Thursday, October 31, 2019

उपन्यास क्यों नहीं लिखे जा रहे- श्रीलाल शुक्ल



[हिन्दी साहित्य, उसमें भी विशेषकर उपन्यास-लेखन की दुर्दशा पर यह टिप्पणी श्रीलाल जी ने आज से पंद्रह वर्ष पहले, सन् 1992 में लिखी थी. इससे अलग कि शुक्ल जी के तंज ने मेरा उपन्यास लिखने का इरादा और मजबूत कर दिया है, अपनी सजीली-भीगीली शैली में श्रीलाल जी हिन्दी साहित्यिकता का जो लेखा-जोखा रखते हैं, वह तब आंख खोलनेवाला रहा होगा तो अब भी आंखें ही खुलवाता है. कुछ लोग चाहें तो मुंह भी खोल सकते हैं. खुले बाज़ार ने समाज में पैसे की उपस्थिति भले पहले की बनिस्बत अब ज़्यादा बढ़ा दी हो, हिन्दी साहित्य का परिदृश्य विशेष नहीं बदला है. घटिया ही हुआ है. पढ़ लीजिए, अन्दाज़ा पा जाइएगा.] -- Pramod Singh
1992 में हिन्दी साहित्य का जो लेखा-जोखा अख़बारों में छपा है, उसे पढ़कर मुझे भी श्री राजेंद्र यादववाली चिन्ता सताने लगी है: कि लोग जमकर लिख क्यों नहीं रहे हैं. पर साधन, सक्रियता, अनर्गल उत्साह की कमी के कारण मैं उनकी तरह इस विषय पर सेमिनार नहीं करा रहा हूं, सिर्फ़ यह टिप्पणी लिख रहा हूं.
कुछ विधाओं के बारे में कोई झमेला नहीं है. जैसे कविता. वह जाती है, वापस आ जाती है. बारह साल पहले उसे अशोक वाजपेयी ने आते देखा था. फिर उसे जाते किसी ने नहीं देखा. दरअसल, कुछ ऋतुकालों को छोड़कर, वह गई नहीं है. वह लीलाधर जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, कुमार अम्बुज, विनोदकुमार शुक्ल आदि के पास पहुंचती रही है. नागार्जुन, त्रिलोचन आदि अब वयोवृद्ध हो गए हैं. वे शायद उसे बुलाते ही नहीं; प्रौढ़ता को लांघ रहे केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण के पास खुलेआम जाते वह हिचकती है. अशोक वाजपेयी के साथ वह ज़रूर इतना टिकी रही है कि वे दो साल में एक संग्रह निकाल दें. बहरहाल, कविताजी मज़े में हैं.
दर्जनों लोग जो नई-नई ड्रेसें ला रहे हैं, उनसे कहानी की वार्डरोब पटी पड़ी है. लघु पत्रिकाओं की शक्ल में कई वार्डरोबें तो ऐसे-ऐसे क़स्बों में रखी हैं कि उनका नाम देखने को नक़्शे पर मैग्नीफाइंग ग्लास लगाना पड़ता है. एक से एक उकसानेवाला माल है: ये डिज़ाइन की साड़ियां हैं, यह रहा ‘एथनिक’ माल. दो-चार थीमों की ऐसी रगड़ाई हुई है कि कहानीजी जवानी में ही बूढ़ी दिखती हैं. पर वे बहुत ख़ुश हैं; उनका चेहरा ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं है, वे इस बात पर भी ख़ुश हैं.
नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं. अच्छा है. ज़्यादा लिखे जाने लगे तो हम यह वेदवाक्य कैसे कह पाएंगे कि ‘हिन्दी में मौलिक नाटकों का नितान्त अभाव है.’
यात्रा-वृतान्त? वह हिन्दी में कैसे लिखा जा सकता है? नई-नई जगहों पर यात्रा करने के लिए जिनके पास पैसा है, उनमें यात्रा-वृतान्त लिखने की तमीज़ नहीं है. जिनके पास तमीज़ है, उनके पास पैसा नहीं.
जीवन, आत्मकथा, संस्मरण- ये सब कहानी की ही शाखा-प्रशाखा हैं. अगर कहानी समृद्ध है तो इन्हें भी समृद्ध मान लीजिए और कहानी में जीवनी-संस्मरण और जीवनी-संस्मरण में कहानी खोजने की बराबर कोशिश करते रहिए. मिल जाएगी.
रही आलोचना. उसकी फ़िक्र छोड़िए. इसकी ज़रूरत सिर्फ़ विद्यार्थियों को इम्तहान पास कराने के लिए होती है. जितनी ज़रूरी होती है, उससे सौ गुना ज़्यादा आलोचना व्याख्याओं, कुंजियों आदि की राह से उनके पास पहुंचती रहती है. पर आप शायद ऐसी आलोचना के बारे में सोच रहे हैं जिसकी ज़रूरत कवियों, कथाकारों- यानी सर्जनात्मक रचनाकारों को है. पर हिन्दी में रचनाकार नहीं होते, साधक होते हैं, साहित्य-साधक. वे वाद-विवाद में नहीं फंसते.
अन्त में उपन्यास. ‘अन्त में’ इसलिए कि मैं उसी के लिए चिन्तित हूं.
