Saturday, September 30, 2017

आलोक पुराणिक-व्यंग्य का एटीएम





और मजाक मजाक में यह किताब आ ही गयी। आज लोकप्रिय व्यंग्यकार आलोक पुराणिक के जन्मदिन के मौके पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की झलक सी पेश करती किताब।
आलोक पुराणिक को जन्मदिन की शुभकामनाएं।
250 पेज की इस किताब में आलोक पुराणिक के अपनों के लेख हैं। इन अपनों में आलोक पुराणिक की माताजी से शुरु करके उनकी बिटिया और उनके साथ जुड़े 31 लोगों के लेख हैं। आलोक पुराणिक के कई इंटरव्यू हैं जिनमें से सबसे ताजा कल ही लिया गया है जिसके लिए आलोक पुराणिक से खासतौर पर कड़ी धूप में 'बाईक मॉडलिंग' भी करवाई गयी।आठ महीने के आलोक पुराणिक से लेकर 51 के आलोक के कई यादगार फ़ोटो हैं, 'व्यंग्य श्री सम्मान' अनूप शुक्ल की शानदार टाइप रिपोर्टिंग है, आलोक पुराणिक के चुनिंदा लेख हैं। इसके अलावा गालिब के प्रशंसक आलोक पुराणिक के शेर भी दहाड़ते मिलेंगे किताब में।
किताब फिलहाल 'ई बुक' फार्म में रुझान प्रकाशन पर उपलब्ध है। मात्र 51 रुपये में अपने ईमेल खाते में उतार सकते हैं यह किताब। जिन साथियों ने अपने लेख या इंटरव्यू के लिए सवाल भेजे थे उनकी लेखकीय प्रति उनके ईमेल में भेज दी गयी है। किताब से जो भी रायल्टी मिलेगी वह स ही शामिल लेखकों में बराबर मतलब बिल्कुल बराबर-बराबर बंटेगी इसलिए अपनी ईबुक जो आपको मेल में मिली वह किसी और को न भेजें। जो मांगे उसको सरिता -मुक्ता वाला विज्ञापन याद दिलायें -" क्या आप मांगकर खाते हैं, क्या आप मांगकर पहनते हैं तो फिर आप माँगकर पढ़ते क्यों हैं?
किताब का प्रिंट संस्करण भी क्या पता जल्द ही आ जाये। तब तक आप 'ई बुक' से ही काम चलाइये।
किताब में शामिल सामग्री आप इस लिंक पर पहुंचकर देख सकते हैं और फिर मन करे तो किताब आर्डर भी कर सकते हैं। किताब पसन्द न आने पर पैसे वापस करने की सुविधा फिलहाल तो नहीं है लेकिन मुझे लगता नहीं है कि ऐसी कोई नौबत आएगी।
तो फिर अब देर किस बात की। आप फौरन इस लिंक पर पहुंचिए और किताब देखिये , ख़रीदिए और अपने साथियों को भी बताइये।

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चिर युवा लेखक आलोक पुराणिक - अनूप शुक्ल

