Monday, October 22, 2018

नेहरू की राजनीतिक सूझ-बूझ सुभाष से अधिक परिपक्व तथा सही थी- परसाई


प्रश्न: पंडित सुभाष और नेहरू में क्या मतभेद थे?
कटनी से सुभाष आहूजा देशबन्दु अखबार दिनांक १२.१०.१९८६
उत्तर: पंडित नेहरू और सुभाष बोस दोनों का विश्वास समाजवाद में था। पर नेहरू गांधीजी के तथा उनकी नीतियों के अधिक निकट थे। हालांकि उनके गांधीजी से उजागर मतभेद भी थे।सुभाष बोस गांधीजी के प्रति श्रद्धा रखते थे , पर उनके विचारों से बहुत हद तक सहमत नहीं थे। खासकर साध्य और साधन की पवित्रता के मामले में। गांधीजी ने अहिंसा को धर्म माना था पर बोस उसे केवल एक रणनीति मानते थे, वे हिंसा का प्रयोग अनुचित नहीं मानते थे। दक्षिणपन्थी चेले राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभ भाई पटेल आदि सुभाष बोस के खिलाफ़ थे।
सुभाष बोस नेहरू का समर्थन चाहते थे। उनका मानना था कि पंडित नेहरू भी समाजवाद चाहते हैं और दक्षिणपन्थी उनके भी खिलाफ़ हैं। दोनों मिलकर कान्ग्रेस को वामपन्थी दिशा देंगे- ऐसा सुभाष बोस का विश्वास था। पर जब त्रिपुरी में गोविन्द वल्लभ पन्त यह प्रस्ताव लाये कि सुभाष बोस कार्यकारिणी समिति गांधीजी की सलाह से बनायें, नेहरू ने इसका विरोध नहीं किया। सुभाष बोस का साथ नहीं दिया। नेहरू और सुभाष बोस का पत्र व्यवहार नेहरू के पत्रों के संग्रह ’ए बन्च ऑफ़ ओल्ड लेटर्स’ में छपा है। पंडित नेहरू ने सुभाष को लिखा था कि संगठन जिस प्रकृति का है, उसमें इस तरह सीधा विभाजन करने से कांग्रेस टूट जायेगी। इसलिये फ़िलहाल समझौता करना जरूरी है। दूसरे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर दोनों में मतभेद थे। मैंने यह पत्रव्यवहार पढा है। मेरा निष्कर्ष है कि नेहरू की राजनीतिक सूझ-बूझ सुभाष से अधिक परिपक्व तथा सही थी।
-परसाई
-राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक -’पूछो परसाई से’ से।

सुभाष चन्द्र बोस उग्र राष्ट्रवादी और समाजवादी थे-परसाई


प्रश्न: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस महात्मा गांधी के साथ अन्य नेताओं की तरह मिलकर कार्य नहीं कर सके। ऐसा क्यों हुआ?
बिलासपुर से रामकिशोर ताम्रकार , दिनांक १४ अप्रैल, १९८५
उत्तर: गांधी जी हर चीज को नैतिक आधार देते थे। अहिंसा का रास्ता उनके लिये नैतिकता का रास्ता भी था। सुभाष बोस हिंसा को केवल रणनीति मानते थे। अहिंसा को गांधीजी भी रणनीति मानते थे। पर वे अक्सर धर्म, नैतिकता और अन्तरात्मा की आवाज की बात करते थे। दूसरे सुभाष बोस उग्र राष्ट्रवादी और समाजवादी थे। १९३८ में जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष हुये तब उन्होंने योजना आयोग बना दिया। यह समाजवादी दिशा का संकेत था। गांधीजी इस तरह के समाजवाद में विश्वास नहीं था। सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता वल्लभ भाई पटेल, डॉ राजेन्द्र प्रसाद वगैरह दक्षिणपंथी थे, समाजवाद विरोधी थे। इनके बिना न कांग्रेस संगठन चल सकता था , न आन्दोलन। नेहरू स्वयं समाजवादी थे। पर वे यह भी जानते थे कि इन दक्षिणपंथी राजनेताओं के साथ तालमेल बिठाकर चलता चाहिये। कांग्रेस में समाजवादी बहुत कम थे। कम्युनिस्ट छोड़ गये थे और १९२५ में ही कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर ली थी। सुभाष बोस चाहते थे कि नेहरू उनके पथ के बीच न आयें, पर नेहरू व्यवहारिक राजनीति के हिसाब से बीच में रहे आते थे। गांधी जी और सुभाष बोस में मुख्य मतभेद विचारधारा का था।
इसीलिये उनके खिलाफ़ एक दक्षिणपन्थी पट्टाभि सीता रमैया को खड़ा किया गया। सीता रमैया हार गये और गांधीजी ने कहा यह मेरी हार है। अब जब दक्षिणपन्थियों के बावजूद सुभाष बोस फ़िर कांग्रेस अध्यक्ष बन गये तब दक्षिणपन्थियों ने उन्हें प्रभावहीन करने के लिये एक तरकीब निकाली। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में गोविन्द बल्लभ पंत से प्रस्ताव पास करा लिया कि सुभाष बाबू कार्यकारिणी गांधीजी की सलाह से बनायेंगे। इस पर सुभाष बाबू ने कांग्रेस छोड़ दी और ’फ़ार्वर्ड ब्लॉक’ संगठन बना लिया।
पर सुभाष बाबू का आदर गांधी जी के प्रति कम नहीं हुआ। आजाद हिन्द फ़ौज बनाकर जब वे भारत से बाहर अंग्रेजों से लड़ रहे थे , तब भी वे गांधीजी को ’राष्ट्रपिता’ कहते थे।
-परसाई
- राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ’पूछो परसाई से’ किताब से

Sunday, October 21, 2018

जिंदगी के स्कूल में पढाई की फ़ीस नहीं पडती

चित्र में ये शामिल हो सकता है: भोजन
जिंदगी का स्कूल रोज खुल रहता है, कभी छुट्टी नहीं होती यहां

