Friday, February 28, 2020

बम का व्यास



तीस सेंटीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पडता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का ।
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जो दफ़नाई गई शहर में
वह रहने वाली थी सौ किलोमीटर दूर आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा।
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रह था - समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में।
और मैं अनाथ बच्चों के उस रूदन का ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है
बिना अंत और बिना ईश्वर का ।
रचनाकार -यहूदा आमिखाई
अनुवाद :Ashok Pande

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Thursday, February 27, 2020

चलाना पड़ता है





 सुबह का समय। कोहरे की दुकान अभी पूरी तरह सिमटी नहीं है। सूरज भाई अभी नमूदार नहीं हुए हैं। लगता है कोहरे को मौका दे रहे हैं -' फहरा लो थोड़ी देर और अपना झंडा।'

पार्क के बाहर पुलिस जीप में बैठा ड्रॉइवर मुस्तैदी से मुंह चला रहा है। मुंह में गिरफ्तार आइटम की हड्डी पसली एक कर दे रहा है। मुंह में साबुत घुसा आइटम चकनाचूर होकर लुगदी बनते हुए उसके पेट में घुसता जा रहा है। जैसे-जैसे मुंह का आइटम पेट की तरफ बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे उसके चेहरे पर संतुष्टि का परचम लहराता जा रहा है।
पार्क में लोग मुस्तैदी से कसरत कर रहे हैं। कोने में बैठा एक आदमी तेजी से सांसें अंदर करते हुए ढेर सारी हवा पेट में इकट्ठा करता जा रहा है। उसकी तेजी से लग रहा मानो उसको डर है कहीं हवाबंदी न हो जाये दुनिया में। क्या पता कल को हवाबन्दी के बाद पूरी दुनिया को हवासप्लाई का ठेका किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को हो जाएगा। फिर तो यह भी मुमकिन है कि हर इंसान की सांस की जांच की जाए। जिसकी साँसों में उस कम्पनी की हवा न पाई जाए उसकी जिंदगी को सस्पेंड कर दिया जाए। जब तक वह पूरी हवा उस कंपनी से न भरवा ले तब तक वह दुनियबदर कर दिया जाए।
एक आदमी सीमेंट की फर्श पर बैठा बड़ी तेजी से अपने कंधे हिला रहा है। गोलगोल। उसकी तेजी देखकर हमको एकबारगी लगा कहीं उसके कंधे उखड़कर हाथ में न आ जाएं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कंधे की एक्सरसाइज करके वह तेजी से उठा और पार्क में थूककर टहलते हुए बाहर की तरफ चल दिया। बगल से गुजरते हुए उस आदमी को टोकने का मन हुआ कि कहें पार्क में क्यों थूकते हो? लेकिन फिर यह सोचकर नहीं टोंका कि कहीं हमसे पूंछ न बैठे -'पार्क और होते किसलिए हैं? यहां भी न थूंके तो कहां थूंके?' टोंका इसलिए भी नहीं कि उसका चेहरा गुस्से में लग रहा था और उसके मुंह में बहुत कुछ इकट्ठा था।
एक आदमी एक कुत्ते को टहला रहा था। कुत्ता जंजीर घसीटते हुए आदमी को टहला रहा था। आदमी कुत्ते के मालिक का सेवक होगा। कुत्ता अपने मालिक के सेवक को अपना सेवक समझते हुए उससे चिपटकर मस्तिया रहा था। आदमी के कपड़े खराब हो रहे थे लेकिन वह कुछ कर नहीं रहा था। कुत्ता कमउम्र था। लेकिन बदमाशी में मैच्यर्ड लग रहा था। कुछ देर मस्तियाने के बाद वह आदमी के साथ जिस तरह की हरकतें करने लगा उसे देखकर लगा मानो अपनी पार्टनर के साथ डेटिंग का रियाज कर रहा हो।
कुत्ते को टहलाने के साथ वह आदमी दो बच्चों को झूला भी झूला रहा था। बच्चों और कुत्ते की देखभाल के लिए आदमी के बच्चों की देखभाल कौन करता होगा ? यह सोचने की फुरसत ही नहीं मिली मुझे।
एक लड़का पार्क में टहलते हुए चने बेंच रहा था। बताया कि मां-बहन की देखभाल करता है। पिता नहीं रहे। पिता के न रहने की बात कहते हुए आंसू आ गए उसकी आंख में। पहले किसी दुकान में नौकरी करता था। कुछ ऊंचाई से कूदने के चलते पांव लचक गया। लंगड़ाते हुए चलता है।
'कितनी कमाई हो जाती है चने बेंचकर? 'पूछने पर बताया 250/- तक हो जाती है। 50-60 बच जाते हैं।
' इतने में कैसे खर्च चल जाता है ?' पूछने पर कहा -'चलाना पड़ता है।
और बात होने पर पता चला कि बच्चे जैसा वह इंसान शादीशुदा है। पत्नी और बच्चा उसके साथ नहीं रहते। कारण पूछने पर बताया कि पत्नी को खर्च के लिए दो सौ रुपये रोज चाहिए। इतने कहां से लाये हम ?
हम कुछ सोचने लगे। हमको सोच में डूबा देखकर वह बच्चा धीमी चाल से आगे जमा लोगों के पास जाकर 'चने ले लो' का आह्वान करने लगा। हम वापस चल दिये।
वापस आते समय बच्ची मिली जिसने सी-सा पर गद्दी लगवाने को कहा था। पार्क में होती हुई सफाई देखकर उसके पिता-माता ने कहा -'इसने बताया कि इसके कहने पर सफाई करा रहे हैं अंकल। गद्दी भी लगवाएंगे।'
बच्ची मुस्कराती हुई खेलने लगी। हम तैयार होकर दफ्तर आ गए।

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Wednesday, February 26, 2020

ऐसे ही इधर-उधर

 


सुबह उठे। टहलने निकले। गेट पर दरबान मिला। नमस्ते ठुकी। हाल पूछने पर बताया कि हीटर फुंक गया। सर्दी में परेशानी । और कोई समस्या पूछने पर बताया कि गुमटी में कोई खूंटी नहीं है कपड़े टांगने की। लग जायेगी कहते हुए हम सड़क पर निकल लिए। कह तो दिया अब देखना है लगती कित्ते दिन में है।

