Thursday, June 29, 2017

देखिये, पढिये, सुनिये, गुनिये और धांस के लिखिये

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है। - परसाई
आज देश भर के अखबारों और पत्रिकाओं में धड़ाधड़ व्यंग्य लिखा जा रहा है। व्यंग्य जिसको परसाई जी स्पिरिट मानते थे अब विधा टाइप कुछ होने की तरफ़ अग्रसर है। पता नहीं विधा हुआ कि नहीं क्योंकि कोई गजट नोटिफ़िकेशन नहीं हुआ इस सिलसिले में। जो भी है इत्ता बहुत है कि व्यंग्य धड़ल्ले से लिखा जा रहा है।
व्यंग्य लिखा जा रहा है तो लेखक भी होंगे, लेखिकायें भी। कई पीढियां सक्रिय हैं लेखकों की। पीढियों से मतलब उमर और अनुभव दोनों से मतलब है। कई उम्रदराज लोगों ने हाल में ही लिखना शुरु किया है। कई युवा ऐसे हैं जिनकी लिखते-लिखते इत्ती धाक हो गयी है कि काम भर के वरिष्ठ हो गये हैं।
लिखैत खूब हैं तो लिखैतों की अपनी-अपनी रुचि के हिसाब से बैठकी भी है। व्यंग्य लेखकों के अलग-अलग घराने भी हैं। जहां चार व्यंग्यकार मिल गये वो अपने बीच में से किसी को छांटकर सबसे संभावनाशी्ल व्यंग्यकार घोषित कर देता है। कभी मूड़ में आया तो किसी ने सालों से लिख रहे किसी दूसरे व्यंग्यकार को व्यंग्यकार ही मानने से इंकार कर दिया। इन्द्रधनुषी स्थिति है व्यंग्य की इस मामले में। कब कौन रंग उचककर दूसरे पर चढ बैठे किसी को पता नहीं।
सभी व्यंग्यकार अलग-अलग बहुत प्यारे लोग हैं लेकिन जहां चार व्यंगैत इकट्ठा हुये वहीं लोगों को व्यंग्य सेनाओं में बदलते देर नहीं लगती।अनेक व्यंग्य के चक्रवर्ती सम्राट हैं व्यंग्य की दुनिया में जिनका साम्राज्य उनके गांव की सीमा तक सिमटा हुआ है।
बहरहाल यह सब तो सहज मानवीय प्रवृत्तियां हैं। हर जगह हैं। व्यंग्य में भी हैं। इन सबके बावजूद अक्सर बहुत बेहतरीन लेखन देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के आने के बाद आम लोग भारी संख्या में लिखने लगे हैं । उनमें से कुछ बहुत अच्छा लिखते हैं। उनकी गजब की फ़ैन फ़ालोविंग है। उनके पढ़ने का इंतजार करते हैं लोग। सोशल मीडिया के लोगों के बारे में स्थापित व्यंग्यकारों की शुरुआती धारणा जो भी रही हो लेकिन उनको अनदेखा करना किसी के लिये संभव नहीं है।
कहने का मतलब टॉप टेन और बॉटम टेन की माया में उलझने के बेफ़ालतू चक्कर में पड़कर टाइम खोटी मती करिये। मस्त रहिये। देखिये, पढिये, सुनिये, गुनिये और धांस के लिखिये। जो होगा देखा जायेगा।
आप बुरा मत मानिये भाई यह हम आपसे नहीं कह रहे। यह खुद से कह रहे हैं।

Wednesday, June 28, 2017

हमसे बचकर कहां जाइयेगा


ईद वाले दिन सुबह बड़े चौराहे तक गए। ऑटो से किसी को भेजना था। पूछते ही ऑटो वाला बोला -250 लगेंगे। हमने कहा 150 लगते हैं। फ़ौरन बात 200 रूपये में पक्की हो गईं। पाश कहते थे - 'बीच का रास्ता नहीँ होता।' रास्ते की नहीँ कह सकते लेकिन ऑटो जब बिना मीटर के चलें तो किराए बीच के ही तय होते हैं।
चौराहे पर कई रिक्शे वाले अपने रिक्शों पर गुड़ी-मुड़ी हुए सो रहे थे। पीछे जेड स्क्वायर के पास बोर्ड लगा था -50% ऑफ। ये भाई लोग नींद और थकान के लपेटे में 100% ऑफ हो गए थे। बिना नींद की गोली खाये बेसुध सो रहे थे। क्या पता कोई अनिद्रा के मरीज को समझाइश देने लगे -'रिक्शा चलाओ, फायदा होगा।'
बड़े चौराहे के पास की एक बिंदी-टिकुली की दुकान सुबह पांच बजे चमकती हुई खुली थी। रात भर खुली रही। आसपास के लोगों ने ईद की खरीदारी की थी।
परेड चौराहे से होते हुए आये। कई दुकानों में कोल्ड ड्रिंक बिक रही थी। चौराहे पर तमाम लड़के मोटरसाइकिल पर बैठे अपना ईद का प्लान बतिया रहे थे -कहां , कब जाएंगे नमाज अता करने।
मेस्टन रोड के पास मोड़ पर कुछ दुकानदार ठेलियों पर कपडे बेच रहे थे। पास ही हेयर कटिंग सैलून पर खूब भीड़ थी। रात भर खुला रहा। ईद के मौके पर लोग खूब सजे-संवरे।
लौटकर बड़े चौराहे पर फिर आये। रिक्शे वाले अभी तक सो रहे थे। उनको शायद ईद से कोई मतलब नहीँ था। थके सो रहे थे। उसी समय ख्याल आया कि क्या रिक्शे वाले भी जीएसटी के दायरे में आएंगे। आज भले न आएं लेकिन क्या पता कल को आ जाएँ। सर्विस पर टैक्स तो लगेगा ही। आज नहीं तो कल। कहां तक बचोगे। जीएसटी भी गाना गाता होगा (भले ही बेसुरा):
हमसे बचकर कहां जाइयेगा,
जहां जाइयेगा, हमें पाइएगा।
आगे बड़े चौराहे पर कई परिवार सोते दिखे। कुछ जम्हुआई लेते हुए अभी भी सो रहे थे। उजेला फ़ैल रहा था। सड़क पर गाड़ियां हल्ला मचा रहीं थी। उनको भी उठना पड़ रहा था।
मजार के बाहर मांगने वाले अनुशासित होकर बैठ गए थे। ईद के मौके पर ज्यादा मिलने की गुंजाइश थी।
कुछ देर बाद पैसा निकालने गए। हर एटीएम माफ़ी मांग रहा था। पैसा नहीं था उनमें। किसी एटीएम ने यह नहीँ कहा -'बगल के एटीएम ने नहीँ दिया तो हमको काहे हलकान करने आये।' बाद में एक फेडरल बैंक के एटीएम ने पैसा उगला। बहुत पैसा है अमेरिकी बैंक में।
एटीएम से याद आया कि कल पचास साल पूरे हुए एटीएम को पैसा देते-देते। दुनिया भर में 30 लाख से ज्यादा एटीएम हैं। भारत में 2 लाख से ज्यादा एटीएम हैं। इसमें एसबीआई के सबसे ज्यादा 86 हजार एटीएम हैं। 86 करोड़ लोगों के पास एटीएम डेविड कार्ड हैं। पहला एटीएम लन्दन में 1967 में शुरू हुआ। बीस साल बाद भारत में शुरू हुआ एटीएम। इसे बनाने वालों जॉन शेफर्ड और बैरोन की टीम में से बैरोन की पैदाइश मेघालय में हुई थी। मल्लब एक भारतीय।
मॉल रॉड चौराहे पर सिपाही नहीँ था। लोग लाल बत्ती को होने पर भी फर्राटे से चले जा रहे थे। मतलब लोग बत्ती नहीं सिपाही देखते हैं।
गलियों में कटिया लगे तार सेवइयों की तरह आपस में गुंथे हुए थे। पता लगाना मुश्किल कि किस तार से कौन जुड़ा हुआ है।
आगे चौराहे पर कबूतर अपने लिये बिखराया हुआ दाना चुगते हुए गुटरगूं करते हुए गुफ्तगू कर रहे थे। बीच-बीच में खाया हुआ पचाने के लिए थोड़ा उड़कर फिर वापस आ जाते और दाना चुगने लगते।
यह तो रहा इतवार की सुबह का किस्सा। बाकी का किस्सा फिर कभी। शायद जल्दी ही।
तब तक आप मजे करिये।