सुबह सूरज भाई उगे। देखते-देखते जियो के मुफ़्तिया नेट कनेक्शन की तरह हर तरफ़ उनका जलवा फ़ैल गया।
इतवार की तीसरी चाय ठिकाने लगाकर हम भी निकल लिये। यह निकलना ऐसा ही थी जैसे चुनाव के मौके पर अपनी पार्टी में टिकट न मिलना पक्का होते ही लोग पार्टी बदल लेते हैं। घर में चौथी चाय का जुगाड़ भी नहीं था।
ओवरब्रिज खरामा-खरामा बन रहा था। एक ट्रक अधबने पुल की छाती पर चढा उस पर मिट्टी गिरा रहा था। पता नहीं कब इस पर बजरी गिरेगी, कब सड़क बनेगी, कब पुल चालू होगा।
नुक्कड़ की नाई की दुकान पर लोग बाल बनवाने के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। आगे एक पंचर बनाने की दुकान पर दुकान मालिक ग्राहक के इंतजार में अपनी फ़ोल्डिंग पर इस तरह अधलेटे हुये थे जैसे मुगल सम्राट अपने दरबार में तख्ते ताउस पर विराजते होंगे। दुकान के सामने हवा भरने का पंप किसी तोप की तरह हवा भरने के लिये तैयार था। सामने कई साइकिलों के ब्रेक शू, डिबरी, नट, बोल्ट और फ़ुटकर पुर्जे मोमिया पर पसरे हुये धूप सेंक रहे थे। बुजुर्ग और बेकाम आये पुर्जे अपनी मूंछे ऐंठते हुये कहते से दिखे-’पुर्जे हम भी थे कभी काम के।’
बगल से एक खड़खड़ा वाला किसी मकान की पुरानी इंटे लादे हुये ले जाता हुआ दिखा। आधी-अधूरी ईंटे खड़खड़े में किसी चुनाव में हारे हुये प्रत्यासियों सी पड़ी थीं। उनको इंतजार था कि वे फ़िर से किसी मकान में लगकर अपनी जिन्दगी सार्थक करें।
मूंगफ़ली, चने, लईया की दुकाने खुल गयीं थी। ग्राहकों के इंतजार में सावधान खड़ी थीं। एक दुकान पर एक बच्चा अखबार के लिफ़ाफ़े बना रहा था। आटे की लेई से अखबार को आहिस्ते-आहिस्ते चिपका रहा था। स्पीड इस कदर तसल्ली नुमा और धीमी गोया पुराने जमाने का कोई कोई आशिक अपनी मोहब्बत को अंजाम पर पहुंचाने में लगा हो। हमको अपने बचपन के दिन आ गये जब हम स्कूल से बचे समय में लिफ़ाफ़े बनाते थे। सौ लिफ़ाफ़े मे छह पैसे मिलते थे बनवाई। दिन भर में कभी-कभी हजार-हजार तक लिफ़ाफ़े बना डालते थे। हमने बच्चे के बगल में खड़े होकर फ़ुर्ती से लिफ़ाफ़े बनाकर बताया ऐसे बनाओ , जल्दी बनेंगे। वह बनाने लगा।
लिफ़ाफ़े बनाते हुये बच्चे ने बताया -'पुलिस वाले पन्नी पर धरपकड़ करते हैं। मां-बाप का नाम पूछते हैं। यही लिये लिफ़ाफ़े बना रहे हैं। बच्चे ने यह भी बताया कि स्कूल का मुंह नहीं देखा है उसने। अलबत्ता छोटा भाई जाता है स्कूल। ट्यूशन भी लगा है। पढाई बहुत मंहगी है।'
स्कूल की पढाई मंहगा बवाल है इसलिये हिन्दुस्तान में अनगिनत बच्चे सीधे जिन्दगी के स्कूल में दाखिला ले लेते हैं जहां फ़ीस और ट्यूशन का कोई झंझट नहीं।
आगे एक दुकान पर एक महिला मूंगफ़ली भूंज रही थी। नीचे आगे जल रही थी। महिला सारी मूंगफ़लियां बड़ी कड़ाही में उलटती-पुलटती हुई भूंज रही थी। हमने फ़ोटो लेने को पूछा तो बोली आंचल समेटते हुये बोली – ’लै लेव।’
फ़ोटो देखकर खुश हुईं। हमने नाम पूछा तो बताया – ’फ़ूलमती।’ हमारे मुंह से फ़ौरन निकला – ’हमरी अम्मा का नाम भी फ़ूलमती था।’ वो मुस्कराई। साथ खड़ी बच्ची ने पूछा-’फ़ोटो अखबार मां छपिहौ?’ हमने कहा –’न।’ इस पर फ़ूलमती बोलीं-’चहै जहां छापौ। कौनौ चोरी थोरो करित है। अपन मेहनत करित है।’
सुरेश के रिक्शे अड्डे पर राधा नहीं थीं आज। पता चला कि 21 दिन पहले अपने नाती-पोतन की याद आई तो चलीं गयीं। आठ महीने रहीं। सुरेश ने बताया-’ जब आई थीं तो कह रहीं थीं जाते समय 100 रुपये दे देना। नाती-पोतों को दस-दस रुपये देंगे। जब गईं 1500 रुपये सबने मिलकर दिये। दो साड़ी ब्लाउज दिलाये। दस पैकेट बिस्कुट, पानी की बोतल लेकर भेजा एक रिक्शे वाले के हाथ। सबसे होशियार आदमी के साथ कि उनको गाड़ी में बैठाके आये। अब तक पहुंच गयीं होंगी।’
एक अन्जान बुजुर्ग महिला किसी अड्डे पर आकर आठ महीने रहे। खिलाने-पिलाने, दवा-दारू , रहने के इंतजाम के बाद पैसे रुपये देकर विदा की जाये। हमको भोपाल के हाजी बेग की कही बात याद आई- ’इंसानियत का रिश्ता सबसे बड़ा होता है।’
आगे एक चारपाई पर दो बच्चे खेल रहे थे। उनके हाथ में दो मिट्टी की मूर्तियां थीं। वे उसे बारी-बारी से चारपाई पर रखी दरी के नीचे अपने हाथ की मूर्तियों को रखते-छिपाते हुये खेल रहे थे- जैसे कई जम्हूरियत में सियासी पार्टियां इबादतगाहों के मुद्दे उछालती-छिपाती रहती हैं।
गंगा का पानी घट गया था। दो लोग पानी में कटिया डाले मछली फ़ंसने का इंतजार कर रहे थे। हमको बुद्धिनाथ मिश्र का गीत याद आया:
एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
नदी तसल्ली से बह रही थी। उसको कोई हड़बड़ी नहीं थी आगे जाने की। शायद अपने साथ चल रहे और बिछुड़ गये पानी को याद कर रही हो। पता नहीं कहां-कहां का पानी साथ मिलकर यहां बह रहा हो। न जाने कितना साथ चला पानी रास्ते में बिछुड़ गया हो। न जाने कित्ता पानी किसी बांध की हवालात में गिरफ़्तार होकर बंदी पड़ा हो। मन किया नदी को रमानाथ अवस्थी की कविता सुनायें:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
मंदिर के पास गुप्ता जी मिले। हमने पूछा आंख बनवाई नहीं अभी तक? बोले- ’सोचते हैं दूसरी आंख का भी आपरेशन करा लें जाड़े में तब इकट्ठे बनवा लें।’ हमने फ़िर कहा –’आप बनवा लेव चश्मा पैसे हम दे देंगे।’ बोले-’कानपुर में पैसे बहुत मांगता है चश्मा वाला। सुना है शुक्लागंज में ढाई सौ रुपये में बनाता है कोई। लड़के से कहा है पता करने को।
हमको अपने गांव के चाचा की याद आई। उनकी रोशनी कम हुई। हमने सुझाया –’ आंखे/चश्मा काहे नहीं बनवा लेत हौ?’
चाचा बोले- ’का करैंक है बबुआ बुढापे मां। घर ते खेत औ खेत ते घरै तक आवैं क है। इत्ता देखात है। बस और का करैंक है फ़ालतू मां पैसा फ़ूंकैक (क्या करना है बेटा बुढापे में ? घर से खेत. खेत से घर आना जाना है। इतना दिखाई देता है। और क्या करना है। फ़ालतू में पैसा क्यों खर्च करना)
छह महीने हो गये गुप्ता जी को अपनी आंख के लिये चश्मा बनवाने की सोचते। इतने दिन में मनमाफ़िक न होने पर कारपोरेट बिना कुछ सोचे-समझे सरकार बदल देते हैं। जबकि इसी समय में अपने देश का एक आम इंसान अपने लिये चश्मा बनवाना टालता रहता है।
84 साल के होने को आये गुप्ता जी का भतीजा वहीं बैठा अपने औजार दुरुस्त कर रहा था। पूछने पर मुंह में भरा मसाला सड़क पर थूंकते हुये बताया –’हलवाई का काम करते हैं। कल कहीं काम लगा था वहीं से लौट रहे थे तो सोचा चाचा के हाल-चाल लेते चलें।
रास्ते में तमाम रिक्शेवाले अपने रिक्शों की साफ़-सफ़ाई, साज-सिंगार कर रहे थे। चाय की दुकान पर बैठे लोग टीवी देखते हुये बातिया रहे थे। साइकिल की पंचर की दुकान पर पंचरबाज अभी तक अपने तख्ते ताउस पर लेटा ग्राहक का इंतजार कर रहा था। घर में घुसते ही सूरज भाई खुपडिया पर धूप की चपत लगाते हुये बोले- ’हो गयी आवारगी?’
हम उनको कुछ जबाब दें तक तक वो और ऊपर उचककर पूरी कायनात में रोशनी और गर्मी बांटने लगे।

