Monday, December 29, 2014

आलराउंडर हैं


आज दोपहर को पुलिया पर शेरू (स्वेटर में) और श्याम कश्यप से मुलाक़ात हुई। शेरू दिन में बेलदारी का काम करते हैं। शाम को पापड़ बेचते हैं। आज भी बाजार से पापड़ लेकर लौटते हुए रस्ते में पुलिया पर बैठकर धूप ने सुस्ताने लगाने लगे।पापड़ का अर्थशास्त्र समझाते हुये बताया शेरू ने कि बाजार से पापड़ 60 रूपये किलो मिलते हैं। एक किलो में करीब 40 पापड़ चढ़ते हैं। मतलब डेढ़ रूपये का एक पापड़। उसे गरम करके पांच रूपये का बेचते हैं। दो घण्टे में सौ सवा सौ बचा लेते हैं।

कश्यप जी के काम के बारे में पूछा तो बताया - आलराउंडर हैं। मतलब जो काम मिल जाए कर लेते हैं। आज कोई काम नहीं मिला तो आराम कर रहे हैं पुलिया पर।

Thursday, December 25, 2014

पचमढ़ी की एक सुबह

रजनीगन्धा कितने की है?

पांच रूपये की। लेकिन तुम न खाना।

पचमढ़ी की एक चाय की दूकान पर चाय वाली और उनकी पत्नी के बीच यह संवाद हुआ।चाय वाले प्रकाश अपने पिता के साथ पचास साल पहले छपरा से पचमढ़ी आये थे।यहीं बस गए। हमने पूछा तो बोले-पेट सब करवाता है।
महिला बताने लगी-"साला यहां दो दो स्टोब लगातार जलते थे। गाड़ियों की लाइन लगती थी। अब लोग आने कम हो गए।धंधा चौपट। दो तीन साल और निकल जाएँ बस।"

दो तीन साल क्यों? पूछने पर बताया-"तब तक हमारी गुड़िया खड़ी हो जायेगी। नर्स की ट्रेनिंग कर रही है छिंदवाड़ा से।"

पचमढ़ी में पर्यटक कम आते हैं अब। ट्रैक्टर बन्द हो गया। सूर्योदय दर्शन बन्द हो गया। जानवरों को डिस्टर्ब होता है। जब सनराइज के लिए लोग जाते थे तो खूब चाय बिकती थी सुबह। सनसेट भी हफ्ते में एक दिन बन्द हो गया।जंगल वालों को छुट्टी चाहिए।


"चार भाई हैं हम। दो भाई ठेकेदारी करते हैं। पहले लैबरी की। गोली के छर्रे बीने।जंगल में लकड़ी का काम क़िया। फिर ठेकेदारी में आया। अभी एक करोड़ साठ लाख का ठेका मिला। ये सीमेंट का काम(सड़क और फुटपाथ के बीच डिवाइडर ) उसी ने किया।"-आग तापते हुए प्रकाश ने बताया।

दूकान अतिक्रमण हटाने वालों ने हटा दी। फ्रिज और मीटर भी ले गए। किसी तरह बिजली का कनेक्शन लेकर बल्ब जला रहे हैं।

चाय कुछ कम थी ग्लास में। हमने कहा- ठीक है। लेकिन फिर से स्टोब जलाकर चाय बनाई। 130 किमी दूर छिंदवाड़ा से आये दूध की चाय 10 रूपये की। होटल में चाय 35 रूपये की है।

पचमढ़ी की एक सुबह। सूरज भाई मुस्कराते हुए गुड मार्निंग कर रहे हैं।

Saturday, December 20, 2014

नर्मदा सबका भला करती हैं

नर्मदा किनारे ग्वारी घाट । एक श्रद्धालु घाट की आखिरी सीढ़ी पर बैठकर सर पानी में छुआकर माँ नर्मदा को प्रणाम करता है। लोग पास की दुकानों से फूल दीप खरीदकर नदी में प्रवाहित कर रहे हैं। दीप नदी में डगमगाते हुए तैरना शुरू करके फिर आगे सरपट तैरते जा रहे हैं।

पास में ही नर्मदा सफाई के लिए बोर्ड पर अनुरोध लिखा है- दीप को नदी में प्रवाहित न करें। लोग बोर्ड की तरफ पीठ करके नदी में दीप प्रवाहित करते हुए दनादन फोटोबाजी कर रहे हैं।

आरती शरू होने वाली है।पण्डित जी बता रहे हैं -जगत जननी माँ नर्मदा के दर्शन मात्र से सब कष्ट दूर हो जाते हैं।

एक बच्चा ,जो रोज माँ नर्मदा के दर्शन करता होगा, घाट पर भेलपुरी बेच रहा है। रीवा का रहने वाला। पिता किसान। हाईस्कूल की छोड़कर तीन साल पहले छोड़कर जबलपुर आ गया। भेलपुरी बेचता है। अकेले रहता है। कष्ट दूर करता है।

बच्चे की शर्ट पर रोमन में न्यूट्रान लिखा है।पूछने पर बताता है-"ऐसे ही कढ़ाई है।" कल को कोई वैज्ञानिक न्यूट्रान को देखने का दावा करेगा तो हमारी पोस्ट बांचकर कोई कहेगा-इसमें कौन बड़ी बात। हमारे यहां तो बच्चे न्यूट्रान की कढ़ाई शर्ट पर किये घूमते हैं।

आरती शुरू हो गयी है।आज की आरती सेना के कुछ अधिकारियों के सौजन्य से है। पैसा दिया है उन्होंने। एक समय के बाद कोई भी धर्म बिना पैसे के चल नहीं पाता। घर्म का प्रसार उसके प्रचार में खपाए गए पैसे के समानुपाती होता जाता है।

घाट के किनारे चाट वाला माँ नर्मदा के प्रति आस्था जताते हुए कहता है। माँ हमारा पालन करती है। हम गलत पैसा नहीं लेंगे। शंका हो तो दस बार पूछिये हम ग्यारह बार बताएँगे।

'हर हर नर्मदे' के साथ भक्तों की तालियों के साथ नर्मदा स्तुति शरू हो गयी है। नर्मदाष्टक पाठ "त्वदीय पाद पंकजम,नमामि देवि नर्मदे" के साथ शुरू हो गया है। आवाजें लयात्मक होती जा रही है।पांच भक्त नर्मदा की तरफ मुंह किये चौकी पर चढ़े चंवर डुला रहे हैं।

नर्मदाष्टक पाठ के बाद नर्मदा आरती शरू हो गयी।भक्तगण झूमते हुये ताली बजाते हुए आरती पाठ कर रहे हैं। ताली के नाम से मुझे परसाई जी की बात याद आ गयी- "देश का गणतंत्र ठिठुरते हुए लोगों की तालियों पर टिका है।" इसी तर्ज पर कहा जा सकता है क्या कि-" किसी भी धर्म का धंधा आरती की लय में डूबे भक्तों की तालियों पर टिका होता है?"