1992 में उपन्यास दो-चार ही आए- रानू-शानू के करिश्मों को भूल जाइए. मेरा मतलब असली उपन्यासों से है. यहां सचमुच ही ‘उपन्यास-साहित्य में सन्नाटा’ पर एक ऐसे सेमिनार की ज़रूरत है जो पूरे साल-भर चले. उसका एजेंडा कुल इतना हो कि सहयोगी उपन्यासकार अपनी-अपनी कोठरियों में बन्द रहें, सिर्फ़ शाम को आधा घंटा कसरत करने के लिए आंगन में निकलें- कारागार में नेहरू-स्टाइल. सौ उपन्यासकारों का यह सेमिनार- जिसमें उपन्यासकार के दोनों वक़्त का खाना, एक कोठरी, कुछ सिगरेट, थोड़ी स्मगिल्ड शराब की गारंटी हो- साल-भर में कम-से-कम सौ उपन्यास आपके हाथ में पकड़ा देगा. यह दीगर बात है कि सब उपन्यासों का एक ही शीर्षक हो: ‘जेल में एक वर्ष’.
लोग ज़्यादा उपन्यास क्यों नहीं लिखते? इसके जवाब में पूरा-का-पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है. सच पूछिए तो लिखा गया है. यक़ीन न हो तो अमृतलाल नागर का लगभग छ: सौ पृष्ठों का ‘अमृत और विष्’ पढ़िए. इसीलिए इस प्रश्न पर यहां मैं और कुछ नहीं, सिर्फ़ दो बातें कहूंगा.
एक तो यह कि कविता या कहानी आप सवेरे की सैर में बना सकते हैं और फिर उसे, अपनी तन्दुरुस्ती के हिसाब से, नाश्ते के पहले या बाद में लिख सकते हैं. दो-तीन नाश्तों के आगे-पीछे वह पूरी हो जाएगी. उसके छपने पर आपकी क़िस्मत- यानी आलोचक मंडली- ठीक हुई तो आप उतनी ही ख्याति पा लेंगे जितनी कि एक उपन्यास लिखकर, बशर्ते कि वहां भी आपकी क़िस्मत वैसी ही ठीक हो. याद करें ‘प्रेम पत्र’ या ‘ऐ लड़की’.
पर उपन्यास सवेरे की सैर में नहीं लिखा जा सकता. यह एक पूर्णकालिक धन्धा है. प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा (जो वस्तुत: वकालत का धन्धा छोड़ चुके थे), भगवतीचरण वर्मा (जिन्होंने वस्तुत: वकालत का धन्धा कभी शुरू ही नहीं किया), इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, यशपाल- सभी पूर्णकालिक उपन्यासकार थे. जयशंकर प्रसाद, सियारामशरण गुप्त, निराला- ये सब पूर्णकालिक कवि थे पर इनके पास इतना समय व बची-खुची कल्पना थी कि उपन्यास भी लिखें. इन सबके न रहने पर उपन्यास का बाज़ार ठंडा हो गया है. अब वह कारोबार दूसरे हाथों में चला गया है. वे, यानी कुछ सरकारी नौकर, अध्यापक, बूढ़े पेंशनर, पत्रकार, राजनीतिक धन्धेबाज़, व्यवसायी या व्यवसाय प्रबन्धक, जो उपन्यास-लेखन को स्विमिंग पूल में रविवासरीय गोताख़ोरी या क्लब में सायंकालीन बिलियर्ड जैसा मानकर चलते हैं, उस युग को वापस नहीं ला सकते जो प्रेमचन्द आदि ने सृजित किया था.
दूसरी बात यह कि उपन्यास-लेखन घाटे का धन्धा है. मेरे मित्र स्व. ज्ञानस्वरूप भटनागर कानपुर में- लगभग बाईस साल पहले ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के संवाददाता थे. साल में कुछ सामाजिक-आर्थिक अध्ययन छपा करके वह काफ़ी रुपया कमा लेते थे. बदक़िस्मती से मेरी देखा-देखी उन्होंने टेस्ट क्रिकेट की अन्दरूनी दुनिया पर ‘और खेल अधूरा रह गया’ नामक उपन्यास लिखना शुरू किया. डेढ़ साल लगे. फिर बड़ी कोशिशों के बाद जवाहर चौधरी की कृपा से उसे ‘शब्दकार’ ने छापा. उन डेढ़ सालों की निरर्थकता ने भटनागर को तीन साल ग़रीबी में डुबोए रखा. बार-बार वे मुझसे यही पूछते रहे, ‘उपन्यास से कुल इतना मिलता है? तब भी आप नया उपन्यास लिख रहे हैं?’
मैंने भी तीन साल मेहनत करके, लगभग बाईस सौ पन्ने रंगकर लगभग तीन सौ पृष्ठ का एक उपन्यास तैयार किया. एक व्यवसाय-प्रबन्धक मित्र के भड़काने पर पांडुलिपि प्रकाशक को देते समय मैंने, पचास हज़ार की हिम्मत न होने के कारण सिर्फ़ बीस हज़ार रुपये का अग्रिम मांगा. वह मुझे मिल भी गया. दो-तीन महीने बाद दूसरी पुस्तकों की रायल्टी का जो विवरण आया, उसमें यह रक़म काट ली गई थी. नए उपन्यास का अग्रिम, बस: ख़्वाब था जो कुछ था देखा, जो सुना अफ़साना था.
तभी अगर कोई समझदार आदमी नासमझी की झोंक में एक उपन्यास लिख भी डालता है तो वह उसका पहला और अन्तिम उपन्यास होता है. इस स्थिति का सर्वेक्षण कराके मित्र राजेंद्र यादव चाहें तो एक नया सेमिनार करा सकते हैं.
साभार: '1992 का साहित्य: कुछ आंसू, कुछ हिचकियां'; जहालत के पचास साल, श्रीलाल शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, 2004.
बजरिये Pramod Singh बरस्ते