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Thursday, October 18, 2018

लगता है गंगा मैया नाराज हैं

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 4 लोग, लोग खड़े हैं और बाहर
पानी में भीगे कपड़ों संग खुद भी सूखती महिला। साथ में सवाल पूछते लोग।

'आज लागत है गंगा मैया नाराज हैं। तीन लोगन मां केहू के कुछ नहीं मिल रहा। एक्को सिक्का तक नहीं मिला।'
भैरो घाट की सीढ़ियों पर बैठे गंगा जी में गरदन तक घुसे तीन लोग गंगा के तल से हाथ से खोद कर मिट्टी सीढ़ियों में रख रहे हैं। मिट्टी में राख, जले हुए शवों की टुकड़ों में हड्डियां, कांच के टुकड़े, चूडियां मिलती हैं। एक आदमी इस मिट्टी को पानी में छानकर देख रहा है। शायद कोई काम की चीज मिल जाये।
काम की चीज मतलब कोई सोने, चांदी का टुकड़ा जो कुछ लोग शवों के साथ जला देते हों। कुछ मिल नहीं रहा है। खोजने वाला निराश हो रहा है। कह रहा है -'आज लगता है गंगा जी नाराज हैं।'
दूसरा कहता है -'गंगा जी नाराज नहीं है। हम लोग ही खोज नहीं पा रहे।'
लगता है आज पीने का जुगाड़ भी न बन पाएगा।
पानी में मुंडी घुसाए हुए मिट्टी खोजता आदमी मुंह में गंगा का पानी भरकर मुंह के मसाले सहित गंगा में विसर्जित कर देता है। स्वच्छ गंगा अभियान में अपने हिस्से का योगदान दे रहा है।
तब तक एक और आदमी आकर बैठता है बगल में। बताता है -'सबेरे से दो बिछिया और एक नग मिला। नग पीतल का टुकड़ा निकला। साठ-सत्तर मिले बस्स।'
'आजकल सोना कौन चढाता है।' - दूसरा कहता है।
मिट्टी में मिली हड्डियां अलग-अलग लोगों की हैं। अलग-अलग जाति के लोगों की। पता नहीं लगता कि आदमी की कौन, औरत की कौन। सब एक दूसरे में गड्ड- मद्द। किसी को कोई एतराज नहीं। मरने-जलाए जाने के पहले जिनको आपस में छू लेने भर से बवाल हो सकता है, जलाए जाने के बाद उन्हीं की हड्डियां एक-दूसरे के संग , ऊपर नीचे पड़ी हैं।
'हाथ में कांच लग जाता होगा'- हम पूछते हैं।
'कांच को डरें तो रोजी कैसे कमाएंगे' -पानी में घुसा आदमी हाथ में आई छोटी शीशी की वापस गंगा में फेकते हुए कहता है।
एक आदमी नदी में तैरते नारियल को पकड़कर घाट की सीढ़ियों पर पटककर गरी निकाल कर सबको देता है। हमको भी देता है -'लेव भाई आप भी खाओ।' हम मना करते हैं। वे खाते हैं। एक कहता है- 'भाई जरा तम्बाकू बनाओ।'
'मेहनत की कमाई खाते हैं हम। गंगा मैया आज लगता है मेहनत से खुश नहीं हैं।' - एक फिर निराश होता है।
'सोनू को बुलाओ। वो होता तो अब तक 2000/- का माल मिल जाता। उसके हाथ मे जस है।'-एक कहता है
एक बच्ची जीन्स-टॉप में सीढ़ियों पर बैठी हाथ के मोबाइल को आईने की तरह चेहरे के सामने रखे उससे गाने सुन रही है।
अचानक हल्ला मचता है। एक महिला पानी के साथ बहते दीखती है। लड़की भी चिल्लाती है -'अरे उसको बचाओ।' नदी में नहाता एक लड़का आगे बढ़कर तैरते हुये महिला को घसीट लाता है। सीढ़ियों पर बैठाता है। सब महिला पर गुस्साते हैं -'अभी संगम पहुंच गई होतीं। पानी में क्यों गयी? घर में कौन है? कहां रहती हो?'
बुढिया हांफ़ते हुए बताती है-'कोई नहीं है घर में। तीन लड़के थे। अब कोई नहीं है। बिटिया है, उसकी शादी दूर हुई है। आना-जाना नहीं होता। ऐसे ही अड़ोसी-पड़ोसी कुछ दे देते हैं। गुजारा होता है। हर्ष नगर में घर है। वहां से रिक्शे से आई हूँ। नहा रहे थे, पैर फिसल गया।'
पता चलता है कि महिला के पैर में फाइलेरिया है। सबको लगता है जिंदगी से निराश महिला पानी में डूबने की कोशिश कर रही थी। असफल रही।
जिंदगी आसानी से किसी का साथ नहीं छोड़ती ।
सब पूछते हैं -'घर छोड़ दें।'
पानी में रहने के कारण महिला को ठंड लग रही है। वह धूप में बैठ जाती है। सामने गंगा बैराज दिख रहा हैं। दूसरी तरफ सूरज डूबने की तैयारी कर रहा है। पानी जगह-जगह 'घुम्मर डांस' करता हुआ आगे बढ़ रहा है।
पीछे खड़ी एक महिला झपट कर आगे बढ़कर बताती है कि बुढिया को उसके बच्चे ने बचाया। उसको लगा कि कुछ इनाम मिल जाएगा। लेकिन बुढ़िया की तंगहाली देखकर पीछे हट गई। घाट पर मौजूद लोगों के सामने टहलते हुए मांगने लगी।
लौटते हुए वह आदमी मिलता है जो नदी के पानी में कुछ खोज रहा था। जिससे गंगा मैया नाराज थी। बोला -'कुछ मिला नहीं आज।' मुझसे कुछ पाने की आशा में पास खड़ा है। हम बताते हैं -'बटुआ घर भूल आये।'
मेरी बेवकूफी पर वह मुस्करा दिया। हमने उससे और बेवकूफी का सवाल किया -'इतनी मेहनत की कमाई दारू में क्यों उड़ा देते हो?'
'ठंडे पानी में दिन भर रहते हैं। थोड़ा गर्मी के लिए ले लेते हैं '-उसने तर्क दिया।
आगे बताया कि 16 लोग यह काम करते हैं। शमशानी लोग हैं। ऐसे ही जिंदगी की बसर होती है।
कुछ देर मेरे पास खड़ा रहा इस आशा में कि गंगा मैया की जगह हम ही कुछ दे दें। हम बताते हैं - 'बटुआ घर भूल आये।'
सूरज भाई अपनी दुकान बढाते हुए बोले -'अब घर जाओ। बहुत हुई आवारगी।' हम चुपचाप घर चले आये।

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Tuesday, October 16, 2018

इंसानियत का रिश्ता

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, घर और बाहर
बाब-ए-सिकंदर बेगम