सड़क पर झाड़ू लगाती एक महिला से बात करने लगे। चार बच्चे हैं। पति बीमार। सांस की समस्या। महिला अकेली कमाने वाली। साफ चमकते दांत वाली महिला अपने सर से ऊंची झाड़ू सड़क पर लगाती बतियाती रही। घर में समस्याएं हैं लेकिन खुद कमाई का आत्मविश्वास उसकी आवाज और चेहरे पर चमक रहा था।
सड़क पार करके पार्क में धंस गए। सुबह की टहलाई करते दिखे लोग। एक बच्ची बेंच पर अकेली बैठी थी। उसके मां-पिता-भाई दूर तक टहलने जाते हैं। बच्ची को उसकी छोटी बहन के साथ पार्क में छोड़ जाते हैं। लौटकर साथ ले जाते हैं।
'तुम बैठी क्यों हो? झूला क्यों नहीं झूलती ?' हमारे इस सवाल के जबाब में बच्ची कहती है - 'भाई के आने पर उसके साथ रेस करनी है। झूलने से थक जाऊंगी।फिर उसको हरा नहीं पाऊंगी।' बच्ची भाई से जीतने के लिए अपनी ऊर्जा बचाकर रखती है।
बच्ची अपना रेसिंग ट्रैक दिखाती है। कई जगह से उखड़ा हुआ। उसको भी ठीक कराने की सोंचते हुए उससे पूछते हैं कि पार्क में और क्या कमी है ?
वह मुझे एक सी-सा के पास ले जाकर बताती है -'इसकी सीट नहीं है।' हम जल्दी ही उसकी मांग पूरी करने का वादा करके टहलने लगते हैं।
बच्ची अपनी छोटी बहन के साथ झूला झूलने लगती है। उसको झूला झुलाने वाली लड़की भी बच्ची है। उससे कुछ बड़ी। चेहरे से पता लगता है कि किसी गरीब घर की बच्ची है। छोटी बच्चियों के देखभाल के लिए रखी गयी होगी। बिना स्कूल की पढ़ाई के जिंदगी के स्कूल में नाम लिख गया।
पार्क के बाहर अलग-अलग समय में उद्घाटन, लोकार्पण, वृक्षारोपण के नामपट्ट लिखे हैं। सब रिटायर हो गए। नामपट्ट के नाम भी धूमिल हो गए। लगता है नाम भी रिटायर हो गये। नाम पट्ट पर नाम देखने की ललक भी मजेदार है इंसान में।
कई नामपट्ट देखे पिछले दिनों। कई ऐसे लोग जिनके नाम से लोग कांपते थे उनके नामपट्ट पर बन्दर अपने बच्चों के साथ लिए कूदते रहते हैं। अपनी पूंछ लोगों के नाम के आगे पंखे की तरह फहराते हैं।
अभी याद आया कि बच्ची के कहने पर झूला लगवाने का आदेश दिया है हमने। अब सोच रहे हैं कि झूले के बगल में नामपट्ट भी लगवाने की व्यवस्था करनी चाहिए- 'झूले का उद्घाटन किया फलाने इस दिन।' लेकिन लफड़ा यह कि झूला आयेगा तीन हजार का, नाम पट्ट और उद्घाटन समारोह का खर्च होगा तीस हजार का।' सोचकर शर्मा गए और नामपट्ट का विचार स्थगित कर दिया।
दोपहर में फिर गए पार्क। देखने कि क्या-क्या काम होना है। एक बच्चा पार्क में आल्थी-पालथी मारे पढ़ रहा था। पूछने पर बताया कि घर में लोग पढ़ने नहीं देते। कहीं खेत पर भेज देते हैं , कहीं जानवर चराने। इसीलिए यहां पार्क में आ जाता है पढ़ने।
बच्चे को पार्क में पढ़ता देखकर पास में ही अपनी निर्माणी की इस्टेट लाइब्रेरी को शुरू करने का हमारा इरादा और पुख्ता हो जाता है। लाइब्रेरी पिछले साल उद्घाटन के बाद से बन्द है। जब भी उसको शुरू करने की बात सोची गयी तब यह बात उठी कि पढ़ने कौन आएगा ? हमको जबाब मिल गए -'जयेंद्र जैसे लोग आएंगे।'
जयेंद्र से पूछते हैं -'पास में लाइब्रेरी खुलेगी तो वहां पढ़ने आओगे?'
'पैसे कितने पड़ेंगे लाइब्रेरी में पढ़ने के?' बच्चे का पहला सवाल होता है।
हमने कहा-'कोई पैसा नहीं पड़ेगा।जल्द ही लाइब्रेरी खुलेगी।'
टहलकर वापस आये। दफ्तर चले गए। दिन बीत गया। अभी फिर दिन शुरू हुआ तो सोचा लिखा जाए किस्सा।
अभी इत्ता ही। बाकी फिर कभी।

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Monday, February 17, 2020

दिया तले अंधेरा- शिक्षा विभाग की पूरी पोल-पट्टी खोलता रोचक उपन्यास


 “शिक्षा जगत में हजारों कृपाराम अपने-अपने किरोड़ीमल के पीछे संलग्न प्रति की तरह चिपके हुये हैं। ये लोग शिक्षा के घोल में भ्रष्टाचार को मिला रहे हैं। भ्रष्टाचार हर एक द्रव में घुलनशील होता है, अत: शिक्षा का घोल भी दूषित हो गया है। इसे शुद्ध करने के उपकरण का आयात तो कर लिया गया, लेकिन घोटालों के कारण वह घटिया निकला।“