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Tuesday, October 29, 2019

ठेले पर शौचालय



कल बहुत दिन बाद टहलना हुआ। सड़कें दुकानों से निकले त्योहारी कचरे से गुलजार थीं। खा-पीकर लोगों ने पत्तल-दोने सड़क पर फ़ेंक दिये थे। 'मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं' वाले अंदाज में।

एक घर के बाहर नाली के किनारे कुछ दिये गुमसुम से धरे थे। रात जो अंधेरे के खिलाफ़ बहादुरी से लड़े वे उजाले में उपक्षित से नाली के किनारे चुपचाप बैठे थे। मार्गदर्शक मण्डल के बुजुर्गों की तरह। क्या पता आपस में बीती रात के अपने पराक्रम की कहानी साझा कर रहे हों। अतीत के किस्सों की जुगाली बुजुर्गों की लाइफ़लाइन होती है।
गंगा दर्शन के लिये जाते हुये सुलभ शौचालय के पास एक गाड़ी पर रेडीमेड शौचालय लदा दिखा। धर्मवीर भारती जी की नकल करके लिखें तो कहेंगे - 'ठेले पर शौचालय'। ’रेडी टु फ़िक्स’ मोड में। गड्डा खोदकर चालू हो जाये ऐसा शौचालय। पानी की टंकी साथ में। देश भर में शौचालय बनवाने के लिए इसी तरह फटाफट काम हो रहा होगा।
सड़क किनारे मूंगफ़ली की दुकाने गुलजार थीं। आग जलाकर मूंगफ़ली भूंजी जा रही थीं। जगह-जगह बच्चियां, महिलायें दुकानों के सामने बैठी गप्पाष्टक में जुटी थीं।

गुप्ताजी अपने ठीहे के बाहर बैठे दिखे। आंख में चश्मा लग गया था। खुश दिखे चश्मे के साथ। बोले - ’ अब नजर साफ़ हो गयी है। लेकिन लगता है कि पहले लगवा लेना चाहिये चश्मा। पहले लगता तो अच्छा रहता।’
हमने कहा - ’हमने तो पहले ही कहा था कि लगवा लो।’
कित्ते का बना चश्मा ? -हमने पूछा।
250/- लग गये। 300/- रुपये मांग रहा था। लेकिन हमें 250/- दिये। अब दूसरी आंख का आपरेशन होना है। जाड़े में करवायेंगे।
लड़के के बारे में बताया कि अभी तक तिरपाल बेंच रहा था। अब वो भी डाउन हो गया। अब कोई दूसरा काम करेगा। नहीं कुछ तो ककड़ी -खीरा बेंचेगा। इसके बाद ककड़ी -खीरा की बोआई के बारे में बात हुई। अंत में गुप्ता जी बोले - ’गंगा का पानी तो अमृत है।’ उनकी बात मानने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं था।

पुल की शुरुआत में तमाम मूर्तियां दिखीं। कल जो पूजी जा रहीं थीं वे आज उपेक्षित पड़ी थीं। गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां बहुतायत में। इससे यही सीख ग्रहण की गई कि किसी भी पूजे जाने वाले इंसान की अंतिम नियति कूड़े में फेंके जाना ही होती है। पुजने और फिकने में बस समय का ही अंतर होता है। इसलिए इंसान पुजने से बच सकें तो बेहतर।
आगे गंगा किनारे लोग स्नान-ध्यान-पूजा-पाठ में लगे थे। नदी किनारे कीचड़ पसरा था। एक आदमी ने गंगा किनारे अपनी पोटली धरी। बालू को प्रणाम किया। इसके बाद पानी में धंस गया। दस फ़ुट आगे जाकर नाक बंदकर पानी में डुबकी लगाई । इसके बाद निकल आया बाहर। कपड़े बदलकर निकल लिया शहर की ओर।
उसी जगह एक सुअर, एक कुत्ता और एक आदमी एक साथ दिखे। तीनों को एक साथ देखकर लगा मानों जननायक, माफ़िया और भ्रष्ट लोगों से गठबंधन करके किसी परिपक्वव लोकतंत्र में सरकार बनाने का दावा पेश करने जा रहे हों।

गंगा की रेती में ही कुछ बच्चे गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। डंडे के मुकाबले गुल्ली बहुत टुइयां सी दिखी। ऐसे जैसे किसी सतफ़ुटा मनई से कोई नटुल्ली ब्याह गयी हो। बच्चे ने गुल्ली को डंडे से मारा तो गुल्ली सात फ़ुट उछली। लड़के ने पूरा घूमकर हाथ घुमाया। लेकिन निशाना चूक गया। गुल्ली लद्द से बालू में गिरी आकर। बच्चे ने डंडा हाथ से नीचे फ़ेंक दिया।
दूसरे बच्चे ने निशाना लगाया। गुल्ली उछली। उसने टन्न से मारा। गुल्ली ऊपर आसमान में उछलती हुई आगे बढी। नीचे आने को हुई तो उस पर पद्दी करने वाले बच्चे की निगाह जमी हुई थी। जैसे 1983 के विश्वकप में कपिल देव की निगाह रिचर्ड्स की शाट पर जमी होंगी। गुल्ली नीचे गिरने से पहले उसने उसे भागते हुये लपक लिया। थोड़ा हल्ला मचा। डंडे वाला लड़का आउट हो गया। डंडा फ़ेंककर चल दिया।