भोपाल के ताल के सामने एक बड़ी इमारत दिखी। दिखी तो गए साल भी थी लेकिन तब केवल बाहर से देख लिए। इस बार मन किया अंदर से भी देखा जाए।
इमारत की सीढ़ियां चढ़ते हुए लगा कि कोई मस्जिद है। मन मे आया कि कहीं गलत तरीके से घुसने के नाम पर दौड़ा न लिए जाएं। घुसने के पहले पूछना बेहतर।
संयोग से एक बुज़ुर्गबार मोटर साइकिल की पिछली सीट पर बैठे उस इमारत को माशूका की तरह बड़ी तसल्ली से निहार रहे थे। घूंट-घूंट भरकर देखने जैसा। हमने उनसे पूछा तो बोले -'देख रहा हूँ इस इमारत को जहां मैं तीस साल रहा।'
इसके बाद तो साहब उन्होंने उस इमारत के किस्से सुनाने जो शुरू किए तो फिर तो लगा समय को स्टेच्यू बोल दिए हैं। खड़ा हो गया टाइम वहीं अटेंशन होकर। बेग साहब हां हाजी बेग नाम है उनका हमको सन 1930 से लेकर अब तक के इतिहास में टहलाते रहे। किस्सा गोई जबरदस्त। उन्होंने बताया कि कैसे उनके खानादान के लोग नरसिंहपुर से भोपाल आये। भोपाल के नबाब से पनाह मांगी। नबाब साहब ने एक महल नुमा घर खुलवा दिया जहां मिट्टी और चमगादड़ कब्जा किये हुए थे। एक के बाद एक किस्से विन्जिप्ड फाइलों की तरह हमारे सामने खुलते गए।
इस इमारत का नाम बताया उन्होंने बाब-ए-सिकंदरमहल। जिसे लोग बाबे सिकंदरी कहते हैं। इस नाम की बेगम यहां रहती होंगी कभी। बाद में सालों बेग साहब रहे।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग खड़े हैं, लोग बैठ रहे हैं और बाहर
आलोक पुराणिक संग हाजी बेग। सबसे बड़ा रिश्ता इंसानियत का होता है।
बेग साहब अपने किस्से सुनाते हुए अपनी बात भी कहते गए। बोले -'इंसान जिन लोगों बीच रहता है उनसे ही तौर तरीका सीखता है। इसलिए अपने से अलग कोई अगर व्यवहार करता है तो यह नहीं समझना चाहिए कि वह गलत ही है। उसका नजरिया भी समझना चाहिए। '
बेग साहब ने एक और बड़ी बात कही। बोले -'सबसे बड़ा रिश्ता इंसानियत का होता है।' यह बात तो तमाम लोग कहते आये हैं। रोज इंसानियत का अंतिम संस्कार करने वाले तक इंसानियत की बात करते रहते हैं। लेकिन बेग साहब ने इसको एक उदाहरण से समझाया । बोले -' आप किसी जंगल मे अकेले फंस गए हों। जंगल का डर, हौवा आपके जेहन में हावी हो जाएगा। ऐसे में कोई इंसान आपको वहां दिख जाए तो आपका डर फौरन खत्म हो जाता है। भले ही वह आदमी गूंगा-बहरा हो। वह अपने इशारों से आपको जंगल से बाहर ले आएगा। उस समय यह फर्क नहीं पड़ता कि अगला हिन्दू है कि मुसलमान कि ईसाई।
बेग साहब की किस्सा गोई वाली गुफ्तगू सुनकर लगा कि भाषा भी कितनी खूबसूरत हो सकती है। किसी खूबसूरती को देखकर जैसे उसको देखते, निहारते रहने का मन करता है ऐसे ही उनको सुनते हुए भी लगा कि बस सुनते चले जाएं।
एक और मजेदार बात कही बेग साहब ने। ऊपर आसमान में उड़ते जहाज की ओर देखकर। बोले ये हवाई जहाज में उड़ने वाले लोग सदियों से मुल्क पर कब्जा किया हैं। इन चार-पांच लाख लोगों को वोट देकर अपनी रहनुमाई सौंपना ही बाकी की रियाया का काम है। इससे ज्यादा का काम और अधिकार रियाया के जिम्मे नहीं है।
आलोक पुराणिक इसी बात को आंकड़ों में कहते हैं कि अपने यहां तीन इंडिया हैं। एक हिस्सा अमेरिका है जिसके पास सब कुछ है। दूसरा हम आप जैसे लोगों को मिलाकर मलेशिया बनता है जिसके पास खाने-पीने - जीने की सुविधा है।तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा युगांडा की तरह है जिसके पास जीने की मूलभूत जरूरतें पूरी करने के भी साधन नहीं।
बहरहाल बेग साहब से मिलकर फिर से यह यकीन पुख्ता हुआ कि सबसे बड़ा रिश्ता इंसानियत का होता है। 