अब आप पूछेंगे कि कृपाराम कौन, किरोड़ीमल कहां ? तो इसके लिये आपको अरविंद तिवारी जी Arvind Tiwari का उपन्यास – ’दिया तले अंधेरा’ पढना होगा।
अरविंद तिवारी जी अपने परिचय में लिखते हैं- ’चर्चित व्यंग्यकार।ग्यारह व्यंग्य पुस्तकों सहित कुल तेरह पुस्तकें प्रकाशित। डाइट के प्राचार्य से रिटायर’। ’डाइट’ मतलब अध्यापकों को पढाने की ट्रेनिंग देने वाला संस्थान। शिक्षा विभाग में लंबी नौकरी के बाद यहां पोस्ट किये जाते हैं। अरविंद तिवारी जी यहीं के प्राचार्य होकर रिटायर हुये। जाहिर है कि शिक्षा विभाग से लम्बे समय तक जुड़े रहे। इसका फ़ायदा उठाते हुये शिक्षा विभाग की पूरी पोल-पट्टी अरविंद जी ने अपने इस पहले उपन्यास में खोलकर रख दी है।
अरविंद तिवारी जी ने तीन व्यंग्य उपन्यास लिखे हैं- ’दिया तले अंधेरा’, ’हेडऑफ़िस के गिरगिट’ और ’शेष अगले अंक’ में। ’हेडआफ़िस के गिरगिट’ शिक्षा विभाग के दफ़्तरी पक्ष की विसंगतियां को रोचक ढंग अंदाज में पेश करता है तो ’शेष अगले अंक’ एक छोटे कस्बे नागौर अखबारी दुनिया के किस्से के बहाने अपने समाज की पड़ताल करने वाला उपन्यास है। दोनों उपन्यास चर्चित , प्रशंसित और पुरस्कृत हैं। लेकिन इन दोनों उपन्यासों की नींव की ईंट अरविन्द तिवारी जी का पहला उपन्यास – ’दिया तले अंधेरा’ है जिससे उन्होंने उपन्यास लिखना शुरु किया।
उपन्यास किसी स्थानीय प्रकाशन से छपा है। किसी बड़े प्रकाशन से छपा होता तो इसकी ऑनलाइन प्रति मंगवाता। पढने की रुचि जाहिर करने पर अरविंद जी ने फ़ोटोकॉपी करके भेजा। भेजने के साथ ही ’आराम से पढना, कोई जल्दी नहीं’ कहकर फ़ौरन पढने का दबाव भी बना दिया। संयोग कि उपन्यास मिलने के अगले दिन ही शनिवार , इतवार भी मिल गया। पढना शुरु करने के साथ ही १७२ पेज पढ भी गये। यह तथ्य उपन्यास की रोचकता का प्रमाण है।
’दिया तले अंधेरा’ हिन्दुस्तानी के हिन्दी पट्टी के आम स्कूलों में होने वाले क्रिया कलापों की कहानी है, कच्चा चिट्ठा है। बदहाल शिक्षा व्यवस्था, क्लास से गायब शिक्षक, हर काम में कमीशन, पुरस्कारों में सेटिंग और समाज में व्याप्त तरह-तरह के भ्रष्टाचार की झलक इस उपन्यास में दिखा देते हैं अरविंद तिवारी जी।
इस उपन्यास की कथा मास्टर कृपाराम के इर्द गिर्द घूमती है। कृपाराम की काबिलियत की बानगी का नमूना आप देखना चाहते हैं तो उनके चयन का किस्सा पढिये:
“लोक सेवा आयोग के एक सदस्य ने कृपाराम से पूछा-“ आपको एक हायर सेकेंडरी स्कूल का संस्था प्रधान बना दिया जाये और कोई अतिरिक्त स्टाफ़, उपकरण आदि न दिये जायें तो आप उस हायर सेकेंडरी स्कूल को मल्टीपर्पज हायर सेकेंडरी स्कूल कैसे बना दोगे?
कृपाराम ने सहज होकर (जो उनकी प्रतिभा का एकमात्र परिचायक गुण है) उत्तर दिया –’मैं उस विद्यालय के नाम पट्ट पर हायर सेकेंडरी के स्थान पर चॉक से मल्टापर्पज हायर स्कूल लिखवा दूंगा।’
इंटरव्यू लेने वाले सदस्य कृपाराम की ’विट पावर’ पर लट्टू हो गये और उनका चयन मेरिट लिस्ट में दूसरे स्थान पर कर लिया गया।“
कृपाराम ने जो अपने इंटरव्यू में हायर सेकेंडरी स्कूल को मल्टी परपज स्कूल बनाने का जो उपाय बताया उस पर ताजिन्दगी अमल भी किया। बिना काम के ग्रांट खपाई, बिना पढाई के स्कूल चलवाया, अफ़सरों को सहज भाव से पटाया , चेले बनाये, मारपीट करवाई, निपटारा करवाया, पिटने और छिपाने से भी गुरेज नहीं किया। इस तरह साधारण अध्यापक से शिक्षा विभाग के उपनिदेशक पद तक की यात्रा की।
उपन्यास में अध्यापकों को पीटने वाले छात्र हैं, पिटकर भी चुप रह जाने वाले अध्यापक हैं, ट्यूशन के जलवे हैं, ले-देकर या पट-पटाकर जांच रफ़ा-दफ़ा कर देने वाले अधिकारी हैं, मफ़ली , मिस फ़तनानी जैसे महिला पात्र भी हैं जिनके बहाने छात्रों, अध्यापकों और अन्य लोगों के चरित्र का भी लिटमस टेस्ट होता रहता है।
अरविंद तिवारी जी उपन्यास लेखन की खासियत है कि जिस विषय पर लिखते हैं उस पर डूबकर लिखते हैं। दायें-बायें नहीं देखते –कहीं ध्यान न भटक जाये। कभी-कभी लगता है कि कुछ इधर-उधर भी दिखाया जाये।
उपन्यास पढते समय कुछ पंच वाक्य भी छांटे। शुरुआती दौर में लिखा गया उपन्यास होने के नाते कुछ पंच वाक्य उतने चुस्त नहीं बने जितने बाद के उपन्यासों के हैं।
अरविंद जी ने शिक्षा व्यवस्था पर दो उपन्यास लिखे, पत्रकारिता पर लिखा। सभी में जो विषय लिया उसी पर केंद्रित रहे। अगला उपन्यास आने वाला है – ’लिफ़ाफ़े में कविता’। इसमें कवि सम्मेलनों के किस्से पढने को मिलेंगे।
कुल मिलाकर ’दिया तले अंधेरा’ एक रोचक उपन्यास है। पढने लायक। अरविंद जी ने इसकी फ़ोटोकॉपी भेजकर हमको इसे पढवाया इसके लिये उनका आभार। आभार इस बात का भी कि बहुत दिन बाद एक उपन्यास पूरा पढकर पढने का आत्मविश्वास भी फ़िर से जगा।
’दिया तले अंधेरा’ के कुछ पंच वाक्य यहां पेश हैं।
१. जिन दिनों परीक्षायें होतीं, उन दिनों यह श्मशान घाट ’नकल कराओ अभियान’ का आधार शिविर बन जाया करता था। यहां बैठकर गुंडेनुमा छात्र विषय-अध्यापकों को मुरगा बनाकर उनसे पेपर हल करवाया करते थे और फ़िर उन्हें पूरी अध्यापकीय अस्मिता के साथ , मुरगे से पुन: अध्यापक बनाकर छोड़ देते थे। श्मशान घाट से पुलिस भी दूर रहती थी, छात्रों ने भूत होने की अफ़वाह फ़ैला रखी थी।
२. स्कूल भवन विशाल था तथा परंपरागत स्कूलों की भांति उसका पलस्तर दीवारें छोड़ रहा था। स्कूल की दीवारें देखकर यह आसानी से कहा जा सकता था कि नई शिक्षा नीति हो या पुरानी , स्कूलों को बदलना असंभव है।
३. यह प्लास्टिक का जूता था, थप्प की आवाज के साथ कामतानाथ की कनपटी पर उसी तरह लगा जैसे कभी-कभी सरकार बढे हुये मंहगाई भत्ते को प्राविडेंट फ़ंड में जमा करा लेती है।
४. कामतानाथ की कनपटी पर जूता गुरुत्वाकर्षण के कारण अधिक देर तक रुक नहीं सका और नीचे गिर गया। कक्षा के छात्रों ने इस घटना को गौर से देखा और गुरुत्वाकर्षण को समझा।
५. जूते मारना शिक्षा में नवाचार नहीं है। शिक्षा का इतिहास गवाह है कि अनेक बार छात्रों ने अपने पुराने जूतों का उपयोग कांच का सामान न खरीदकर, उनसे शिक्षकों का सम्मान किया है।
६. केमेस्ट्री में ट्यूशन अधिक आती थी , क्योंकि गणितवाले छात्र भी केमेस्ट्री पढते थे। इस दृष्टिकोण से केमेस्ट्री के सामने बायोलॉजी पानी भरती थी।
७. जो प्रधानाचार्य अपनी जेब से अधिकारियों को खिलाता है , वह महामूर्ख होता है।
८. शिक्षा विभाग में व्यक्ति को आदर्शवादी और भ्रष्टाचारी , दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है तभी शिक्षा के लिये उपयुक्त वातावरण बनता है।
९. भ्रष्टाचारी और आदर्शवादी उसी तरह शिक्षा विभाग में शामिल होते हैं , जैसे पढाई के साथ-साथ छुट्टियां होती हैं। पूरे वर्ष पढाई और पूरा आदर्शवाद दोनों ही शिक्षा को उबाऊ बना देते हैं।
१०. कोई भी प्रशिक्षण महिला संभागियों के बिना अधूरा होता है।
११. शिक्षा अधिकारियों की जो नई पीढी आई थी , उसमें अंग्रेजी बोलने की बात तो दूर समझने की क्षमता भी नहीं थी। ये शिक्षा अधिकारी उस कथन को झुठलाना चाहते थे, जिसके अनुसार अंग्रेजी विश्व ज्ञान की खिड़की खोलती है।
१२. शिक्षा सेवा के अधिकारियों अधिकारियों का प्राय: अपमान होता रहता है और वे हर बार यह तय करते हैं –बदला लेंगे, लेकिन जब बदला लेने का समय आता है तो वे महामानव बन जाते। यही गुण शिक्षा अधिकारियों को अन्य प्रशासनिक अधिकारियों से अधिक महत्व प्रदान करता है।
१३. आज के युग में राष्ट्रभक्ति पेट की गैस के साथ बनती है और जब पेट की गैस का इलाज हो जाता है , राष्ट्रभक्ति अपने आप गायब हो जाती है।
१४. शिक्षा विभाग के अधिकारी बिना किसी खेमे में रहे नौकरी नहीं कर सकते।
१५. जब वे पढते थे तो संस्कृत के शिक्षक के मुंह से स्पष्ट आवाज नहीं निकलती थी। जब छात्रों ने मिलकर गुरु जी को कहा कि साफ़ बोला करें तो उन्होंने कहा-’ मेरी बत्तीसी नहीं है। आप लोग चंदे से लगवा दो।’ हम लोगों ने चंदे से बत्तीसी लगवाना गलत समझा, इसलिये आगे पढाई नहीं हो पाई।
१६. शिक्षा मंत्री जी की धोती खुल गई। सौभाग्य से वे अंडरवियर पहने हुये थे, यद्यपि राजनेताओं के लिये यह अपवाद था।
१७. राजनेता शिक्षाविदों से अधिक शक्तिशाली होते हैं और जिधर वे चाहते हैं, शिक्षा उधर ही खिंचती है।
१८. हमारे देश की यह विशेषता है कि यहां किसी समस्या का समाधान करने की कोशिश की जाए तो राजनीति ऐसा होने नहीं देती और यदि समस्या से आंखें मींच ली जायें तो समस्या अपने आप हल हो जाती है।
१९. शिक्षा विभाग के अधिकारियों को वीआईपी कहते रहो तो वे बैठने के लिये कुरसी की मांग नहीं करेंगे।
२०. शिक्षा विभाग में अपने बॉस को खुश करने की बीमारी अन्य विभागों से छूत के रूप में लगी है। यही कारण था कि शिक्षा विभाग में हर अफ़सर अपने से ऊपर वाले अफ़सर को खुश रखना चाहता था।
२१. ....डी.पी.सिंह गुस्से में तमतमा गये , परन्तु बड़े बाबू के आगे बड़ा शब्द लगा था, अत: उन्हें चुप हो जाना पड़ा।
यह भी पढ सकते हैं:
१. अरविंद तिवारी के उपन्यास - ’ ऑफ़िस का गिरगिट’ पर मेरी टिप्पणी- https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208904124333837
२. अरविंद तिवारी के उपन्यास - ’ शेष अगले अंक में ’ पर मेरी टिप्पणी-https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209738832441018