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Friday, June 23, 2017

वो हम मंगतों के प्रधानमंत्री हैं

’वो देखो जो सबसे अलग बैठे हैं वो हम मंगतों के प्रधानमंत्री हैं’- तिवारी जी बोले और सब हंस दिये।
अरे! आपको हंसी नहीं आई।।ओह , हाँ , आपको पूरी बात तो बताई ही नहीं। मजा कैसे आयेगा? आइये बताते हैं किस्सा शुरु से।
आज अलसाते हुये जगे। फ़िर उठे। इसके बाद बाहर आये। एक बार फ़िर सोचा -अब कल जायेंगे टहलने। लेकिन फ़िर याद आया कि योग दिवस के दिन रोज सुबह निकलने का तय किया था। फ़िर बयान भी आया था कि साइकिल चलाना सबसे बढिया योग है। सब कुछ के चक्कर में फ़ंसकर ’साइकिल योग’ के लिये निकल लिये।
साइकिल का पहिया नोटबंदी के बाद की अर्थव्यवस्था सा ठीला था। हवा कम थी। गद्दीनसीन होते ही पहिया जमीन से जुड़ गया। साइकिल योग का इरादा टालने के पहले पैर पैडल पर पड़ गया। साइकिल चल दी। अब जब चल दी तो चल दी। हम भी चल दिये।
झाड़ी बाबा की दरगाह पर मांगने वाला इकट्ठा हो चुके थे। देने वाले आने वाले थे। किसी बात पर वे हंस रहे थे। कोई देने वाला आये इसके पहले हंस लिया जाये। फ़िर तो मुंह लटकाना ही है। मंगतों का मुंह लटका होना ही बेहतर होता है। मांग में बरक्कत होती है। धीरे-धीरे हंसने के बाद वे जोर से हंसने लगे। मन किया मंगतों की हंसी पर सीबीआई जांच बैठा दें कि वे हंस कैसे रहे हैं। लेकिन हम कोई सरकार थोड़ी हैं कि जहां मन आये जांच बैठा दें। लेकिन उनको हंसते देख एक बार फ़िर एहसास हुआ कि हंसी पैसे की मोहताज नहीं होती।
बीच सड़क पर एक कुत्ता दुलकी चाल से टहल रहा था। बिना हिले-डुले। आसपास के कुत्ते इतनी अनुशासित कुत्ता चाल को देखकर भौंचक्के से थे। भौंकना भूल गये थे। दुलकी चाल वाला उन कुत्तों को अनदेखा करता हुआ सड़क पर दुलकी चाल से चलता रहा। ऐसे जैसे फ़ैशन परेड में रैम्प सुन्दरियां रैम्प के आसपास भीड़ को नजर अंदाज करते हुये टहलती हुई चलती रहती हैं।
ओईएफ़ के पास होते हुये गुप्तार घाट के मोड़ पर एक चाय पर रुके। कुछ लोग जमे हुये थे दुकान पर। बतिया रहे थे। चाय वाला मुंह में गुटखा दाबे हुये था। केवल सुनने का काम अंजाम दे रहा था।
एक आदमी किसी के बारे में बताते हुये उसकी मां-बहन एक कर रहा था। बोला- ’कौनौ अईसा नहीं होगा जिसको वह साला छुवाया न हो। बगल में खड़ा करो तो डर लगा रहता है कि चपत तो लग के रहेगी।’
’अरे साला एक बार हमसे पैसा मांगिस तेल के लिये और बाद में पता चला दारू पी गवा। बहुत हरामी है।- दूसरे ने पुष्टि की।