कानपुर में सीधा कोई नहीं चलता



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सबेरे उतरे स्टेशन पर। भोपाल में आधे घण्टे लेट चली पुष्पक कानपुर में बीस मिनट पहले पहुँच गयी। भागी होगी सरपट अंधेरे में। झांसी तक ही राइट टाइम हो गयी। इससे हमको यह शिक्षा मिलती है कि शुरू में पिछड़ जाने पर भी लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं।
पुष्पक जैसी इस रूट की वीआईपी जैसी ट्रेन कानपुर के प्लेटफार्म पर आठ नम्बर मिला रुकने को। जैसे आइंस्टीन को किसी वैज्ञानिक से सभा में बुलाकर मंच के सामने सुनने वालों में बैठा दिया जाए।
उतरते ही कुछ बच्चों ने गुड मार्निग की। याद आया कल भोपाल में नानी की दुकान पर मिले थे। कानपुर से भोपाल रेलवे भर्ती का इम्तहान देने गए थे। क्या पता भोपाल वाले नागपुर या कानपुर आये हों। बच्चे अपने चेहरे की नींद और थकान नल के पानी से धो रहे थे। अनारक्षित डिब्बे में आये थे।
वही प्लेटफार्म पर एक पुलिस वाला दूसरे से उलझा था। पुलिस वाला बिना रिजर्वेशन ऐसी डिब्बे में चढ़ा था। टीटी ने टोंका था। उसने वर्दी का रोब दिखाया। टीटी की वर्दी भी भड़क गई। वर्दी, वर्दी में ठन गयी। स्टेशन पर पूछताछ हो गयी। वर्दी , वर्दी की लड़ाई फिर किसी वर्दी वाले ने ही सुलझाई।
इसके पहले डिब्बे में बिना टिकट चढ़े वर्दी वाले ने फरमाया था-' हम वैसे वर्दी पहनते नहीं। लेकिन आज गुरुजी के साथ हैं इसलिए वर्दी में हैं। पास दिखा रहे हैं।फिर भी ये नखरा दिखा रहा। उधर डब्बे में सैकड़ों बिना टिकट लड़के घुसे हैं। वहां हिम्मत नहीं चेक करने की। बतायेंगे कानपुर में इनको।'
चिरकुट से दिखते गुरु जी ने निस्संग भाव से उवाचा -' बदतमीज है।' गुरु जी के उच्चारण से स्पष्ट नहीं कि बदतमीज किसके लिए कहा उन्होंने। चले गए टीटी के लिए या अपने भक्त पुलिसवाले के लिए। यह भी हो सकता है कि उन्होंने यह आपसी नजारा देखने वाले के लिए ऐसा कहा हो। 
वर्दी वालों को वहीं छोड़कर हम आगे बढ़े। देखा ओला देवी घर तक का 180 रुपया मांग रहीं थी। हम बाहर आ गए। बिना बुक किये ओला। बाहर कई लोगों ने कहा होटल छोड़ दें। 10 रुपये लगेंगे। मन किया घर तक चलें और कहें इसी होटल जाना है। लेकिन मन को हमने बहुत जोर से डांट दिया। पैसे के लिए इतना नीच काम करेगा। घर को होटल बताएगा।
बाहर कुछ महिलाएं गठरियों के पास बैठी थी। हम उनसे बात करते तब तक एक ऑटो वाला अपना ऑटो नागिन सा लहराता हुआ मेरे बगल से गुजरा। हमने उसको लपक लिया। सौ रुपये में तय भी कर लिया। 80 रुपये बचने की खुशी और सिंकदर की पोरस पर विजय की खुशी की तुलना की जाए तो जीत अस्सी रुपये की होगी क्योंकि इसमें न खून खच्चर है न ही मारकाट। अहिंसा की जीत है यह। बच्चों को भी इतिहास रटने से मुक्ति क्योंकि अपन की यह विजय किसी इतिहास में दर्ज नहीं होनी।
आटो वाला लहराते हुए चल रहा था। उसकी ऑटो जमा करना था। हमें लगा अपना ऑटो जमा करने के पहले हमको किसी अस्पताल में न जमा कर दे बालक।
हम सोच ही रहे थे कि उसने वन वे ट्रैफिक में उल्टी तरफ से ऑटो घुसा दिया। हमने टोंका की उल्टा क्यों चल रहे। उसने मुझे समझाते कम डपटते ज्यादा हुए कहा -'कानपुर में सीधा कौन चलता है।' अपनी बात के समर्थन में उसने हमसे आगे जाती कार दिखाई -'वो देखो जा रहे हैं चार पहिये वाले।'
मुझे लगा यह अराजकता का मामला मजेदार है। जिस तरह अपने देश में हर जाति वाला अपने से से छोटी जाति खोज ही लेता है उसी तरह हरेक को अपनी अराजकता सही ठहराने के लिए खुद की अराजकता से बड़ी अराजकता मिल ही जाती है। हर एक को अपनी अराजकता का छप्पर तानने के कोई न कोई अराजकता की बल्ली मिल ही जाती है । यह अराजकता का विश्वबंधुत्व है।
हम चुप हो गए। लगा कि सीधे चलने को कहा तो हमको यह कानपुर की नागरिकता से बेदखल कर देगा। मन में सोचा -'झाड़े रहो कलत्तरगंज।'
घर पहुंचकर चाय बनाई। खालिश दूध की। जिसके लालच में कल आलोक पुराणिक ने अपने ट्रेन तक छोड़ दी थीं। चाय शानदार बनी है। फोटो लगाकर किसी की लार टपकवा कर हम किसी का मोबाइल स्क्रीन खराब नहीं करवाना चाहते। जिसको पीना हो वो आ जाये। लेकिन आये सीधे से। यह न कहे कि कानपुर में सीधा कोई नहीं चलता।

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Monday, October 15, 2018

कानपुर से भोपाल

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, वृक्ष, बाहर और प्रकृति
सूरज भाई ने भोपाल में लपक कर हाथ मिलाया
कल सुबह भोपाल पहुंचे। ब्राह्ममूहुर्त और गजरदम से भी पहले। गाड़ी को नौ बजे पहुंचना था। लेकिन मुंडी पर 'दुर्घटना से देर भली' का झंडा लहराते हुए मुई 3 बजे पहुंची। इस बीच हर घण्टे घंटे भर लेट होती रही। हम कई बार सोये। हर बार संभावित समय के बाद नींद खुलती और लगता हाय भोपाल निकल गया। लेकिन भोपाल शरीफ स्टेशन है। किसी बार निकला नहीं। तसल्ली से आया पांच घण्टे लेट।
स्टेशन पर सवारी का इंतजार करते हुए ओला किराया देख लिया। 180 रुपये बताया। जबतक बुक करें ऑटो वाला आ गया। शान्तिलाल जैन जी ने ओला बुक करने की सलाह इस जानकारी के साथ दी थी कि भोपाल के ऑटो वाले बड़े बदमाश होते हैं। हमने पूछा कि क्या भोपाल के सभी ऑटो वाले व्यंग्यकार हैं क्या जो बदमाशी वाली बात कही। इसका कोई साफ जबाब नहीं दिया शान्तिलाल जी ने लेकिन ओला से आने की सलाह दी।
एक बार ओला किराया जान लिया तो फिर आटो वाले से बात शुरू की। 200 रुपये से शुरु हुई बार दो मिनट में 180 रुपये पर आकर खत्म हुई। चल दिये।
रास्ते में चाय की दुकान देखकर कहा चाय पी लें। ऑटो वाले ने बढ़िया चाय पिलाने की बात कहकर आगे बढ़ा दिया ऑटो। चाय की दुकान रात को भी गुलजार थी। ऑटो वाले ने उँगलियों से विक्ट्री वाला निशान बनाकर कैंची की तरह चलाते हुए दो चाय लाने का इशारा किया। फौरन चाय पानी आ गया। पीकर निकल लिए।
रास्ते में ऑटो बालक ने बताया वह रात को ही ऑटो चलाता है। दस बजे निकला था। 3 बजे उसकी दूसरी सवारी हमारे रूप में मिली। उसने ओला, उबेर को निस्पृह भाव से कोसते हुए कहा- 'इनके चक्कर में धंधा चौपट हो गया। वर्ना अब तक पांच सवारी हो जाती।'
बात करते हुए सुनसान इलाके की तरफ आ गए। हमको लगा कि कहीं कुछ ऊंचनीच न हो जाये। शक भी हुआ कि चाय में कुछ मिला तो नहीं था। हमने फौरन अपने चुटकी काट के देखा की हम सो तो नहीं रहे। लेकिन बहुत देर तक सूनसान रास्ते में कुछ हुआ नहीं तो हमने मन को डरपोक, शक्की, बुजदिल, कायर बताते हुए बहुत हड़काया कि बेफालतू में शक किया।
मन बेचारा डांट खाकर चुप हो गया। इधर उधर देखने लगा। रास्ते मे दुकानों के बंद शटरों पर appo और vivo मोबाइल के नाम लिखे थे। मतलब बन्दी में भी विज्ञापन।
हमको ठिकाने लगाकर ऑटो वाला चला गया। हमने नींद को बुलाया लेकिन नींद आई नहीं। शायद अकेली होने के चलते डर रही हो।। आजकल कोई किसी पर भरोसा नहीं करता।
बहरहाल कुछ देर बाद आलोक पुराणिक की आवाज सुनाई दी। वे अपना कमरा विवरण पूछ रहे थे। हम निकल कर मिले। तब तक सबेरा भी हो गया था। हम। चाय की खोज में बाहर निकल लिए।
बाहर निकलते ही सूरज भाई पेड़ की आड़ में दिखे। करोड़ों मील लंबा हाथ फैलाकर हाथ मिलाया। मुस्कराने लगे। अपन ने पूछा -'आप कब आये सूरज भाई।' सूरज भाई मुस्कराने लगे। लगा गाना गा रहे हों -'तू जहां जहां रहेगा, मेरा साया साथ होगा।'
हमने कहा -'खूब शायरी हो रही है सूरज भाई, बिना मतलब बूझे। क्या चक्कर है।' सूरज भाई हंसने लगे। हम चाय की दुकान खोजने निकल लिए।
चाय की दुकान खोजते-खोजते हम 4500 कदम चल लिए। ऐसा आलोक जी की घड़ी ने बताया। हमको भी सलाह दी कि खरीद लो घड़ी। हमने चाय का आर्डर किया। एक साथ चार। तसल्ली से दो-दो चाय पी। तमाम यादें साझा की। जल्दी-जल्दी बुराई भलाई निपटाई।
रास्ते में आलोक जी ने एक अखबार वाले के पास के सारे अखबारों की एक प्रति ली। बताया कि रोज 12 अखबार पढ़ते हैं। हमें लगा इसीलिए बन्दा इत्ता अपडेट रहता है। पराठे को फोटोजनिक बना देता है। नागिन का ' मी टू ' करा देता है। अपन से कायदे से एक अखबार न पढ़ा जाता।
आलोक पुराणिक से जलने वालों की सूचना के लिए बता दें कि वो पाकिस्तान का अखबार 'द डॉन' भी रोज पढ़ते हैं। इस खबर के आधार पर उनके खिलाफ बयानबाजी की जा सकती है कि वे पाकिस्तानी अखबारों से भी व्यंग्य का विषय उठाते हैं।
बहरहाल लौटकर आये तो फिर चाय हुई। दबाके मेथी के पराठे खाये गए और फिर निकल लिए आयोजन स्थल के लिए। सोनी जी हमको लेने आये थे।
घटना स्थल तक पहुंचते हुए अपन ने सोचा कि रिजर्वेशन कन्फर्म वाला करा लें। इस कोशिश में कामयाब होते तब तक नेट का सिग्नल गोल हो गया। हमने दोबारा कोशिश की तब तक सब रिजर्वेशन हाउस फूल हो गये थे। हमने दोबारा कोशिश की लेकिन तब तक वहां पहुंच चुके थे। हमको मोबाइल में डूबा देख सब हूटिंग करने लगे कि स्टेटस अपडेट कर रहे।
आयोजन स्थल पर कई मित्र मिले। व्यंग्यकार अरुण अर्णव खरे जी को देखकर मैंने उनको ब्रजेश कानूनगो समझकर उनके उपन्यास 'डेबिट-क्रेडिट' की बधाई दे डाली। रास्ते में पढ़े उपन्यास का इत्ता जलवा। हम शर्मिंदा हुए लेकिन हमको इसका फायदा भी हुआ कि शाम तक अरुण अर्णव जी अपना व्यंग्य संग्रह ' हैश टैग और मैं' भेंट किया।
हमने भी बाद में ब्रजेश कानूनगो जी और अरुण अर्णव खरे जी के साथ फोटो खींचकर अपने भरम को साबित करके अपनी शर्म कम करने की कोशिश भी की।
बहरहाल कार्यक्रम शुरू हुआ। शुरुआत सुशील सिद्धार्थ स्मरण से हुई।
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नानी से मुलाकात