सूरज भाई दिन भर की ड्यूटी के बाद अब विदा ले रहे थे। गंगा की लहरों में उनकी छवि मनोहारी टाइप लगी। बहुत दिन बाद सूरज भाई को नदी में विसर्जित होते देख रहे थे। इसलिये शायद और क्यूट दिखे। लाल-लाल एकदम। लेकिन उनकी फ़ोटो ली तो उनकी लालिमा पीलेपन में बदल गयी थी।
कैमरा भी एकदम मीडिया टाइप हो गया है। होता कुछ है, दिखाता कुछ है। हमको समझ में नहीं आया कि बिकाऊ मीडिया की तर्ज पर अपने कैमरे को क्या कहें? - टिकाऊ कहें कि दिखाऊ ? दोनों से अच्छा तो भरमाऊ कहें। भरमाता बहुत है कैमरा। खराब चीजों को भी अच्छा दिखाता है। अच्छे का रंग बदल देता है।
आगे शुक्लागंज में सड़क पर सिपाही गस्त लगाते दिखे। दो लड़के मोटरसाइकिल से सड़क पर नागिन डांस सा करते हुये निकले। दरोगा जी को यह हरकत नागवार गुजरी। वे पैदल थे। उन्होंने उन बाइकर्स का पीछा करके पकड़ने के इरादे से सवारियों का मुआइना करना शुरु किया। एक कार देखी, उसे जाने दिया। इसके बाद अपन की साइकिल थी। हमारा जी मुंह को आने को हुआ कि कहीं हमारे कैरियर पर बैठकर वो बाइकर्स का पीछा करने का मन न बना लें। लेकिन उन्होंने मेरी साइकिल को बक्स दिया। मैंने वहीं अपनी साइकिल पर बैठकर तय किया कि पुलिस के लोग भी संवेदनशील होने के साथ-साथ समझदार भी होते हैं।

इसके बाद दरोगा जी ने एक मोटरसाइकिल को रोका। उसकी पिछली सीट पर बैठकर उन बाइकर्स का पीछा करने के लिये निकल लिये। उनके साथ के सिपाही इस अभियान से निर्लिप्त से वहीं सड़कपर कदमताल करते खड़े रहे।
इसी बीच एक महिला हल्ला मचाती वहां दिखी। पता चला महिला का बच्चा कोई छीनकर भाग गया था। नंगे पैर, मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठी महिला लगातार रोती हुई बता रही थी कि अभी-अभी उसका बच्चा छीनकर भाग गया।
हमको लगा कि बताओ अभी तक चेन, पर्स छिनने की सुनते थे। अब यहां बच्चे भी छीनकर भागने लगे लोग। फ़िरौती या दुश्मनी के लिये बच्चों का अपहरण भी होने लगा।
लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि बच्चा लेकर भागने वाला व्यक्ति महिला का पति था। महिला दिल्ली की रहने वाली है। शुक्लागंज में उसकी ससुराल है। कुछ आपस का झगड़ा होगा। पति से पटती नहीं होगी। समझौते के लिये ससुराल आई थी , शुक्लागंज। दोनों साथ जा रहे थे। शुक्लागंज में महिला को धकियाकर उसके हाथ से बच्चा छीनकर उसका पति भाग गया।

किस्सा अपराधिक गतिविधि से मियां-बीबी के झगड़े की तरफ़ मुड गया। लोगों ने सहज होकर अपनी राय दी-’ आ जायेगा। कहीं जायेगा नहीं बच्चा।’ लेकिन बहदवास महिला को इस राय से चैन नहीं आया। उसकी बेकली बढती जा रही थी। पुलिस वाले उसको थाने की तरफ़ ले गये।
एक आदमी ने सामने खुले और गुलजार से दिख रहे दारू के ठेके को गरियाते हुये सारे दोष का ठीकरा उसके ऊपर फ़ोड़ दिया। पुलिस वालों ने बाकी भीड़ को भी इधर-उधर कर दिया।
लौटते समय एक झोपड़ी के सामने कुछ बच्चे अंधेरे में मोमबत्ती जलाते दिखे। मन किया ठहरकर उनकी फ़ोटो खैंच लें। लेकिन उनको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं हुई।
गंगा पुल से गुजरते हुये देखा गंगा जी अंधेरे की चादर ओढकर सब दिशाओं को गुडनाइट करके सो गयीं थीं।