’हमारी सुबह चाय से शुरु होती वह साला दारू से कुल्ला करता है।’-तीसरे ने सम्पुट साधा।
पता चला जिसके बारे में बात हो रही थी वह उनके ही गांव का आदमी है। दारू पीता है। चोरी भी करता है। चोरी मतलब चूना लगाने वाली चोरी। कनपुरिया अंदाज में कहा जाये तो अपनो को छुआने वाली चोरी। लोगों को पता है कि वह उनके पैसे मारकर दारू पी जाते हैं लेकिन कुछ कह नहीं पाते सिवाय पीछे गरियाने के क्योंकि अगला उनके ही गांव का है।
हाल अपने देश की तरह का लगा। जनता को पता है जिनको वे अपनी नुमाइन्दगी के लिये चुन रहे हैं वे भ्रष्ट हैं, बाहुबली हैं, माफ़िया हैं लेकिन उनको चुनने के अलावा और कोई चारा नहीं क्योंकि अपने ही देश के हैं। इन्सान अपनों से ही हारता है।
इसी चक्कर में एक और दारूबाज की चर्चा चली जो दारू तो खूब पीता है लेकिन चोरी नहीं करता। दारू और चोरी के गठबंधन वाले के मुकाबले विशुद्द दारूबाज की चर्चा इज्जत से की लोगों ने। ऐसे ही जैसे शहरों के बाहुबलियों की तारीफ़ करते हुये जनता कहती है - ’भैया जी गुंडों के लिये गुंडे हैं लेकिन आम जनता के लिये देवता हैं। भले ही अपनी खिलाफ़त करने वाले को तेजाब से नहलाकर मार दें लेकिन दिल के बहुत भले हैं।’
पता चला पास ही गुफ़्तार घाट है। उधर गये तो देखा गली में अभी जगहर नहीं हुई थी। सड़क पर तमाम लोग सोये हुये थे। शवासन लगाये हुये। कोई पेट के बल, कोई पीठ के बल, कोई गुड़ी-मुड़ी हुआ।
गुप्तार घाट शुरु हुआ तो बाहर कई मांगने वाले चाय पीते हुये देने वालों का इंतजार करते हुये दिखे। एक भाई जी मोटरसाइकिल पर आये। झोला उनको थमाकर बोले -’नमकीन सबको बांट दो’ कहते हुये वे आगे बढ गये। सब लोग नमकीन खाने लगे।
हम साइकिल बाहर ही ठड़िया के गंगा दर्शन करने नीचे उतर गये। गंगा की रेती पर ईंट का चूल्हा सुलगाये चाय बना रहे थे लोग। नाव पर नाविक सवारी के इंतजार में बैठे थे। हमसे बोला- आइये सैर करा दें।
हमारे मना करने पर नाव से उतर कर लकड़ी चूल्हे में और अन्दर ठूंस दी। हमें लगा हमारे सैर से मना करने का बदला वह चूल्हे से ले रहा है। चूल्हा सुलग उठा। चाय भी उबलने को हुई।
गंगा में सूरज भाई डुबकी लगाते हुये नहाते दिखे। हमको देखकर मुस्कराये। एक बगुला नदी के बीच की जमीन पर बैठा चोंच खोलते-बंद करते हुये हमसे नमस्ते जैसा करने लगा।
वापस लौटते हुये पुजारी जी चंदन घिसते हुये हमें तौलते रहे। तौल चुकने के बाद वे चंदन जोर से घिसने लगे। वहां सांसद निधि की कई बत्तियां लगी हुई दिखी। सबमें सांसद जी का नाम लिखा हुआ था। जब बत्ती जलती होगी तब सांसद जी का नाम गरमा जाता होगा। सुलगता होगा।
बाहर निकलते हुये देखा मांगने वाले एक लाइन में बैठे मजे ले रहे थे। आपस में ठेलुहई कर रहे थे। एक ने बताया - ’झांसी से आये हैं। जहां सो गये वही घर। जहां खाना मिल गया वही ठिकाना। बीस साल हो गये कानपुर में मांगते-खाते। जिन्दगी गुजारते।’
दूसरे ने बताया -नेपाल से आये। बीस साल पहले। अब यहीं ठिकाना है।
तीसरे बोले-’इलाहाबाद घर है। घर वाली रही नहीं। बिटिया की शादी कर दी। खंडवा में उसकी ससुराल है। पहले हलवाई का काम करते थे। एक्सीडेंट में चोट लग गयी तो डॉक्टर ने भारी काम को मना कर दिया। इसलिये मांगते खाते गुजारा करते हैं।’
अपने बारे में और बताते हुये बोले- ’तिवारी हैं हम।’ हमने सोचा - ’काम छूट गया लेकिन जाति चपकी है। फ़ेवीकोल का मजबूत जोड़।’
एक आइडिया भी उचककर आ गया। चिपकौवा आईटम बनाने वाले विज्ञापन कर सकते हैं- ’हमारे गोंद से चीजें चपकायें, जाति की तरह मजबूत जोड़ पायें।’
एक से मौज लेते हुये सब बोले-’उनसे भी पूछ लेव हाल। उनका व्याह करना है हम सबको।’
जिनके लिये बात चली वे करीब साठ पार के थे। शायद अन्व्याहे थे अब तक। सब उनसे ठेलुहई कर रहे थे। बुढौती तक कुंवारे रह जाने वाला अगर साधू-सन्यासी न हुआ तो सब मजे लेते हैं। उसके हाल वैसे ही हो जाते हैं जैसे जिन्दगी भर लिखने वाले की कोई किताब न छपने पर होते हैं। या फ़िर वैसे जैसे अपने को बड़ा लिख्खाड़ मानने वाले को इनाम न मिलने पर बाकी लोग मजे लेते हैं।
एक जन उन लोगों से अलग एक पेड़ के नीचे टूटी टाइल पर बैठे थे। उनकी तरफ़ इशारा करते हुये सब बोले- ’वो देखो वो हमारे प्रधानमंत्री हैं। मंगतों के प्रधानमंत्री। वे हमारे प्रधान हैं इसीलिये सबसे अलग ऊंचे आसन पर विराजे हैं।’
एक नया साथी आया । सबके बीच जम गया। फ़सक्का मारकर बैठते हुये बोला-’हम इस मंगतों की एशोशियेशन के महामंत्री हैं।’
बात करते हुये लोगों ने बताया कि वे सुबह छह बजे करीब से दस-साढे दस बजे तक यहां बैठते हैं। जो मिल जाता है ले लेते हैं। इसके बाद कम्पनी बाग चले चले जाते हैं। वहीं सोते हैं। शाम को फिर कहीं मांगने निकल जाते हैं।
सबके खाने का इंतजाम कोई अशोक जी कर देते हैं। व्यापारी हैं। 25 पैकेट खाना रोज बंटवाते हैं।
सबने बताया आमदनी का कोई ठिकाना नहीं लेकिन गुजर हो जाती है। सबके घर हैं अलग-अलग जगह। कभी-कभी घूम आते हैं।
एक ने बताया वह होटल में काम करता था। बर्तन धोता था। हमने कहा - ’तिवारी जी के साथ मिलकर चलाओ होटल। तिवारी जी बनायें, तुम खिलाओ।’ वह बोला - ’हम राजी हैं। लेकिन तिवारी जी माने तब न।’
सबकी दाड़ी खिचड़ी टाइप थी। किसी मजार पर बैठते तो दूसरे धर्म के लगते। शायद हों भी। लेकिन सब यहां जय श्री राम कर रहे थे। वैसे भी मांगने वालों का भी कोई धर्म नहीं होता।
लौटते हुये पुलिस की 100 नम्बर की कई गाडियां दिखी। ड्राइवर के पीछे बैठे पुलिस वाले गाड़ियों के दरवाजे पंखनों की तरह खोले हुये अखबार बांच रहे। फ़ूलबाग में लोग तेजी से टहल रहे थे।
फ़लमंडी के पास खड़े ठेलों में कुछ में दशहरी आम जमे थे। कुछ में लोग अभी तक सो रहे थे। ठेलिया बिस्तरों का काम अच्छा अंजाम देती हैं। एक सब्जी वाला टट्टर के पीछे से एक-एक करके सब्जियों के कान पकड़कर सड़क किनारे पल्ली पर जमी दुकान पर जमा रहा था। सब्जियां ऊंघती हुई दुकान पर जमा हो गयीं थी।
सुबह हो गयी थी। और दिनों की तरह ही एक सुबह थी यह लेकिन और दिनों से खुशनुमा सी लगी।


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Monday, June 19, 2017

हिंदुस्तान जीतेगा, पक्का।


कल सबेरे मेस्टन रोड की तरफ निकले। दुकानों के सामने की 3 - 4 फ़ीट की फुटपाथों पर कई पिच बिछी थीं। अद्धे- गुम्मों के गठबंधन से विकेट बने हुए थे। बॉलर एन्ड पर चप्पलों के ढेर का विकेट बना हुआ था। साधारण लकड़ी का बैट। प्लास्टिक की गेंद। खेल चालू था।

हम रुक कर मैच देखने लगे। फोटो खींचने लगे तो सब बच्चे पोज देने लगे। बल्ले सहित स्टाइल मारते हुए विकेट के सामने खड़े हो गए। हर बच्चे की अलग स्टाइल। मिल कर जमा हो गए विकेट के सामने। पिच के ऊपर।

एक बच्चे ने बैठकर पोज दिया जैसे गेंद को उछालकर मारते हैं। सब खेल में मशगूल।

एक पांच-सात साल का बच्चा पिच के बाद सड़क पार फील्डिंग कर रहा था। हमने उससे पूछा आज मैच में कौन जीतेगा। उसने चेहरे पर बिना कोई भाव लाये बताया- पाकिस्तान। हमने पूछा -हिंदुस्तान काहे नहीं जीतेगा? वो बोला- इण्डिया बुरी है। नाम शायद बताया वाहिद ।

हमने पूछा - तुम रहते कहां हो ?
वो बोला- यहीं रहते हैं। पीछे गली में।

हम कुछ और पूछते तब तक वह बल्ले से निकली गेंद को पकड़ने लपका।

एक बच्चा फील्डिंग करते हुए सड़क और पिच ( फुटपाथ) के बीच की नाली में रपट्टा मारते हुए एक खिलाड़ी को रन आउट करने की कोशिश करता हुआ दिखा। असफल रहा लेकिन पोज अभी तक दिमाग में धंसा हुआ है।

अगली पिच भी बगल ही थी। वहां थोड़े बड़े बच्चे खेल रहे थे। सड़क पार फील्डिंग करते बच्चे अकरम से वही सवाल पूछा -कौन जीतेगा।

बच्चे ने बताया - हिंदुस्तान जीतेगा। पक्का।

हमने पूछा -फेवरिट खिलाड़ी कौन है?