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 4 लोग, Kamlesh Pandey, Kamal Musaddi और अनूप शुक्ल सहित, लोग बैठ रहे हैं, लोग खड़े हैं और भोजन
नानी के साथ कमलेश पाण्डेय, आलोक पुराणिक और अनूप शुक्ल — Kamlesh Pandey के साथ.


सबेरे कमरे से निकलते ही ओला खरीद लिए। ठहराव स्थल से भोपाल ताल तक के 155/- रुपये धरा लिए अगले ने। बैठते ही अपन ने पूछा तो ड्राइवर बाबू बोले -'रात भर चलाई है टैक्सी। नींद आ रही है।'
अपन ने कहा -'भाई नींद आ रही हो तो तुम पीछे आ जाओ। हम चला लेंगे।' लेकिन उसको हमारी ड्राइविंग पर भरोसा नहीं था शायद। हम अपनी जान और मोबाइल हथेली में लिए चुपचाप बैठ गए। हमारे चेहरे पर हवाइयों और सुबह की खूबसूरती की सम्मिलित हवा उड़ती देख सूरज भी इतनी तेज मुस्कराये कि सुबह और चमकदार हो गयी।
चलते हुये कमलेश पांडेय को मोबाइलियाये। सो रहे थे। आवाज सुनकर लगा नींद के साथ अंतरंग मुद्रा में हैं। हमने उनको भोपाल ताल पर ही बुलाया।
आलोक पुराणिक के साथ भोपाल ताल किनारे टहलते हुए जायजा लेते रहे। राजा भोज की मूर्ति पर कबूतर कबड्डी और छुआछुओव्वल खेल रहे थे। राजा भोज तलवार नीची किये चुपचाप अपने सर पर उड़ते कबूतरों को देखते रहे।
इस बीच कमलेश जी का फोन आया। हम लोग एक दूसरे को बहुत देर तक खोजते रहे। इस बीच बेग साहब से मुलाकात हुई। उनका किस्सा अलग से।
कमलेश जी ने इस बीच बताया कि वो नानी की दुकान वाली जगह पर खड़े हैं। दुकान बन्द है। हमें लगा दुकान बंद हो गयी। उजड़ गयी होगी। दुख हुआ। बाद में पता चला कि नानी की दुकान बंद नहीं हुई थी, बल्कि अभी खुली नहीं थी।
राजा भोज सेतु पर करते हुए भोपाल के मूल निवासी RD Saxena जी का फोन नम्बर आया। हमने मिला दिया। पता लगा वो अभी शहर से बाहर हैं। बाहर रहते हुए भी हम पर निगाह रखे हुए थे। बात करते हुए बताया -'आलोक पुराणिक हमारे लिए द्रोणाचार्य सरीखे हैं।' हमे लगाया अब आलोक पुराणिक के खिलाफ अंगूठा कटवाने की रिपोर्ट होने ही वाली है। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। हमारे साथ होने का फायदा मिला आलोक पुराणिक जी को। बच गए।
आगे नानी की दुकान पर कमलेश जी मिले। आज उनके बच्चे का पच्चीसवां जन्मदिन है। नानी की चाय पीते हुए जन्मदिन की शुभकामनाएं दी गयी बच्चे को। नानी के साथ पुरानी यादें ताजा हुई। नानी। ने चाय पिलाई। पीते ही दूसरी की फरमाइश हो गयी आलोक पुराणिक की। हमने नानी से कहा -'तुम भी पियो हमारे साथ चाय।' नानी बोली हम बिना चीनी की पियेंगे।
हमने पूछा -'पिछले साल तो नहीं थी यह समस्या।' बोली -'इस बीच तबियत खराब रही। इस लिए चीनी छोड़नी पड़ी।'
चाय पीते हुए पोहा की तैयारी भी होती रही। हमने नानी को बताया कि उनसे पिछले साल मुलाकात पर पोस्ट लिखी थी। उसी पोस्ट को पढ़कर Alok Nigam ने नानी से मिलने की बात याद दिलाई। नानी को पिछले साल लिखी पोस्ट भी पढ़ाई। मुस्कराते हुए पढ़ते हुए नानी भावुक सी हो गयीं। हमने देखा कि उनके पति के न रहने का जिक्र था उस जगह जहां वे रुक गयीं थीं। आगे उनके जज्बे की तारीफ थी। उसे पढ़कर फिर चमक गयीं नानी।
कहने लगीं -'इंसान को हौसला नहीं हारना चाहिए। मेहनत और ईमानदारी से काम करना चाहिए।'
नानी से बात करते हुए यह बात तय हुई कि महिलाओं में विपरीत परिस्थितयों को झेलते हुए हौसला रखने का अद्भुत साहस होता है।
उनके फोन नबंर की बात हुई। बताया नम्बर तो वही है लेकिन फोन नया लेना है। गल्ला काटने वाली नातिन रोशनी पढ़ने गयी है। आज छोटी बहन रश्मि थी दुकान पर।
इस बीच पोहा आ गया। खाते ही आलोक जी बोले 👌। एक और खाएंगे। खिलाया गया। नानी ने पूछा -'पिछले साल के मुकाबले कैसा बना है पोहा ? ' हमने बताया -' बेहतरीन।' नानी खिल गयीं।
चलते समय हिसाब हुआ। 9 चाय, 6 पोहे के 120 रुपये हुए। 200 रुपये नानी को। नानी पैसे वापस करने लगीं। इस पर उनको 20 रूपये और दिए गए -'कम्पट, चॉकलेट खाने के।' इस पर नानी हंसने लगी।
नानी से मिलकर लगा किसी बेहद अपने से बहुत दिन बाद मिले हैं। इंसानियत का रिश्ता , बेहद अपनापे का।
लौटते हुए ओला घड़ी ने बताया 135 रुपया। ऑटो वाले को भी रोक लिया था इस बीच। उसने 150 रूपये मांगे। हमने बताया ओला वाला 135 मांग रहा है। ओला वाला बोला -'वो डीजल से चलती है।' आलोक पुराणिक ने अर्थशास्त्र फैलाया कहते हुए -'डीजल विजल की बात नहीं। जो हमें सस्ते में और आराम से ले जाएगा। हम उससे जाएंगे।'
अगले ने आलोक जी के अर्थशास्त्र के पेंच यह कहते हुए काट दिए -'हम आपको ताजी हवा भी तो खिलाएंगे।' इस डायलॉग के पंच से हम उबरे भी नहीं थे कि उसने उलाहना देते हुए जो कहा उसका लब्बो लुआब यह समझिए -'ऑटो वाले से मोलभाव करते शर्म नहीं आती।'
हम चुपचाप सर झुकाकर ऑटो में घुस गए। सर उठाने से ऑटो की रेलिंग लगने का खतरा था।