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व्यंग्य यात्रा के बहाने



कल व्यंग्य यात्रा का साठवां अंक मिला। दो प्रतियां। दो अंक ही भेजवाते हैं प्रेम जनमेजय जी । जब से भेजना शुरु किया तब से ही। शायद सुरक्षा कारणों से ऐसा करते हों। ’व्यंग्य यात्रा’ की अकेली प्रति जाने से मना करती हों। डर लगता होगा। पाठकों से, व्यंग्यकारों से। दो प्रतियां साथ रहेंगी तो सुरक्षा रहेगी।
व्यंग्य यात्रा के प्रख्यात व्यंग्यकारों पर केंद्रित अंक फ़िर-फ़िर पढने योग्य हैं। लेकिन लफ़ड़ा यह कि ऐन मौके पर पत्रिका दायें-बायें हो जाती है। छपाई-प्रूफ़ के लिहाज से व्यंग्य यात्रा चकाचक पत्रिका है। विभिन्न स्तम्भों के हिसाब से रचनायें अलग-अलग मिजाज की।
पाथेय की इस बार की रचनाओं में परसाईजी की -एक मध्यमवर्गीय कुत्ता और मनोहरश्याम जोशी की ’इस देश का यारों क्या कहना’ उनकी प्रसिद्द रचनायें हैं।
चिंतन में व्यंग्य पर केंद्रित कई लेख हैं। व्यंग्य पर इतनी बातचीत पढते हुये पाठक अगर सावधान न रहे तो रहे तो सही में उसके व्यंग्य विशेषज्ञ होने का खतरा है। अपने भाई एम.एम.चन्द्रा जी एम.एम. चन्द्रा तो इतने हुनरमंद व्यंग्य विशेषज्ञ हैं कि व्हाट्सएप पर बतकही को भी अपने चिंतन में शामिल कर लेते हैं।
त्रिकोणीय व्यंग्य यात्रा का बहुत अच्छा प्रयोग है। इसके माध्यम से व्यंग्ययात्रा के संपादक नये -पुराने-भूले-बिसरे-स्थापित-अस्थापित व्यंग्यकारों से परिचय कराते रहते हैं। इस बार जिन तीन व्यंग्यकारों का परिचय कराया व्यंग्य यात्रा वे हैं अरविन्द विद्रोही , मधुसूदन पाटिल और कुंदनसिंह परिहार। पत्रिका में इनका परिचय , रचनायें और उनके साक्षात्कार भी हैं। इन रचनाकारों के बारे में पढकर अच्छा लगा।
गद्य और पद्यव्यंग्य में कई जानने वाले साथियों के व्यंग्य हैं। उनको आहिस्ते-आहिस्ते बांचेंगे। इधर पढी जाने वाली किताबों में अन्य किताबों के अलावा संतोष त्रिवेदी की किताब ’ नकटों के शहर में’ के बारे में कुछ लिखा गया है। आखिरी पैरा सलाह है- " संतोष को हिन्दी व्यंग्य के हित के लिये अपना आलस्य त्यागना होगा और विषयों की विविधता पर भी नजर डालनी होगी।"
लिखा तो आगे भी कुछ और है लेकिन वो हम न बतायेंगे। आप लोग खुदै बांचियेगा अगर किताब मिली हो। अब लेकिन मसला यह है कि मास्टर साहब अपना आलस्य त्यागेंगे क्या? हिन्दी व्यंग्य का हित क्या होकर ही रहेगा?
व्यग्य यात्रा के प्रधान संपादक प्रेम जन्मेजय जी हैं। यह वाकई काबिलेतारीफ़ बात है कि वे लगातार यात्राओं, समारोहों, आयोजनों, गोष्ठियों, महोत्सवों के बावजूद यह पत्रिका पिछले 15 वर्षों से निकाल रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के प्रधान संपादक होने के चलते उनका हक है कि वे अपने हिसाब से इसमें रचनायें छापें। वे इसका भरपूर उपयोग भी करते हैं। व्यंग्य के साथ अपने से जुड़ी खबरों को विस्तार से स्थान देने में कोई कन्जूसी नहीं करते।
लेकिन इस चक्कर में कभी-कभी कुछ मजेदार रचनायें भी छप जाती हैं। इसी अंक में एक छपी एक रचना का शीर्षक है -" जो काम परसाई ने नहीं किया वह प्रेम जन्मेजय ने किया"। इसमें कुल्लू में व्यंग्य महोत्सव की रपट छपी है। इस रपट में बताया गया है कि " व्यंग्य शिविरों का आयोजन कर जो काम प्रेम जन्मेजय ने किया वह परसाई ने नहीं किया।"
इस शीर्षक को और फ़िर रपट को पढकर मुझे हंसी आई। कवि यहां कहना क्या चाहता है यह समझ नहीं आया ! परसाई जी व्यंग्य शिविर नहीं आयोजित कर पाये प्रेम जी कर रहे हैं?
इस तरह की रपट लिखी जाती हैं। मुग्ध भाव से अकेले में पढी भी जा सकती हैं लेकिन ऐसे शीर्षक पढकर हंसी ही आती है। परसाई जी 2000 के दशक में विदा हो गये। तब फ़ेसबुक नहीं था। ब्लाग नहीं था। आज सोशल मीडिया पर लिखने वाला हर लेखक कह सकता है-" जो काम परसाई ने नहीं किया वह हमने किया।"
ऐसा शायद अति व्यस्तता के चलते भी हुआ हो लेकिन इस तरह के शीर्षक सनसनीखेज समाचार की तरह ही लगते हैं ।
यह टिप्पणी व्यंग्य यात्रा के अंक को उलट-पलटकर देखते हुये ही। इसके लिये उकसाया Arvind Tiwariअरविन्द तिवारी जी की आज की व्यंग्य यात्रा पर लिखी टिप्पणी ने। उसका लिंक नीचे। इसी बहाने आज व्यंग्य यात्रा का चन्दा भी भेजा गया और मुफ़्त में पत्रिका पढने के अपराध बोध से मुक्ति भी।