बच्चा बोला -धोनी।

उसके धोनी बोलते ही बीच सड़क पर खड़े फील्डिंग कर रहे बच्चे ने हाथ घुमाते हुए धुर्र धुर्र करते हुए धोनी के हेलिकॉप्टर शॉट की नुमाइश की। जब वह हेलीकॉप्टर शाट का मुजाहिरा कर रहा था एक रिक्शे में सवारी लागे रिक्शा वाला घण्टी बजाते हुए उसको बगलियायते हुए निकल गया। शॉट में व्यवधान न पड़े इस लिए रिक्शा थोड़ा घुमा कर निकाला। सड़क पर जाती बच्चियां लड़कों को खेलते हुए देखती जा रहीं थीं।

आगे फैक्ट्री के पास के मैदान पर बच्चे खेल रहे थे। पटरी से रेल गुजर रही थी। लगान फ़िल्म का सीन। बैटिंग करने वाले बच्चे विकेट की तरफ जा रहे थे। बाकी खिलाड़ी सड़क की पवेलियन पर बैठे हुए थे।

बच्चे पास की कालोनी में रहते हैं। वहां मैदान पर कोई बिल्डिंग बन गयी है। इसलिए घर से दूर खेलने आये हैं। देखते -देखते एक बड़े टिफिन में सबका नाश्ता आ गया। सब उसमें मशगूल हो गए।

एक बच्चे ने मेरी गाडी का नम्बर देखकर अंदाज लगाया -ये गाडी बरेली के पास की है। हमने बताया -शाहजहाँपुर का रजिस्ट्रेशन है।

बच्चे खेल में जुट गए। तब हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मैच हुआ नहीं था। फेसबुक पर तमाम लोग हिन्दुस्तान को बाप बताते हुये इसके जीतने के स्टेटस लगा रहे थे। बाद में पाकिस्तान जीत गया।

हो सकता है पाकिस्तान ने हिंदुस्तान को 'हैप्पी फादर्स डे' कहा हो और हिन्दुस्तान ने उससे कहा हो- 'जीते रहो बेटा।'

पाकिस्तान ने इसे जीतते रहो सुना हो और वालिद की बात मानकर जीत गया हो।

कुछ भी कहिये। गजब का जूनून है दोनों मुल्कों में क्रिकेट के लिए। ये न होता तो दोनों मुल्क अपना टाइम कैसे बर्बाद करते।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और बाहर



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Thursday, June 15, 2017

सैंट्रो सुंदरी का उफ्स मूमेंट



'नन्हे मियां के नाम से मशहूर थे हमारे वालिद। वही हमारे उस्ताद थे। 15 साल की उमर से उनके साथ काम करते हुए हमने काम सीखा।'
हमारी गाड़ी का बम्पर गाड़ी से सटाते हुए बताया जाहिद मियाँ ने।
गाड़ी का बम्पर शहर की गाड़ियों की भीड़ में धक्के खाते हुए राणा सांगा पहले ही हो चुका था। हर कोना विद्रोह का झंडा फहराते हुए गाड़ी से बाहर हो जाना चाहता था। लेकिन विविधता में एकता की तरह टिका रहा। कभी कोई कोना ज्यादा बाहर निकलता तो ऐसा लगता जैसे बम्पर सफर में खिड़की से हाथ बाहर निकाल कर बाकी गाड़ियों को टाटा कह रहा हो।
इसी चक्कर में एक दिन भीड़ में फंस गए। किसी गाड़ी को अँधेरे में हमारी गाड़ी का निकला बम्पर दिखा नहीं। उसने धकिया दिया। बम्पर पूरा निकलकर बाहर लटक गया। गाडी का पिछवाड़ा दिखने लगा। ऐसा लगा मानो 'सड़क के रैंप पर' चलते-चलते गाड़ी की चड्ढी भारी होने के कारण सरक गयी हो। बम्पर गाड़ी के अंतर्वस्त्र जैसे ही तो होते हैं।
गाड़ियों की दुनिया के अख़बार होते तो खबर छपती -'बम्पर के मैलफंकन के कारण 18 वर्षीया सैंट्रो सुंदरी उफ्फ्स मूवमेंट की शिकार।' तमाम लोग गाडी की उतरी हुई चड्ढी की फोटो देखने के लिए फड़क उठते।
किसी अखबार में खबर छपती - ’सड़कों पर गाडियांं तक महफ़ूज नहीं। शाम को बीच सड़क आवारा बुलेरो बुजुर्ग सैंट्रो का बम्पर नोचकर फ़रार।’
बहरहाल जो हुआ सो हुआ। अँधेरा होने के चलते ज्यादा किसी ने देखा नहीं इसको और गाडी की इज्जत बच गयी। अगले दिन बम्पर रिपयेर करवाने गए। मालरोड पर ही सड़क किनारे बने एक गैराज में रिपेयर करते हुए मिले जाहिद भाई। उनसे गाडी बनवाते हुए उनके किस्से भी सुनते रहे।
बताया -'हमारे वालिद बहुत नामी कारसाज थे। नन्हे मियां के नाम से मशहूर। बहुत पुराना गैराज है। बताते थे कि अंग्रेजों के जमाने में यहाँ 4 बजे के बाद किसी हिन्दुस्तानी को रुकने की इजाजत नहीं थी।'
जिस तल्लीनता से हमारे जख्मी बम्पर की मरहम पट्टी करते हुए जाहिद भाई ने मरम्मत का काम किया उससे एक बार फिर से स्कूल के दिनों में पढ़ी वह कहानी याद आ गयी जिसमें एक नाई बड़ी तसल्ली से मजदूर के बाल बनाता है यह कहते हुए कि भले ही यहां से जाने के बाद इसमें बाल ख़राब हो जाएँ लेकिन हमको तो अपना काम ठीक से करना है।
किसी सैंट्रो के गैराज में जाते तो पक्का वहाँ पुराना बम्पर नोंचकर फेंक दिया जाता। नया लगा दिया जाता। हम पुराने बम्पर की लाश लिए घर लौटते। दुनिया में प्लास्टिक का कचरा बढ़ता। नया भी बराए शहर ट्रैफिक की मेहरबानी , ठुकठुका कर कुछ दिन में राणा सांगा हो जाता।
गाड़ीसाज ने न केवल बम्पर ठीक किया बल्कि गाड़ी के तमाम गड्ढ़ों को भरकर उनको स्प्रेपेण्ट से चमकाकर गाडी का फेशियल टाइप कर दिया।
नन्हे मियां के बारे में बताते हुए बोले-' कुछ साल पहले इंतकाल हुआ उनका। सिगरेट बहुत पीते थे। इसी चक्कर में बीमार हुए। लंग्स खराब हुए। दस साल पहले सिगरेट छोड़ दिये थे लेकिन इसके पहले इतना धुंआ पी चुके थे कि फ़िर ठीक नहीं हो पाये।
बीहड़ सिगरेट्बाज मरहूम वालिद से एकदम उलट जाहिद मियां किसी नशे की गिरफ़्त में नहीं फ़ंसे। सिगरेट, पान, बीड़ी , मसाला सबसे मुक्त।
बड़ी उमर के दीख्ते जाहिद भाई ने उमर बताई 45 साल। दो छोटी बच्चियां हैं। दस साल से कम उमर की।
घंटे भर से ज्यादा की ठुकठुक के बाद गाड़ी चकाचक टाइप हो गयी। मजदूरी कुल जमा 270/- लगा बहुत सस्ते में काम हो गया।
सात बजे शाम को माल रोड से वापस आते हुये सोचा कभी अंग्रेजों के जमाने में यहां कोई हिन्दुस्तानी शाम चार बजे के बाद दिखता नहीं था। अब हाल यह कि यहां सात बजे सिर्फ़ हिन्दुस्तानी ही नजर आ रहे। कोई अंग्रेज नहीं दिख रहा।
समय होत बलवान !

