान यानी क्या? अग्रिम शुक्रिया। [...]
  21. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] ब्लागजगत -आप इत्ता हलकान क्यों हैं जी? [...]
  22. There should be a Blogger Meet – ब्लॉगर मिलन होना चाहिये। | Chemistry, Biology and Life…
    [...] फ़ुरसतिया जी की पोस्ट पढ़ के लग रहा है कि एक ब्लॉगर मीट होनी चाहिये… और फ़िर उसकी ’जम के’ (ये हमारे बी एच यू वाले तिवारी जी का पेट वर्ड है) रिपोर्टिन्ग की जाये ताकि हर पोस्ट को शतकीय हिट मिलें.. [...]

Thursday, May 29, 2008

टेस्ट पोस्ट

http://web.archive.org/web/20101216133755/http://hindini.com/fursatiya/archives/444

टेस्ट पोस्ट

यह टेस्ट पोस्ट ई-स्वामी द्वारा प्रकाशित की गई है!

4 responses to “टेस्ट पोस्ट”

  1. आलोक
    ईस्वामी जी को टेस्ट में उत्तीर्ण घोषित किया जाता है।
  2. समीर लाल
    यह टेस्ट टिप्पणी समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ के द्वारा प्रेषित की गई है.
  3. डा० अमर कुमार
    टेस्ट पोस्ट पर टिप्पिणियाने की परंपरा अभी शुरु
    न हुयी हो तो ,इसके जनक के रूप में मेरा नाम दर्ज़
    किया जाये ।साक्ष्य के रूप में मैं अभी एक पोस्ट ठेलता हूँ,
    ” मैंने भी रचा इतिहास ” या इसी तरह का कोई अन्य
    शीर्षक !
  4. समीर लाल
    डा० अमर कुमार ने देर कर दी. :)

Wednesday, May 28, 2008

ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं

http://web.archive.org/web/20140419215625/http://hindini.com/fursatiya/archives/438

ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं

अखिलेश
अखिलेश
लखनऊ में अखिलेश जी से भी मिलना हुआ। अखिलेश जी से मेरी पहली मुलाकात शाहजहांपुर में हुई थी। हृदयेशजी को पहल सम्मान मिला था। उसी सम्मान समारोह में शामिल होने वे शाहजहांपुर आये थे। कुछ ही दिन पहले मैंने उनकी कहानी चिट्ठी पढ़ी थी। इस कहानी के तमाम पात्र मुझे जाने-पहचाने लगे। जिस समय अखिलेश जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे उसी समय मैं वहां मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज में था। लेकिन वहां मिलन-जुलन न हुआ। इलाहाबाद के पढ़े तमाम जो आजकल मुंबई में हैं उनमें से अधिकतर अखिलेश जी के बाद के हैं। इस कहानी में रघुराज का जिक्र भी आया है। अनिल भाई बतायें कि क्या उनसे कुछ लिंक है क्या इस कहानी का?
मैं उनसे मिला तो अनायास बातें ब्लागिंग की होनी लगीं। अखिलेश जी का मानना था कि ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं। किसी को कुछ भी लिखने की छूट होने के कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी लिख देगा और दुनिया इसे चटकारे ले-लेकर पढ़ेगी। उदाहरण देते हुये उन्होंने कहा- मान लीजिये किसी प्रसिद्ध साहित्यकार के बारे में कोई घटिया बात लिख कर मेरी किताब में छापने को देता है तो पहले तो मैं इसका सत्यता जांचने का प्रयास करूंगा और उस साहित्यकार से जानकारी करूंगा तब इस बारे में कोई निर्णय करूंगा। लेकिन ब्लाग अभिव्यक्ति का छुट्टा माध्यम होने के नाते लेखक को बेलगाम छोड़ देता है। यह बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी है।
मैंने कहा -आपकी बात सही है। ब्लागिंग अभिव्यक्ति की सहज विधा है। तुरंत अभिव्यक्ति इसकी सामर्थ्य है और यही इसकी सीमा। सोचने, लिखने और पोस्ट करने के बीच समय अंतराल इतना कम होता है कि तमाम ऐसी चीजें सामने आती हैं जो शायद किसी दूसरे अभिव्यक्ति के माध्यम में न आ पाती हैं। लेकिन यह भी है कि ऐसे लोग अल्पसंख्यक हैं। इसके अलावा ऐसा सनसनीपरक लेखन अल्पजीवी होता है। अपनी मौत मर जाता है। लोग इसका विरोध करते हैं।
ब्लागिंग ने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मौका मुहैया कराया है। तमाम प्रसिद्ध लेखक, साहित्यकार भी इस विधा का उपयोग कर रहे हैं। आपको भी अपना ब्लाग शुरू करना चाहिये। मैंने उनको सुझाव दिया।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- मुझे ब्लागिंग आत्मप्रचार का जरिया सा लगता है। आप अपनी तस्वीर लगा रहे हैं, अपने बारे में लिख रहे हैं, अपनी तारीफ़ कर रहे हैं। ब्लागिंग का यह रूप मुझे खटकता है। मेरा मन:स्थिति ऐसी है आत्मप्रचार मुझे घटिया चीज लगती है।
मेरा कहना था -तब तो आपको और जरूरी है ब्लाग लिखना। आप इस नयी विधा का उपयोग करके लोगों के सामने नजीर पेश कर सकते हैं कि इस तरह लेखन करना चाहिये। देश , दुनिया, समाज के अनेकानेक पहुलुऒं पर अपने विचार व्यक्त करके उदाहरण पेश कर सकते हैं ऐसा भी सोचा जा सकता है। फिर जो तमाम लोग कुछ आत्मपरक लेखन कर रहे हैं वे भी अपने माध्यम से दुनिया को देख-दिखा रहे हैं। आप इस विधा की नकारात्मकता कम करने के उपाय बता सकते हैं।
अपने तद्भव के संपादन के चलते देश के तमाम लेखकों, साहित्यकारों से लगातार संपर्क में रहने के कारण और साल में कुछेक कहानियां लिखकर शायद मेरी अभिव्यक्ति की जरूरत पूरी हो जाती है। शायद इसीलिये और किसी अभिव्यक्ति के माध्यम की ललक उतनी नहीं होती होगी मुझमें। अखिलेश जी ने ऐसा कुछ कहा।
इस पर मेरा कहना था- आप दिन-प्रतिदिन तमाम अनुभवों से गुजरते होंगे। उनमें से कुछ को अपनी कहानियों में ला पाते होंगे कुछ को अपने संपादकीय में । संपादकीय तीन माह में एक बार ही लिख पाते होंगे। आपके और तमाम अनुभव जिनको अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती होगी वे समय के साथ बिसर जाते होंगे। आप उनको अपनी अभिव्यक्ति दे सकते हैं। अपने ब्लाग में लिख सकते हैं।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- अनुभव कोई बेकार नहीं जाता। वो किसी न किसी रूप में बना रहता है और समय आने पर अभिव्यक्त होता है। मेरे साथ यह भी है जो कि शायद मेरी कमी है कि मैं कोई भी काम कभी अधूरे मन से नहीं करता। मेरा मन करता है कि जो करो उसे सबसे अलग , सबसे अच्छे तरीक से करो या फिर न करो। ब्लागिंग की तात्कालिकता शायद मेरे इस स्वभाव से मेल न खाती हो।