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218875016959921

Friday, February 14, 2020

सूरज भाई का फोन इंगेज्ड

 बिस्तर पर अलसाये से लेटे हुये हैं। खिड़की से देख रहे हैं कि #सूरज भाई अभी तक पधारे नहीं हैं। फ़ोन इंगेज्ड जा रहा है। अब पलट के फोन किया #सूरज भाई ने। बोले जरा आराम से आयेंगे आज। ये किरणें, उजाला, रश्मियां , प्रकाश , रोशनी सब कह रहे हैं -"पापा जरा सबको 'वैलेंटाइन डे ' विश कर दें तब चलें। "

सूरज भाई बता रहे हैं -- "यहां सब तरफ़ रोशनी के पटाखे छूट रहे हैं। तारे एक दूसरे को मुस्कराते हुये देख रहे हैं। आकाश गंगायें इठला रहीं हैं। एक ब्लैक होल ने ऊर्जा और प्रकाश को धृतराष्ट्र की तरह जकड़ लिया है और फ़ुल बेशर्मी उनको "हैप्पी वेलेंटाइन डे" बोल रहे हैं। ऊर्जा को ब्लैक होल की जकड़ में कसमसाते देख आकाशगंगा ने एक बड़ा तारा फ़ेंककर ब्लैकहोल को मार दिया। उसके कई, अनगिन टुकड़े हो गये। ब्लैक होल का पांखड खंड-खंड हो गया है। अनगिनत रोशनी मुक्त होकर चहकने लगी है। क्या तो सीन है भाई! काश हम तुमको इसका वीडियो दिखा पाते।"
हमें कुछ न देखना सूरज भाई जल्दी आओ। चाय ठंढी हो रही है। देर करोगे तो फ़िर दुबारा बनवानी पड़ेगी। -हमने #सूरज भाई को बुलाकर फ़ोन रख दिया। क्या फ़ायदा पैसा फ़ूंकने से फ़ालतू। आयेंगे तब आराम से बतियायेंगे।

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Thursday, February 06, 2020

आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर के उत्पाद का पेटेंट

 आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर 1914 में स्थापित हुई। यह फैक्ट्री कम्बल, जर्सी, मोजे,कॉम्बैट यूनिफार्म और अन्य तमाम तरह की वर्दियां बनाती है।

निर्माणी बहुत ठंडे मौसम (ECC extreme cold climate) के लिए कपड़े बनाने के लिए जानी जाती है। बहुत पहले हमको एक ग्लेशियर सूट दिखाकर बताया गया था कि यही कोट पहनकर शेरपा तेनसिंग ने एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया था।
106 साल के अपने इतिहास में निर्माणी ने अनगिनत उत्पाद बनाये। बनाकर सप्लाई किये और भूल गये। कभी किसी उत्पाद को पेटेंट जैसा कुछ कराने की नहीं सोची। लेकिन अब जमाना पेटेटिंग का है। जो बनाओ उसका पेटेंट कराओ वरना बनाएंगे हम नाम और दाम कमाएगा कोई और। हल्दी और दूसरे भारतीय उत्पादों का हाल पता है सबको।
इसी पेटेटिंग की कड़ी में हमारी निर्माणी के एक उत्पाद 'कैप बालाकलावा' का पेटेंट हुआ। कैप बालाकलावा शून्य डिग्री तापमान के आसपास पहनने के काम आती है। कैप बालाकलावा मतलब ऐसी टोपी जिसमें सर, गर्दन और दूसरे हिस्से (आंख ,नाक और मुंह छोड़कर) ढंके रहें।
निर्माणी ने यह उत्पाद डिजाइन किया। बनाया और सेना को सप्लाई किया। 2016 से शुरू होकर लाखों कैप बालाकलावा आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर बना चुकी है। बनाने के बाद इसके पेटेंट के लिए आवेदन किया। पिछले महीने ही इसका पेटेंट आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर के नाम हुआ।
पेटेंट होने का मतलब यह कि अब इस उत्पाद को हमारी ही निर्माणी बना सकती है। अगर कोई दूसरा बनाएगा तो उसको हमारी अनुमति लेनी होगी और हमको इसकी रॉयल्टी देनी होगी।
यह कैप सेना को सप्लाई की जाती है। इस वर्ष हमारी निर्माणी को 92000 कैप सप्लाई करनी है। अगले साल का आर्डर अभी आना है। हमारा पेटेंट होने के चलते हमारे अलावा दूसरा कोई इस उत्पाद हमारी अनुमति के बिना इसको बना नहीं सकता।
इस साल हमारी निर्माणी का लक्ष्य 10 आइटम पेटेंट कराने का है। इस दिशा में काम जारी है।
निर्माणी का महाप्रबन्धक होने के चलते इस उपलब्धि पर प्रसन्न होने, निर्माणी पर गर्व करने और आपसे साझा करने के हक का उपयोग किया जा रहा है।

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Monday, February 03, 2020

मुझे भी अपना समझ कर पुकारता कोई

 मेरी भी बाहों में ख़ुद को पसारता कोई

मेरी भी शाम की ज़ुल्फें संवारता कोई
मिले थे विरसा में कुनबा के रंजिश और वादे
सुकूँ से जिन्दगी कैसे गुज़ारता कोई
ये दुनिया काग़ज़ी नाव पे है सवार, यही
गली से निकला दिवाना पुकारता कोई
भले ही दिल की नज़र से न ताकता लेकिन
दिली तमन्ना थी मुझको निहारता कोई
हर एक फैसला मन्ज़ूर ही मुझे होता
निगाहे नाज़ से करता जो बारता कोई
जवानी गुज़री इसी आरज़ू की बाहों में
मुझे भी अपना समझ कर पुकारता कोई।
ख़ुदा से अपनी दुआ अब तो है यही जर्रार
चढ़े दिमाग़ को उन के उतारता कोई।
विरसा...पैदाएशी
बारता...बात चीत
कुनबा...ख़ानदान
जर्रार तिलहरी
आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर।