नर्मदा नदी से जुड़े सामान्य जन के मन में नर्मदा मैया के प्रति अगाध श्रद्धा है।

अमृतलाल बेगड़ जी ने एक संस्मरण में लिखा-"जब मैंने वृद्धा से उसकी पोती के तारीफ़ करते हुए कहा-आपकी पोती बहुत संस्कार शील है। आपने उसे बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं। इस पर वृद्धा ने जबाब दिया-नर्मदा की नहाईं छोरी है। संस्कार कैसे अच्छे नहीं होंगे।"

आरती आयोजन से दूर घाट पर कुछ बच्चे खेल रहे हैं। एक चार पांच साल का बच्चा गुब्बारे बेच रहा है। दो बच्चियां - 'एक रुपया दे दो' कहती हुई घाट पर टहल रही हैं।

पूजा आरती के बाद, जिन लोगों ने आरती के लिए चन्दा दिया, उनको सम्मानित किया जा गया। उनके सुख समृद्धि की कामना की गयी।

नर्मदा सबका भला करती हैं। आपका भी करें। नर्मदे हर।

ये तस्वीर मेरे बेटे Saumitra Mohan ने खींची।

बच्चे सुखी रहें और का चाहिए?





सुबह जबलपुर रेलवे स्टेशन पर बतियाते हुये बुजुर्ग कुली कामगार। बातचीत के जो अंश हमने सुने:

दोनों लड़के ऑटो चलाते हैं।

ऑटो निजी है कि किराए का?

निजी है। अब तो दोनों रहने का ठिकाना भी बना लिए हैं।

यह बढ़िया हुआ। बच्चे सुखी रहें और का चाहिए?


और कुछ दुःख-सुख की बातें करते हुए एक बुजुर्ग ने जेब से चुनौटी से तम्बाकू और चूना निकाला।दोनों को हथेली में रगड़ता रहा कुछ देर तल्लीनता से। लगा मानो अपने दुःख को रगड़कर मसल रहा हो या फिर सुख और दुःख को रगड़कर एक कर रहा हो। कुछ देर में चैतन्य चूर्ण बन गया तो दोनों ने थोडा थोडा लेकर दाँत के नीचे दबा लिया और आगे बतियाने लगे।

Friday, December 19, 2014

जीवन क्या जिया

कल रामफल को देखने गए उनके ठीहे पर। सुनने की मशीन तहा के जेब में धरे थे। बोले-"अब्भी रखा है।लंच का टाइम हो गया।झूठ नहीं बोलेंगे आपसे।"

हमारे सामने मशीन लगाकर हमारे साथी सरफराज से बोले-"आप पूछिये सेव क्या भाव है।"
सरफराज ने पूछा-"अनार क्या भाव है।"

रामफल ने अनार के भाव बताये।फिर सेव के भी।मशीन की मदद से उनको साफ़ सुनाई देने लगा है। अभी आदत न होने के कारण अटपटा लगता है। लेकिन लगता है आदत हो जायेगी कुछ दिन में।

परसों रात हो गयी थी। रामफल के साथ उनके घर तक गए थे। रामफल ने चाय पीने को कहा।लेकिन देर हो जाने के चलते हमने फिर आने की बात कहकर चाय नहीं पी।चले आये।

कल रामफल कह रहे थे-"कल आपने हमारे यहाँ चाय नहीं पी।हम शुद्ध यादव हैं। बिना नहाये ठेले को हाथ नहीं लगाते। झूठ नहीं बोलते। कोई नशा नहीं करते।"

रामफल को शायद लगा हो कि छुआछूत और ज़ात बिरादरी के चलते उनके यहां चाय नहीं पी।जबकि उनको मेरा नाम भी नहीं पता। मैंने कहा-"आएंगे। जल्द ही चाय पीने।"

जितना हाई ब्लड प्रेशर था/रहता है रामफल के उतने में सामर्थ्य वान लोग अस्पताल में भर्ती हो जाएँ। 220/110 लेकिन वो रोजी कमा रहे हैं।सिर्फ यह मानते हुए कि साँस की तकलीफ है बस।चयवसनप्रास से ठीक हो जायेगी। लेकिन जब कान दिखाने ले गए तो कई बार साँस के बारे में बताया। डॉक्टर ने बीपी की समस्या बताते हुए कुछ दवाएं दीं।

कल जब पूछा तो बताया कि दवा से आराम है। फिर धीरे से कहा -दवाई खाने से आराम हो गया।

मैंने उनको दस दिन की दवाई दी तो बड़े ध्यान से उसको लेने का तरीका समझा।75 पार रामफल में ठीक होने की जबरदस्त इच्छा है। हमारी अम्मा की तरह। अम्मा भी डेरिफाइलिन और बीपी की दवाएं लेतीं थी। रामफल भी उन्हीं से ठीक बने रहेंगे।

बातचीत में रामफल बार बार नेहरूजी का जिक्र करने लगते-"दो बैलों की जोड़ी चलती थी। वो आये थे। हमने उनको देखा है। उन जैसा कोई प्रधानमन्त्री नहीं हुआ।"

कल हमारे कुछ मित्रों ने हमारे काम को नेक बताते हुए तारीफ़ की। ज्ञानजी Gyan Dutt Pandeyने शाम को फोन करके कहा-"हम तो आपको ऐसा ही समझते थे।आप तो बढ़िया आदमी निकले।" हमने कहा- "कभी धोखा हो जाता है समझने में( हैं तो अपन ऐसे ही)।"

पचास साल के हुए थे तो हमारे मित्र Arup Banerjee ने ऐसे ही कहा था-पचास के बाद हमको समाज सेवा करना चाहिये। हम सोच रहे हैं क्या किया जाये। हम लोग मन से बहुत अच्छे काम करना चाहते हैं। लेकिन कहीँ भलाई बेकार न चली जाए इसलिये संकोच कर जाते हैं। आलस कर जाते हैं। नेकी कर कुएं में डाल इसीलिये कहा गया होगा ताकि चुपचाप भलाई का काम करें । लोगों को पता चलेगा तो लोग शायद बेवकूफ समझें।