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Monday, October 28, 2019

ठेलिया पर दिए, हाथ में अधखाई मिठाई

 

तमाम और बच्चों की तरह यह बच्ची भी दीपावली के मौके पर दिए, खिलौने बेचती दिखी। ठेलिया पर दिए खिलौने। हाथ में मिठाई । हाथ की मिठाई को टुकड़ा-टुकड़ाकर , आहिस्ता-आहिस्ता खाती जा रही थी। किसी गरीब की पूंजी की तरह मिठाई धीरे-धीरे खत्म होती जा रही थी। बच्ची के मन में शायद डर होगा कि कहीं मिठाई खत्म न हो जाये।
उसके साथ खड़े , शायद उसके परिवार के ही सदस्य का मन भी मिठाई खाने को ललक उठा। उसने बच्ची से मिठाई मांगी। बच्ची ने कुछ देर बाद अधखाई मिठाई उसे दे भी दी।
जिस जगह यह बच्ची अपनी ठेलिया और अधखाई मिठाई के साथ दिखी वह जगह बिरहाना रोड है। यहां शहर के सबसे नामी-गिरामी ज्वैलर्स के शो रूम हैं। करोड़ो का सोना बिका होगा कल यहां।

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Sunday, October 20, 2019

हिजली बंदी ग्रह एक बेहतरीन राष्ट्रीय स्मारक



खड़गपुर आईआईटी में सुबह डॉ. राजीव रावत के साथ टहलने निकले। उनके झोले में चाय का थरमस और कप थे। संगत के लिये बिस्कुट भी। खड़गपुर का विशाल परिसर कार में टहलते हुये देखा। फ़िर एक जगह उतर कर फ़ुटपाथ पर चाय की अड्डेबाजी हुई। सामने सूरज भाई चहकते हुये दिखे। उनको भी चाय आफ़र की गयी। वे खुश होकर और चमकने लगे।

रास्ते में वहां के सुरक्षा अधिकारी भी मिल गये। बताया उन्होंने कि लगभग 500 सुरक्षाकर्मी हैं यहां। उनके साथ एक चक्कर पैदल भी मारा गया। रास्ते में बादाम के पेड़ एक लाइन में अनुशासनबद्ध तरीके से खड़े थे। केले, चाय, काफ़ी, धान और न जाने किसकिस रकम के खेत दिखे। 2000 एकड़ जमीन में पसरा है आईआईटी खड़गपुर। यहां की आईआईटी में अकेली आईआईटी है जहां कृषि भी पढाई जाती है।
रास्ते में सड़क पर दो गिलहरियां आपस में मस्तियाती दिखीं। गले मिलकर हंसती, खिलखिलाती। एक दूसरे को गुदगुदाती। कबड्डी टाइप खेलतीं। एक न शायद दूसरी कोई कोई चुटकुला भी सुनाया हो क्योंकि वह कुछ देर तक सड़क पर लोटपोट होती रही।
वापस आते हुये हिजली बंदी गृह देखने गये। आजादी की लड़ाई के दौरान क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों को जेलों में भेजा गया। एक समय ऐसा आया कि जेलों में जगह नहीं बची। तब अंग्रेजों ने कैदियों को जेलों के अलावा दूसरे बंदीगृहों में रखा । पहला बंदी गृह बक्सा किले में बना। दूसरा बंदी गृह हिजली में सन् 1930 में बना। हिजली साम्राज्य का एक हिस्सा थी यह जगह।
1931 में हिजली में 16 सितम्बर, 1931 को एक महत्वपूर्ण घटना घटी। बंदीगृह में मौजूद दो निहत्थे बंदी संतोष कुमार मित्रा और तारकेश्वर सेन गुप्ता अंग्रेज पुलिस द्वारा गोली से उड़ा दिये गये। सुभाष चन्द्र बोस गोलीबारी में मारे गये बंदियों के शव लेने हिजली आये। तमाम नेताओं ने , जिनमें रवीन्द्रनाथ टैगोर भी शामिल थे, ने इस घटना की निन्दा की। ’हिजली गोलीबारी’ जेल/बंदीगृह में पुलिस फ़ायरिंग की पहली घटना थी।
बंदीगृह 1937 में बंद कर दिया गया। 1940 में फ़िर खोला गया। 1942 में यह अंतिम रूप से बंद कर दिया गया। बंदी लोग दूसरी जगह भेज दिये गये। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यहां पर अमेरिकी की २०वीं वायुसेना कमान का मुख्यालय भी रहा।हिजली में खड़ा एक जहाज शायद उसी समय का है।
सन 1946 में बने उच्च तकनीकी शिक्षा आयोग ने यह सिफारिश की कि अमेरिका के मेसाट्यूट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी की तर्ज पर भारत में भी तकनीकी संस्थान स्थापित किये जायें। उन दिनों भारत के अधिकांश उद्योग कलकत्ता में थे इसलिये पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से अनुरोध किया कि पहले तकनीकी संस्थान की स्थापना कलकत्ता में ही की जाये। परिणाम स्वरूप मई,1950 में कलकत्ता में पूर्वी उच्च तकनीकी संस्थान की स्थापना हुई। बाद में जून, 1950 में इस तकनीकी संस्थान को कलकत्ता से 120 किमी दूर खड़गपुर के हिजली नामक एतिहासिक स्थान में स्थानान्तरित किया गया।
1951 में जब खड़गपुर आईआईटी की स्थापना हुई तो शुरुआत इसी कैंप से हुई। बंदीगृह के एक-एक कमरे में एक-एक विभाग चालू हुये। आज पूरे परिसर में पसरे हैं। 1990 में बंदीगृह के एक हिस्से को ’नेहरू विज्ञान एवं तकनीकी म्यूजियम’ में बदल दिया गया। हिजली बंदीगृह अब शहीद भवन के नाम से जाना जाता है।
सन 1956 में खड़गपुर तकनीकी संस्थान के संस्थान के दीक्षांत समारोह में अपने उद्गार व्यक्त करते हुये भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा:-
“ऐतिहासिक हिजली बंदी ग्रह जो भारत के बेहतरीन स्मारकों में से एक है अब भारत के नये भविष्य के रूप में बदल रहा है। यह चित्र मुझे उन परिवर्तनों का आभास कराता है जो कि भारत में हो रहे हैं।“
इस बंदीगृह के परिसर में 16 सन 1931 को सितम्बर को पुलिस की गोलीबारी में मारे गये शहीद संतोष कुमार मित्रा और तारकेश्वर सेन गुप्ता की स्मृति में कार्यक्रम होते हैं। उनके परिवारों , परिचितों के परिजन आते हैं। कम से कम यहां “शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले” पर अमल होता है।
शहीद भवन के बाहर बैरकें बनी हैं जहां कभी बंदी रखे जाते होंगे। बड़ी सरिया में लगा हुआ ताला इतनी दूर कि किसी बंदी के हाथ बढाकर खोलने की संभावना शून्य।
वहीं एक रेलगाड़ी भी दिखी। बुजुर्गा रेलगाड़ी के आगे सिग्नल भी दिखा। लेकिन बूढा गाड़ी थककर वहीं खड़ी हैं। कोयला खत्म , पानी गोल, खत्म हो गया इंजन का खेल।
शहीद भवन से होते हुये मुख्य इमारत आये। वहां पहले मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय, जिनके आह्वान पर यह आई.आई.टी. बना है, की प्रतिमा लगी है।
लौटते हुये चयास लगी। एक जगह बैठकर चाय पी गयी। इसके बाद वापस आ गये गेस्ट हाउस। कार्यक्रम के लिये तैयार भी होना था।