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Saturday, February 01, 2020

साठ प्रतिशत व्यंग्य सिर्फ़ खानापूरी के लिए लिखा जा रहा है-अरविन्द तिवारी

 आज अरविंद तिवारी जी का जन्मदिन है। उनको जन्मदिन की हार्दिक

बधाई
। इस मौके पर उनका एक साझा साक्षात्कार यहां पेश है।
अरविन्द तिवारी जी वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं। गणित के शिक्षक , शिक्षा विभाग में अधिकारी, विभाग की पत्रिका के संपादक और अखबारों में नियमित व्यंग्य लेखक रहे। कविता से शुरु करके व्यंग्य लेखन की तरफ़ आये। ’सवाल के जबाब में सवाल पूछने वाली पत्नी जी’ व्यंग्य लेखन की सूत्रधार रहीं। जब शरद जोशी जी नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन लिख रहे थे उस समय अरविन्द जी राजस्थान के ’दैनिक नवज्योति’ में नियमित व्यंग्य लिख रहे थे। अरविन्द जी अपने व्यंग्य लेखन के लिये कल्पना के भरोसे नहीं रहते। अपने परिवेश की विसंगतियां उनके व्यंग्य लेखन का खाद-पानी हैं। उनके चर्चित और पुरस्कृत उपन्यास ’शेष अगले अंक में’ और ’हेड आफ़िस का गिरगिट’ उनके शिक्षा जगह और अखबारी जगत के अनुभवों पर आधारित हैं। किसी नफ़े नुकसान का विचार किये बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बातें कहने वाले अरविन्द जी अप्रिय व्यक्तिगत सच बोलने से सहज परहेज करते हैं। इसी के चलते उनके इंटरव्यू से कुछ ऐसे सवाल रह गये जिनके जबाब लंबे समय तक बवाल का मसाला दे सकते थे। बुजुर्ग होने की उमर पर पहुंचे अरविन्द जी अपनी फ़ेसबुक पर नियमितता के मामले में युवाओं से पंजा लड़ाते दिखते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार नये से नये लेखकों के लेख पढते रहते हैं। उनसे संवाद करते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के उनकी तारीफ़ भी करते हैं।
अपने लेखन के दूसरे दौर की सक्रियता का श्रेय अरविन्द तिवारी जी ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ को देते हैं। दो साल तक नियमित चले इस आयोजन में अच्छे और सामान्य तथा खराब मिलाकर लगभग हजार लेख तो लिखे गये होंगे। लेकिन इसे किसी ’व्यंग्य-बुजुर्ग’ ने कहीं उल्लेख लायक नहीं समझा।
व्यंग्य यात्रा के लिये अरविन्द तिवारी जी से साक्षात्कार के लिये आदेश होने पर उनसे सवाल पूछने का काम भारी लगा तो काम बांट लिया गया। पहले ’ व्यंग्य के एटीएम –आलोक पुराणिक’ के सवाल आये। आलोक पुराणिक का समय प्रबन्धन जबरदस्त है। सुबह दस बजे सवाल भेजने को कहा तो उसके पहले भेज भी दिये। इसके बाद अनूप शुक्ल के प्रश्न आये। अनूप शुक्ल ने कुछ उकसाऊ सवाल किये। लेकिन अरविन्द जी ने अपने अनुभव का इस्तेमाल करते हुये संतोषी प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हुये उनके सटीक जबाब दिये। इसके बाद साक्षात्कार में तड़का लगाने के लिये शशि पांडेय के सवाल-जबाब भी शामिल किये गये। शशि पांडेय व्यंग्य लेखकों से नियमित साक्षात्कार का काम बड़ी खूबसूरती से कर रही हैं।
तो पेश है अरविन्द तिवारी जी से हुई मिली-जुली बातचीत। यह बातचीत व्यंग्ययात्रा के अक्टूबर-दिसम्बर 2019 के अंक में प्रकाशित हुई।
आलोक पुराणिक: वह क्या है ,जो आपको व्यंग्य लेखन के लिए प्रेरित करता है?
अरविन्द तिवारी: सामाजिक और सरकारी व्यवस्था की विसंगतियां मुझे व्यंग्य लेखन के लिए प्रेरित करती हैं। इनके कारकों के प्रति जब ज़बरदस्त आक्रोश पैदा होता है,तब सच कहूं आलोक जी, सामने वाले को पीटने की इच्छा होती है! पीट तो सकता नहीं, इसलिए आक्रोश व्यंग्य में तब्दील हो जाता है।व्यक्तिगत जीवन और माहौल में विसंगतियों का ही बोलबाला रहा,इसलिए व्यंग्य लिखने की प्रेरणा मिली।आप किसी दबंग के प्रति आक्रोश व्यक्त नहीं कर सकते, इसलिए विट के जरिए ऐसी बात कहो,जिससे वह झेंप जाए।रोजमर्रा की घटनाएं और अख़बार की सुर्खियां भी व्यंग्य लिखने को मजबूर करती हैं।व्यंग्य दृष्टि विकसित होने के बाद कोई लेखक घुइयां(अरबी) तो छीलने से रहा, इसलिए व्यंग्य ही लिखेगा!
आलोक पुराणिक: व्यंग्य लेख और व्यंग्य उपन्यास दोनों में आपका लेखन है। दोनों की रचना प्रक्रिया में क्या अंतर है?
अरविन्द तिवारी: दोनों के लेखन में बहुत फ़र्क है। मैंने जब स्तंभ लिखना शुरू किया तब बड़े बड़े व्यंग्य छपते थे।संडे मेल में पहला व्यंग्य कम से कम 1200 शब्दों का छपा होगा।रोजाना व्यंग्य स्तम्भ भी आठ सौ शब्दों के होते थे।लेख लिखना आसान लगता है।एक विषय पर लिखना शुरू करो तो,आगे से आगे विचार आते रहते हैं।पंच भी अनायास ही आते चले जाते हैं।जब शीर्षक लिखता हूं तो पता नहीं चलता क्या लिखूंगा।कई बार बिंदु पूर्व निर्धारित होते हैं पर कई बार हवा में कलम भांजते हैं। लेकिन आधा घंटा या ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में व्यंग्य लिख जाता है।व्यंग्य उपन्यास तभी आप लिख सकते हैं जब आपने खूब होमवर्क किया हो। घटनाओं को सूचीबद्ध किया हो।लिखते समय कथानक की कसावट का भी ध्यान रखना होता है और व्यंग्य का भी।मेरे मामले में भोगा हुआ यथार्थ ही उपन्यास का विषय बना,इसलिए अच्छी तरह लिख सका।उपन्यास के दो तीन ड्राफ्ट भी करता हूं।
आलोक पुराणिक : इधर व्यंग्य बहुत छप रहा है।फेसबुक पर उसकी कटिंग रोज़ाना दिखाई देती है।तो क्या हम व्यंग्य की स्थिति शानदार मान लें?
अरविन्द तिवारी: यह सच है कि परिमाण में व्यंग्य खूब लिखा जा रहा है।खूब छप भी रहा है,पर गुणात्मक रूप में कुछ लोग ही अच्छा लिख रहे हैं। साठ प्रतिशत व्यंग्य सिर्फ़ खानापूरी के लिए लिखा जा रहा है।छपने और फेसबुक पर दिखने की हड़बड़ी ने व्यंग्यकारों की बड़ी खेप हमें दी है पर अच्छा व्यंग्य अभी भी संभावना है।कोई हमेशा अच्छा नहीं लिख सकता,पर सिर्फ़ छपना हेतु नहीं होना चाहिए।जिस दिन हमें साठ प्रतिशत व्यंग्य अच्छे मिलने लगेंगे हम कह सकेंगे कि व्यंग्य की स्थिति शानदार है।
आलोक पुराणिक : व्यंग्य में आज भी विमर्श परसाई ,जोशी से आगे नहीं बढ़ा है। तो क्या पचास साठ साल में हिंदी व्यंग्य में दस नाम भी नहीं हैं,जिन पर विमर्श हो सके?