[आलोक पुराणिक पर केन्दित किताब ’ आलोक पुराणिक - व्यंग्य का ए.टी.एम.’ के सम्पादकीय के बहाने लिखा लेख]
और मजाक- मजाक में यह किताब भी आ ही गई।
आलोक पुराणिक पर किताब निकालने की इसी महीने सोची मैंने- बस ऐसे ही। महीने की शुरुआत हुई तो याद आया कि इसी महीने की 30 तारीख को जन्मदिन पड़ता है - ’व्यंग्य बाबा’ का। एक आइडिया बिना परमिशन लिये दिमाग में घुस आया कि क्यों न किताब निकाली जाये आलोक पुराणिक पर। और कोई आइडिया होता हम हड़का के भगा देते। ऐसे न जाने कित्ते तीसमार खां और फ़न्ने खां टाइप आईडियों को दिमाग की देहरी से भगा दिये हैं। लेकिन ये वाला आइडिया बेचारा इत्ता मासूम था कि बावजूद तमाम व्यस्तता के उसको हड़काते भी नहीं बना। मासूमियत के चलते हमने आइडिये से वादा भी कर लिया- ’ठीक है बेट्टा ! हम अमल करेंगे तुम पर।’ हुआ भी अमल। भले बल भर न हुआ पर काम भर का तो हुआ ही।
महीने की शुरुआत में कोई रूपरेखा नहीं थी कि किताब किस रूप में निकलेगी। लेकिन बातचीत करना शुरु कर दिये। फ़िर सोचा आलोक पुराणिक की सभी किताबों के पंच शामिल करेंगे और अपनी तरफ़ से उनके बारे में लिखकर 100 पेज के करीब किताब निकाल देंगे। लेकिन फ़िर लगा कि आलोक पुराणिक को उनके दूसरे अपनों की नजर से भी देखा जाये। इसी क्रम में आलोक पुराणिक से बातचीत का सिलसिला भी शुरु हुआ। कई साथियों ने अपने सवाल दिये उनके जबाब आलोक पुराणिक ने दिये। सवालों के जबाब से आलोक पुराणिक की विद्वता का भी जलवा टाइप जमा। जिस अंक में आलोक जी ने अपने बचपन के किस्से बताये, उसको पढकर कई लोग भावुक हुये। उनके पिता के कम उमर में निधन के किस्से से कई लोगों- ’अपनी जैसी कहानी समझा।’
सबसे कठिन, दिलचस्प और आखिर में सबसे सुकूनदेह भी हिस्सा रहा आलोक पुराणिक के अपने लोगों से उनके बारे में लिखवाना। लोगों ने अपनी मर्जी से लिखा आलोक पुराणिक के बारे में। इससे उनकी लोकप्रियता का अन्दाजा लगता है। हरीश जी ने स्वयं लिखा मेरे फ़ेसबुक पर कि वे भी लिखेंगे। उनके घर में उनके नजदीकी रिश्तेदार बीमार थे। इसके बावजूद उन्होंने पांच पन्ने लिखकर भेजे। यह आलोक पुराणिक के प्रति उनके स्नेह का परिचायक है। उनके बीच स्नेह का ताना-बाना उनके लेख से समझकर आता है। ज्ञान जी, जिनको आलोक पुराणिक व्यंग्य के कुलाधिपति बताते हैं, ने अपने और आलोक पुराणिक के बीच के ’मुचुअल एडमिरेशन सोसाइटी’ का जिक्र करते हुये जो लिखा वह मैं यहां बताकर उसका आनन्द कम नहीं करना चाहता। प्रेम जनमेजय जी, जिनको आलोक पुराणिक ’व्यंग्य बुजुर्ग’ की उपमा से नवाजते हैं, ने बावजूद तमाम व्यस्तता अपने व्यंग्य यात्रा के आगामी अंक में जो वे आलोक पुराणिक के बारे में लिखने वाले हैं, उन नोट्स को मुझे भेज दिया। ’एक समर्पित संपादक का यह बलिदान, याद रखेगा व्यंगिस्तान।’ अरविन्द तिवारी जी ने पहले ही अपना लेख अपने फ़ेसबुक पर छाप दिया है। उसे यहां फ़िर से बांचकर आन्न्दित होंगे।
आलोक पुराणिक के बारे में उनके जबर प्रशंसक मित्रों ने दिल खोलकर लिखा। कुल 31 लेख आये मित्रों-सहेलियों के। मजे की बात यह कि आलोक पुराणिक की महिला प्रशंसको ने उनके बारे में लेख स्वत: स्फ़ूर्त ढंग से भेजे। अलग तरह से उनको देखा। इससे आधी आबादी वाले पाठक वर्ग में आलोक पुराणिक की लोकप्रियता का अंदाज लगता है। लखनऊ की निकिताशा कौर बरार जी ने तो बस एक पोस्ट में लिखा था कि उन्होंने आलोक पुराणिक की रचना 9 वर्ष की उमर में पढी थी और वे इस बात पर गर्व करती हैं कि वे उनके पसंदीदा लेखक हैं। मैंने फ़ौरन उनको गर्व की अभिव्यक्ति वाला लेख लिखने का अनुरोध किया यह कहते हुये - ’एन्ड योर टाइम स्टार्ट्स नाऊ।’ निकिताशा जी ने भी शाम तक लेख मेरे मेल बक्से में जमा कर दिया। कुछ ऐसा ही जबरियन लेखन राना अरुण सिंह से भी कराया गया।
हर लेख के बारे में बतायेंगे बहुत लिखना होगा लेकिन सबसे मजेदार रहा सुभाष चन्दर जी से लिखवाना। उनसे मैंने इतने तकादे किये कि भले आदमी को लिखना ही पड़ा। मुझे पक्का भरोसा था कि वे लिखेंगे और उन्होंने मेरे विश्वास की रक्षा की और कल खुद लेख टाइप करके भेज दिया। मेरे भरोसे की वजह जानने के लिये मेरी व्यंग्य श्री सम्मान की रपट देखिये।
जिन भी लोगों ने मेरे अनुरोध पर या अपनी मर्जी से अपने लेख भेजे उनके प्रति आभार। कुछ साथी समय के अभाव में नहीं लिख पाये। कुछ लिखास का दबाव न बन पाने के कारण लेख नहीं भेज पाये। उनके प्रति भी आभार कि कम से कम उन्होंने वादा किया कि मूड बना तो लिखेंगे और भेज देंगे। अब अगर बहुत चाहने पर भी मूड न बन पाये तो कोई भला क्या कर सकता है।
आलोक पुराणिक से मेरी जान-पहचान 2006 में हुई। तब तक वे चर्चित लेखक हो गये थे। हमारी कई मेल-मुलाकाते हुईं। उनके अनेक हुनर से परिचित होते गये। उनकी क्षमताओं से भी। अक्सर बातचीत भी होती रही। उनके बारे में साथियों ने तमाम बातें लिखी हैं। उनसे उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं का अंदाज लगता है। यह पकड़ने वाले के राडार पर निर्भर है कि वह उनके व्यक्तित्व की कौन सी बात पकड़ता है। जैसे रेशू वर्मा ने लिखा कि आलोक पुराणिक के अन्दर दो आलोक रहते हैं। डॉ राजरानी शर्मा ने उनमें व्यंग्य का हैरी पॉटर देखा। अनिल उपाध्याय जी ने उनकी अपने व्यक्तिगत जीवन में ’आर्म्स लेंग्थ रिलेशनशिप’ रखने की तरफ़ इशारा करते हुये जो लिखा उससे लगता है कि अभी आने वाले समय में इस स्लिम ट्रिम आदमी और भारी भरकम लेखक के कुछ ऐसे और हसीन पहलू दिखेंगे जिनके चलते उनसे थोड़ी ईर्ष्या रखना और जायज हो जायेगा।
आलोक पुराणिक के लेखन के कुछ पहलुओं से तमाम लोगों से कुछ शिकायत हो सकती है। कुछ को भाषा सम्बन्धी कुछ को सरकार की बुराई करने की बजाय कमजोर विपक्ष पर उनके द्वारा व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते रहने को लेकर। दोनों ही मसलों पर आलोक पुराणिक अपनी बात कह चुके हैं। उनके लगातार नये प्रयोग करते रहने की बात कई साथियों ने कही। इस मामलें वे परसाई जी की यौवन की परिभाषा,
“यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है; यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी जिन्दगी का नाम हैं,; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफ़ी करने का नाम यौवन है“
पर पूरे मन से अमल करते हैं। आलोक पुराणिक नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता रखते हैं। नये प्रयोग करने की बेहिचक बेवकूफ़ी करने की इच्छा रखते हैं और उस पर अमल भी करते हैं। इसीलिये वे चिर युवा हैं। इसीलिये उनकी नजदीकी नये जमाने की आइकन सन्नी लियोनी जी से है। राखी सावन्त जी से है। अब इससे कोई ईर्ष्या रखे तो रखे।
आलोक पुराणिक को हालांकि अपने को लेखक के रूप में पहचान पाने में कठिनाई नहीं हुई लेकिन फ़िर भी, जैसा हरीश जी ने लिखा कि पहले लोगों ने उनको बाजार से सम्बन्धित लेखन के चहले ज्यादा भाव नहीं दिये। लेकिन इससे आलोक पुराणिक विचलित नहीं हुये। उल्टे भाव की दुकान लगाने वाले ही त्रस्त हुये होंगे कि यार ये अजीब उल्टी खोपड़ी का है- हम भाव देने के लिये बैठे हैं और ये आता ही नहीं मेरे पास। आलोक पुराणिक की ताकत उनके पाठक रहे हैं। और मुझे इस बात का ताज्जुब होता है कि उनकी बात चलने पर पाठक बीसियों वर्षों से उनको पढ रहे हैं। ऐसे ही एक सीनियर पाठक प्रमोद कुमार उनके बारे में टिप्प्णी करते हुये लिखा - “आलोक पुराणिक जी व्यंग्य के पर्याय हैं ............उनके लेखन में एक सतत प्रवाह है .......गरिमा है ........हास्य और व्यंग्य का बारीक फर्क आलोक जी को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है ........गम्भीर विसंगतियों पर बहुत सहज और रोचक प्रतिक्रिया आपका स्वभाव है ,,,,,,,युवा पाठक को व्यंग्य विधा से जोड़ने में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है ,,,,,,,,,दुख की बात ये है आलोक जी की तुलना संभव नहीं ........क्योंकि वे अपने ढंग के इकलौते हैं “
ऐसे ही जब शेफ़ाली पांडेय अपने लेख में और अंशुमाली रस्तोगी ने बातचीत करते हुये आलोक पुराणिक के शुरुआती दिनों के लेखन का जिक्र करते हुये जब उनके स्तम्भ ’जालबट्टा’ का जिक्र करते हैं तो मुझे आलोक पुराणिक के इन ’सीनियर पाठकों’ से काम भर की जलन होती है कि उमर में हमसे कम होते हुये भी जो मजे इन लोगों ने लिये हम उनसे बेफ़ालतू में ही वंचित रहे।
आलोक पुराणिक के लेखक रूप से ज्यादा और बहुत ज्यादा मुझे उनका व्यक्तित्व अच्छा लगता है। पसंद आता है। अपने पर और अपनी मेहनत पर अगाध भरोसा, किसी के प्रति छोटी सोच न रखना और किसी बात के लिये शार्टकट न अपनाना उनके ये गुण मुझे आकर्षित करते हैं। जिसमें भी होंगे उसके प्रति आकर्षण होगा, लगाव होगा।
किताब की शुरुआत से अभी इसको पूरा करने तक जितना समय और मेहनत लगी उतने में शायद मेरी अपनी खुद की दो-तीन किताबें मुकम्मल हो जातीं। लेकिन जो सुकून और सन्तोष इसको पूरा करके मिला शायद उसका आधा भी न मिल पाता। कक्षा आठ में पढा याज्ञवल्क्य का मैत्रेयी को बताया सूत्र याद आता रहा- “ आत्मनस्तु वै कामाय सर्वम प्रियम भवति।“ सब कुछ अपनी ही कामना के लिये प्रिय होता है। इस किताब पूरा करने का प्रिय सन्तोष भी ऐसा ही है। इस किताब में कई कमियां रह गयीं। उनको धीरे-धीरे ठीक करेंगे। लेकिन इसको पूरा करने के दौरान जो इस तरह के काम करने का विश्वास बढा वह नायाब मेरे लिये बहुत बड़ा अनुभव है। अब लगता है कि खूब सारे ऐसे और इससे अलग और बेहतर भी काम किये जा सकते हैं।
किताब आलोक पुराणिक की माता जी श्रीमती रजनी पुराणिक और आलोक पुराणिक के तमाम पाठकों, मित्रों और प्रशंसकों को समर्पित है। माताजी अपने जिद्दी और बचपन से केयरिंग रहे बालक के 51 वें जन्मदिन पर इस किताब को देखकर अवश्य प्रसन्न होंगी। मुझे पूरा भरोसा है कि उनके प्रसन्न होते ही उनके आशीर्वाद का प्रसाद हम सब तक अपने आप पहुंच जायेगा।
इस किताब को पूरा करने में जिन भी लोगों ने सहयोग दिया, लेख भेजे, फ़ोटो भेजे उस सभी का शुक्रिया, आभार। रेशू वर्मा ने कई फ़ोटो भेजे। कुश ने घन्टे भर के अनुरोध पर कवर पेज बना दिया। आलोक पुराणिक को तो दो-दो मिनट में परेशान करते रहे अपन। जो कहा वह सामग्री भेजी। चलते-चलते मोटर साइकिल के साथ फ़ोटो भेजने के लिये कहा तो भाई साहब धूप में मॉडलिंग करने निकल लिये और फ़ोटो भेजी।
घरैतिन का समय तो हमने इस किताब के चक्कर में ऐसा खाया जैसा नेता लोग राहत सामग्री का पैसा अपने चुनाव प्रचार में फ़ूंक देते हैं। अब इसके लिये उनको आभार देंने भर से उस समय की भरपाई तो हो नहीं जायेगी लेकिन आभार प्रकट करने में चूकना भी कैसा?
इसके अलावा जिनके प्रति आभार प्रदर्शन से हम चूक गये हों वे सभी हमारी चूक को नजर अन्दाज करते हुये हमारे द्वारा अपने प्रति आभार प्रदर्शित किया हुआ मानें।
अंत में अपने बेहद प्रिय सितम्बरी लाल , व्यंग्यबाबा और व्यंग्य के अखाड़े के सबसे तगड़े पहलवान , बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न भाई आलोक पुराणिक को उनके 51 वे जन्मदिन की अनेकानेक मंगलकामनायें। वे अपने मनचाहे काम कर सकें। खूब सारी उपलब्धियां उनके खाते में जुटें। स्वस्थ रहें। सानन्द रहें। मस्त रहें , बिन्दास। लिखत-पढत-फ़ोटू खिंचाई और सब काम चलते रहें। बाकी जो होगा देख लिया जायेगा। अभी फ़िलहाल इतना ही।
’आलोक पुराणिक व्यंग्य का ए.टी.एम’ इस लिंक पर पहुंचकर मंगाई जा सकती है। कीमत है 51 रुपये मात्र।
आप फौरन इस लिंक पर पहुंचिए और किताब देखिये , ख़रीदिए और अपने साथियों को भी बताइये।
http://rujhaanpublications.com/…/alok-puranik-vyangya-ka-a…/
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निर्मल चित्त से जिंदगी के अनुभव लें -आलोक पुराणिक