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Saturday, October 13, 2018

शान्तिलाल जैन और मार्जिन में पिटता आदमी





"मार्जिन में रहना, मार्जिन में रखना, मार्जिन से डरना और मार्जिन में पिटना हमारी मजबूरी है।" -शान्तिलाल जैन
शान्तिलाल जैन जी के तीसरे व्यंग्य संग्रह ’मार्जिन में पिटता आदमी’ के लेख की ये पंक्तियां देश की आबादी के बड़े हिस्से की कहानी कहता है जो पूरी दुनिया पर भी लागू होता है। इसी लेख का एक और अंश देखा जाये:
"मार्जिन में रहने वाले आदमी और मेनपार्ट में रहने वाले आदमी में एक चीज कॉमन होती है- भूख। मार्जिन के आदमी की भूख रोटी खाने से शांत हो जाती है। मेन-पार्ट का आदमी कुछ भी खा ले-पेट नहीं भर पाता उसका। वो नदी, नाले, पर्वत, तालाब, जंगल, खदानें, चारा, स्पेक्ट्र्म तक सब कुछ खा कर भी अतृप्त रहता है।"
"मार्जिन में पिटता आदमी" के पहले ’कबीर और अफ़सर’ तथा ’ ना आना इस देश’ व्यंग्य संग्रह प्रकाशित ।
शान्तिलाल जी के बारे में पहली बार हमने जबलपुर में रहने के दौरान सुना था। खूब तारीफ़ें सुनी थी। लेकिन उनके लेख पढने से वंचित रहे। आलस्य के चलते किताबें मंगा ही नहीं पाये। पिछले दिनों फ़िर किसी बात पर जिक्र आया तो मैंने उनकी किताबों के बारे में जानकारी की। इस पर शांतिलाल जी ने हमारा पता पूछकर जून के आखिरी हफ़्ते में किताब भेज दी मुझे। किताब मुझे जिस दिन मिली उसी दिन आधी बांच ली। लेख-दर-लेख पंच के नीचे पेंसिलिया भी लिये। सोचा बाकी आधी पढकर इसके पंच सबको पढवायेंगे। लेकिन आज के पहले तक ’बाकी आधी’ पढने का मौका टलता रहा।
इस बीच शान्तिलाल जी को इस वर्ष के ’ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ मिलने की घोषणा हुई। इसमें शान्तिलाल जी के बेहतरीन लेखन के साथ हमको अपनी किताब भेजने के पुण्य भी जुड़े होंगे ऐसा सोचने में कोई बुराई नहीं। 
कल सम्मान समारोह है भोपाल में। अपन के भी जाने की योजना है। पिछली बार जब गये थे भोपाल तो शान्तिलाल जी से मिलना नहीं हुआ था, हमारे रहने, खाने की शानदार व्यवस्था करने के बाद उनको काम से शहर से बाहर जाना पड़ा था।
आज सुबह जल्ली उठे तो ’मार्जिन में पिटता आदमी’ का बाकी बचा हिस्सा हुआ बांचा। यह बांचना उसी तरह रहा जैसे इम्तहान के पहली रात को कोर्स पूरा किया जाता है और जरूरी समझे जाने वाले अंश की पुर्जियां बनाई जाती हैं। तो साहब शान्तिलाल जी के लेखन के बारे में विस्तार से फ़िर कभी। फ़िलहाल उनको दूसरे ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान की बधाई देते हुए उनके व्यंग्य संग्रह ’मार्जिन में पिटता आदमी’ के कुछ पंच यहां पेश हैं।
1. इस देश में सरकारी महकमें का चपरासी कुबेर का नाती होता है।
2. दलदल भ्रष्टाचार का नहीं होता। गरीबी का होता है।
3. यहां भ्रष्टाचारियों का कभी कुछ नहीं बिगड़ता। कुछ लोग जो भ्रष्टाचार के शीशमहल में घुस नहीं पाते वे ही कानून के पत्थर हाथ में लेकर डराते रहते हैं। पत्थर मारने का साहस नहीं है उनमें।
4. गाड़ी अच्छी कंडीशन में हो तो उसका एकाध पार्ट मारकर जुगाड़ का पार्ट लगा भी दिया तो मालिक को पता नहीं चलता। इतनी बेईमानी गैरेज के धंधे में बेईमानी नहीं मानी जाती।
5. पढे-लिखों की मुसीबत है साहब, लाइन भी नहीं तोड़ सकते। सिस्टम ही ऐसा है, पढा-लिखा आदमी हर जगह पिट रहा है।
6. हिंदी फ़िल्मों में नायक का दिल बड़ा कमजोर होता है, जरा सी ठेस लगी और दारू पीने लगता है।
7. निलंबित होना हमारे देश में राष्ट्रीय गर्व का विषय जो ठहरा। जो जितनी ज्यादा बार निलम्बित वो उतना ही सम्मानित, प्रभावी, रखूददार और मालदार।
8. सरकार के अपने ही तीर होते हैं और अपने ही निशाने भी। सुपारी ली है उन्होंने कारपोरेट्स से, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से , विदेशी निवेशकों से, अंकल सैम से, खनिज माफ़ियाओं से।
9. ग्लोबल पार्टियों का एक बाजार है जो तरुणाई के समय, संयम और सेहत के साथ खेल रहा है। तरुणाई ग्लोबल पटिये की गिरफ़्त में है और ग्लोबल पटिया बाजार के।
10. उनके लाकर्स सबसे ज्यादा सोना उगलते हैं जो सोना नहीं खरीदने की अपील करते हैं।
11. सुधारों की बात से ही आम आदमी डरने लगता है, किसान आत्महत्या करने लगते हैं, मजदूर पलायन करने लगते हैं,गृहणियां हताश होने लगती हैं, बेबस माता-पिता बच्चे बेचने लगते हैं। लोकतंत्र के प्रति अविश्वास का माहौल बनने लगता है। ऐसे सुधारों से तो बिगाड़ भला।
12. राजा और चापलूसों का संबंध दीपक और बाती की तरह होता है। बिना बातियों के दीपक जला नहीं करते। बिना चापलूसों के राजा राजा नहीं कहलाता।
13. शुभ मुहूर्त में खरीदी गयीं कारें पंचर नहीं होती। उनके चालान नहीं बना करते। वे एक्सीडेंट प्रूफ़ होती हैं। एवरेज ज्यादा देती हैं। रि-सेल में फ़ायदा दे जाती हैं।
14. तू सोया रहा और पूरा का पूरा बाजार तेरे घर में घुस आया। साथ में जेब से माल निकालने का मूहूर्त भी लाया है। क्या ढूंढ रहा है तू रे जातक।
15. पटवारी इस देश का सबसे ताकतवर अफ़सर होता है। खसरे में से नाम काट दे तो जमीन खिसक जाती है।
16. वैसे भी हम सबके स्टैंड हायकमान के पास गिरवी रखे हैं। जो स्टैंड लेना है वे ही लेंगी। हम सब तो बिना स्टैंड की साइकिलें हैं-पार्टी सर्कस की रिंग में बस घूमते जा रहे हैं। स्टैंड ही लेना होता तो राजनीति में क्यों आते?
17. भारत में लोकतंत्र चुनावों की अधिसूचना जारी होने के साथ प्रारम्भ होता है और वोटिंग मशीन का बटन दबाने के साथ ही समाप्त हो जाता है।
18. देश और देश का पानी बाजार के हवाले है। नदियां तक खरीद लीं कारपोरेट्स ने। अपना अपना पानी खरीदो और पियो।
19. झूठ का महासागर है सोशल मीडिया। आदमी यहां औरत बनकर चैट करता है। सत्तर का होता है सत्रह का घोषित करता है।
20. पक्की सरकारी नौकरी मिल जाये तो आदमी आलसी हो ही जाता है।
21. जाति का पता न हो तो महाकवि किस काम के? काम का महापुरुष तो वही जिसके नाम पर वोट मांगे जा सकें।
अभी पोस्ट में शान्तिलाल जैन जी को टैग करने की कोशिश की तो पता चला कि हम आपस में फ़ेसबुकिया मित्र भी नहीं हैं। आशा है जल्ली ही बनेंगे। शुभकामनायें।