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Tuesday, June 13, 2017

टॉप किया तो डरना क्या?

लड़के ने अभी परीक्षायें दी हैं। रिजल्ट आने में समय है। लेकिन जिस तरह चुनाव में  हर पार्टी अपने बहुमत के प्रति आश्वस्त रहती है उसी तरह बालक को भी इत्मिनान है कि टॉप उसी को करना है। इसी इत्मिनान के भरोसे होने वाले टॉपर ने एडवांस में प्रेस कान्फ़्रेन्स का इंतजाम कर लिया है। बिना विलम्ब के आइये आपको टॉपर की प्रेस कान्फ़्रेन्स में ले चलते हैं:

सवाल 1: आपको इम्तहान में टॉप करने की प्रेरणा कहां से मिली?

जबाब:  मैं बचपन से ही टॉप करना चाहता था। हमेशा लगता है कि बस टॉप करना है। टॉप करना है। बाद में लोगों से सुना भी कि किसी भी फ़ील्ड में रहो, बस टॉप पर रहो। टॉपर की बरक्कत अच्छी होती है। लोग टॉपर को ही पूछते हैं। देखिये हर फ़ील्ड में यह हो रहा है। इसलिये हम टॉप करना चाहते थे और किये भी। कह के किये कोई चोरी छिपे थोड़ी किये।

सवाल: आपने पहले से अपने टॉप करने की घोषणा कैसे कर दी थी? आपको इतना आत्मविश्वास कैसे है अपने टॉप करने का?

जबाब: अगर आपको फ़िल्मों में जरा सा भी रुचि है तो आप  देखे भले न हों लेकिन  गैंग ऑफ़ वासेपुरपिक्चर का नाम जरूर सुनें होंगे। उसमें हीरो कहता है - कह के लेंगे।लिया भी। तबसे हमने भी सोच लिया था कि जब टॉप करेंगे तब कहकर करेंगे। इसीलिये हमने भी सोच लिया था कि जब करेंगे टॉप तब डंके की चोट पर करेंगे। चोरी छिपे नहीं करेंगे। इसके लिये हमने गाना भी बनाया है- ’टॉप किया तो डरना क्या?’ सुनायेंगे कभी। 


सवाल: टॉप करने के लिये आपने तैयारी कैसे की? कितने घंटे पढते थे आप?

जबाब: आप लोग पुराने जमाने के लोगों की तरह टॉप करने को पढाई से जोड़ते हैं। टॉप करने के नये तरीकों के बारे में आप लोगों को जानकारी ही नहीं है। आपको बताते हैं कि टॉप करने के मोटा-मोटी दो तरीके हैं- एक पढकर टॉप करना दूसरा बिना पढे टॉप करना। पढकर  टॉप करने वाले टॉप करने के बाद बस टापते ही रह जाते हैं। ज्यादा आगे नहीं बढ पाते हैं। जबकि बिना पढे टॉप करने वाले बहुत आगे जाते हैं। पढाकू टॉपर केवल किताब, कोचिंग, नोट्स, कुंजी और भगवान की पूजा के भरोसे रहता है। उसका प्रयास एकल प्रयास होता है। इसीलिये  भी उसके टॉप करने की कोई गारन्टी नहीं होती। जबकि बिना पढे टॉप करने वाले लोग सामूहिक प्रयासों से टॉप करते हैं। पेपर आउट करवाने, इम्तहान में नकल करवाना, कापी जांचने में सेटिंग, रिजल्ट बनवाने में जुगाड सब जगह इंतजाम करना होता है।  सामूहिकता का अद्भुत  सौंदर्य होता है बेपढे का टॉप करना। ’सबका साथ, सबका विकासका उदात्त रूप होता है बिना पढे टॉप करना। इस तरीके में सबसे अच्छी बात है कि टॉप करने के लिये पढना जरूरी नहीं होता। बिना किसी सदन का सदस्य बने मंत्री बनना  जैसा ही समझिये है-  बिना पढे टॉप करना।

सवाल: फ़िर भी कुछ तो आना चाहिये जिसमें टॉप किया आपने। 

जबाब:  जैसे इलाके के विकास के नाम पर चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि अपने विकास में उलझ जाने के चक्कर में इलाके के विकास पर ध्यान नहीं दे पाते उसी तरह हम भी टॉप करने की योजना पर अमल में ही इतना बुरी तरह अरझे रहे कि कुछ पढाई ही नहीं कर पाये। नेक्स्ट सवाल प्लीज।

सवाल: आपको अपने विषय तो पता होंगे। साइंस में टॉप किये हैं कि आर्ट्स में? कुछ तो बताइये।

जबाब: विषय जानने के लिये आपको हमारी मार्कशीट आने का इंतजार करना होगा। हमको शिक्षा व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। जिन विषयों में वह बतायेगा कि उसमें टॉप किये हैं हम मान लेंगे। उनका बयान हमारा बयान होगा। अगला सवाल।

सवाल: बिना कुछ पढे-लिखे, बिना अपने विषय की जानकारी के टॉप करने का हौसला आपको कैसे आया? आपको डर नहीं लगा कि पोल खुलने पर पकड़े जायेंगे जैसे पुराने टॉपर पकड़े गये हैं?

जबाब: आपने एक पिक्चर देखी होगी- गजनी। उसमें हीरो आमिर खान थोड़ी-थोड़ी देर में पुराना सब कुछ भूल जाता है। गजनी का आमिर खान हमारी प्रेरणा बना। हमारा  ’गजनी अभ्यास’ इतना तगड़ा हो गया है कि अपना नाम तक भूल जाते हैं। जितना बार लोग पूछते हैं, अलग नाम बताते हैं। कहने का मतलब कि हम गजनी घराने के टॉपर हैं। 


सवाल: लेकिन टॉप करने के लिये आपने गजनी माडल का ही चुनाव क्यों किया?
जबाब: वो क्या है न कि  ’गजनी माडल’ सेफ़ है। दुनिया में जित्ते भी धतकर्मी हैं,  सब ”गजनी माडल’ अपनाते  हैं। दंगा करवाकर भूल जाते हैं। घपले करके याद नहीं करते। वादे करके भूल जाते हैं। सपना दिखाकर गोल हो जाते हैं। हम भी उसी गजनी घराने के टॉपर हैं। जो पढे सब भूल गये।  दुबारा याद ही नहीं आया। अब अगर गजनी की तर्ज पर कुछ याद नहीं आ रहा तो इसमें हमारा क्या दोष? हमारी न सही लेकिन एक हिट फ़िल्म की इज्जत तो करो। जो हमको पकड़ने आयेगा उससे कहेंगे - जाओ पहले गजनी पिक्चर देखकर आओ। पैसे न हों तो हमसे ले जाओ। पिक्चर देखने के बाद अपना आइडिया बताओ।’ 

सवाल: फ़िर भी अगर पुलिस आपको पकड़ने पर आमादा ही हो गयी तो क्या करेंगे आप?
जबाब: हम फ़ौरन  एंग्री एंग मैन’  हो जायेंगे। हल्ला मचायेंगे - ’हमको पकड़ने से पहले उस उस मास्टर को पकड़ के लाओ जिसने हमको नकल करवाया। उस स्कूल प्रबंधक को पकड़ के लाओ जिसने हमको टॉप करने के झांसे में फ़ंसाया। उस मंत्री को पकड़ के लाओ जिसने शिक्षा विभाग को गर्त में गिराया। पिछले टॉपर को पकड़कर लाओ। उसको पकड़कर लाओ जिसने हमें सिखाया कि टॉप पर रहे बिना जिन्दगी बेकार है, शिक्षा व्यवस्था को गर्दनियाओ जिसने टॉपर करने को इतना जरूरी बना दिया कि लडका लोग सब भूल जाता है।’............ इसके बाद जो करना होगा पुलिस करेगी। हम अकेले केतना देर चिल्ल्लायेंगे।