रामफल को सुनने की मशीन लगवाने के 2000/-लगे। उनके सुकून को देखते हुए इतना खर्च कुछ मायने नहीं रखता। अम्मा को हर महीने 2000/- पहली तारीख को उनके खाते में भेजकर हम बताते थे-"तुम्हारे पैसे भेज दिए हैं।"वो खुश होकर कहतीं थीं- "ये बढ़िया किया।"उनका एटीएम हमारे पास रहता था।कभी उन्होंने पैसे अपने ऊपर खर्च नहीं किये। हम लोगों को ही अपने खाते से उधार देती थी। तकादा करती थीं।

रामफल की सुनने की मशीन के पैसे हमने यह समझे की अम्मा के खाते में भेज दिए। फिर खर्च भी खुद कर दिए।सुनेंगीं तो कहेंगी अम्मा- "ये बढ़िया किया।"

बचपन से लेकर आखिरी पढ़ाई होने तक हम लगातार वजीफा पाते रहे। बहुत कम पैसे में इंजीनियर बन गए। इस सब में समाज और सरकार का पैसा लगा। हम इस समाज के कर्जदार हैं।इसमें रामफल जैसे लोगों के पैसे भी किसी न किसी बहाने लगे होंगे।तो अगर कुछ उधार इसी बहाने चुक जाये तो सुकून की बात है।

यह सब ऐसे ही सोचते हुए कि जितना कुछ मिलता है उतना वापस नहीं करते हम समाज को। किसी न किसी बहाने दबाये रहते हैं।इस चक्कर में समाज दीवालिया होता जाता है।

अपडेट:
मुक्तिबोध की कविता की पंक्तियां:
"अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
लिया बहुत बहुत ज्यादा
दिया बहुत बहुत कम
मर गया देश
और जीवित रह गए तुम!!"

Wednesday, December 17, 2014

रामफ़ल की कान मशीन

अपने मित्र Alok Prasad की सलाह पर आज रामफल को कान के विशेषज्ञ डाक्टर को दिखाना तय हुआ था। दोपहर बाद लेने गए तो पता चला रामफल अपने जिस भाई को ठेलिया पर छोड़कर जाने की सोचे थे वो नागपुर चले गए। मतलब जाने में अड़चन। लेकिन फिर हमारे कहने पर रामफल पास के पंक्चर बनाने वाले के पास अपनी ठेलिया खड़ी की।उसको फल के दाम बताये और हमारे साथ चल दिये।

डॉक्टर ने कान देखा और बताया कि कान चेक कराने होंगे। वाणी हियरिंग एड में। तय हुआ कि रामफल और हम दोनों अपनी अपनी दूकान बन्द करके शाम को कान की जांच कराने जायेंगे। साढ़े छह बजे जाना तय हुआ।

दोपहर को तो रामफल जैसे थे वैसे साथ चले गये। लेकिन शाम को अपने बेटे का साफ स्वेटर पहनकर आये थे। हमनें कहा -जँच रहे हो तो मुस्कराते हुए बोले-लड़का बोला- ' साहब के साथ जा रहे हो। ये पहनकर जाओ।'
जाँच में पता चला कि रामफल के कान 60% ख़राब हैं।सुनने की मशीन लगवानी होगी। हमने कहा - लगा दो।सुनने की मशीन लगते ही रामफल यादव के कान ठीक काम करने लगे। वो खुश हो गए। एकाध दिन में शायद मशीन के साथ सहज हो जाये।

जब कान के डॉक्टर को दिखाने ले गए थे दोपहर को तो रामफल बोले- "सांस की तकलीफ भी है।" डाक्टर ने देखा। बीपी बहुत था। डाक्टर ने ईसीजी कराने की सलाह दी थी। एक दो बार और बीपी देखकर ब्लड प्रेसर की दवा नियमित लेने की सलाह दी।

कान की मशीन लगवाकर अपने अस्पताल गए। रामफल का बीपी चेक कराया। ईसीजी कराया।बीपी दोपहर से भी ज्यादा था। इतने बीपी पर भी रामफल चल फिर रहे थे तो इसलिए कि शायद इसके साथ जीने की उनको आदत सी हो गयी है।

हाई बीपी कम करने की दवा देकर कुछ देर बाद बीपी देखा गया तो कुछ कम हुआ लेकिन फिर भी काफी हाई था। रात और सुबह की दवा दिलाकर रामफल को घर भेज दिया।मतलब छोड़कर आये।


रामफल से मुलाकात पुलिया पर हुई।किताब 'पुलिया पर दुनिया' के वो प्रमुख किरदार हैं।पुलिया के स्टेटस बांचने वाले मित्र आलोक प्रसाद के सुझाने पर रामफल के कान दिखाने ले गए।उनकी सुनने की समस्या तो हल हो गयी। दिल और सांस की तकलीफ भी शायद नियमित दवा से ठीक हो जाए।

रामफल के कान इलाज की फ़ीस डाक्टर ने ली नहीं। मशीन के भी पैसे कम किये। 2000/- की पड़ी मशीन। उसके 70%करीब 'पुलिया की दुनिया ' किताब की रॉयल्टी से मिल गए। मलतब किताब की कमाई किताब के प्रमुख किरदार के इलाज ने इस्तेमाल हुई।इससे बढ़िया क्या हो सकता है भला।

नीचे फ़ोटो ने वह जगह जहां रामफल दोपहर को ठेलिया लगाते हैं। दूसरी तस्वीर में अपने कान की जांच कराते रामफल यादव।
(साथियों की टिप्पणियों से ऐसा लग रहा है जैसे हमने कोई बड़ा नेक काम किया।हमको आलोक पुराणिक की किताब का शीर्षक याद आ गया - "नेकी कर अख़बार में डाल।" आज सोशल मिडिया का जमाना है तो कहा जाएगा- "नेकी कर फेसबुक पर डाल।" smile इमोटिकॉन )