इसी तरह की और तमाम बातें ब्लागिंग के बारे में उससे अलग भी हुयीं। अखिलेश जी ने कई ब्लाग और ब्लाग एग्रीगेटर के पते मुझसे लिये। शायद जल्द ही वे भी इस ब्लाग जगत में अपने लेखन से सामने आयें।
अखिलेश जी जो पत्रिका तद्भव निकालते हैं वह इस समय की सबसे अच्छी पत्रिकाओं में से हैं। इसका हर अंक संग्रहणीय होता है। ताजे अंक में प्रत्यक्षा जी की कहानी आयी है। फ़ूलपुर की फ़ुलवरिया मिसराइन।
इलाहाबाद की बातें हुयीं तो तमाम बातें और हुयीं। बोधिसत्व और तमाम साथियों के कुछ-कई किस्से भी सुने-सुनाये गये। लेखक -प्रकाशक संबंध पर भी बतकही हुयी। वह फिर कभी सही।
अखिलेश जी ने कथादेश में एक लेख लिखा था। मैं और मेरा समय श्रंखला का यह लेख आप यहां पढ सकते हैं । इसके कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं-
१.दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी।
२.साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।
३.लेखक बनने को मैं नियामत क्यों न मानूं। उसने मुझको संसार को तीव्रता से मह्सूस करने और समझने की क्षमता दी। लेखक होने की वजह से ही मेरी त्वचा स्पर्श के साथ एक और स्पर्श अनुभव करती है।
४.जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है जो कि वरदान भी होता है। उसके भीतर सम्वेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक सम्वेदना की, अतीन्दियता की अग्नियां जल जाती हैं। इसी प्रकार की तमाम और चीजों की अग्नियां जल जाती हैं। यकीन मानिये- एक सच्चे लेखक के भीतर ढेर सारी अग्नियां जलती रहती हैं जिनमें उसकी बहुत सी प्रसन्नता, आराम, इत्मिनान, उसकी खुदगर्जी, उसका ढेर सारा सुअरपन जलकर राख हो जाता है। इन अग्नियों के कारण उसके अनुभव सामान्य इनसानों की तरह कच्चे नहीं रह पाते, पक जाते हैं।
५.किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
६.कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
७.हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं।
८.मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं। यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है।
९.शहर से मैं प्यार करता हूं लेकिन शहर के लिये मेरे मन में घृणा भी अपरम्पार है। वे पतनोन्मुख विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
१०.अन्धे ड्राइवर विकास का वाहन दौड़ा रहे हैं। सामाजिक दुर्घटनायें, सामाजिक मृत्यु और सामाजिक बीमारियां इसके उत्पाद हैं। जैविक बीमारियां भी इफरात हैं। आने वाले समय में-मौजूदा विकास के भविष्य में-सड़कों के किनारे दुकानें होंगी और सड़कों पर आदमी नहीं केवल वाहन दिखेंगे।
११.विडम्बना यह है कि लोग विज्ञापनों की नकल कर रहे हैं या व्यक्तित्वों की, लेकिन उनमें बोध यह है कि वे सबसे अलग हैं। क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं।
१२.बाजार का सन्देश है कि सफलता ही असली मूल्य है, बाकी सारे मूल्य ढकोसले और बूढ़े हैं।उनमें सुन्दरता नहीं, चमक नहीं, शक्ति नहीं। पाना ही मोक्ष है। क्या खोकर पाया जा रहा है, समाज से इस विवेक का बाजार अपहरण कर लेता है।
१३.आत्यंतिक सुन्दरतायें चेतना और हृदय में बसती हैं और आंखों, होंठों और मत्थे पर दिखाई देकर विचारों और भावनाऒं में प्रकट होती हैं। लेकिन बाजार बताता है कि सुन्दरता क्रीम, साबुन, पाउडर, बाडी लोशन, तेल, बाल सफा में बसती है। यह उसी तरह है जैसे बाजार उपदेश देता है कि दुख स्त्री, दलित और गरीबी में नहीं है, वह आपके पास रेफ्रिजरेटर या लक्जरी कार या चाकलेट न होने में है। बाजार की वसीकरण विद्या कमाल दिखाती है और लोग समझने लगते हैं कि ज्ञान चेतना में नहीं इंटरनेट में ही बसता है। कर्म मनुष्य नहीं कम्प्यूटर ही करता है।