[ आलोक पुराणिक का 50 वां साल पूरा होने के चंद घंटे पहले लिया गया इंटरव्यू। ]
सवाल 1: 2006 में आपके ड्रीम प्रोजेक्ट थे माइक्रो फ़ाइनेंसिंग और पदयात्रा। दोनों में अभी तक क्या प्रगति हुई?
जवाब: माइक्रोफाइनेंसिंग वाले प्रोजेक्ट की जगह नया ड्रीम आ गया वित्तीय साक्षरता को फैलाने का, पदयात्रा का ड्रीम भी है। कुछ नये ड्रीम भी जुड़ गये हैं, व्यंग्य, अध्यापन और वित्तीय साक्षरता, पत्रकारिता में फोटो का प्रयोग खूब करूं। अब फोकस हो रहा हूं ज्यादा। व्यंग्य विमर्श को लेकर कुछ परियोजनाएं हैं। कई लोगों के व्यंग्य पर लिखना है। योजना यह है कि तमाम व्यंग्यकारों के व्यंग्य के खास अंश निकालकर, पंच निकालकर पाठकों के सामने रखे जायें। कामर्स का अध्यापन रोचक कैसे बनाया जाये। आर्थिक पत्रकारिता के शिक्षण को समृद्ध कैसे किया जाये। स्टाक बाजार, मुचुअल फंड, सेनसेक्स, निफ्टी पर रोचक स्टडी मटिरियल कैसे तैयार किया जाये, इस पर कुछ काम करना है।
सवाल 2: रेशू वर्मा ने आपके बारे में लिखते हुये आपसे अपेक्षा की है कि आप वित्तीय साक्षरता के काम को ठोस ढंग से बढ़ायें इसेव्यवस्थित और व्यापक रुप दें। इस बारे में आपकी क्या योजनायें हैं।
जवाब: रेशूजी के साथ कई लोग मानते हैं कि मुचुअल फंड, स्टाक बाजार से जुड़े आपके ज्ञान से बहुत ठोस लाभ हुआ और वह लाभ बैंक बैलेंस की शक्ल में देखा जा सकता है। अब मैं निफ्टी, सेनसेक्स, मुचुअल फंड से जुड़े बहुत छोटे कोर्स विकसित कर रहा हूं। जो शुरु में लगभग मुफ्त में पढाऊंगा छात्रों को, गृहिणियों को, जो भी पढ़ना चाह। इनका लेवल यह होगा कि जिसने कक्षा आठ पास की है, वह भी इन्हे समझ पाये और ये हिंदी भाषा में भी उपलब्ध होंगे। इस संबंध में बुनियादी काम शुरु हो गया है।
सवाल 3 : सुभाष चन्दर जी ने आपसे अपेक्षा की है कि आप व्यंग्य कहानियों और उपन्यास पर भी काम करें। आपका क्या इरादा है इस बारे में?
जवाब: सुभाष चन्दर जी को बहुत धन्यवाद, व्यंग्य कहानियों पर उन्होने दस साल बहुत ही सार्थक मार्गदर्शन किया था, मैं उससे बहुत लाभान्वित हुआ था। सुभाष चंदर जी नये बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं, सही मार्गदर्शन करते हैं, मेरा बहुत मार्गदर्शन किया उन्होने, अब भी करते हैं। मैं उनके सुझाव पर अमल करने की कोशिश करुंगा।
सवाल 4: व्यंग्य (और साहित्य की अन्य विधाओं में भी) अक्सर लोग मठाधीशी की बात करते हैं। यह बात बड़े , स्थापित और नये से नये लेखक भी गाहे-बगाहे करते हैं। जब सभी मठाधीशी के खिलाफ़ दिखते हैं तो असल में मठाधीश है कौन? क्या यह कोई निर्गुण ब्रह्म है जो किसी को दिखता नहीं पर होता सब जगह है?
जवाब: देखिये मठाधीशी सिर्फ व्यंग्य में ही हो ऐसा नहीं है। सब जगह है, जिसने अपने खेल बनाया है, वह किसी और को क्यों जगह देगा। वह अपने चेलों, झोलाउठावकों को जगह देगा, यह अनुचित होते हुए भी स्वाभाविक है। पर इसे यूं भी समझना चाहिए कि मठाधीशी बड़ा सब्जेक्टिव कंसेप्ट है। मठाधीश वही हो सकता है जिसके पास ऐसी क्षमता हो कि वह आपका खेल बना सकता है, बिगाड़ सकता है। मठाधीशी का शौक सामान्य शौक किसी को भी हो सकता है, पर मठाधीशी निवेश मांगती है, समय का ऊर्जा का, संसाधनों का, जिसका मन हो, वह कर ले। मठाधीशी हरेक की बूते का बात नहीं है। मठाधीश कौन है, इस सवाल का जवाब है कि जिसके भी पास संसाधन हैं, आकाशवाणी में नाम कटवाने जुडवाने की हैसियत है, टीवी में नाम कटवाने जुड़वाने की हैसियत है, गोष्ठियों में किसी को बुलाने किसी का नाम कटवाने की हैसियत है, वह मठाधीश है। पर मठाधीश को आप गौर से देखें, तो वह बहुत ही दयनीय प्राणी है, जिसे रचना जगत में खुद को स्थापित करने के लिए अपना समय और ऊर्जा इस सबमें खपानी पड़े, वह निश्चित ही दयनीय है। पुराने मठाधीशों से बात करें, तो वह दयनीय लगते हैं वो बताते हैं कि उन्होने यह कर दिया, उन्होने वह कर दिया। जिनके किये गये काम में दम है वह हम तक किसी के बिना कहे भी पहुंच रहा है। श्रीलाल शुक्ल ने कभी ना बताया किसी को मैंने यह किया-उनका राग दरबारी पढ़कर मेरे जैसे कई लोग व्यंग्यकार बने। ज्ञान चतुर्वेदी लिखकर आगे बढ़ जाते हैं, और मेरे ख्याल में ज्ञानजी से ज्यादा प्रेरक व्यक्तित्व हिंदी व्यंग्य में अभी कोई नहीं है। तो रचनात्मक फील्ड में लोग काम से प्रेरित होते हैं। मठाधीश आम पर रचनाकर्म में कम प्रवृत्त होते हैं, बाकी उठापटक में ज्यादा, पर मठाधीशी कोई गैरकानूनी गतिविधि नहीं है, कोई भी कर सकता है। कर रहे हैं लोग। सबको दिखता है और सब अपने हिसाब से गुणा-गणित में लगे रहते हैं, इसे साधो, उसे साधो, यह समयसाध्य काम है, लोग करते हैं। अपना चुनाव है सबका। बाकी आपका यह सवाल कतई बदमाशीपूर्ण सवाल है कि कौन है मठाधीश, आप खुद एक नवोदित मठाधीश हैं, जुगलबंदी के जरिये नया मठ बना रहे हैं। हालांकि मैं इसका स्वागत करता हूं कि आप नये लोगों को बहुत मौका दे रहे हैं और उन्हे प्रेरित कर रहे हैं।
सवाल 5 : आपकी माताजी और आपने खुद भी बताया कि आप स्वभाव से जिद्दी टाइप हैं। इस हसीन गुण के पीछे कारण क्या मानते हैं आप?
जवाब-जिद्दी होना बहुत कीमती गुण है। किसी भी रिजेक्शन को फाइनल ना मानना। करके ही मानूंगा इसी भाव से काम हो सकता है। अजीब सी बात है कि चलना है, चाहे जो हो, इस भाव से यात्रा की जाये, तो यात्रा में कुछ हाथ लग भी सकता है। पर यात्रा की परेशानियों की सोचें फिर सोचें कि छोड़ो यह आफत, वह आफत। तो काम नहीं हो सकता। धीमे धीमे यह समझ में आया कि बहुत कम चीजें करने की कोशिश करो, पर यह चिंता किये बगैर कि इसके परिणाम क्या आयेंगे। करना है तो करना है करना ही है। करना है क्योंकि करना अच्छा लगता है, करना है कि करना जिंदगी का अंग है। जिंदगी का अंग क्या जिंदगी ही है। जिंदगी ही बन जाये कोई गतिविधि, तो फिर आप उसके लाभ हानि गुणा गणित ना देखते, लोग कहते हैं कि अजब पागल जिद्दी है पर यह दरअसल जीवनशैली है कि यह करना है तो करना ही है।
सवाल6 : हिन्दी में लिखने-पढने और किताबें खरीदे न जाने का चलन क्यों नहीं पनप पाया?
जवाब-दरअसल कायदे से किताबों को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश बहुत कम हुई है। हिंदी के प्रकाशकीय जगत का बड़ा हिस्सा किताबों के ग्राहक बनाने में जुटा रहा, पाठक बनाने में नहीं। तीस परसेंट के कमीशन पर किसी लाइब्रेरी में हजारों किताब खपा दो, उन्हे पढ़ता कौन है, इस पर विचार न किया जाये। फिर एक बहुत विरोधाभासी सा भाव कई हिंदी लेखकों में रहा कि पाठक खरीद कर ना पढ़े, तो रोओ कि हाय पाठक नहीं पढ़ता, और पाठक बहुत ज्यादा पढ़ने लगे तो रोओ कि हाय लेखक पतित हो गया, घटिया हो गया बाजारवादी हो गया। यह निहायत खोखली और कनफ्यूजिंग विचार पद्धित है, मैं लिखता हूं तो मेरी कोशिश होनी चाहिए कि हर माध्यम से अपने पाठक तक पहुंचू। प्रकाशक हद से हद मेरी किताब के ग्राहक ला सकता है, पाठक तो मुझे खुद बनाने हैं अपने काम से। हाल में चीजें बदली हैं। नये लेखक बुजुर्गों की बिलकुल नहीं सुन रहे हैं और अच्छा कर रहे हैं उनके विषय उनका काम एकदम नया है और स्वीकृत हो रहा है। पचास सौ की समोसा-चाय-दारु गोष्ठी में आप उन्हे साहित्यकार ना मानो, उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो अपना साहित्यकार होना साबित कर रहे हैं। तो अब स्थितियां बदली हैं। ईबुक के चलते प्रकाशन की स्थितियां बदली हैं। पर व्यंग्यकार को अपने पाठक तक सीधे पहुंचने की और उनसे संवाद की सीधी कोशिश करनी पड़ेगी। सिर्फ प्रकाशकों के सहारे सब कुछ ना छोड़ा जा सकता। अखबार, मैगजीन, वैबसाइट, ट्विटर,फेसबुक जितने भी माध्यमों से पहुंचा जा सके, लेखक को पहुंचना पड़ेगा। सिर्फ प्रकाशक के बूते रहेंगे, तो वह आपका भरपूर शोषण करेगा और आपकी औकात आपको बताता रहेगा।
सवाल7 : व्यंग्य को लेकर आपकी कुछ योजनायें हैं जैसे व्यंग्य का ग्राउंड लेवल का कोई कोर्स। ज्ञान जी ने भी जबलपुर में व्याख्यान दिया था जिसका विषय था -व्यंग्य पढने की तमीज! आपकी क्या योजनाये हैं व्यंग्य को लेकर।
जवाब-बिलकुल व्यंग्य कैसे देखें, इस पर एक बुनियादी कार्ययोजना तैयार है। मैंने बताया कि अपने समकालीनों के व्यंग्य पर लिखना है मुझे कि इस कैसे देखा जाये, कैसे पढ़ा जाये। जैसे कोर्स होते हैं-फिल्म एप्रीसियेशन के, कला एप्रीसियेशन के, वैसे ही व्यंग्य एप्रीसियेशन के कोर्स बनाने में कोई हर्ज नहीं है। और हर व्यंग्यकार अपने हिसाब से बनाये और आगे बताये। हमारा जिम्मा बनता है कि जिस भी फील्ड में हैं हम, उसके बारे में शिक्षित करते चलें लोगों को।
सवाल 8: व्यंग्य लेखन के अलावा और आपकी क्या योजनायें हैं निकट भविष्य में?
जवाब-वित्तीय साक्षरता, व्यंग्य, और फोटोकारिता मूलत इन तीन क्षेत्रों में ही काम होना अगले दस सालों में।
सवाल 9 : आपकी फ़ेवरिट ब्रांड नायिकायें राखी सावंत जी, मल्लिका सेहरावत जी और सनी लियोनी में से किसी एक से मुलाकात करने का मौका मिले आपको तो किससे मिलना चाहेंगे और क्यों? अगर वे आपको अपना कोई एक लेख सुनाने को कहें तो कौन सा लेख सुनाना चाहेंगे?
जवाब: सन्नी लियोनीजी ग्लोबलाइजेशन का प्रतीक हैं, कनाडा से वह भारत आयी हैं। सन्नीजी के उदय की एक ठोस आर्थिकी है, समाजशास्त्र है, इसलिए सन्नीजी से मिलकर इस सब पर उनके विचार जानना चाहूंगा। सन्नीजी को चाइस दूंगा कि वह सन्नी लियोनी पर लिखा मेरा कौन सा लेख सुनना चाहेंगी। वैसे मैं उन्हे डिस्काऊंट वाले महापुरुष नामक व्यंग्य निबंध सुनाना चाहूंगा।
सवाल 10: अपने जीवन की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि आप क्या मानते हैं? क्यों? इसी तरह सबसे खराब अनुभव अगर आपसे पूछा जाये तो क्या होगा?
जवाब-जीवन की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि यह ज्ञान मिलना है कि आलोक पुराणिक तुम व्यंग्य, वित्तीय साक्षरता और फोटोकारिता के लिए ही पैदा हुए हो। खऱाब अनुभव कौन सा रहा है, यह जिंदगी के आखिरी दिन बताऊंगा अभी तो बहुत जिंदगी बाकी है।
सवाल 11-जो आपसे मिलते हैं, वह आपकी बुलेट बाइक की चर्चा जरुर करते हैं। क्या आपकी बुलेट में।
जवाब-बुलेट बाइक मेरे परिवहन का मूल माध्यम है। बुलेट दरअसल परिवहन माध्यम नहीं अनुभव है। एक मित्र हैं मेरे बुलेट इंजीनियर-इरफान खान, उनके साथ मिलकर मैंने बुलेट बाइक की डिजाइन में कुछ बदलाव नियोजित किये हैं। आजकल उस पर भी काम हो रहा है। इरफान खान बहुत क्रियेटिव हैं, मेरे आइडिये सुनते हैं और उन पर काम भी करते हैं,जल्दी ही मैं आपको नयी डिजाइन की हुई बुलेट दिखाऊंगा।
सवाल 12: जन्मदिन के मौके पर किताब निकलना कैसा अनुभव लग रहा है आपको? इस मौके पर अपने तमाम पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब-सबसे पहले अनूप शुक्लजी को थैंकू कहूंगा कि इतनी जल्दी उन्होने यह कांड कर दिया। आम तौर पर हिंदी लेखक के लिए ऐसा आयोजन तब किया जाता है, जब वह ऐसे किसी आयोजन का हिस्सा बनने के लिए खुद अपने पैरों पर चलने काबिल ना रहता यानी अति ही बुढ़ापे में। यूं मैं इस किताब का एक संदेश यह भी ले सकता हूं कि आलोकजी अब हो लिया तुमने इतनी किताबें छाप लीं, तुम्हारे पर भी किताब हो ली। अब बस करो। पर व्यंग्यकार बेशर्म टाइप भी होता है, तो मैं कहूंगा 51 पर निकाली आप 101 पर भी निकालिये। पाठकों को संदेश यह है कि निर्मल चित्त से जिंदगी के अनुभव लें। मस्त रहें। दुनिया बदल रही है, बदलती दुनिया को समझें और बदलती दुनिया को समझने के लिए मेरे व्यंग्य जरुर पढ़ें।
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यह इंटरव्यू ’आलोक पुराणिक -व्यंग्य का ए.टी.एम.’ किताब में शामिल है। आलोक पुराणिक पर केन्द्रित यह किताब ’ई बुक’ लेने के लिये इधर पहुंचिये। कीमत मात्र 51 रुपये है।http://rujhaanpublications.com/…/alok-puranik-vyangya-ka-a…/
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Monday, September 18, 2017