Tuesday, December 16, 2014

सम्वेदनहीन होता समाज

कल अखबार में खबर छपी- माँ बेटी ने ऑटो चालक को चप्पलों से पीट दिया।
घटना के अनुसार कार में पति-पत्नी और उनकी बेटी थे।ऑटो चालक ने ऑटो मोड़ा,जिससे कार में टक्कर लग गयी।टक्कर लगते ही महिला और उसकी पुत्री गुस्से में उतरी और ऑटो चालक को खरी खोटी सुनना शुरू कर दिया।इसी दौरान उसकी पुत्री ने चप्पल उतारकर ऑटो चालक को मारना शुरू कर दिया। उसने भागने की कोशिश की तो युवती की माँ ने उसकी कॉलर पकड़ी और दोनों ने उसकी धुनाई शुरू की। सड़क पर मजमा लग गया लेकिन किसी ने बीच-बचाव करने की कोशिश नहीं की।ऑटो चालक के साथ मारपीट होते देख एक युवक को भी जोश आया व उसकी कालर पकड़कर पीटने लगा। भीड़ को युवक इस तरह की एंट्री नागवार गुजरी।इसके बाद तो ऑटो चालक को छोड़कर भीड़ ने युवक को खदेड़ खदेड़ कर पीटा।इसके बाद पुलिस मौके पर पहुंची और मामले को शांत कराया।

अखबार में तीन फोटो छपे हैं।हर फोटो में ऑटो चालक पिट रहा। देखकर लगा कि आम जिंदगी में कितना गुस्सा है लोगों में। कार है तो उसका बीमा भी होगा। बन जाती। ऑटो चालक कि गलती रही होगी। लेकिन क्या इसके लिए उसको सरे राह चप्पलों से पीटा जाना उचित है? 

यह पिटाई एक लड़की और उसकी माँ के द्वारा ऑटो चालक की पिटाई नहीं बल्कि एक संपन्न द्वारा विपन्न की पिटाई है। कार द्वारा ऑटो की पिटाई है। अगर गलती कार वाले की होती तो क्या ऑटो वाला उसको अकेले उसको इतनी ही सहजता से पीट देता? 

भीड़ इस पूरे मामले में तमाशबीन रही। ऑटो चालक को पिटते देख किसी ने लड़की और उसकी माँ को समझाने की कोशिश नहीं की। भीड़ भी सम्पन्न के साथ है।भीड़ को पिटता हुए एक आदमी का दर्द नहीं दिखा।वह तमाशबीन बनी रही। 

बाद में जब एक युवक भी लड़की और उसकी माँ की तरफ से ऑटो चालक को पीटने लगा तब भीड़ ने उस युवक को दौड़ा दौड़ा कर पीटा। लगता है आज अपने समाज में हर व्यक्ति गुस्से में भरा हुआ है। सोच विचार नहीं करता। करणीय अकरणीय नहीं देखता।गुस्सा पहले उतारता है। विचार बाद में करता है।

घर जाकर ऑटो वाला अपना गुस्सा शायद अपने बीबी बच्चों पर उतारे। पिटना कमजोर की नियति है।
सबसे खतरनाक रुख अखबार का है। इस घटना में ऑटो चालक पीटा गया है। प्रथम दृष्टया ऑटो चालक इसमें पीड़ित है। पिटा है। उसको पीटने वालों ने उसकी गलती के लिए नहीं अपने सपन्नता के अहंकार में पीटा। लेकिन अखबार की रिपोर्टिंग से ऐसा कहीं से नहीं लगता कि उसकी सम्वेदना पिटने वाले के साथ है। इस घटना की रिपोर्टिंग में अख़बार की भाषा कॉमिक है। मजे लेने वाली है। 

अखबार जनता को खबरें देने के साथ साथ उनके मानस को प्रभावित करते हैं। जब अखबार लिखता है
"फिर दोनों ने उसकी धुनाई शुरू कर दी", " एक युवक को भी जोश आया", "भीड़ को इस युवक की इस तरह की एंट्री नागवार गुजरी", "इसके बाद तो ऑटो चालक को खदेड़ -खदेड़ कर पीटा" तो साफ लगता है कि वह पिटते हुए लोगों का उपहास कर रहा है। अख़बारों की यह प्रवृति रिपोर्टरों की सम्वेदनहीनता की परिचायक है।

ज्यादातर रिपोर्टर बहुत कम पैसे में देर रात तक अख़बारों में काम करते हैं।ऑटो वाला भी उनकी ही तरह खटता होगा। उनको यह समझ होनी चाहिये कि पिटा हुआ ऑटो वाला उनकी ही तरह होगा। अपने ही तरह के व्यक्ति के पीटे जाने पर इस तरह की मजे लेती हुई  रिपोर्टिंग सहज सम्वेदना की खिल्ली उड़ाती है।

कार वाले द्वारा ऑटो चालक को पीटने की घटना बताती है कि सपन्न होने की हड़बड़ी में हम सम्वेदन हीन होते जा रहे हैं।

ऑटो चालक की पीटे जाने की कॉमिक रिपोर्टिंग बताती है कि सनसनीखेज खबर के चक्कर में पत्रकारिता अमानवीय होती जा रही है।

Monday, December 15, 2014

खेल खेल में गाली

कल अखबार में देखा कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों में हॉकी मैच जीतने के बाद शर्ट उतारी और गालियां दीं। बाद में माफ़ी मांग लीं।
खिलाड़ी लोगों ने ऐसा क्यों किया यह पता नहीं चला लेकिन ऐसा करना नहीं चाहिए उनको। इससे गलत सन्देश जाता है।जो बच्चे मैच देख रहे होंगे वे सोचेंगे कि जीतने के बाद शर्ट उतारना जरूरी होता है सो वे खेलना छोड़कर शर्ट उतारना सीखने लगेंगे।
खिलाड़ियों ने भारत के अख़बार पढ़े होंगे।देखा होगा आये दिन नेता लोग गाली गलौज करते हैं फिर मॉफी मांग लेते हैं।"जैसा देश वैसा भेष" की महान परम्परा का पालन करते हुए उन्होंने गाली गलौज कर डाली होगी। उनको पता नहीं होगा कि यह काम यहां के राजनेताओं के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। खिलाड़ियों को अभी गाली-गलौज करने की सुविधा हासिल नहीं है।
शर्ट शायद उन्होंने सौरभ गांगुली को देखकर उतारी हो। लेकिन उनको पता होना चाहिए  कि शर्ट उतारना केवल क्रिकेट में स्वीकार्य है।बाकी के खेलों के खिलाड़ियों के लिए यह प्रतिबंधित है अभी। हॉकी के खिलाड़ियों को क्रिकेट के खिलाड़ियों से बराबरी का प्रयास नहीं करना चाहिए।
हो सकता है खिलाड़ी लोगों को इमरान खान से प्रेरणा मिली हो। इमरान खान आये दिन सरकार को गरियाते रहते हैं।वे भी वर्ल्ड कप जीते हुए हैं। कप्तान की हैसियत से। बड़ी बात नहीं कि कभी सेना उनको देश की कप्तानी सौंप दे।खिलाड़ी लोगों ने सोचा होगा कि क्या पता आगे चलकर कभी इमरान उनको अपनी टीम में रख ले उनकी गाली गलौज और कपड़े उतारने की प्रतिभा को देखते हुए।
हो सकता है मैच के पहले खिलाड़ियों ने " अपना लक पहन के चलो " वाला विज्ञापन देखा हो। मैच जीतते ही सोचा हो कि अब तो जीत गए।लक उतार के धर दें।अगले मैच में काम आएगा।
पता चला है कि पाक कप्तान ने कहा कि एशियाड में भारत के खिलाड़ियों ने बदतमीजी की थी  उसका हिसाब उन्होंने यहाँ चुकाया।यह तो राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं जैसे बयान हुए। एक पार्टी पर जब भ्रष्टाचार ,दंगे के आरोप लगते हैं तो उसका प्रवक्ता अगली पार्टी किस्से बताते हुए कहता है- "ये तो बहुत कम है।आपकी पार्टी के समय तो इससे ज्यादा गड़बड़ हो चुकी है।"
अब जो हुआ सो हुआ। अब तो उन्होंने माफ़ी भी मांग ली। गाली गलौज का तो खैर कोई नहीं। यह तो आम जीवन का हिस्सा हो गयी है अब।लेकिन उनको कपड़े उतारने से पहले सोचना चाहिए कि भयंकर जाड़ा पड़ रहा है। ठण्ड ने पकड़ लिया तो अगला मैच खेलने लायक नहीं रहेंगे।
क्या पता वे आस्ट्रेलिया से इसी लिए हारे हों बाद में। आपका क्या कहना है?