अरविन्द तिवारी: यह सच है कि व्यंग्य विमर्श परसाई जोशी को नहीं छोड़ पा रहा,खासकर अन्य विधाओं के आलोचक उससे आगे बढ़े ही नहीं। ये लोग आज भी व्यंग्य को विधा नहीं मानते। पर यह गलत है कि हम साठ सत्तर सालों में विमर्श हेतु दस नाम नहीं दे पाए। मैं आपको दस नाम बताए देता हूं,जिन पर चर्चा होती रही है।कई लोगों पर कई विमर्श की पुस्तकें आ गईं हैं। स्थिति वैसी ही बनी जैसी मुक्तिबोध और अज्ञेय को लेकर बनी थी।मुक्तिबोध का नाम तो लिया जाता था,पर अज्ञेय का नाम जानबूझ छोड़ दिया जाता।परसाई, जोशी का व्यंग्य साहित्य में प्रभा मण्डल ऐसा रहा कि दूसरों पर कम चर्चा हुई।ये दस नाम हैं, हरिशंकर परसाई,श्रीलाल शुक्ल,शरद जोशी, रवींद्र नाथ त्यागी,मनोहर श्याम जोशी, लतीफ़ घोंघी,शंकर पुणतांबेकर, गोपाल चतुर्वेदी,प्रेम जनमेजय,ज्ञान चतुर्वेदी।यह क्रम यों ही है,वरिष्ठता का नहीं।व्यंग्य यात्रा ने इनमें से अधिकांश पर विमर्श हेतु विशेषांक निकाले। अन्य मंचों पर भी इन लेखकों पर चर्चा होती रही।व्यंग्य कार्यशालाओं में इन पर ही नहीं,कई समकालीन व्यंग्य लेखकों पर भी चर्चा होती है।
आलोक पुराणिक : आप मंचों से व्यंग्य कविता भी पढ़ते रहे हैं।व्यंग्य लेख और व्यंग्य कविता में क्या फ़र्क है?
अरविन्द तिवारी: पहले मंच पर अच्छी व्यंग्य कविताएं पढ़ी जाती थीं।अब उनका स्तर गिर गया है,जबकि गद्य व्यंग्य लेखन और समृद्ध हुआ है।मुझे भी मंच पर श्रोताओं के हिसाब से कई बार घटिया पढ़ना पड़ा।आजकल मंच पर कवि नहीं होते,परफॉर्मर होते हैं।व्यंग्य को अब लाफ्टर ने रिप्लेस कर दिया है। गम्भीर व्यंग्य कविताएं अब कोई सुनना भी नहीं चाहता।व्यंग्य कविता सघन होती है और पंचों से भरपूर।जबकि गद्य व्यंग्य में विस्तार से लिखा जाता है।गद्य व्यंग्य विचार भी देता है।आजकल जो लोग गद्य व्यंग्य पढ़ रहे हैं वे श्रोताओं को ध्यान में रखकर पढ़ रहे हैं।यह व्यंग्य सतही ज्यादा होता है जबकि शरद जोशी और के पी सक्सेना वही पढ़ते थे,जो छपता था।
आलोक पुराणिक: आपकी नज़र में हिंदी के श्रेष्ठ दस व्यंग्य उपन्यास कौन से हैं?
अरविन्द तिवारी: इसके उत्तर में मैं पूरी लिबर्टी ले रहा हूं। ज़रूरी नहीं आप मुझसे सहमत हों।
1 रागदरबारी(श्रीलाल शुक्ल) 2. बारामासी 3. हम न मरब (दोनों ज्ञान चतुर्वेदी)4. नेताजी कहिन (मनोहर श्याम जोशी)5. ब से बैंक(सुरेश कांत) 6. आदमी स्वर्ग में(विष्णु नागर)7. दारुलशफा(राजकृष्ण मिश्र) 8. ख़्वाब के दो दिन(यशवंत व्यास) 9. मदारीपुर जंक्शन(बालेंदु द्विवेदी) 10. ढाक के तीन पात(मलय जैन)
वैसे मेरा व्यंग्य उपन्यास "शेष अगले अंक में"भी इनमें शुमार होना चाहिए,पर यह मैं स्वयं ही करूं तो आत्म श्लाघा की श्रेणी में आ जाएगा।
आलोक पुराणिक: हिंदी व्यंग्य के पास गंभीर आलोचक नहीं हैं।इसकी वजह क्या है?
अरविन्द तिवारी: सबसे बड़ी वजह यह है कि व्यंग्य साहित्य की मुख्य धारा में माना ही नहीं जाता।मुख्य धारा के आलोचक व्यंग्य लेखक को सतही लेखक बताते रहे। इसे अख़बारी लेखन के खाते में डाला जाता रहा क्योंकि व्यंग्य के मानक लेखक परसाई और जोशी अख़बारों के स्तंभ लेखन के कारण ही लोकप्रिय हुए।जिन युवा व्यंग्य आलोचकों ने इसमें काम करना शुरू किया है,उनसे बड़ी उम्मीदें हैं पर अभी तक गम्भीर काम नहीं हुआ है।ये लोग विशेष टारगेट पर काम करते हैं जैसे पुस्तकों का संपादन आदि।इनसे उम्मीद है आलोचना पर गम्भीर पुस्तकें भी मिलेंगी।वैसे पुराने आलोचकों में बरसाने लाल चतुर्वेदी,श्यामसुंदर घोष,सुदर्शन मजीठिया,बालेंदु शेखर तिवारी, शेर जंग गर्ग आदि ने खूब काम किया है।
आलोक पुराणिक : अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएं।
अरविन्द तिवारी: दरअसल मेरा व्यंग्य लेखन 1973 से शुरू हुआ। 1973 मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी साल मैंने ग्रेजुएशन (बी एस सी)किया, इसी साल शादी हुई,इसी साल चार व्यंग्य कविताएं लिख डाली।पत्नी की बोलचाल की भाषा व्यंग्य से भरपूर थी।वह प्रश्न का जवाब प्रश्न से देती थी। साठ वर्ष की हुए बिना वह दुनिया से चली गई।उसने बहुत से देशज शब्दों से परिचय कराया ।हमारा परिवेश मालवा का था। हम खुद बोलचाल में विट का प्रयोग करते थे।मामला करेला वह भी नीम चढ़ा हो गया।ऐसे माहौल में व्यंग्य लिखने की शुरुआत हो गई। मैं लोगों के बीच से व्यंग्य का विषय उठाता हूं और अपनी लेखनी से उसे व्यंग्य में तब्दील कर देता हूं। मैं व्यंग्य लेख एक सिटिंग में पूरा कर लेता हूं।आजकल तो अख़बार बहुत कम शब्दों का व्यंग्य छापने लगे हैं इसलिए थोड़ी कश्मकश ज़रूर करनी होती है पर लिख जाता है।नए विचार आते चले जाते हैं।उपन्यास धीमी गति का काम है।कई बार लिख कर मिटाना होता है।मेरे साथ यह अच्छाई है कि ज्यादातर लेखन अनुभूतियों पर है फिर चाहे यह अनुभूति मेरी हो या किसी मित्र की।शीघ्र ही मेरा व्यंग्य कहानी संग्रह आएगा। मैं कहानी लिखते समय कल्पना में नहीं खोता हूं,बल्कि आम जीवन से कहानियां उठाता हूं।सच्ची घटनाओं को व्यंग्य में बदलना मुझे आता है।आज भी मैं रजिस्टर में लिखता हूं उसके बाद टाइप करता हूं।जब कहीं घूमने जाता हूं तो यह रजिस्टर साथ होता है।कई बार रजिस्टर बिना कुछ लिखे ही लौट आता है।
एक वाकया शेयर करना चाहूंगा।उन दिनों मैं राजस्थान के कुचामन सिटी में था और दैनिक नवज्योति अख़बार के लिए रोज़ाना व्यंग्य कॉलम लिख रहा था।कई दिनों तक कुछ लिख नहीं पाया।तब डाक से चार पांच लेख एक साथ भेज देता था,जिन्हें अख़बार छापता रहता था।पैसे मिलते थे इसलिए रुचि भी थी।जब लिखा नहीं गया तो एक दिन के लिए कुचामन सिटी के एक होटल में ठहर गया। ताज़्जुब यह कि होटल में डेरा डालते ही कई दिनों के लिए कॉलम लिख लिए।
आलोक पुराणिक :एक व्यंग्यकार को क्या क्या पढ़ना चाहिए?
अरविन्द तिवारी: आपने अच्छा प्रश्न किया है। व्यंग्यकार को हिंदी की हर विधा की क्लासिकल किताबें पढ़ने की आदत से डालनी चाहिए। मैं रात को पढ़ता ज़रूर हूं।नियमित लेखन नहीं कर पाता पर नियमित पढ़ता हूं।पढ़ने से भाषा का संस्कार आता है।मेरी रुचि कथा साहित्य ,कविता और संस्मरण पढ़ने में है। कृष्णा सोबती और रवींद्र कालिया की भाषा ने मुझे खूब प्रभावित किया।