सवाल: पकड़े जाने के बाद फ़िर क्या करेंगे?
जबाब: करेंगे क्या? वही करेंगे जो बाकी जेल जाने वाले करते हैं। छूटकर आयेंगे तो सीधे पालिटिक्स में कूद जायेंगे। अपनी गिरफ़्तारी को विरोधियों की साजिश बतायेंगे। न्यायपालिका पर भरोसा जतायेंगे। अगला चुनाव लड़ जायेंगे। जीते तो मंत्री पद हथियायेंगे। टॉप पर जायेंगे। 

सवाल: और अगर हार गये तो?
जबाब: हार गये तो जनता जनार्दन का निर्णय सर माथे पर धरकर शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिये जुट जायेंगे। स्कूल बनवायेंगे। प्रबंधक बन जायेंगे। जैसे हम टॉप किये वैसे लोगों को टॉप करना सिखायेंगे। गांव-जवार का नाम आगे बढायेंगे।

इंटरव्यू निपटने के बाद जब रिजल्ट आया तो बालक का नाम टॉपर की लिस्ट में नहीं था। पता चला परीक्षा  में धांधली हो गयी। रिजल्ट में पैसा चल गया। एन टाइम पर मेरिट लिस्ट बदल गयी।  जितने पैसे में बालक से सौदा तय हुआ था टॉप कराने का उससे ज्यादा देकर कोई दूसरा टॉप कर गया। बालक का नाम मेरिट लिस्ट में नीचे आ गया है। बालक दुखी है।  शिक्षा व्यवस्था के माफ़ियाओं से भरोसा उठ गया। न्यायपालिका पर भरोसा करने का सपना टूट गया है। 

हम बालक के दुख में दुखी हो गये। एक बार तो मन किया उसको नीरज की कविता सुना दें- ’कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता’। लेकिन फ़िर बालक के चेहरे पर पसरे आक्रोश को देखकर मन मार लिये। 

यही सोचकर रह गये कि  माफ़िया लोग तक अपनी बात से पलट जा रहे हैं। जिसको टॉप कराने की बात तय हुई थी उसको छोड़ किसी दूसरे को टॉप करा रहे हैं।  समाज में मूल्यों का बहुत तेजी से क्षरण हो रहा है। देश बहुत तेजी से रसातल में जा रहा है। 

Monday, June 12, 2017

खेती


खेती दुनिया का सबसे पुराना व्यवसाय है। व्यवसाय बोले तो पेट पालने का तरीका। सबसे ज्यादा लोग खेती करके पेट पालते हैं। गरीब देशों में 75 % तक लोग खेती करते हैं। जितने ज्यादा किसान उतना गरीब देश। भारत एक कृषि प्रधान देश है। मतलब गरीब देश है। गरीबी से छुटकारा पाना है तो किसानी छोड़नी होगी।

किसानों की संख्या कम करने के लिये तेजी से काम हो रहा है। किसानों की संख्या कम करने के उपाय किये जा रहे हैं। उन पर गोली चलवाई जा रही है। किसान भी आत्महत्या करते हुये इसमें सहयोग कर रहे हैं। लेकिन स्पीड कम है इस उपाय में। वैसे भी हाय-हत्या से कोई मामला हल नहीं होता इसलिये दीगर उपाय भी सोचे जा रहे हैं। ऐसे उपाय जिससे खेती दिन पर दिन मुश्किल होती जाये। किसान झल्लाकर खेती छोड़कर दूसरा व्यवसाय थाम ले। शहर में मजदूरी करने लगे। कारखानों में सस्ते में खटने लगे। बाजार को सस्ते मजदूर मिलेंगे। किसान अपनी ही जमीन पर बने कारखानों में दिहाड़ी पर काम करेंगे। मालिक नौकर हो जायेगा। देश खुशहाल हो जायेगा।


खेती के लिये बीज न मिलना, सिचाई के लिये पानी न मिलना, फ़सल पैदा होने के बाद उसका दाम न मिलना, इसके बाद जिन्दा रहने के लिये अन्नदाता को अन्न न मिलना जैसे उपाय अमल में लाये जा रहे हैं। गांव के लोगों को गंवार कहते हुये खेती छोड़ने के लिये उत्साहित किया जाता है। यह उपाय इतना कारगर है गांव से आकर शहर में बसा बेटा शहर में अपने बाप को पहचानने से मना कर देता है।


खेती सबसे पुराना व्यवसाय है। धंधों में सबसे बुजुर्ग। नये धंधों के सामने इस बुजुर्ग धंधे की कोई इज्जत नहीं है। मार्गदर्शक धंधा हो गया है खेती। खेती से जुड़े लोग मौका मिलते ही इसको नमस्ते करते जा रहे हैं। 

  
खेती के हाल अब बेहाल हैं। गांवों पर पिक्चरें नहीं बनती। हीरोइनें अब खेतों में काम नहीं करती। हीरो लोग खेत में गाना नहीं गाते। गांवों में प्रेम करना मुश्किल काम हो गया। सारी प्रेम-मोहब्बत शहरों में शिफ़्ट हो गयी है। इसलिये भी खेती में लोगों की रुचि कम हो गयी है।

जमीन पर होने वाली खेती से ध्यान हटाने के लिये दुनिया भर में तमाम दूसरी  तरह की खेतियों का चलन भी शुरु किया गया है। आश्वासनों की खेती करने वाले लोग सरकारें बना रहे हैं। पैसे की खेती कर रहे हैं। सपनों की खेती करने वाले फ़र्जी क्रांति करते हुये मालामाल हो रहे हैं। नकल की खेती वाले जाहिल शिक्षा व्यवसाय पर कब्जा किये हैं।  लहसुन, प्याज तक से परहेज करने वाले मीट की खेती में छाये हुये हैं। इनामों की खेती वाले साहित्यिक हलकों के लंबरदार हैं। हथियारों की खेती वाले लोग विश्व में शान्ति व्यवस्था का ठेका हथियाये हुये हैं। दुनिया भर में कत्लेआम मचाते हुये शांति बहाली में जुटे हुये हैं।

कहने का मतलब कि दुनिया में असली खेती भाव गिर रहे हैं। दूसरी  वर्जुअल खेतियां लहलहा रही है। छ्द्म का जमाना है। इसी से कमाना है। आप तो खुद सब समझते हैं। समझदार हैं। समझदार को कुछ क्या बताना ?