Sunday, December 14, 2014

ब्लॉगिंग -चन्द यादें कुछ इरादे

2004 में जब ब्लॉग लिखना शुरू किया तो विन्डोज़ 98 का जमाना था। हिंदी में सीधे लिखने के लिए कोई फांट नहीं था। जय हनुमान की सुविधा का उपयोग करके तख्ती पर लिखते थे। डायल अप कनेक्शन इंटरनेट था। किर्र किर्र करके कनेक्ट होता था।जब नेट लगता था था तो फोन नहीं हो सकता था।एक समय में एक काम।
अक्सर लम्बी लम्बी पोस्ट लिखते।कभी पूरी पोस्ट उड़ जाती। उन दिनों ऑटो सेव का जमाना नहीं था।तब एक पोस्ट लिखना वीरता का काम था। पोस्ट लिखने पर मजा भी उसी अनुपात में आता था।

जाड़े के दिनों में मेरी एक ही तमन्ना रहती थी-धूप में बैठकर ब्लॉगिंग की। इसके लिए इंतजाम किया गया। 10-15 मीटर लम्बा तार जुगाड़ लिया गया। लैपटाप लेकर बगीचे में बैठते। कभी नेट कट जाता तो भागकर भीतर आते। देखते कि कहाँ से लफड़ा हुआ। वाई-फ़ाई कनेक्शन तो बहुत बाद में आया।

तबसे मामला बहुत आगे आ चुका है। आज तो हर जगह नेट से जुड़े हुए हैं। जाड़े में रजाई के अंदर घुसे हुए पोस्ट लिख सकते हैं। कनाडा/होनूलूलू /झुमरी तलैया के दोस्तों से चैटिया सकते हैं। सुविधाएं बढ़ी हैं। लिखना सहज हुआ है। अब तो ये सुविधा भी आ गयी है कि बोलकर टाइप हो सकता है। जय हो।

लिखने की सुविधा जितनी सहज हुयी है। लिखना उतना ही कम होता गया।ब्लॉग पर। पिछले कई महीनों से ब्लॉग पर जो पोस्ट डालीं वे फेसबुक की पोस्ट हैं जो वहां से यहां ले आए। फेसबुक उतरन पोस्ट्स।
फेसबुक पर लिखना सहज है। इसलिए वहां लिखते हैं। फेसबुक पर लिखते समय यह भाव रहता है जैसे बाजार में खड़े हैं। लोग हमें लिखते हुए टाइप करते हुए देख रहे हैं। जैसे ही हम पोस्ट करेंगे इसे फौरन देखा जाएगा। लाइक किया जाएगा। टिपियाया जायेगा। दस मिनट में बीस टिप्पणियॉ आ जाएंगी। 

ब्लॉग पर लिखना एकान्तिक साधना जैसा है। हम अकेले में लिख रहे हैं। कोई हमें देख नहीं रहा है। सृजन सुख है यह। अगर ब्लॉग पोस्ट को सोशल मिडिया पर साझा न किया जाए तो क्या पता कितने लोग पढ़ें। 

मेरा ब्लॉग मैं जब अपडेट नहीं करता तब भी 100 के करीब लोग देखते हैं रोज। अब सोचा है नियमित अपडेट करूँगा। रोज नहीं तो नियमित तो अपलोड करूँगा ही। पहले ब्लॉग पर लिखूंगा फिर उसे शेयर करूँगा और कहीं। ब्लॉग भले ही पुराना हो गया लेकिन है तो मेरा ब्लॉग ही। अंतर्जाल पर मेरी पहचान मेरे ब्लॉग के ही चलते है। इसको अब और उपेक्षित नहीं करना।और उतरन नहीं पहनाना। 

आज की इस पोस्ट में इतना ही। बकिया और फिर जल्दी ही। शायद नियमित भी। मजे कीजिये आप भी इतवार के।

फ़ोटो रजाई में बैठे हुए उस मुद्रा का जिसमें यह पोस्ट लिखी गयी।

Friday, December 12, 2014

किताब खरीदने से बचने के चंद बहाने

अनूप शुक्ल ने किताब प्रकाशित की है 'पुलिया पर दुनिया'। यह भी बताया है कि इसको ऑनलाइन खरीदा जा सकता है। उनके इस आह्वान से बचने के कुछ सटीक तर्क ये हैं:
1.अरे हम तो आपको रोज ऑनलाइन पढ़ते रहते हैं। अब किताब में क्या कुछ नया तो है नहीं।

2. भाईसाहब हमको अपनी हस्ताक्षर सहित प्रति भेजिए न --सस्नेह। हमसे भी पैसा लेंगे?