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Friday, October 18, 2019

खड़गपुर आईआईटी में 36 साल बाद

 

कल आईआईटी खड़गपुर पहुंचे। राजभाषा विभाग में एक कार्यक्रम के सिलसिले में। आना तो आलोक पुराणिक जी को भी था लेकिन पता नहीं कैसे उनके दिमाग से इस आयोजन की तारीख फिसल गई। उन्होंने अपने विद्यालय में एक कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई। उसका जिम्मा भी उनके ही सर माथे आया। लिहाजा उनकी टिकट कैंसिल करवानी पड़ी।

इस बुलउवे के सूत्रधार डॉ राजीव रावत यहां राजभाषा अधिकारी हैं। पहले वे फील्ड गन फैक्टरी में राजभाषा विभाग में थे। 2009 में वहां से यहां आए। उसी परिचय के सिलसिले से यहां आना हुआ।
आईआईटी खड़गपुर की यह मेरी दूसरी यात्रा है। पहली बार 36 साल पहले साइकिल से आये थे। राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित यह देश की पहली आईआईटी थी। 1951 में स्थापना हुई।
दिन में राजभाषा विभाग का काम काज देख रहे डॉ अशोक मिश्र जी से मुलाकात हुई। बांदा जिले के रहने वाले डॉ अशोक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं। इस लिहाज से एक ही गुरुकुल के विद्यार्थी हुए हम लोग।
शाम को इंस्टिट्यूट के कुछ छात्रों से बातचीत मुलाकात हुई। छात्रों के यहां दो समूह हैं । एक टेक्निकल लिटरेरी सोसाइटी (TLS), दूसरा आवाज (AWAAZ)। दोनों में क़रीब 100-100 सदस्य हैं। TLS में बंद समूह में साहित्य गतिविधियां चलती हैं। आवाज का फेसबुक पेज है। इसमें परिसर में हो रही गतिविधियों की जानकारी रहती है। छात्रों
के प्लेसमेंट , स्थानीय लोगों से जुड़ी घटनाओं की सूचनाओं के अलावा आवाज के पेज पर एक दिन मेस के खाने में छिपकली पाए जाने की खबर भी दिखी।
महफिल जब जुड़ी तो कुछ बातचीत भी हुई। देश के अलग-अलग हिस्सों से आये बच्चों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। दो छात्रों ने अपनी कविताएं भी सुनाई। यश जबलपुर के रहने वाले हैं । उन्होंने मंटो की कहानी टोबा टेकसिंह पर आधारित कविता सुनाई। बहुत सुंदर पाठ। एक और छात्र ने चांद पर अपनी कविता सुनाई। दोनों के वीडियो बनाये गए। परिचय के साथ दोनों कविताएं अलग से।
वहीं डॉक्टर पंकज साहा जी से भी मुलाकात हुई। अपने व्यंग्य सँग्रह 'हा ! बसन्त!' की एक प्रति उन्होंने हमको दी।
आज इसका लोकार्पण होना है।
रात को खाने पीने के बाद हम संस्थान देखने गए। जिस बिल्डिंग के सामने खड़े होकर 36 साल पहले फोटो खिंचाई थी एक बार फिर उसी के सामने थे। वह समय ब्लैक एंड व्हाइट का था। आज का रंगीन। लेकिन यादों में वह छवि आज भी उतनी ही चमकदार है।
खड़गपुर के बाकी किस्से आगे।