  






Sunday, June 04, 2017

सड़क, फुटपाथ, चबूतरे आम जनता के शयनकक्ष हैं


आज साइकिल वॉक पर निकले। करीब पांच बजे। सड़क किनारे लोग जगह-जगह सबेरे की ’नींद मलाई’ मारते दिखे। कोई सीधे, कोई पेट के बल। ज्यादातर लोग गुड़ी-मुड़ी हुये सोते दिखे। तमाम रिक्शों की गद्दी के सोफ़े बनाये हुये लोग सो रहे थे।
चाय की दुकाने गुलजार हो गयीं थीं। हर पचास कदम पर एक दुकान। एक दुकान पर टीवी चल रहा था। उसके सामने फ़ुटपाथ पर ही बैठे लोग चाय पीते हुये कोई सिनेमा देख रहे थे। कौन पिक्चर चल रही है किसी को पता नहीं था। बस सब टकटकी लगाये देख रहे थे। एक्शन , मार-धाड़, हल्ला-गुल्ला। एक दम किसी लोकतांत्रिक देश की तरह सीन। क्या हो रहा पब्लिक को पता नहीं। लेकिन जो हो रहा है जनता उसी को देखने में मशगूल है।
चाय की दुकान के बगल मे एक लोहे की सरिया की सीढी लगी दिखी। एक आदमी लपकता हुआ आया। चार सरिया चढकर दीवार की दूसरी तरफ़ उतर गया। बाद में हमने देखा- वह दीवार के पार सर झुकाये उकड़ू बैठा था। बीड़ी पीते हुये सुबह की सुलभ क्रिया में तल्लीन।
माल रोड पर सड़क पर लोग वहां तक सोये हुये थे जहां तक दिन में गाड़ियां पार्क की जा सकती हैं। नयेगंज की तरफ़ जाते हुये चबूतरों, फ़ुटपाथों, रिक्शों, ठेलियों, टेम्पो पर सोते दिखे। जिसको जहां जगह मिली , सो गया। सड़क, फ़ुटपाथ, चबूतरे आम जनता के शयनकक्ष हैं।
एक चाय की दुकान के बाहर बैठा आदमी बहुत तेजी से बीड़ी पीता दिखा। उसकी तेजी से लगा कि उसको पता चल गया होगा कि जीएसटी लागू होने पर बीड़ी मंहगी हो जायेगी। इसलिये जितना धुंआ लेना हो अभी ले लो।
पेठे की दुकान पर एक आदमी अंजुरी भर-भरकर पेठों को एक डलिया से दूसरी डलिया में उडेल रहा था। पेठे अनमने से धप्प-धप्प डलिया में गिरते जा रहे थे। आम जनता की तरह उनको भी कोई शिकायत नहीं। जहां मन आये रखो। जिस डलिया में चाहो उसमें उड़ेल दो। हम कौन होते हैं कुछ बोलने।
एक जगह दो बाबा लोग चिलम खैंच रहे थे। तसल्ली से। पता चला झूंसी, इलाहाबाद के रहने वाले हैं। कानपुर आये हैं, मांगने-खाने-जिन्दगी बिताने।
बाबा लोगों से बात करते हुये देखा एक बिल्ली करीब दस फ़ीट ऊपर होर्डिंग पर चढी एक छत से दूसरी पर जाने की कोशिश कर रही थी। हमने फ़ोटो खैंचकर उसको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। कहीं गिर जाती तो दोष हमारे ऊपर आता। फ़िर भी वह अपने आप होर्डिंग के पीछे लद्द से गिरी। गिरते ही फ़ौरन उठकर फ़िर दूसरी छत पर चली गयी। गिरने के बाद उसके मन से शायद दुविधा खतम हो गयी थी। आत्मविश्वास आ गया था। पहले सहमते हुये चल रही थी। गिरने के बाद अकड़ते हुये चलने लगी। गिरने के बाद संभावित चोट का डर खत्म हो गया था उसके अंदर से।
इस बीच बाबा लोग चिलम पीकर अपने-अपने रास्ते चले गये। हम चलने को हुये तब तक एक बच्चा अपनी साइकिल समेत हमारी साइकिल से आ भिड़ा। उसकी साइकिल ऊंची थी। उचक-उचककर साइकिल चला रहा था। अगला पहिला ब्रेक मारते-मारते हमारे पैड़ल से भिड़ गया। हमने उसको संभाला। संभल जाने के बाद वह फ़िर उचकता पैड़ल मारता चला गया।
बिरहाना रोड होते हुये वापस आये। शहर का सर्राफ़ा बाजार अभी सो रहा था। जहां निकलने को जगह नहीं होती वहां सड़क के दोनों तरफ़ फ़ुथपाथ तक जगह खाली। जहां मन आये निकल लो। जितना मन आये चल लो। शाम/रात को वाहनों के भभ्भड़ में ढंकी सड़क सुबह-सुबह ऐसी लग रही थी जैसी कोई लगातार ढंकी रहने वाली खूबसूरत सड़क सुबह-सुबह ’स्लीवलेस सुन्दरी सी’ दिख जाये। कुल मिलाकर कवि यहां कहना यह चाहता है कि - सांवली सडक सुबह-सुबह बड़ी खूबसूरत लग रही थी।
चौराहे पर दीनदयाल उपाध्याय जी प्रतिमा के पास तमाम कबूतर दाना चुगते हुये गुटरगूं-गुटरगूं कर रहे थे। थोड़ी देर दाना चुगने के बाद सब एक साथ उड़ते हुये फ़िर वापस आकर दाना चुगने लगते। शायद चुगा हुआ दाना पचाने के लिये उड़ते होंगे। पास ही दो तारों पर तमाम कबूतर कतार में बैठे हुये थे। वे दाना चुगते, उड़ते और फ़िर दाना चुगने के लिये बैठ जाते कबूतरों के कौतुक देख रहे थे।
शायद तार पर बैठे कबूतर ’आम कबूतर’ हों और दाना चुगने वाले कबूतर ’खास कबूतर’ हों। जो हो कुछ पता नहीं चल पाया। किसी कबूतर से बात करेंगे कभी इस बारे में।
यह हो सकता है कि दाना चुगते, उड़ते फ़िर वापस आते कबूतर जिस जगह बैठे हों वह कबूतरों की संसद हो। सत्ता पक्ष के और विपक्ष के लोग खाते-पीते-दाना चुगते किसी विषय पर आपस में गुटरगूं करते हों। किसी विषय पर मतभेद होने पर जगह छोड़कर उड़ जाते हों। जिस तरह अपने माननीय जनप्रतिनिधि बहिर्गमन करते हैं। उसी तर्ज कबूतर लोग भी ’कपोत संसद’ से आकाश गमन करने उड जाते हों। कुछ देर बाद फ़िर वापस आ जाते हों।
लौटते हुये पास ही फ़ूल मंडी देखी। गेंदा, गुलाब और कुछ दूसरे फ़ूल बिक रहे थे। गेंदा बहुतायत में थे। गेंदे का दाम पूछा तो बताया एक ने- ’फ़ूल-फ़ूल की बात है। जैसा फ़ूल वैसा दाम।’ दूसरे ने बताया - ’20 से 25 रुपये किलो बिकता है गेंदा।’
मतलब आपको कोई पाव भर की माला पहनाकर सम्मान करे तो समझिये 4-5 रुपये की इज्जत हो गयी आपकी।
वहीं कुछ लोग माला बनाते हुये दिखे। चाय की दुकाने भी खुल गयीं। कुछ रिक्शे वाले और अन्य सवारियां भी। मतलब एक रोजगार से दूसरे रोजगार की गुंजाइश बनती है।
माला वाली बात से हमको नंदलाल पाठक जी की कविता भी याद आ गयी:
’आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।’
लौटते हुये देखा एक बुजुर्ग फ़ुटपाथ पर पेट के बल लेटा हुआ था। ऐसे सो रहा था जैसा कोई बच्चा अपनी मां के पेट से चिपक कर सो रहा हो।
नशा मुक्ति केन्द्र के पोस्टर के पास एक युवा ’नींद नशे’ में डूबा सोफ़े पर लेटा । इस नशे से किसी को क्या मुक्ति दिलाना। रमानाथ जी कविता याद आ गई:
चाहे हो महलों में
चाहे हो चकलों में
नशे की चाल एक है!
किसी को कुछ दोष क्या!
किसी को कुछ होश क्या!
अभी तो और ढलना है!
सामने की चाय की दुकान पर बजते हुये रेडियो में गाना बज रहा था - ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।’
घर के पास मजार के बाहर फ़ुटपाथ पर एक आदमी बैठे-बैठे सो रहा था। मुंडी छाती से चिपकी ठहरी हुई थी। मानो सोते हुये अगला अपना दिल देख रहा हो।
सामने अधबना ओवरब्रिज अपने अधूरेपन के साथ मुस्कराता हुआ गुडमार्निंग कर रहा। हमें लगा वाकई सुबह हो गयी है।
आपको इतवार की सुबह मुबारक।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10211592547422734