21 responses to “ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं”

  1. अनिल रघुराज
    अनूप भाई, चिट्ठी कहानी का लिंक नहीं खुल रहा, इसलिए नहीं पढ़ सका। लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि रघुराज से मेरा कोई लिंक नहीं होगा। शायद अखिलेश जी को मेरी याद भी नहीं होगी। मैं रघुराज तो नया बना हूं, पहले तो अनिल सिंह ही था। हां, एक संस्था थी परिवेश जिसमें अखिलेश कभी-कभी अपनी कहानियां पढ़ा करते थे और हम लोग वही मौंके पर ही उसका जिबह कर डालते थे। अखिलेश को शायद त्रिलोकी राय, राजकुमार, हरीश मिश्रा और शिवशंकर मिश्र ज़रूर याद होंगे। ये सभी हिंदी विभाग के थे। इन ‘अराजक’ लोगों के साथ मैं साइंस फैकल्टी का अकेला बंदा फंसा रहता था।
  2. यूनुस
    तदभव का हर बार इंतज़ार रहता है । अखिलेश तूफानी शख्सियत हैं । उन्‍हें ब्‍लॉगिंग में खींच लें तो आनंद आ जाए ।
  3. Gyandutt Pandey
    आत्मप्रचार का जरीया – ब्लॉगिंग वाकई आत्मप्रचार का जरीया है। आत्मप्रचार के बहुत से जरीये चल रहे हैं। कई बहुत ही भोंडे और अश्लील हैं। ब्लॉगिंग में स्वस्थ आत्मप्रचार की अनंत सम्भावनायें हैं। और आदमी कोई खुराफात करे, इससे बेहतर है आत्ममुग्ध रहे।
    खैर लिखने को लिख दिया। पर बहस की भी बहुत गुंजाइश है।
  4. डा० अमर कुमार
    हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है
    लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है।
    इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं।
    पर लड़ने से रोक कौन रहा है, गुरुवर ?
    ज़रूरी तो नहीं कि तलवार ही भाँजी जाये ?
    दुत्तकारा तो जा सकता है, और क्षमा करें
    बिना लड़े कोई हार नहीं बल्कि आत्मसमर्पण होता है ।
    जिसको कह सकते हैं घूटना टेकना !
  5. abha
    अखिलेश जी और उनकी तदभव दोनों साहित्य की शाख हैं ,प्रत्यक्षा की कहानी फूलपुर की फुलवरीया मिसराइन पढने की ललक हो रही हैं…
  6. संजय बेंगाणी
    ब्लॉगिंग का प्रचार ठीक है, मगर यह फुरसतीया पोस्ट हो गई…
  7. kanchan
    Akhilesh ji ki baate achchhe lekhak ka pratinidhitva kar rahi hai.n jo apne concept se kabhi bhi samjhauta nahi kar sakta….! jo sahi lag raha hai man ko bas vahi karta hai…kahin na kahin ham sab bhi ise feel hi karte hai.n. aur aise logo ke vishay me padh kar takat milti hai khud ke vicharo par date rahne ki…!
    is post ke liye hriday se dhanyavaad
  8. arun aditya
    विचारणीय पोस्ट है. अराजकता तो दिख ही रही है.
  9. Dr.Anurag Arya
    अच्छे लेखक है पर उनकी सारी बातो से सहमत नही हुआ जा सकता ….
  10. balkishan
    एक अच्छी और स्वस्थ बहस का मुद्दा दिया आपने. वाकई इस अनंत संभावनाओं के द्वार पर कई विचारनीय प्रश्न भी है.
    अखिलेश जी का इंतजार है.
  11. Sanjeet Tripathi
    खूब!
    तद्भव पर यदा-कदा नज़र पड़ते रहती है।
    शुक्रिया।
  12. समीर लाल
    अच्छा लगा आप का मेल मिलाप अखिलेश जी से. लिंक इत्यादि दे दिये हैं तो काफी संभावना है, आते ही होंगे कुछ समय में.
    बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी?? यही बात शायद ज्यादा जिम्मेदारी का अहसास कराती है यदि व्यक्ति विवेक एवं संवेदनायें जिन्दा हों तो अन्यथा तो बेवजह सड़क पर खड़े होकर गाली गलोच करते लोग भी दिख ही जाते हैं. उन पर ध्यान थोड़ी न दिया जाता है. विवेक एवं स्व-अनुशासन ही समाज को सही दिशा देता है.
    कहानी के अंश बढ़िया प्रस्तुत किये हैं आपने. आभार.
  13. anitakumar
    एक अच्छे लेखक से परिचय कराने के लिए धन्यवाद, ब्लोग जगत में उनके आने का इंतजार रहेगा। ब्लोग आत्मप्रचार का जरिया है इस पर बहस रोचक रहेगी,
  14. प्रतीक पाण्डे
    अखिलेश जी से मिलवाने का शुक्रिया!
  15. Ghost Buster
    अभी बहुत कुछ जानना सीखना बाकी है हमारे लिए तो. ऐसी पोस्ट और कहीं नहीं दिख सकती. आपके स्कूल में दाखिले की कोई सम्भावना है क्या?
  16. bhuvnesh
    अखिलेशजी के बारे में जानकर अच्‍छा लगा.
    आपकी दी हुई लिंक्‍स पर कुछ नहीं मिला…..
  17. आप लोगों की कलम से 001 | सारथी
    [...] ***** अखिलेश जी का मानना था कि ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं। किसी को कुछ भी लिखने की छूट होने के कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी लिख देगा और दुनिया इसे चटकारे ले-लेकर पढ़ेगी। उदाहरण देते हुये उन्होंने कहा- मान लीजिये किसी प्रसिद्ध साहित्यकार के बारे में कोई घटिया बात लिख कर मेरी किताब में छापने को देता है तो पहले तो मैं इसका सत्यता जांचने का प्रयास करूंगा और उस साहित्यकार से जानकारी करूंगा तब इस बारे में कोई निर्णय करूंगा। लेकिन ब्लाग अभिव्यक्ति का छुट्टा माध्यम होने के नाते लेखक को बेलगाम छोड़ देता है। यह बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी है। [ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं] [...]
  18. Anonymous
    ,इस पर अखिलेश जी का कहना था- मुझे ब्लागिंग आत्मप्रचार का जरिया सा लगता है। आप अपनी तस्वीर लगा रहे हैं, अपने बारे में लिख रहे हैं, अपनी तारीफ़ कर रहे हैं। ब्लागिंग का यह रूप मुझे खटकता है। मेरा मन:स्थिति ऐसी है आत्मप्रचार मुझे घटिया चीज लगती है। अब समझ मे आया इसीलिये सबकी प्रोफ़ाईल खाली रहती है, इसी लिये सब अपनी प्रोफ़ाईल अजीत जी से लिखवाकर रख रहे है :)
  19. आलोक
    दो वाक्यों में आपके लेख का सारांश -
    अखिलेश जी मना करते रहे पर आप डटे रहे।
    उम्मीद है कि आपकी मेहनत सफल होगी।
    बढ़िया है।
    आत्मप्रचार से घृणा क्यों? अच्छे लोग आत्मप्रचार नहीं करेंगे तो बुरे लोग सफल हो जाएँगे।
  20. अन्य होंगे चरण हारे
    [...] हम लखनऊ गये थे तो श्रीलालशुक्ल जी और अखिलेशजी के अलावा कंचन और टंडनजी से भी मिले थे। [...]
  21. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] [...]