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खड़गपुर आई आई टी में राजभाषा कार्यक्रम




खड़गपुर आई आई टी के मुख्य द्वार पर कार्यक्रम के बैनर। बैनर बता रहा है कि आलोक पुराणिक जी Alok Puranik को भी यहां आना था। ख्यातिलब्ध साहित्यकार के दिमाग से यह सूचना फिसल गई। उन्होंने अपनी झकास ऊर्जा के चलते कोई दूसरा कार्यक्रम 'सकर' लिया जिसके पीर, बाबरची, भिस्ती, ख़र सब वही हैं। लिहाजा उनका यहां आना रह गया। बच्चों का नुकसान हुआ।

आलोक जी ने हालांकि शरीफ लोगों की तरह माफी मांग ली यह कहते हुए कि उनकी जिंदगी में ऐसा पहली बार हुआ। लेकिन विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि ऐसा हसीन हादसा उनके साथ पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले पिछली बार ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान समारोह से लौटते हुए वे जिस ट्रेन में चढ़ गए थे उसके टीटी ने बताया कि उनका रिजर्वेशन नहीं है। आलोक जी ने फट से मोबाइल से रिजर्वेशन टीटी को दिखा दिया। टीटी ने कहा -'यह ठीक है कि आपका रिजर्वेशन इसी ट्रेन में है, बर्थ भी यही है लेकिन रिजर्वेशन जो आप दिखा रहे एक महीने बाद का है।'
इसके बाद आलोक पुराणिक जी को इज्जत के साथ अगली स्टेशन पर उतारा गया। जहां हम लोग अपनी ट्रेनों का इंतजार कर रहे थे। मजे लिए गए उनके। चायबाजी हुई।
इससे सिद्ध होता है कि आलोक पुराणिक अपने समय से कम से कम एक महीना आगे चलते हैं। समय के साथ चलने के लिए उनको याद दिलाना पड़ता है।
कुछ लोगों ने आलोक पुराणिक जी के न आ पाने को राजनैतिक रंग दिया। उनके अनुसार आलोक पुराणिक यहां इसलिए नहीं आये क्योंकि उनका फोटो पोस्टर में बाई तरफ है। आलोक जी जानते हैं कि बंगाल में बाईं तरफ वालों के हाल ठीक नहीं है इसलिए उन्होंने यहां आना बचा लिया।
बहरहाल कल बच्चों को आलोक पुराणिक जी के बारे में बताया गया तो वे बहुत उत्सुक हुए उनसे मिलने के। जल्दी ही किसी कार्यक्रम में उनको यहां बुलाया जाएगा। जिसमें उनका फोटो बीच में होगा। आलोक जी केंद्र में रहते हुए सहज रहेंगे। भूलेंगे नहीं आना।

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सूरज की मिस्ड कॉल पर ब्लॉगर साथी राजीव तनेजा के विचार।

पुराने ब्लॉगर साथी अनूप शुक्ल जी की किताबों को जब अमेज़न पर सर्च किया तो रुझान पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित उनकी किताब "सूरज की मिस्ड कॉल" का नाम कुछ अलग सा,आकर्षक लगा तो सोचा कि सबसे पहले इसी किताब को मंगवाया जाए और पढ़ा जाए।

कमाल का लिखते हैं अनूप शुक्ल जी। छोटी..छोटी, बारीक..बारीक बातों पर भी उनकी पैनी नज़र क्या कमाल दिखाती है, यह इस किताब को पढ़कर पता चलता है। जिन बातों की तरफ कभी हमने ध्यान ही नहीं दिया। ना ही कभी उनके बारे में सोचा कि उन पर भी कभी कुछ लिखा जा सकता है, महीन..महीन बातों पर भी उनकी लेखनी अपना जादू दिखाने से बाज़ नहीं आती।

इस किताब के ज़रिए उन्होंने सूरज ,उसकी किरणों, पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों इत्यादि हर चीज़ को एक तरह से जीवित और हमसे बात करने वाला बना दिया है। पढ़ते वक्त कई बार हैरानी हुई कि वह इस तरह का कैसे सोच लेते हैं तो कई बार बरबस ही चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी और कई बार कुछ गहरी बातों को ढंग से समझने के लिए उन्हें फिर से पढ़ना भी पड़ा।

कुल 144 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य 150/- रुपए मात्र है जो कि किताब की उम्दा क्वालिटी को देखते हुए बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। हाँ!..कुछ जगहों पर मात्राओं और नुक्तों की ग़लतियाँ थोड़ा अखरती हैं। एक आध जगह ये भी लगा कि बात को जैसे अधूरा छोड़ दिया गया है। खैर..इन छोटी-छोटी कमियों को आने वाली पुस्तकों और इस पुस्तक के आगामी संस्करण में सुधारा जा सकता है।
नए लेखक अनूप शुक्ल जी से काफी कुछ सीख सकते हैं। उम्दा लेखन के लिए अनूप शुक्ल जी को बहुत बहुत
बधाई
 

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