3.हमारे यहां पैसे का भुगतान ही नहीं हो रहा। बहुत कोशिश की। हो ही नहीं रहा।

4.हमको पीडीएफ फ़ाइल भेजिए हम आपको रॉयल्टी का पैसा भेजते है 37.50 रुपया। पोथी.कॉम को काहे का फालतू भेजना।

5.इस वीकेंड को करते हैं खरीद। अभी जरा बिजी हैं।

6.मुझे इलेक्ट्रानिक ट्रांजेक्शन आता नहीं। बेटा,पति आएंगे वही करेंगे।

7.ये किताब तो ठीक है। आप अपनी व्यंग्य वाली छपवाईए। हम उसको खरीदेंगे। पक्का।

8.कितनी बिकी ? 18 . गुड। मैं 100 वीं प्रति खरीदूंगा।

9.आप मुझे किताब भेज दीजिये। मैं पैसे मनीआर्डर से भेज दूंगा।

10.क्या भाई, तुम्हारी किताब भी पैसे देकर खरीदनी पड़ेगी?तब तो हो चुका। भेजो यार पहली प्रति।

11.वाह लिखने से कमाई भी करने लगे।ये बढ़िया। अब नौकरी छोड़ कर फूल टाइम लेखन करने लगो। खूब बिकेंगी किताबें। हम भी खरीदेंगे तब। गुड लक।

12.पचास रूपये दाम तो ज्यादा हैं। हमने तो अपनी मुफ़्त में भेजी थी यार। कम से कम मुझे तो भेजो 'रिटर्न गिफ्ट'।

13.यहाँ 50 रूपये के भुगतान के लिए 100 रुपया ट्रांजैक्शन फीस लग जाती है।भारत आएंगे तब खरीदेंगे।

14.वो उसने खरीदी है न! उसी के कम्प्युटर पर पढ़ लेंगे।

15.बच्चों के इम्तहान हो जाएँ फिर छुट्टियों में आराम से खरीद कर पढ़ेंगे।

इनमें से कोई भी अपना कर आप मजे में अनूप शुक्ल की किताब खरीदने से बच सकते हैं।

 लेकिन अगर खरीदने का मन करे तो इस लिंक पर आकर खरीद सकते हैं। कीमत मात्र 50 रुपये।

Tuesday, December 09, 2014

ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा

लो आ गयी उनकी याद
पर वो नहीं आये।

गाना धीमे बज रहा है। पूछा तो चाय वाले ने बताया-'मौसम की गड़बड़ी है।रेडियो स्टेशन से ही धीमे बज रहा है।'

आसमान में सूरज भाई ऐसे दिख रहे हैं मानो अपने चारो तरफ रुई लपेटे अधलेटे हैं।लगता है उनके यहाँ कोई दर्जी नहीं है।होता तो रुई समेट के ठीक ठाक रजाई सिल देता।

सूरज भाई बादलों की रुई के बाहर मुंह निकाले किरणों को ड्यूटी बजाने का निर्देश दे रहे थे।किरणों ने जब देखा कि सूरज खुद अलसाये हुए हैं तो वे भी आराम-आराम से अपना काम अंजाम दे रही हैं। कोहरा, जो कल किरणों को देखते ही फूट लिया था, आज बेशर्मीं से टिका हुआ था।कहीं कहीं तो किरणों को छेड़ भी दे रहा था। किरणें भी बचबच कर टहल रहीं थीं। झाड़ी, घने पेड़ के नीचे जाने की बजाय खुल्ले में कई किरणों के साथ सावधानी से टहल रहीं थीं।

धरती के कुछ हिस्से सूरज की इस किरण और ऊष्मा सप्लाई से नाराज होकर सूरज की तरफ मुट्ठी उठाकर शेर पढ़ रहे थे:

वो माये काबा से जाकर कर दो
कि अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे जरे को
खुद चमकना सिखा रहा हूँ।

सूरज भाई इस शेर को सुनकर बमक गए और बादलों का सुरक्षा कवच तोड़ कर बाहर निकल आये।चेहरा तमतमाया हुआ था।इधर उधर माइक की तलाश की लेकिन शुक्र है कि मिला नहीं होगा वर्ना चमकना छोडकर भाइयों बहनों करने लगते। सूरज अरबों बरसों से अपना काम करता आ रहा है इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ लफ़्फ़ाजी के लिए माइक और रेडियो नहीं है।

गाना बजने लगा:

'तुमने क्या समझा हमने क्या गाया
जिंदगी धूप तुम घना साया।'

जाड़े के मौसम में यह गाना बेमेल है।जाड़े में घूप की जरुरत होती है साये की नहीं।लेकिन जैसा हो रहा है वैसा की गाना भी बजेगा। चोरों से निजात दिलाने के लिए गुंडे सर्मथन मांग रहे हैं।

तू न मिली हम जोगी बन जायेंगे
तू न मिली तो।

गाना लगता है किसी बूढ़े राजनेता का बयान है।वह सत्ता से कह रहा है अगर मुलाक़ात नहीं हुई तो समझ लो। जोगी ही बनकर बदला लेंगे। तुझे अपने इशारे पर नचाएंगे।सत्ता हलकान है-'इधर सठियाया राजनेता उधर ढोंगी जोगी।वह जाए तो जाए कहाँ।'

'ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा
तेरा गम कब तलक मुझे तोड़ेगा।'

Sunday, December 07, 2014

नेहरू जैसा प्रधानमन्त्री नहीं हुआ




सुबह मेस के दोस्तों ने बताया कि पुलिया पर रामफल यादव पूछ रहे थे -"साहब हैं नहीं क्या? दिल्ली गए हैं क्या?"

दोस्तों ने उनको हमारे यहीं होने की सूचना दी तो खुश हुए।

हम आज मेस से चाय लेकर रामफल से मिलने गए। थर्मस में चाय देखकर खुश हो गए। लेकिन पियें कैसे यह सोचकर इधर-उधर देखने लगे।हमने जेब से कागज ग्लास निकाले तो खुश हो गए। बोले -"गजब हैं साहब।"

चाय पीते रामफल को मैंने 'पुलिया पर दुनिया' किताब की पांडुलिपि दिखाई। अपनी फोटो देखकर खुश हो गए।रामफल का लड़का अपने बच्चों के साथ वहां आया था। सबके साथ पुलिया पर फ़ोटो सेशन हुआ।

आज रामफल से वीडियो वार्ता भी हुई।उन्होंने बताया -"सात साल की उम्र में बाप के मरने पर घर से निकला था।सर पर कफ़न बांधकर। मुम्बई भी रहा। अमरावती। बड़ी बहन थी यहाँ उसने बुला लिया। कप-प्लेट भी धोये हैं। "