अनूप शुक्ल: आपने व्यंग्य लेखन की शुरुआत कैसे की?
अरविन्द तिवारी: इस प्रश्न का जवाब ऊपर आ गया है,फिर भी इतना बता दूं मैंने लिखने की शुरुआत व्यंग्य कविता से की थी।कवि सम्मेलनों के अलावा मेरी कविताएं शुरू में पत्रिकाओं में छपती रहीं। पहला गद्य व्यंग्य संडे मेल में छपा था।पर नियमित व्यंग्य लेखन 1982 से कॉलम के ज़रिए लिखना शुरू किया लोकल अख़बार में।पैसे नहीं मिलते थे पर अभ्यास होता रहा। बाद में सभी अख़बारों में छपने लगा।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य में आप किसे आदर्श मानते थे,जिसकी तरह लिखना चाहते रहे हों?
अरविन्द तिवारी: रागदरबारी के बाद मैंने परसाई को पढ़ा।आज भी उन्हें आदर्श मानता हूं।मेरे पहले व्यंग्य संग्रह पर उनकी टिप्पणी पोस्टकार्ड पर आई थी जो आज भी किसी इनाम जैसी लगती है।पर उन जैसा लिख नहीं पाया।कई लोग कहते हैं कि मेरे लेखन पर त्यागी जी का प्रभाव है,जो सच नहीं है। उतना हास्य मैंने नहीं लिखा।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य के क्षेत्र में सपाट बयानी से लेकर पढ़ने में मज़ा आना चाहिए घराने के लोग मौजूद हैं।आपको बहुतायत किसकी लगती है?
अरविन्द तिवारी: प्रश्न ख़तरनाक है।मेरा मानना है कि अभिधा में व्यंग्य लिखना और सपाट बयानी लिखना दोनों में बहुत अंतर है।आजकल इन दोनों में खूब लिखा जा रहा है।पंच वाले व्यंग्य कम लिखे जा रहे हैं।हास्य युक्त व्यंग्य लेखन का भी अभाव है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य लेखन में व्यंग्य यात्राओं और शिविरों का क्या योगदान है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्य ही क्या, हर विधा में शिविरों और यात्राओं का सकारात्मक योगदान रहता है।व्यंग्य यात्रा पत्रिका ने खूब पहल की है।अकादमियों और अन्य संस्थानों ने भी व्यंग्य शिविर लगाए हैं।राजस्थान साहित्य अकादमी के कई व्यंग्य शिविरों में मैं शामिल रहा।कमलेश्वर जी ने समानांतर कहानी के दिनों में देश के दूरस्थ स्थानों पर कहानी शिविर लगाए तो कई कहानीकार सामने आए। संगमन यात्राओं का उल्लेख किया जाता है।पर आजकल लिटरेरी फेस्टिवल का ज़माना है।ज्ञान जी ,प्रेमजी इन समारोहों में जाते रहे हैं।मुझे अवसर नहीं मिला।
अनूप शुक्ल: क्या आप महसूस करते हैं कि बड़े प्रकाशनों से किताबें न आने का खामियाजा भुगतना पड़ा?
अरविन्द तिवारी: मेरे तीनों व्यंग्य उपन्यास बड़े प्रकाशनों से आए हैं। एक प्रभात प्रकाशन से, दो किताब घर से।चौथा प्रभात प्रकाशन से आ रहा है।मुझे कोई खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा।दो व्यंग्य संग्रहों को छोड़कर मेरी सभी व्यंग्य पुस्तकें पुरस्कृत हैं फिर चाहे किसी भी प्रकाशन से आईं हों।एक व्यंग्य संग्रह के तीन संस्करण आए तो एक अन्य के दो संस्करण हो गए।
अनूप शुक्ल : विपुल लेखन के बावजूद व्यंग्य के कई बड़े इनाम आप तक नहीं पहुंचे।क्या आप गुट विहीन होने और किसी पत्रिका का संपादन न करने को इसका कारण मानते हैं?
अरविन्द तिवारी: मैं शिक्षा विभाग राजस्थान की शिविरा मासिक पत्रिका का तीन साल तक संपादक रहा।लेखन को ध्यान में रखकर मैं पत्रिका का संपादक नहीं होना चाहता।गुट में शामिल न होने का कारण थोड़ा बहुत हो सकता है पर यह पूरी तरह सच नहीं है।मेरी टिप्पणियां ज़रूर इसमें बाधक रही हैं।फिर उप्र हिंदी संस्थान का दो लाख रुपयों का श्रीनारायण चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान मिल ही गया।कुल मिलाकर अब तक साढ़े तीन लाख मिल गए।अधिकांश पुस्तकें पुरस्कृत हैं।तो जोड़ तोड़ क्यों करूं।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य की जुगलबंदी’ में में आपने काफी लिखा।इस प्रयोग के बारे में आपके विचार क्या हैं?
अरविन्द तिवारी: ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ अच्छा प्रयोग था।दो साल तक हर सप्ताह व्यंग्य लिखा दिए हुए विषय पर।इस प्रयोग से मैं पुनः कॉलम में सक्रिय हुआ।पर नुकसान भी हुआ।व्यंग्य उपन्यास अधूरा है।इस समय खूब व्यंग्य लिखने लगा हूं,नब्बे के दशक की तरह।इसका श्रेय आपकी जुगलबंदी को है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य विधा की छवि सत्ता विरोधी रही है।आजकल व्यंग्य सत्ता के समर्थन में ज्यादा लिखा जा रहा है।इस सम्बन्ध में क्या कहेंगे?
अरविन्द तिवारी: अब लेखक जोख़िम नहीं ले रहे।इनमें मैं भी शामिल हूं।कतिपय लिखते हैं पर वे सत्ता समर्थक अख़बारों में लिखते हैं।जाहिर है ज्यादा विरोध ये अख़बार नहीं छाप सकते।व्यंग्य में पक्षपात नहीं होना चाहिए।सुविधाओं के बरअक्स अगर आप लिखते हैं तो व्यंग्य के साथ न्याय नहीं होता।
अनूप शुक्ल: आपको अपनी एक रचना का चुनाव करना हो तो किसे श्रेष्ठ मानेंगे?
अरविन्द तिवारी: ज़ाहिर है व्यंग्य उपन्यास "शेष अगले अंक" को।
अनूप शुक्ल: अब तक के अपने लेखन से आप कितना संतुष्ट हैं?
अरविन्द तिवारी: संतोषजनक स्थिति तो है पर संतुष्ट नहीं हूं। होटलों पर व्यंग्य उपन्यास अधूरा है। इस बीच व्यंग्य कहानियों की पांडुलिपि में लग गया। गांव की पृष्ठिभूमि पर व्यंग्य उपन्यास लिखने के अलावा जिला कलेक्टर कार्यालय और प्रशासनिक अधिकारियों पर भी व्यंग्य उपन्यास की रूपरेखा जहन में है।पर स्वास्थ्य बाधक रहता है।
अनूप शुक्ल: आपको लगता है कि शिकोहाबाद के स्थान पर दिल्ली में होते तो इतना लिखकर और सफल हो चुके होते?
अरविन्द तिवारी: बहुत फ़र्क नहीं पड़ता,पर पड़ता है। दिल्ली के लोकल संपर्कों से लेखक पत्र पत्रिकाओं के संपादकों से रसूख रखता है।प्रकाशकों के संपर्क में रहता है।कई बार ये संपादक ऐसे लोगों से विशेषांक की सामग्री मांग लेते हैं जो अच्छा नहीं लिख पाते।
अनूप शुक्ल: लिखने के लिए आपको कोई ख़ास माहौल मुफीद रहता है या किसी भी माहौल में लिख सकते हैं?
अरविन्द तिवारी: मुझे सिर्फ़ शांति का माहौल चाहिए होता है।हर माहौल में नहीं लिख पाता।यह मेरे लेखन का महत्वपूर्ण कारक है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य लेखन में पंच की क्या भूमिका है?क्या कारण है व्यंग्य लेखन में पंच कम होते जा रहे हैं?