मोबाइल से बचने का आह्वान


कल दफ्तर जाते हुए एक कार दिखी। तमाम 'मोबाइल विरोधी' नारे। मोबाइल से बचने का आह्वान। मोबाइल से जो खतरे हो सकते हैं उनके बारे जानकारी। थर्मोकोल के टुकड़ों पर लिखे नारे कार पर टेप से चिपके।
मोबाइल कह रहा है -मैं तुम्हारा दिमाग खा जाऊंगा।
सच ही है भाई। दुनिया मुट्ठी में करने के चक्कर में अपन मोबाइल के चक्कर में फंस गए।
आगे निकलकर हमने कार रुकवाई। तसल्ली से फोटो लिए। कार में बैठी नेहा अग्रवाल जी से बात की। पता चला कि वे कानपुर क्लब में मोबाइल जागरूकता रैली में प्रतिभाग करने जा रही थीं। पति बिजनेस मैन हैं। वो हाउसवाइफ। बिटिया भी साथ में थी।
हमसे भी पूछ लिया गया -'क्या आप मीडिया से हैं।
हमने कहा - न।
फिर सोचा मीडिया में होते तो 'मजीठिया के इंतजार में' मालिकों को लिखकर दे रहे होते -'हमको मजीठिया नहीं चाहिए।'
बड़ा वाला मोबाइल हाथ में लिए नेहा जी मोबाइल जागरूकता प्रसार रैली में चली गईं। अपन फैक्ट्री की तरफ चल दिये।
अपने अपने काम में लग गए।

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Monday, September 11, 2017

जिसको जो लिखना है, उसे वह लिखने की छूट होनी चाहिए -आलोक पुराणिक

आलोक पुराणिक से पूछताछ की कड़ी में आज के सवाल Anshu Pradhan के हैं। अंशु जी जनसन्देश में नियमित व्यंग्य लेख लिखती हैं। उनके सवालों की शुरुआत आलोक पुराणिक की फ़िटनेट को लेकर हुई। बताते चलें कि आलोक पुराणिक का वजन कभी सौ किलो के अल्ले-पल्ले पहुंच गया था। इसके बाद वजन कम करने की ठानी तो साल भर में तीसेक किलो वजन बाहर कर दिया। आलोक पुराणिक इसे स्वास्थ्य की जरूरत बताते हैं लेकिन उनके बहुत खास लोगों ने नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी कि उनकी ’लेखन सहेली’ सन्नीलियोनी जी राखी सावंत जी ने संयुक्त रूप से स्लिप-ट्रिम होने के लिये इशरार किया था। यह तक कह दिया कि अगर हमारा अपने लेखों में रखना है तो पहले छैला बाबू बनना है। फ़िर क्या था - परिणाम सामने है। दोनों फ़ोटुयें देख सकते हैं आप नीचे।
बाकी के सवाल लेखन से जुड़े हैं। पहले भी इन पर आलोक पुराणिक लिख चुके हैं। एक बार इसी बहाने और सही।
आपके कोई सवाल हों आलोक पुराणिक से तो मुझे इनबाक्स करें या फ़िर मेल करें anupkidak@gmail.com पर।
फ़िलहाल तो आप सवाल-जबाब पढें और अपनी प्रतिक्रिया बतायें। 
सवाल 1- आप इतना फिट कैसे रहते हैं?
जवाब-फिट रहना बहुत आसान है। चित्त निर्मल रखें, किसी से राग-द्वेष ना पालें, किसी का अहित ना सोचें, तो मन साफ रहता है। सुबह उठकर मैं योग करता हूं और एक घंटा कम से कम घूमता हूं। खाने में नियंत्रण रखता हूं। एक वक्त मैं बहुत अनफिट था मेरा वजन सौ किलो तक चला गया था और दिन में आठ कप चाय पी जाया करता था। अब खान-पान पर नियंत्रण रखा है।
सवाल 2- आपके व्यंग्य में विविधता रहती है, वो कैसे ?
करुणा की जमीन पर अनुभव-चिंतन के बीज डालिये और संवेदना से सींचिये, व्यंग्य फलीभूत हो जाता है। खूब देखिये, खूब पढ़िये और खूब सोचिये, तो व्यंग्य आता है। बाजार, तकनीक, इंसानी पाखंड, क्रिकेट, इश्तिहार सबको खुली आंखों से देखिये तो व्यंग्य की रेंज बहुत लंबी बन जाती है। मैं रोज 11 अखबार पढ़ने की कोशिश करता हूं। और पंद्रह-बीस पत्रिकाएं नियमित पढ़ता हूं, तकनीक से लेकर शेयर मार्केट से लेकर साहित्य से लेकर तमाम विषयों पर, विविधता बनी रहती है। बहुत आवारागर्दी करता हूं, तरह तरह के लोगों से संवाद करता हूं। इस सबसे लगातार खुद को अपडेट करने में मदद मिलती है।