नेहरू जैसा प्रधानमन्त्री नहीं हुआ। गाँव-गाँव घुमते थे वो। इंदिरा जी ने कोई गन्दा काम नहीं किया। जंगल में फैक्ट्री लगाई। इसीलिये यहां फल बेंचकर कमाई कर लेते हैं।


जब इंदिरा गांधी को गोली लगी तो हम सतपुड़ा में फल बेंच रहे थे। गेट नम्बर 3 के पास सरदार की दूकान को आग लगा दी। गुरुग्रंथ भगवान सीवर में नाली में फेंक दिए।सब देखा हमने।

जया बच्चन के बारे में फिर बताया-"यहीं फब्बारे के पास घर था उसका। वहीं हम ठेला लगाते थे।स्कूल पढ़ने जाती थी।उसका बाप जीसीएफ में काम करता था।"

आजकल तबियत कुछ नासाज है रामफल की। बताया -"डाक्टर ने हाथ देखा,आला लगाया और दवाई दी।500 ठुक गए। कोई फायदा नहीं हुआ। फिर चयवनप्रास लाये जिसमे लड़की की फ़ोटो बनी होती है। 250 का मिलता है। एक ने कैंटीन से 160 का ला दिया। एक किलो खाएंगे तबियत दुरुस्त हो जायेगी।"

ऊँचा सुनाई देने की बात पर बोले-"बच्चियों ने बहुत इलाज करवाया। कोई फायदा नहीं हुआ। खानदानी बीमारी है।"

आज सोचा है किसी ईएनटी डाक्टर को रामफल यादव के कान दिखाए जाए। दिखाएँगे जल्द ही।

अस्सी पार के रामफल की चुस्ती देख कर लगता नहीं कि उनकी इतनी उम्र है।

ओ सनम तेरे हो गए हम

"ओ सनम तेरे हो गए हम
प्यार में तेरे खो गए हम।
जिंदगी को मेरे हमदम
आ गया मुस्कराना।"

चाय की दूकान पर इस गाने को सुनकर सूरज भाई की तरफ देखा तो उनका चेहरा बसन्तकुमार की तरह खिलखिल हो रहा था। उन्होंने लजाने की भी कोशिश की लेकिन किरणों ने टोंक दिया -'क्या दादा आप भी न! अरे गाना है। कोई आपकी लव स्टोरी थोड़ी है। इंज्वॉय इट। डोंट ब्लश।'

सूरज भाई कुछ कहते तब तक गाना बजने लगा:

"माना जनाब ने पुकारा नहीं
क्या मेरा साथ भी गवारा नहीँ।"

सब लोग गाना सुनते हुए गपियाने लगे।

सुबह निकले आज तो देखा रौशनी की चद्दरें फैली हुई थीं।लगता है आज सूरज ने अपने घर के सब कपडे धोकर सुखाने के लिए टांग दिए हैं।आसमान में।बीच बीच में धूल के कण इधर-उधर टहल रहे थे आवारगी करते हुए। सूरज भाई उनको उजाले का डंडा फटकारते हुए दौड़ा रहे थे। वे दिखाने के लिए इधर-उधर होते। लेकिन फिर थोड़ी देर में वापस आ जाते आर टी ओ दफ्तर और कचहरी में दलालों की तरह।

सड़क पर भीड़ कम थी।एक महिला एक कुत्ते को जंजीर में बांधे और दूसरे को खुल्ला टहला रही थी। जंजीर हाथ में थामे वह खुल्ले कुत्ते को कह रही थी- 'जॉनी इधर आओ।कम हियर। डॉन्ट गो अवे।'

लेकिन जॉनी किसी मुक्त अर्थव्यवस्था वाले विकासशील देश में महंगाई, क़ानून व्यवस्था सरीखा इधर-उधर अपनी मनमर्जी से टहल रहा थी। जंजीर में थमा कुत्ता भी जॉनी की तरह मुक्त होने के लिये कसमसा रहा था।

"चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए
सावन जब अगन लगाये उसे कौन बुझाए।"

जाड़ा में सावन का यह गाना बजते हुए बता रहा था कि अपने यहाँ देर है लेकिन अंधेर नहीं।सावन को आग लगाने का मौका मिलेगा लेकिन आराम से। अकबर इलाहाबादी के हिसाब से:

"रंज लीडर को बहुत है
मगर आराम के साथ।"

चाय की दूकान के बगल में समोसे बन रहे हैं।समोसे के अंदर मसाला भरते हुए दूकान वाला पानी लगाते हुए प्यार से उसकी परत को बंद कर रहा था।मानों समोसे को फुसलाते हुए कह रहा हो- "खौलती कड़ाही में कूदने के लोगों के पेट में हलचल मचा देना पुण्य का काम है। इस नेक काम को करने से जन्नत नसीब होगी तुमको और अगले जन्म में पूड़ी पराठा पैदा होंगे।"

समोसे का दिमाग पहले से ही निकाला जा चुका है सो वह अपने पेट में मसाले को विस्फोटक की तरह बांधे आत्महंता आतंकवादी की तरह खौलती कड़ाही में कूदने को तैयार है।

"चोरी चोरी कोई आये
चुपके सबसे हां दिल दे जाए।"

यह गाना बता रहा है ' वन्स अपान ए टाइम ' लोग दिल के लेन देन का काम कितना लजाते हुए करते थे। आज की तरह थोड़ी जब दिल का आदान-प्रदान मेल मुलाक़ात में विजिटिंग कार्ड की अदला-बदली की तरह होता हो।

सूरज भाई बड़े प्यार से रिक्शे वाले को भुजिया खाते हुए देख रहे थे। उनके बिना कहे तमाम किरणें उसके चेहरे को चमकाने लगीं। कुछ देर में रिक्शेवाला का चेहरे पर तृप्ति ने अपना तम्बू तान लिया। भुजिया और रोशनी आपस में लड़ने लगे कि तृप्त का भाव उनके कारण आया है।

मैंने सूरज भाई से पुछा-इनके अच्छे दिन कब आएंगे। सूरज भाई कुछ कहते तब तक गाना बजने लगा:

"फ़साना जिसे अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।"

सूरज भाई बिना कुछ बोले चाय का गिलास जमीन पर धरकर आसमान में जा विराजे। किरणों, उजाले, रौशनी ने उनके सम्मान में और चमककर उनका स्वागत किया।