अगली गेंद थी बहुत तेज वो

गेंदवा फ़ेंकी जब बालर ने, कोहली देखिन आंख दबाय,
घुमा के मारा बल्ला सीधे, गेंद की खोपड़ी गयी भन्नाय।
बालर आवा उचकत-भागत, निकली गेंद हाथ से सन्नाय,
उचक के मारा है धोनी ने, गेंद गिरी बाउंडरी के बाहर जाय।
फ़िरकी बालर नाचत आवा, मटकत मनो नचनिया आय,
वहीं दबाया है बल्ले से, गेंद के कस-बल निकल गये भाय।

खट-खट बल्ला चलता, भड़-भड़ रन भी बनते जायें,
फ़ील्डर भागे दायें-बायें, गेंद रुकी बाउंड्री ही पर जाये।
उचक के मारा छक्का फ़िर से, चीयरलीडरानी गयी गुस्साय,
नठिया बहुत है ये बल्लेबाज, कमर हमारी दिहिस चटकाय।
अगली गेंद थी बहुत तेज वो, हेलमेट के बगल से गयी भन्नाय,
पकड़ा उसको विकेटकीपर ने, फ़ील्डर देख रहे च्युन्गम चबाय।

कट्टा कानपुरी 

Thursday, June 01, 2017

सहज बेवकूफ़ी का सौंदर्य




कई दिन से हम श्रीमती जी के प्रिपेड फ़ोन में बैलेन्स डलवाने की कोशिश कर रहे थे। कई आनलाइन साइट में भुगतान किया। हर साइट ने कुछ ही देर में माफ़ी मांगकर पैसा वापस कर दिया। मतलब मोबाइल चार्ज नहीं हुआ। हमें लगा कुछ मोबाइल गड़बड़ा गया है शायद।
आज शाम को घर आते ही फ़िर किस्सा-ए-मोबाइल शुरु हुआ। हम उसको जेब में डालकर बाजार की तरफ़ निकल लिये। मोबाइल चार्ज करने वाले को नंबर बताया। उसने सेवाप्रदाता पूछा। हमने बता दिया- बीएसएनएल। उसने पैसे लिये और मोबाइल चार्ज कर दिया।
मोबाइल का सेवाप्रदाता बीएसएनएल बताते ही हमको पता चल गया कि हमसे मोबाइल चार्ज क्यों नहीं हो पा रहा था। असल में मोबाइल का सेवा प्रदाता बहुत दिनों तक ’वोडाफ़ोन’ रहा। इसी साल बीएसएनएल में पोर्ट कराया था। लेकिन अवचेतन मन में वोडाफ़ोन ही जमा रहा। सो लगातार तीन दिन तक वोडाफ़ोन में ही चार्ज करते रहे। वो तो भला हो आज मोबाइल की दुकान चले गये। मोबाइल तो चार्ज हुआ ही। साथ ही यह घर वालों को हमारे भुलक्कड़पन पर कुछ दिन हंसने का बहाना भी मिला।
हमको भी यह फिर यह सीख मिलीे कि जब कोई गड़बड़ हो रही हो तो उसको अलग तरह से करके देखना चाहिये। हो सकता है मसला सुलट जाए। 
मोबाइल की दुकान पर ही एक भाईसाहब मिले। लगातार मोबाइल चार्ज करवाने की कोशिश कर रहे थे। हुआ नहीं। चार्जिंग बार-बार फ़ेलियर बताता रहा। वे निराश होकर वापस चल दिये।
हमने बतियाने की गरज से उनसे पूछा - ’कहां फ़ोन करना है?’ उन्होंने बताया ’झांसी।’ हमने अपने मोबाइल से उनके घर बात करा दी। उन्होंने अपनी बिटिया को बताया कि - ’सुबह फ़ोन करेंगे अभी बैलेंस नहीं है मोबाइल में। अभी किसी दूसरे के फ़ोन से बात कर रहे हैं।’
फ़ोन के बाद और बतियाये। पता चला कि भाईसाहब ट्रक चलाते हैं। मुंबई से आये हैं। यहां आकर ट्रक छोड़ दिया। दूसरा ड्राइवर ले गया है। हमने मजे लिये- 
’मुंबई से आये हो। मोबाइल में बैलेंन्स गोल।’
भाईसाहब अपना भौकाल दिखाने लगे। मोबाइल में ’योगीजी’ का नम्बर दिखाया। बोले-’राजनाथ सिंह से परिचय है। श्रीप्रकाश जायसवाल के रिश्तेदार का ट्रक चलाते हैं।’
हमने कहा- ’ आप तो जलवेदार आदमी हो। कोई काम धाम पड़ेगा तो पकडेंगा आपको।’’
इस पर उन्होंने और जलवेदार अंदाज में कहा-’आप जब कहो मिलवा दें। चलो लखनऊ भेंट करा दें।’
हमने कहा -’छोड़ो अभी नहीं। जब कभी काम पड़ेगा बतायेंगे।’
फ़िर हमने कहा-’ और बात करनी हो तो कर लो।’
इस पर भाईसाहब भावविभोर हो गये। बोले-’ अरे नहीं अंकलजी। अब सुबह कहीं न कहीं से चार्ज करवाकर फ़ोन कर लेंगे।’
अंकलजी सुनकर हमको और हंसी आ गयी। मैंने कहा- ’ अच्छा हम घर से कुछ पैसे का चार्ज कर देंगे।’
यह सुनते ही हम और गहरे अंकलजी हो गये। और तमाम बातें हुईं। हम फ़िर भाईसाहब को विदाकरके घर चले आये।
घर आकर दोनों फ़ोन चार्ज कराये । फ़ौरन हो गये। भाईसाहब के लिये 50 रुपये कुर्बान करने के बाद फ़ोन करके बताया तो खुश हो गये। हम भी खुश। बोले- ’खाकर बात करेंगे ।’
फ़ोन चार्ज करते हुये हम सोच रहे थे कि मान लो भाईसाहब कोई गड़बड़ आदमी निकलते हैं तब क्या होगा। प्रमाण होगा कि एक गड़बड़ आदमी का फ़ोन हमने रिचार्ज कराया। हम भी गड़बड़ी में शामिल हैं। ऐसा हुआ तो क्या होगा?
आजकल आये दिन होते लफ़ड़ों का यह सहज साइज इफ़ेक्ट हुआ है कि समझदार माने जाने वाले लोग सहज सहयोग/भलाई के कामों से हाथ खींचने शुरु कर दिये हैं। हवन करते हुये कहीं हाथ न जल जायें।
बहरहाल हमने अपने घरवालों और दोस्तों के लिये अपने ऊपर हंसने का एक मौके का इंतजाम कर दिया कि तीन दिन तक हम फ़ोन बीएसएनएल का फ़ोन वोडाफ़ोन के पते पर चार्ज करने की कोशिश करते रहे। लेकिन हुआ नहीं। यह है सहज बेवकूफ़ी का सौंदर्य।