सवाल 3: एक व्यंग्यकार का व्यंग्य कैसा होना चाहिए ? क्या व्यंग्य को इस तरह से लिखा जा सकता है जो हर आयु वर्ग के अनुरूप तो हो ही साथ में उसमें स्थिरता भी हो ? क्या इन बातों को ध्यान में रखकर ही व्यंग्य लिखा जाना चाहिए।
जवाब: व्यंग्यकार को व्यंग्य वह लिखना चाहिए, जो उसे रुचता है, जो उसे जमता हो। किस आयु वर्ग के लिए, किस जेंडर के लिए, ऐसे मुद्दे पहले तय ना कीजिये। पहले जो मन करे, लिखिये, फिर खुद को कई बार डिस्कवर करते हैं कि हम तो यहां बेहतर कर सकते हैं, तो गाड़ी फिर उस रुट पर दौड़ा दीजिये। रचनात्मक कामों में बने बनाये रास्ते ना होते, ट्रायल एंड एरर बहुत होता है, इसी से सीखना होता है
सवाल 4. किसी समस्या पर एक दो चुटकी लेकर उसी पर लीपा पोती करते हुए आर्टिकल को व्यंग्य कहने वालों को या ऐसे आर्टिकल को आप कैसे देखते हैं? क्या ये व्यंग्य के लिए सही है, क्या व्यंग्य ऐसा ही होना चाहिए। आपकी इस विषय पर क्या राय है।
जवाब: देखिये, जिसको जो लिखना है, उसे वह लिखने की छूट होनी चाहिए। क्या व्यंग्य है क्या व्यंग्य नहीं, यह अच्छा व्यंग्य है या बुरा व्यंग्य है, इसकी बुनियादी तमीज हमें अपने बुजुर्गों को पढ़कर आ जानी चाहिए। ज्ञान चतुर्वेदीजी के काम को सामने रखें, श्रीलाल शुक्ल के काम को सामने ऱखें, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बाल मुकुंद गुप्त, भारतेंदु, मनोहर श्याम जोशी के काम को सामने रखें, तो मोटा मोटा अंदाज हो जाता है कि ये मानक काम हैं। बाकी जो लिखना चाहे, वह लिखे, उनके लिखे पर फतवे भी जारी नहीं किये जाना चाहिए। कोई सीखने का उत्सुक हो, तो उसे किसी वरिष्ठ से मार्गदर्शन ले लेना चाहिए। ठोस लेखन समय की छलनी के पार जाता है, श्रीलाल का शुक्ल का रागदरबारी करीब पचास साल बाद भी बांधे हुए है। तो सबको लगातार सीखना चाहिए, इस भाव में नहीं रहना चाहिए कि मैंने जो कर दिया वही अल्टीमेट है।
सवाल 5: एक लेखक का सशक्त लेखन और शब्दों का चुनाव उसे पहचान दिलाता है या फिर मठ, मण्डली और चापलूसी आदि । आपके इस सन्दर्भ में क्या विचार हैं।
जवाब: इतिहास को देखें, तो सिर्फ काम ही समय की छलनी की पार ले जाता है। जौक गालिब के समकालीन थे और जौक उस वक्त के बादशाह जफर के उस्ताद थे, बहुत करीबी थे। आज गालिब का कद जौक से बहुत बड़ा माना जाता है, क्यों, इसलिए काम ही हम तक आ रहा है। मठ मंडली चापलूसी बहुत आगे तक नहीं ले जाती। सिर्फ समय खपाऊ काम हैं ये और मेरा मानना है कि सच्चे रचनात्मक व्यक्ति की क्षमताओं में भी नहीं है यह सब चापलूसी और मठबाजी वगैरह।
सवाल 6: हिंदी में पैसा बिलकुल भी नहीं है इसलिए भी हिंदी की कोई खास पहचान नहीं है न हिंदी लेखकों की। इस विषय पर आपका क्या कहना है? क्या हिंदी में पैसा न होना ही हिंदी को और हिंदी लेखक को कमजोर बनाये हुए हैं
जवाब : हिंदी में पैसा है, पर हिंदी के साहित्यिक लेखन में नहीं है। हिंदी व्यंग्य को अगर कोई मंच पर कायदे से पेश कर सकता है तो भरपूर पैसा है, शरद जोशीजी ने दिखाया है। हिंदी व्यंग्य लेखक को अपनी मार्केटिंग करनी पड़ेगी पाठक तक पहुंचना पड़ेगा, वरना वह प्रकाशक का गुलाम टाइप ही होकर रह जायेगा।
सवाल 7. लेखक को अपने किसी भी लेखन में क्या बिल्कुल साधारण भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए या फिर लेख को उचित शब्दों के चुनाव और अभिव्यक्ति की शैली पर भी ध्यान देना चाहिए?
जवाब- जो मरजी आये लेखक को करना चाहिए, कर के देख लेना चाहिए, फिर तय करना चाहिए कि यह ठीक जा रहा है या नहीं। लेखक को मन में नहीं रखनी चाहिए कुछ भी सब करके देख ले। मैं रचनात्मक कामों में इस तरह की फतवेबाजी के खिलाफ हूं कि ये होना चाहिए या यह नहीं होना चाहिए। जो मन करे सब होना चाहिए। बाद में फैसला कर लें कि जो आपने किया, वह आपके हिसाब से ठीक था या नहीं।

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रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है -आलोक पुराणिक



आज के सवाल हैं जबलपुर के व्यंग्यकार Jai Prakash Pandey जी के। सवालों के जबाब दे रहे हैं आलोक पुराणिक जी । सवाल-जबाब के झमेले में हाल क्या हो रहे हैं ’व्यंग्य श्री’ व्यंग्यकार के वो फ़ोटू में देख लीजिये। बकिया अब सवाल के जबाब बांचिये। कुछ सूत्र जबाब:
1. भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है।
2.क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं।
3. रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है।
4. व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी।
5. बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी।
6. फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।
सवाल - किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?
जवाब-साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।
सवाल - देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है ?
जवाब-सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है। अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।
सवाल - लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान "सब धान बाईस पसेरी" बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?
जवाब-रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।
सवाल - आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?
जवाब-व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।
सवाल - वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?
जवाब-शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।
सवाल - हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों" व्यंग्य की जुगलबंदी "
ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या ?
जवाब-अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार इंटरनेट के युग में आसान हो गया।
सवाल - हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधनसम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?
जवाब-नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।
सवाल - व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?
जवाब-फेसबुक या असली की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

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Sunday, September 10, 2017

जो कुछ मिलना है अपनी क्षमताओं से, अपने संघर्ष से और अपने धैर्य से ही मिलना है -आलोक पुराणिक



[इंसान के व्यक्तित्व निर्माण में उसके बचपन का बड़ा हाथ होता है। आलोक पुराणिक के साथ भी अलग नहीं हुआ। कम उमर में पिता के न रहने पर बकौल आलोक पुराणिक ही
’ बचपन यूं कहें कि बहुत आरामदेह नहीं बीता, आठ साल की उम्र में पिता को खो देने के बाद एक झटके से मेच्योर्टी आ गयी है। एकदम से बहुत बड़ा हो गया। लोगों की बातों और कर्मों के फर्कों को बहुत जल्दी समझने लगा।’
आज के सवाल-जबाब की कड़ी में आलोक पुराणिक के बचपन से जुड़ी कई यादें जिनसे उनकी मानसिन बनावट के ताने-बाना का पता चलता है।]
सवाल 1: बचपन की कैसी यादें है आपके मन मे। क्या खास याद आता है बचपन का?
जवाब: बचपन आगरा का है, आगरा ब्रज क्षेत्र का का बहुत खास शहर है। जमुना किनारे वेदांत मंदिर के अहाते में घर था, उसी घर में पिताजी ने आखिरी सांसें ली थीं। बाद में अतिक्रमण अभियान में वह घर ढहा दिया गया, मंदिर बचा रह गया। बंदों की रिहाईश खत्म हो गयी, भगवान के घर की चिंता भरपूर रखी गयी। जमुना किनारे आगरा एत्माद्दौला मकबरे के इस पार घर था। व्यंग्य जो मेरे अंदर है, वह आगरा के संस्कार की वजह है। टेढ़ा देखना, आगरा के कुछ मुहल्ले हैं-भैंरो नाला, पथवारी, बेलनगंज( बेलनगंज लैनगऊशाला में तो आठ वर्ष की उम्र से 20 वर्ष की उम्र तक रहा) इन मुहल्लों में आम बातचीत में व्यंग्य रहता है। ब्रज की धरती एक तरह से व्यंग्य का संस्कार देती है। दिल्ली आने के दस साल बाद मुझे पता चला कि मेरे अंदर व्यंग्य भी है और वह आगरा की देन है। बचपन यूं कहें कि बहुत आरामदेह नहीं बीता, आठ साल की उम्र में पिता को खो देने के बाद एक झटके से मेच्योर्टी आ गयी है। एकदम से बहुत बड़ा हो गया। लोगों की बातों और कर्मों के फर्कों को बहुत जल्दी समझने लगा।
सवाल 2: पिता को बचपन में खो दिया आपने। उनसे जुड़ी यादें कैसी हैं आपके मन में।
जवाब: पिता बैंक में थे, मेरी मां को पिता की जगह नौकरी मिली बैंक में, पर बहुत देर से। आर्थिक संकट थे। मां मेरी बहुत जिद्दी, दबंग हैं। उन्होने अपने पिता से सहायता लेने की जगह उन्होने बुनाई की मशीन पर काम करना शुरु किया। स्वेटर बुनती थीं मां मशीन पर धड़ाधड़, कुछेक महीने में बहुत एक्सपर्ट हो गयीं। जिद्दी थीं किसी की नहीं सुनती थी। अब भी नहीं सुनतीं। मैं मोटे तौर पर अब भी मां के अलावा किसी से नहीं डरता। मां से बहुत डरता हूं, कभी भी शराब पीने की हिम्मत नहीं हुई, सिर्फ इसलिए कि मां ने पूछ लिया -ये क्या हो रहा है, तो क्या जवाब दूंगा। मेरे अंदर एक हद तक मां का यह गुण आ गया है कि बहुत जिद्दी हूं। संघर्ष की ज्यादा बात करना मुझे अश्लील जैसा लगता है, अबे जो किया अपने लिया किया, काहे बताना दूसरों को कि ये किया वो किया। संक्षेप में कक्षा ग्यारह से ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया और फिर जिंदगी की गाड़ी चल निकली। जो कुछ मिलना है अपनी क्षमताओं से, अपने संघर्ष से और अपने धैर्य से ही मिलना है-यह बात आठ-दस साल की उम्र में समझ में आ गयी थी। पिता मेरे अपने ढंग के अलग व्यक्ति थे। मेरी उम्र के आठ साल का साथ तक का साथ रहा, पर जो समझा यही पता लगा कि अलग रंग-ढंग था। सेना से रिटायर होकर बैंक ज्वाइन किया बैंक की नौकरी के साथ बांसुरी बजाते थे, वायलिन बजाते थे और उन्होने एक प्रयोग करके एक पानी का ईजाद किया था, जिसे लगाकर कई लोगों का एग्जीमा ठीक हो जाता था। बहुधंधी व्यक्ति थे, कुछ कुछ बेचैन आत्मा जैसे, पर रचनात्मकता के गहरे तत्व थे, विकट संवेदनशील थे। मां बताती हैं कि एक बार परिवार के साथ एक फिल्म देखने गये, मैं, बड़ी बहन मां साथ थीं। मैंने शायद रोना-धोना मचाया फिल्म में, उन्होने गुस्से में मुझे चांटा मारा, बाद में वह उस चांटे को लेकर इतने नाराज हो गये खुद से कि कभी भी फिल्म ना देखने का फैसला किया। और फिर कभी फिल्म देखी ही नहीं। अलग थे वह, खालिस बैंककर्मी नहीं थे।
सवाल 3: आप अपने स्वास्थ्य के प्रति काम भर के जागरुक रहे। फिर आपके वजन ने शतक के पास पहुंचने की जुर्रत कैसे की ?
जवाब: 2009 में एक विकट बीमारी से घिरा मैं, इतनी विकट कि उस दौर में मैंने अपने सामान्य होकर जीवित रहने की उम्मीद छोड़ दी थी। आलस्य, बीमारी का असर उस सबके चलते वजन बढ़ता चला गया।
सवाल 4: आपके साल भर में 25-30 किलो वजन कैसे कम किया?
जवाब: एक दिन फैसला कर लिया कि अब यह नहीं चलेगा। मेरे परिचय की एक बहुत काबिल डाइटिशियन हैं रुपाली कर्जगीर, उन्होने मुझे गाइड किया, योग और घूमना, वजन कम हो गया। मूल बात फैसले की होती है, एक बार फैसला कर लो, तो सब हो जाता है। खान-पान का ध्यान में अब लगातार रखता हूं। वजन कम करना आसान है, वजन को कम बनाये रखना बहुत मुश्किल काम है।
सवाल 5: आपके पिता के न रहने पर आपके जीवन में क्या बदलाव आए?
जवाब: बहुत अजीब सी बात कह रहा हूं कि पिताविहीन बच्चे ज्यादा तेजी से मेच्योर हो जाते हैं। मेच्योर्टी यह आ जाती है कि बेट्टे कोई बेकअप नहीं है। प्लान बी है ही नहीं। जहां कूदो सोच समझकर कूदो। बचानेवाला कोई नहीं है। एक छाता सा हट जाता है सिर पे। धूप, बारिश सीधे आ रही है आप तक, सीधी बारिश और धूप परेशान करती है, पर पर पर वही आपको दूसरों के मुकाबले मजबूत भी बना देती है। जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी है-यह भाव आते ही जिंदगी के फैसले लेने में गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। मैं मां औऱ बड़ी बहन, ये तीन मेंबर, घऱ में बचे, थोड़े बहुत इधर उधऱ के विचलनों के बाद मैं बहुत जिम्मेदार बालक हो गया। पैसे की वैल्यू और रिश्तेदारों का अर्थ, इंसानी दोगलापन, इंसानी टुच्चापन थोड़ा जल्दी समझ में आ गया।
सवाल 6: दिन में बहुत समय आप लेखन, गजियाबाद दिल्ली आवागमन और अध्यापन में गुजार देते हैं। परिवार के लिए समय बहुत कम मिलता होगा। हड़काये नहीं जाते ?
जवाब: मेरे घरवाले बहुत सहयोगी हैं, पर मैं आपको बता दूं- दोनों बेटियों को जहां जब मेरी जरुरत है, मैं हमेशा हूं। पत्नी और मां की शिकायतें छोटी मोटी तो हो सकती हैं, पर आम तौर पर मैं एक जिम्मेदार पति और बाप और बेटा हूं। टाइम मैनेजमेंट की बात है। हर चीज के लिए वक्त निकाला जा सकता है, अगर बेकार की चीजों में वक्त जाया ना किया जाये।
सवाल 7: घर के काम काज में भी कुछ हाथ बटा पाते हैं ?
जवाब-जी नहीं अभी घर के कामकाज में मेरा रोल कोई नहीं है। भविष्य में घर के कामकाज में अपने योगदान को लेकर कुछ य़ोजनाएं हैं।
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Saturday, September 09, 2017