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Thursday, October 11, 2018

आपका क्या होगा जनाबे अली


तीन मीटर दूरी पर रखे रेडियो पर यह गाना बज रहा है। बार बार कह रहा है -'आप का क्या होगा जनाबे अली।' जैसे हमी से सवाल कर रहा हो। मन किया उठकर जाएं और उमेठ के बंद कर दें कहते हुए -'बड़ा आया पूछने वाला -आप का क्या होगा जनाबे अली।'
लेकिन आलस्य ने बरज दिया। आलस्य को लोगों ने 'बेफालतू' में बदनाम किया है। आलस्य के चलते तमाम 'हिंसाबाद' रुक जाता है। किसी को पटककर मारने की मंशा उठाने, पटकने और फिर मारने में लगने वाली मेहनत को सोचकर स्थगित हो जाती है। दुनिया में आलस्य के चलते न जाने कितने बुरे काम होने से बचे हैं। आलस्य की महिमा अनंत है। चुपचाप भले काम करता रहता है यह बिना अपना प्रचार किये।
रेडियो को लगता है हमारे गुस्से की भनक मिल गयी। इसीलिए 'पान पराग' का हल्ला मचाने लगा। बदमाश है रेडियो। जैसे आजकल मीडिया एक बवाल को दबाने के लिए दूसरे बवाल की बाइट फुदकती है वैसे ही रेडियो ने भी 'जनाबे अली' से ध्यान बंटाने के लिए 'पान पराग' चला दिया।
बहरहाल पान पराग की बात पर हंसी आई। सुबह-सुबह की चाय के बाद पान पराग कौन खाता है। चाय वह भी अदरख वाली। लेकिन 'पान पराग' का कॉन्फिडेंस है भाई। सबेरे डंके की चोट पर पान पराग का हल्ला मचा रहा है। वैसे इस कॉन्फिडेंस की वजह है। किसी कनपुरिये मसाला भक्त को कोई अमृत भी दे मसाला खाने के बाद तो मुंह में मसाले के आनन्दातिरेक में आंख बंद करके कहेंगे -'अभी मसाला खाये हैं।' मल्लब मसाले के बाद अमृत कैसे पी लें, मसाले का अपमान होगा।
बहरहाल बात चाय की हो रही थी। सुबह से तीसरी चाय पी। अदरख वाली। पहली चाय में अहा, अहा। दूसरी में ठीक , ठीक। तीसरे कप तक मामला आते आते चाय की इमेज वही हो गयी जो लोकतंत्र में सरकारों के तीसरे चुनाव तक हो जाते हैं। एंटीइनकंबेंसी फैक्टर हर जगह होता है। चुनाव की सुविधा होती तो एक ही केतली की तीसरी चाय पीने के बजाय दूसरी केतली की चाय ही पीते, भले ही पीने के बाद वह पहली से घटिया लगती।
हम और कुछ सोंचे तब तक रेडियो सिटी ने हल्ला मचा दिया कि सीसामऊ में 'ए टू जेड' में सब कुछ मिलता है। दुकान न हुई डिक्शनरी हो गयी। वैसे ये डिक्शनरी भी एक लफड़ा है। पहले तो देखते थे। आजकल तो सब आनलाइन है।स्पेलिंग के हाल बेहाल हैं। जिन शब्दों के साथ बचपन और जवानी में उठते-बैठते रहे उनकी तक याद धुंधला जाती है अक्सर। अक्सर भूल जाते हैं कि किसी शब्द में 'आई' लगेगा कि 'वाई'। 'ई' 'एल' के पहले आएगा या बाद में। इस चक्कर में डॉक्टरों की तरह गड्ड-मड्ड लिख देते हैं। बिना सीपीएमटी किये डाक्टर बन जाते हैं। हमने तो लिख दिया 'गोलिया' के। झेलें पढ़ने , टाइप करने वाले। हड़काने का मौका अलग से मिलता है-'तुमको यह तक नहीं आता। कौन स्कूल में पढ़े हो।'
कभी सोचते हैं कि शब्द भी अगर बोल-लिख सकते और अपने साथ रोज होते दुर्व्यवहार की शिकायत 'मीटू' अभियान के तहत करते तो अनपढ़ों के अलावा दुनिया के सब लोग कटघरे में खड़े होते।
हम और कुछ सोचते तब तक गाना बजने लगा :
'सावन आया रे
तेरे मेरे मिलने का मौसम आया रे।'
हमने हड़काया रेडियो को। हमको हनीट्रैप में फंसा रहा है। जैसे विकसित देश पिछड़े मुल्कों को अपनी पुरानी तकनीक नई कहकर टिका देते हैं वैसे ही ये मुआ रेडियो सावन बीत चुकने के बाद सावन के आने की खबर सुना रहा है। मीडिया की तरह हरकतें कर रहा है। सावधान न रहते तो सही में मिलने के लिए हाथ में गुलदस्ता लेकर निकल लेते।
बहरहाल बाल बाल बचे। अब आगे का किस्सा फिर कभी। अभी चलते दफ्तर। देर हुई तो सही में सुनना पड़ेगा -आप का क्या होगा जनाबे अली।

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