अरविन्द तिवारी: अच्छा सवाल और महत्वपूर्ण भी।व्यंग्य में पंच होने चाहिए। पंच ही हैं जो व्यंग्य लेखन को सपाटबयानी से बचाते हैं और व्यंग्य को विशिष्ट बनाते हैं।सामान्य लेख और व्यंग्य लेख में जो अंतर है वह पंच के कारण ही है। पंच का मतलब प्रहार है।विसंगति का चित्रण और प्रहार दोनों को मिलाकर व्यंग्य बनता है।इनका अनुपात कुछ भी हो।वन लाइनर व्यंग्य में सिर्फ़ पंच होता है इसलिए उसे व्यंग्य का दर्ज़ा नहीं दे सकते।छपने की हड़बड़ी में व्यंग्य बिना पंच के ही लोग लिख रहे हैं।पंच कम होने का यही कारण है।दूसरा कारण लोग अपने लिखे के अलावा किसी का पढ़ना ही नहीं चाहते,परसाई का भी नहीं!
अनूप शुक्ल: तात्कालिक घटनाओं पर लिखने के लिए टूट पड़ने की प्रवृत्ति के बारे में आपका क्या कहना है?
अरविन्द तिवारी: यह स्थिति व्यंग्य के लिए अच्छी नहीं है। दरअसल अख़बार तात्कालिक घटनाओं के शीर्षक देखकर ही लेख छाप देते हैं।संपादक यह भी नहीं देखते कि यह व्यंग्य है या नहीं।समसामयिक व्यंग्य खूब लिखे जाते हैं पर तसल्ली से। इन दिनों तसल्ली कम हो रही है।
शशि पांडेय: पहली बार कब साहित्यकार के रुप में आप किससे भिड़े और क्यूं?
अरविन्द तिवारी: पहला ही प्रश्न भिड़ंत के संबंध में। कमाल करती हैं आप। लेखक के लिए भिड़ंत मुख्य है, लेखन गौण! पर आप भूल गईं, शास्त्रों में लिखा है- कटु सच्चाई नहीं बोलनी चाहिए। लेकिन, मैं फिर बोले दे रहा हूं। एक अच्छे लेखक को लेखन के साथ-साथ भिड़ना भी आना चाहिये। लेखक सबसे पहले खुद से भिड़ंत करता है, तभी लेखक बन पाता है। विधिवत भिड़ंत मैंने 1973 के एक सरकारी कवि सम्मेलन में की, जहाँ व्यंग्य कवि के रूप में मुझे बुलाया गया था और कविता पढवाये बिना ही लिफाफा दे दिया गया। मैं अपनी परफॉर्मेंस दिखाने के लिए उतावला था, पर संचालक ने मौका ही नहीं दिया।
शशि पांडेय: आपको लिख-लिख कर माथा मारी करने से क्या मिला?
अरविन्द तिवारी: लिखने की माथापच्ची से जेब का बहुत नुकसान हुआ, पर मानसिक संतोष इतना कि लोग पागलों से तुलना करने लगे! बस पागलखाने नहीं भेजा गया। मैं गणित का शिक्षक था, चाहता तो पैसा कूट कर रख लेता। लेकिन, हजारों की ट्यूशन छोड़कर कुछ सैकड़ों के लिए लिख रहा था। मैं राजस्थान के ‘दैनिक नवज्योति’ अखबार में रोजाना व्यंग्य कॉलम लिखता था, जबकि उस समय शरद जोशी नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन व्यंग्य लिख रहे थे। यह समय सुकून देने वाला था।
शशि पांडेय: आपका व्यंग्य रूपी इंसान कब जागृत होता है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्य रूपी इंसान कब जाग्रत होता है, इसका जवाब मिश्रित है। मेरे अंदर ये हमेशा सोया जागा रहता है। सकारात्मक यह कि जब समाज और सियासत की घटनाएँ उद्वेलित करती हैं तो व्यंग्यकार का भूत जाग जाता है। मेरे बारे में नकारात्मक यह कि जब कतिपय व्यंग्यकार व्यंग्य के नाम पर कचरा बीच बाजार फैंकने लगते हैं, तो मुझे व्यंग्य के दौरे पड़ने लगते हैं। तब जो लिखा जाता है वह सचमुच अच्छा होता है।
शशि पांडेय: जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि… ऐसा ही कुछ व्यंग्यकारों के लिये क्या कहा जा सकता है?
अरविन्द तिवारी: कवि हर जगह पहुँचता है पर इसी लोक में, जबकि व्यंग्यकार दूसरे लोक (मंगल, शनि आदि) में नासा से पहले पहुँच जाता है। वह वहाँ छपने वाले अखबारों में व्यंग्य लिखता है और जब फेसबुक पर उसकी कटिंग चेपता है, तो लोगों को ‘अलौकिक’ अखबारों के बारे में जानकारी मिलती है।
शशि पांडेय: नाम के लिये काम करना चाहिये या काम के लिये नाम करना होना चाहिये?
अरविन्द तिवारी: सारा खेल ही नाम का है। हर लेखक नाम के लिए ही मरते हुये कलम घिसे जा रहा है। इसके लिए लेखन से इतर सारे गठजोड़ व कोशिशें करता है, पत्रिका निकालना, पुरस्कार शुरू करना आदि इसी इतर कोशिश के अंग हैं। अपनी बात यह है कि एक बार जब बड़े अखबार ने हमारा व्यंग्य छाप दिया और त्रुटिवश नाम नहीं छापा तो हमें प्रसव हो जाने के बाद प्रसव पीड़ा शुरू हुई।
शशि पांडेय: व्यंग्यकार समाज सुधारक होता है अथवा खुन्नस निकारक होता है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्यकार समाज सुधारक ही होता है, पर इन दिनों व्यक्तिगत खुन्नस निकालने का चलन चल पड़ा है। इस तरह से वह अब खुन्नस निकालक भी हो गया है। मेरे जैसे इक्का-दुक्का व्यंग्यकार लिंचिंग के शिकार भी हो रहे हैं। वैसे तरीका अच्छा है।
शशि पांडेय: साहित्यकारों के लिये फेसबुक अखाड़ा है या आरामतलब स्थान है?
अरविन्द तिवारी: फेसबुक आरामगाह हो ही नहीं सकती क्योंकि, वहाँ नेहरू जी का नारा ‘आराम हराम है’ शुरू से ही तारी है। लेकिन, हां जगह मजेदार है। दूसरी बात सही है, अखाड़ेबाजी वाली। व्यंग्य के बड़े-बड़े धुरंधरों को खींचकर इस अखाड़े में लाया जाता है, जहाँ फाउल तरीके से कुश्ती होती है। चित्त न होने पर भी रेफरी चित्त घोषित कर देता है। हां, अपनी पोस्ट पर चौधराहट दिखाने का अच्छा ऑप्शन है।
शशि पांडेय: वर्तमान को रचनाकारों का मकाड़जाल युग माना जाये या पुनः भक्तिकाल युग माना जाये?
अरविन्द तिवारी: यह युग मकड़जाल का ही युग है। इसे भक्तिकाल कह सकते है लेकिन, भगवान बदल चुके हैं। जिनसे काम है, वहीं असली भक्ति है। पहले मूर्ति बनाकर पूजो, उसके बाद जैसे ही काम खत्म हो मूर्ति को उखाड़ कर सर के पत्थर पर बल पटक दो, इस तरीके से यह आधुनिक भक्तिकाल है।
शशि पांडेय: व्यंग्यकार साथियों से ज्यादा डर लगता है या सांप से?
अरविन्द तिवारी: इस प्रश्न पर घोर आपत्ति है। मैं अपने धुर-विरोधी व्यंग्यकारों की तुलना भी साँप से नहीं कर सकता। कहां बेचारे सांपों को इंसानों के बीच ला दिया। सांप तो नाम से बदनाम है। समय इतना बदल गया है कि अब दुश्मनी से खलिश गायब हो गयी है। स्वार्थ के
लिए लोग दुश्मन को दोस्त बनाने में गुरेज नहीं करते। ये हुनर बेचारे सांपों को कहां!

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