पंच होने से व्यंग्य का असर बढ़ जाता है- आलोक पुराणिक




Alok Puranik से सवाल- जबाब की कड़ी में आज के सवाल व्यंग्य के हथियार ’पंच’ पर
सवाल1. व्यंग्य में पंच का कितना महत्व होता है?
जवाब: पंच का शाब्दिक आशय है-मुक्का, घूंसा। व्यंग्य से उम्मीद की जाती है कि वह विसंगति की पड़ताल करेगा, विसंगति की पड़ताल की प्रकिया में जो रचनांश विशिष्ट होकर उभरते हैं, जिसमें मुक्का-परक क्षमताएं होती हैं, एकदम से पाठक के दिल में धंसने की क्षमताएं होती हैं, उन्हे आम तौर पर पंच कहा जा सकता है। पंच एक वाक्य में हो सकता है, पंच का पूरा पैरा हो सकता है। पंच की यह मेरी समझ है कि पंच यानी किसी व्यंग्य रचना का वह अंश जो बहुत महत्वपूर्ण बात कह रहा है। बड़ी रचनाओं, बड़े उपन्यासों में कई वनलाइनर निकलते हैं, उन्हे पंच माना जा सकता है। पंच की अपनी -अपनी परिभाषा हो सकती है, पर मेरी राय में पंच यही है, जो मैंने ऊपर बताया। व्यंग्य में पंच की खास भूमिका है। परसाईजी की एक रचना में एक वाक्य का आशय है कि महिला मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि एक की कमाई में पूरा नहीं पड़ता। यह मारक पंच है। किसी लेखक की पूरी रचनाएं पढ़ने का वक्त ना हो, तो उसके पंचों के अध्ययन से भी उस लेखक का लेखन समझ में आ आ सकता है, एक हद तक।
सवाल 2. मारक पंच की क्या पहचान है?
-जवाब-मारक पंच मारक घूंसे की तरह असर करता है, एकदम दिमाग पर चोट करता है। याद रह जाता है।
सवाल 3. क्या पंच की मात्रा अधिक होने से किसी व्यंग्य के प्रभावित होने की मात्रा बढ जाती है।
जवाब-पंच होने से व्यंग्य का असर बढ़ जाता है।
सवाल 4. व्यंग्य कहानियों में कहानी के ताने-बाने के चलते किसी व्यंग्य लेख की तुलना में पंच कम होते हैं। अगर पंच के हिसाब से व्यंग्य की परख होगी तो
व्यंग्य कहानियां लिखने वाले लेखक कम अच्छे माने जा सकते हैं। इस बारे में क्या कहना है आपका?
जवाब-देखिये कहानी का ढांचा अलग होता है, कहानी अलग राह पर चलती है। और लेख का ढांचा अलग होता है, वह अलग राह पर चलता है। कहानी में पंच न हों तो भी वह उत्सुकता के आधार पर चलती है, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होनेवाला है। इस सवाल के जवाब में पाठक लगातार पढ़ता जाता है। पंच होना कहानी की जरुरत नहीं है, पर अगर व्यंग्य-कहानी कही जा रही है, तो पंच उसमें स्वाभाविक तौर पर आ जाते हैं। इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर -परसाईजी की रचना में पंचों का भंडार है, पर कथा लोग इसलिए पढ़ रहे हैं कि पता करना है आगे क्या होगा आगे क्या होगा। खराब से खऱाब से कहानी भी पाठक को इस सवाल के बूते पढ़वा ले जाती है कि आगे क्या होगा। व्यंग्य लेख का ढांचा अलग होता है, वहां एक पैरा पढ़वाना भी मुश्किल है, अगर लेखक पाठक को बांध नहीं पा रहा है। क्योंकि लेख के ढांचे में कोई सवाल नहीं है कि आगे क्या होगा, कोई कैरेक्टर नहीं बनाया गया, कोई प्लाट नहीं खड़ा किया गया। और यह सवाल निरर्थक है कि कम अच्छे लेखक या ज्यादा अच्छे लेखक, हरेक पास अपना शिल्प और असर है। परसाईजी व्यंग्य कथाओं के लिए प्रख्यात हैं और शरद जोशी व्यंग्य निबंधों के लिए प्रख्यात हैं,श्रीलाल शुक्ल उपन्यास के लिए जाने जाते हैं। ज्ञान चतुर्वेदी उपन्यास और लेखों के लिए विख्यात हैं। छोटा बड़ा ऐसे तय नहीं हो सकता। अच्छा बुरा ऐसे नहीं माना जा सकता। व्यंग्य कहानी पंच के आधार पर नहीं उत्सुकता के आधार पर चलती है, व्यंग्य लेख बिना पंच के ज्यादा लंबा नहीं चल सकता।
सवाल 5. पंचबैंक की उपयोगिता के बारे में आपके क्या विचार हैं? इसको कैसे और प्रभावी बनाया जा सकता है?
जवाब-बिलकुल बहुत जरुरी है पंच बैंक। इतना कुछ छप रहा है व्यंग्य में, उसका कंस्ट्रेट उस व्यंग्य के पंचों में है, उसका खास तत्व उन पंचों में है। उन पंचों को पाठकों के सामने रखा जाये, तो पाठकों को पूरी किताब या लेख पढ़ने के लिए प्रेरित करना आसान होता है। पंच एक तरह से ट्रेलर होता है फिल्म का। ट्रेलर देख लिया अब पूरी रचना भी पढ़ो। पूरी रचना पढ़ने का वक्त ना हो, पंच कम से कम न्यूनतम परिचय तो करा देंगे रचना से। पंच बैंक बहुत ही महत्वपूर्ण काम है। दस साल बाद हर साल के पंचबैंकों के अध्ययन ने व्यंग्य के विद्यार्थी व्यंग्य के काम से व्यवस्थित तरीके से परिचित हो सकेंगे।
सवाल 6: अपने कुछ पंच जो आपको पसंद हों और अभी याद आ रहे हों उनके बारे में लिखिये।
* नयी पीढ़ी समझती है कि फोटू का एकमात्र उद्देश्य है कि उसे फेसबुक आदि पर अपलोड कर दिया जाये। अगर फेसबुक पर अपलोड नहीं करना है, तो फोटू खींचो ही काहे को। जिस मोबाइल में कैमरे से फोटू खींचकर सीधे फेसबुक पर अपलोड करने की सुविधा ना हो, उसे मोबाइल तो माना जा सकता है, पर स्मार्ट नहीं माना जा सकता है।
* सम्मान झेलना भी टेढ़ा काम है साहब। शर्मीले पोज में मुस्कुराते हुए दिखना कतई-कतई मूर्खतापूर्ण काम है। सम्मान झेलना हरेक के लिए आसान काम नहीं है, एक हद तक निर्लज्ज होना पड़ता है। ये बात कहो, तो लोग कह उठते हैं अगर लज्जा होती तुममें, तो इतना और ऐसा काहे लिखते।
*नेता अब राष्ट्रीय ना होते, राष्ट्रीय तो कोल्ड ड्रिंक हैं। वो वाला फेमस कोल्ड ड्रिंक आप भुवनेश्वर में भी लो, और मुंबई में भी और अहमदाबाद में भी लो और जम्मू में भी। नेताओं के राष्ट्रीय होने के दौर गये। अब तो सिर्फ कोल्ड ड्रिंक ही राष्ट्रीय हो रहे हैं।
* सुबह सात बजे मोबाइल-एप्लीकेशन तापमान दिखाता है-44 डिग्री। कौन जाये इतनी गरमी में, जबकि पहले मैं चला जाता था, जब तापमान का हर घंटे पर ज्ञान नहीं था।
*ज्ञान कई बार मरवा देता है। ज्यादा ज्ञान तो पूरे तौर पर ही चौपट कर देता है।
*सवाल-मैं अगर फेयर एंड हैंडसम लगाऊं और फिर भी सुंदरियां आकर्षित न हों, तो क्या मैं कंपनी पर दावा ठोंक सकता हूं।
जवाब-नहीं, तमाम इश्तिहारों के विश्लेषण से साफ होता है कि सुंदरियां सिर्फ क्रीम लगाने भर से आकर्षित नहीं होतीं। इसके लिए वह वाला टायर भी लगाना पड़ता है। इसके लिए वो वाली बीड़ी भी पीनी पड़ती है। इसके लिए वो वाली सिगरेट भी पीने पड़ती है। इसके लिए वो वाली खैनी भी खानी पड़ती है। इसके लिए वो वाला टूथपेस्ट भी यूज करना पड़ता है। इसके वो वाला कोल्ड ड्रिंक भी पीना पड़ता है।
7. अन्य लेखकों के लेखन के कुछ पंच जो आपको पसंद हों।
-पूरा रागदरबारी पंचों का भंडार है। ज्ञान चतुर्वेदीजी, शऱद जोशीजी, परसाईजी सबके बहुत पंच है। इनके पंचों को पेश करना लंबा काम है, करुंगा जल्दी ही।
इसके पहले की बातचीत बांचने के लिये नीचे वाली कडियों पर पहुंचें।
आलोक पुराणिक से सवाल करने के लिये मुझे मेल करिये anupkidak@gmail पर या फ़िर इनबॉक्स में सवाल भेजिये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212491759422472व्यवस्थित आवारा, बहुधंधी फोकसकर्ता - आलोक पुराणिक
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212484447839687 बाजार सबसे बड़ी विचारधारा है- आलोक पुराणिक
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212476957012421जिसको जो लिखना है, उसे वह लिखने की छूट होनी चाहिए
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212464433979353 पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212457436844429लिखने-पढने की बात