सुबह हो गयी।

Friday, December 05, 2014

खाना एवन बनाते हैं साहब

आज महेश भेंटाये सर्वहारा पुलिया पर।हलवाई का काम करते हैं। जलेबी और दीगर मिठाइयां ठेले पर धरे बेंच रहे थे।गुड़ की जलेबी बता रहे थे बहुत बढ़िया बनाते हैं।

बांदा जिला के रहने वाले महेश जबलपुर में ही बस गए हैं अब। हलवाई के रूप में कई बार बस सेवाओं के साथ भारत दर्शन, नर्मदा परिक्रमा और कन्याकुमारी यात्रा कर चुके हैं। एक बच्चा है। स्कूल में पढता है।

पान मसाले से रंगे दांत । बोले -'ऐसे ही आदत पड़ गयी।'


यह भी बोले-'खाना एवन बनाते हैं साहब। कभी खाकर देखिये।'

हमें लंच के लिए देर हो रही थी। सो मेस चले आये।

जलवा सूरज भाई का


सुबह निकले तो पक्षियों ने चिंचियाते हुए गुडमॉर्निंग की।बच्चे स्कूल जा रहे थे।स्कूल के सामने ऑटो रुका और बच्चे धड़धड़ाते हुए उतरे।ऐसा लगा बच्चों से भरा ऑटो स्कूल के सामने पहुंचते ही 'अनजिप्ड ' हो गया हो।

बायीं तरफ से सूरज भाई चमक रहे थे।दीवारों पर धंसे कांच के टुकड़ों पर पड़ती रौशनी उनको और नुकीला बना रही थी।कांच के टुकड़े दीवारों को खतरनाक बना रहे थे।सुरक्षा के लिए इस्तेमाल की गयीं चीजें भी खतरनाक दिखती हैं।

चाय की दूकान पर गाना बज रहा था -'सुजलाम्, सुफलाम मलयज शीतलाम।'

कुछ जवान लड़के आये और दुकानदार से चुहल करने लगे। दुकानदार ने भी की।कोई भी दूकान चलाने के लिए बहुत नाटक करने पड़ते हैं। दूकान चाहे चाय की हो या राजनीति की बिना नाटक के चलती कहाँ है।

लड़कों ने दूकान पर लटका हुआ लाइटर चलाकर हाथ सेंका।चाय पी और चले गए।एक आदमी बीड़ी मुंह में दबाये दोनों हाथैलियों को हाथ से रगड़ रहा था। 'ऑटो सुट्टा मोड' में बीड़ी पीते वह सड़क पर जाते हुए मोटरसाइकिल सवार को ताक रहा था।मोटर साइकिल वाला एक हाथ से सिगरेट मुंह में दबाये हेलमेट दूसरे आधे हाथ में लिए बाकी के आधे हाथ से मोटरसाइकिल चला रहा था। सिगरेट की तलब सुरक्षा पर भारी थी।

एक व्हील चेयर पर बैठे एक भाई साहब एक कागज़ में कुछ गुणा भाग लगा रहे थे। पता चला कि सट्टे का नंबर लगा रहे हैं। चार रूपये की पर्ची पर जीतने पर 60 रूपये मिलते हैं।आज तक जीते नहीं लेकिन सट्टा लगाते रहते हैं। देश की आम जनता की तरह आशावादी नजरिया है।

पप्पू नाम है इनका। 93 में कटनी में रेलगाड़ी की चपेट में आ जाने पर पैर कट गया था।इंटर तक पढ़े हैं। घर वालों के साथ रहते हैं। कमाई के लिहाज से कुछ करते नहीं। सट्टा लगाते हैं जिसमें नंबर कम ही लगता है।

लौटते हुए सूरज भाई की सरकार का विस्तार हो चूका था।हमने चाय के लिए पुछा तो बोले-तुम पियो हमको अभी रौशनी की सरकार चलानी है।बहुत काम है।

मन तो किया कहें - यू टू सूरज भाई!

लेकिन फिर नहीं बोले।देख रहे है जलवा सूरज भाई का!

सुबह हो गयी।

Thursday, December 04, 2014

बर्तुहारी की तलाश

आज पुलिया पर रामनारायण सिंह जी मुलाक़ात हुई।समस्तीपुर बिहार के रहने वाले हैं।बेटा वीएफजे में आडिट में है।उसके पास मिलने आये हैं।

बात चलने पर बताये कि वे बर्तुहारी मतलब अपनी कन्या के लिए वर खोजने आये हैं।राजपूत हैं उसी हिसाब से वर खोज रहे हैं।बिटिया पटना से समाज शास्त्र में स्नातक है। मध्य प्रदेश के लड़के से शादी नहीं करनी बिटिया की।बिहार तरफ का ही लड़का खोज रहे हैं। हमसे भी कहा कोई निगाह में तो बताना।

उनकी बात सुनकर परसाईजी का एक लिखा एक संवाद याद आया-"हमारे मुल्क की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है।"

रामनारायण जी ने बताया कि 2008 तक वे बिहार,बंगाल और नेपाल तक फिल्मों के वितरण का काम देखते थे। अभी कुछ नहीं करते।

बात करते हुए हाईकोर्ट वाले तिवारी जी आ गए और सिंह जी से बतियाने लगे। अपन चुपचाप फैक्ट्री निकल लिए।

Wednesday, December 03, 2014

वे ऊपर भाग गये

पुलिया पर बैठे थे ये तीन लोग। हमने फ़ोटो खींचने की बात कही तो नीली धोती वाली महिला ने कहा -रुको जरा पल्लू सर पर रख लें। दोनों महिलाओं के पति फैक्ट्री के रिटायर्ड कर्मचारी थे। नीली धोती वाली महिला ने बताया कि उनके पति 2008 में रिटायर्ड हुए थे।

हमने पूछा -अभी कहाँ हैं पति? इस पर वो बोली- वे भाग गए।


हमने भाग गए का मतलब पूछा तो बताया भाग गए मतलब ऊपर भाग गए।

निधन हो जाने के लिए जबलपुर में आने के बाद मैंने 'बराबर हो गए', 'शांत हो गए' के बाद यह 'ऊपर भाग जाना ' भी जाना।

साथ के आदमी ने बताया कि ऊपर भाग गए मतलब निधन हो गया। तीन बहुओं और पांच नातियों वाली महिला ने हँसते हुए बताया -एक और नाती होने वाला है।

दूसरी महिला के पति का भी निधन हो चुका है। वह भी अपने परिवार के बारे में बता रही थी कि उसकी भी बहु माँ बनने वाली है।

दोनों लोग पास के बैंक में पेंशन के इन्तजार में पुलिया पर धूप खा रहीं थीं।