Thursday, September 07, 2017

व्यवस्थित आवारा, बहुधंधी फोकसकर्ता - आलोक पुराणिक



रंजना रावत जी हिन्दी की सबसे लोकप्रिय और बेहतरीन ’वनलाइनरिया’ हैं। आजकल कैमरा आईफ़ोन मोबाइल का कैमरा भी उनके हाथ में है तो उसके भी बेहतरीन प्रयोग वे करती रहती हैं। कविताओं पर हाथ साफ़ की सफ़ाई भी चलती ही रहती है। Alok Puranikसे आज के सवाल रंजना जी ने किये। रंजना जी का पहला सवाल आलोक पुराणिक की टाइपिंग स्पीड को लेकर है। उसका जबाब आलोक पुराणिक ने दिया। उनकी स्पीड का अंदाज लगाने के लिये जानकारी दे दूं कि आलोक पुराणिक को मैंने रजना जी के सवाल मैंने सबेरे 0451 बजे भेजे। उसके जबाब टाइप करके उन्होंने मुझे 6 बजकर एक मिनट पर भेज दिये। मतलब यहां जबाब वाली टाइपिंग करने में केवल एक घंटा लिया आलोक पुराणिक। मल्लब अगर कल को आलोक पुराणिक की व्यंग्य लेखन की कमाई बंद भी हो गयी तो बंदा उससे ज्यादा पैसा कचहरी में बैठकर टाइपिंग से पीट लेगा। बहरहाल आप बांचिये रंजना जी के सवाल और आलोक पुराणिक के जबाब]
सवाल 1: आपके शुरुआती दौर और आज की बात करें तो चार सौ शब्द का एक व्यंग्य लिखने में आपको अपेक्षाकृत अब कितना समय लगता है ? उस वक़्त की कठिनाईयों और आज टेक सैवी हो जाने की अपनी यात्रा के यादगार क़िस्से शेयर करें । अपनी टाइपिंग स्पीड भी बताएँ ।
जवाब: व्यंग्य लिखने की प्रक्रिया के दो हिस्से हैं-एक सोचना और दूसरा लिखना। सोचने का काम लगभग चौबीस घंटे है अब। कोई भी घटनाक्रम कोई खबर कोई विचार अब व्यंग्य के फ्रेम में उतरता है वह प्रक्रिया चौबीस घंटे लगभग की मानी जा सकती है। इक्कीस साल पहले विषय की तलाश और उस पर घंटों सोचना फिर फ्रेम बनाना, फिर संवाद बनाना, फिर फाइनल करना चार सौ शब्दों का व्यंग्य तब करीब चार घंटे में सोचा जाता था और आधा घंटा लिखने के लिए चाहिए था। बरसों बरस मैंने हाथ से लिखे हैं व्यंग्य, फिर सीख लिया कंप्यूटर। अब मैं पंद्रह मिनट में करीब छह सौ शब्द टाइप कर लेता हूं,छह सौ शब्द यानी करीब तीन हजार कैरेक्टर। पांच सौ शब्दों तक के व्यंग्य को मोबाइल पर टाइप करने की क्षमताएं भी विकसित कर ली हैं। तकनीक का फायदा सिर्फ गूगल औऱ माइक्रोसाफ्ट ही क्यों लें, आलोक पुराणिक को भी मिलना चाहिए। तकनीक के इस्तेमाल से अब बहुत चीजें आसान हो गयी हैं खास तौर पर शोध को लेकर। पहले शोध में बहुत वक्त जाता था। अब गूगल के जरिये लगभग सब कुछ आपके फोन या मोबाइल पर होता है।
सवाल 2: बतौर प्रोफेसर आप लगातार युवा छात्र छात्राओं से सम्पर्क में रहते हैं तो क्या इससे आपको अपने व्यंग्य लेखन और आर्थिक पत्रकारिता को समझने में मदद मिलती है ? यदि हाँ तो कैसे और नहीं तो क्यों नहीं ?
जवाब: नयी पीढ़ी से संवाद करना अपना आप में एक रोचक रचनात्मक अनुभव है। नयी पीढ़ी बदल रही है, तो अर्थव्यवस्था भी बदल रही है। मैं देखता हूं कि पापा और बेटे मिलने आ रहे हैं तो पापा के हाथ में नोकिया का पुराना सात साल पुराना फोन है बेटे के हाथ में नया एप्पल सेवन प्लस फोन है। बदलाव का अंदाज लगता है। नयी पीढ़ी अपने रहन-सहन ड्रेस वगैरह के मामले में बहुत चुस्त चौकस है। सेंस आफ प्राइवेसी उन्नत स्तर का है पापा क्या पूछ सकते हैं क्या नहीं का भाव है, नयी पीढ़ी में। बदलते वक्त को आप नयी पीढ़ी के साथ संवादरत रहकर भांप सकते हैं। आर्थिक पत्रकारिता या अर्थशास्त्र बदलते समाज के साथ भी जुड़ा है, तो मेरी आर्थिक पत्रकारिता और व्यंग्य दोनों ही नयी पीढ़ी के संवाद से समृद्ध होते हैं।
सवाल 3: आप अपने हर पाठक, हर छात्र को श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी पढ़ने की सलाह देते हैं । आपने भी व्यंग्य के हर फ़ॉर्मैट पर जमकर काम किया है तो क्या आपके पाठक भी आपकी इस अनुभवी क़लम से एक ऐसे ही कालजयी व्यंग्य उपन्यास की अपेक्षा रख सकते हैं ?
जवाब: ‘राग दरबारी’ उपन्यास नहीं जीवन-शास्त्र है। उसे तो हरेक को पढ़ना ही चाहिए। उपन्यास मैं जरुर लिखूंगा, पर वह व्यंग्य उपन्यास नहीं होगा। वह ऐतिहासिक घटनाक्रम पर आधारित ऐसा उपन्यास होगा, जिसकी जड़ें आर्थिक कारकों से जुड़ी होंगी। व्यंग्य-उपन्यास ब्रह्मांड के कठिनतम रचनात्मक उपक्रमों में से एक है। अभी व्यंग्य उपन्यास एजेंडा में नहीं है, एक वृहद उपन्यास है एजेंडा में, उसका शोध उसकी तैयारी बहुत ही समय लेनेवाली है। तो मेरे पाठक मुझसे एक बड़े ऐतिहासिक उपन्यास की उम्मीद रख सकते हैं। व्यंग्य उपन्यास की अभी कोई तैयारी नहीं है।
सवाल 4: आपने अपने पिछले साक्षातकार में कहा कि आप लगभग हर फ़िल्म देखते हैं । आपने व्यंग्य में अनेकों प्रयोग किए हैं यदि आपके समक्ष यह सुझाव रखा जाए कि फिल्म की समीक्षाओं को भी एक व्यंग्यकार की दृष्टि से देखने का प्रयोग किया जाना चाहिए तो इसका क्या पाठक इसे भी सरहाएँगे ? इसका भी कोई स्कोप देखते हैं आप ?
जवाब : बिलकुल ऐसे प्रयास होने चाहिए। फिल्म समीक्षा को व्यंग्य में लिखा जाना चाहिए और खास तौर पर बहुचर्चित फिल्मों पर व्यंग्यात्मक समीक्षा हो सकती है होनी चाहिए। शरद जोशी जी की एक रचना है एक कस्बे का सिनेमा मैनेजर, उसमें उन्होने देवानंद की फिल्म ज्वैल थीफ की अपने अंदाज से व्याख्या की है। अद्भुत तरह की व्याख्या है। मैं फिल्मों की व्यंग्यात्मक समीक्षा मैं करना चाहूंगा।
सवाल 5: व्यंग्य में ’सोशल मीडिया’ की भूमिका को आप कैसे देखते हैं ? यहाँ मौलिक लेखन और कॉपी पेस्टक लेखकों की पहचान करना मुश्किल काम है जिस पर अक्सर खासा विवाद भी रहता है ? आप एक सीनियर व्यंग्यकार हैं क्या कभी ऐसा हुआ है कि जिसे आपने सिलेब्रिटी समझा हो और बाद में वह एक कॉपी पेस्टक साबित हुआ हो ।
जवाब: ’सोशल मीडिया ’ एक मीडिया है माध्यम है। किसी भी माध्यम में हर तरह के लोग आते हैं। दूसरों के काम पर अपना यश खड़ा करनेवाले मुख्यधारा के मीडिया में भी हैं और सोशल मीडिया में भी हैं। हर तरह के लोग हैं। कुछ लोग वो हैं, तो मुख्यधारा के मीडिया से आये हैं, कुछ के लिए सोशल मीडिया ही पहला मीडिया है। छद्म पहचानवाले व्यक्तियों को आप बहुत आसानी से शुरुआती संवाद में ही पकड़ सकते हैं।
सवाल 6: हाल ही में आपने अपनी नई रूचि, फोटोग्राफी को गंभीरता से लेने की बात कही । ज़रा विस्तार से इसकी रूपरेखा के बारे बताएँ ? क्या फोटोग्राफी के इस नए प्रयोग में भी व्यंग्य और आर्थिक पत्रकारिता का समावेश रहेगा या बिलकुल अलग ही रूप में इस पर काम चलेगा ?
जवाब: फोटोग्राफी बहुत ही गंभीरता से ले रहा हूं, कुछेक फोटो-निबंध तो छपे भी हैं। कुछ छपने की प्रक्रिया में हैं। फोटो को गंभीरता से लेना जरुरी यूं है कि लोगों की पढ़ने की, मीडिया के उपभोग की आदतें बदल रही हैं। गंभीर बात को पढ़ाने के लिए भी फोटो, विजुअल चाहिए होते हैं। टीवी ने लगभग हर माध्यम को विजुअल होने के लिए विवश किया है। अब लोग पढ़ना कम देखना ज्यादा चाहते हैं। तमाम माध्यमों में काम कर रहे मित्र बताते हैं कि एक ही बात को हमने टेक्स्ट में कहा, लोगों ने नहीं पढ़ा, पर उसे ही इन्फोग्राफिक के तौर पर पेश किया, तो पढ़ लिया। दिमाग पर बोझ कम चाहिए, फोटो और विजुअल दिमाग पर कम बोझ डालकर ज्यादा बता देते हैं। हिंदी में उस क्षेत्र में काम होना बाकी है, अंग्रेजी में ग्राफिक उपन्यास चल निकले हैं। फोटो-विजुअल के माध्यम से कथा कही जा रही है। इकोनोमिक टाइम्स जैसा आर्थिक कारोबारी अखबार अपने लेखों को पढ़ाने के लिए सिर्फ ग्राफ नहीं, ऐसे फोटो का इस्तेमाल कर रहा है, जिनका लेख के मुख्य कंटेट से ताल्लुक नहीं है। विजुअल, फोटो से लेख को पढ़ना आसान हो जाता है और कहनेवाले को अपनी बात कहना आसान हो जाता। कैमरा मैंने कुछ ही समय पहले पकड़ा है मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। व्यंग्य के फ्रेम के साथ अब फोटो के फ्रेम भी बनने लगे हैं दिमाग में। मेरे एक मित्र ने बहुत ही अच्छा सुझाव दिया कि दिमाग के कैमरा सेंसर हमेशा आन रखो, हर जगह फोटो मिलते हैं और मिल रहे हैं। काम चल रहा है सबके सामने आयेगा। मोटे तौर पर कैमरे के साथ मेरे काम तीन तरह के होंगे-एक तो व्यंग्य को ही कैमरे के माध्यम से अभिव्यक्त करुंगा, यह काम तो शुरु भी कर दिया है। दो आर्थिक पत्रकारिता, आर्थिक कहानी कैमरे के माध्यम से कहने की कोशिश रहेगी, इस पर अभी काम होना बाकी है। अपने कुछ लेक्चरों में मैंने फोटो को जगह दी है, बेहतर संवाद स्थापित हुआ है। आर्थिक पत्रकारिता में कैमरे के साथ बहुत थोड़ा काम पहले किया था-नोटबंदी पर कुछ फोटो-निबंध किये थे, बीबीसी और दूसरे माध्यमों ने उन्हे जगह दी थी। तीसरा एक बड़ा मोटा मोटा सा आइडिया है, कैमरे के साथ ऐतिहासिक स्थलों पर लिखा जायेगा-वह वृतांत जैसा होगा, रिपोर्ताज जैसा होगा, व्यंग्य नहीं होगा वह। वह सब जल्दी ही आपके सामने आयेगा, ऐसी उम्मीद करता हूं। काम करके बताना अच्छा होता है। सो करके बताऊंगा, अभी इतना ही- कैमरा मेरी अभिव्यक्ति के बहुत ही महत्वपूर्ण माध्यम बनेगा, ऐसी मुझे उम्मीद है।
सवाल 7: जो पाठक आप पर किसी पार्टी विशेष के प्रति पक्षपाती होने का आरोप लगाते हैं आप उन्हें डिप्लोमेटिकली एक सामान्य बयान जारी करके नज़रअंदाज़ सा कर देते हैं । आपको नहीं लगता कभी कभार ही सही यदि आप उनसे सीधा संवाद स्थापित करेंगे तो अधिक सहज और कनविंसिंग लगेंगे, एरोगेंट नहीं ।
जवाब: मैं साफ कर दूं मैं बिलकुल एरोगेंट नहीं हूं। हां बेकार की बहस में पड़ने में दिलचस्पी नहीं होती। कई बहसें अंतहीन होती हैं। खास तौर पर इस तरह की बहसें कि आपने उन पर कम लिखा, उनकी आलोचना कम की, इनकी ज्यादा की। मेरा पक्ष था मैंने रख दिया, किसी पाठक ने मुझे पक्षपाती कहा, उसने अपना पक्ष रख दिया। मैंने अपनी बात रख दी, संवाद हो गया। अब हम एक दूसरे को कन्विंस करने के चक्कर में क्यों पड़ें कि भाई तू गलत मैं ही सही। मेरा यह मत है, आपका यह मत है, अपने अपने मतों के साथ हम रह सकते हैं। एक दूसरे को कन्विंस करने का ठेका हमने नहीं लिया है, न मुझे किसी से वोट मांगना है कि उसे हर हाल में अपने से कन्विंस ही किया जाये। असहमतियां जरुरी हैं, वो रहें तो क्या हर्ज है। मेरे अच्छे दोस्त सभी राजनीतिक पार्टियों में हैं, दोस्तियां हैं, दोस्ती की यह बुनियादी जरुरत एकदम नहीं है कि हम ठीक एक जैसा ही सोचें.
सवाल 8: यह लाजिमी है कि बतौर व्यंग्यकार आप अपने इर्द गिर्द होने वाली गतिविधियों में हमेशा विसंगतियों की तलाश में रहते होंगे । माइंड पर व्यंग्य के कब्जे से आपको कभी खीझ नहीं होती कि आप कुछ और महत्वपूर्ण भी मिस कर रहे हैं जो शायद इसकी अनुपस्थिति में ही कर पाना संभव हो पाता ।
जवाब: जी आपने बहुत महीन बात पकड़ी है। यह तो होता है कि जब आप चौबीस घंटे व्यंग्य के मोड में होते हैं तो शमशान में भी व्यंग्य दिखना शुरु हो जाता है। पर यह मेरा चुनाव है कि व्यंग्य करना है, तो इसके साथ जीना पड़ेगा। किसी पेंटर को श्मशान में पेंटिंग दिखने लगती होगी, अपने काम के साथ लगातार रहेंगे, तो वह तो आपके साथ चलेगा। कोरी स्लेट तो नहीं हो सकते। हां इस चक्कर में बहुत कुछ मिस होता है, तो वह काम का हिस्सा मानना पड़ेगा। मुझे थोड़ा सा फायदा यह हो जाता है कि मैं एक सिचुएशन पर अब बतौर फोटोग्राफर भी सोच सकता हूं।
सवाल 9: वज़न कम करने के बाद अब आप बिलकुल एक नए लुक में हैं । बाल कलर कराने का विचार कभी नहीं आया आपको ? कुछ पुरानी फोटुओं में मूछें भी दिखीं आपकी, आजकल फिर फ़ैशन में हैं, अपने नए लुक में क्या इन्हें भी एड करेंगे ?
जबाब: बाल कलर कराने का खतरा यह है कि ’व्यंग्य के मठाधीश’ मुझे कल का छोकरा मानने लगेंगे, अभी मुझे परसों का छोकरा माना जाता है। छोकरत्व की सीनियरटी पर फर्क पड़ेगा बाल कलर कराने का। फोटोग्राफी जब धुआंधार करने लगूंगा तब लुक में चेंज करुंगा वड्डी मूंछें, सफाचट सिर, पांच कैमरे लादकर अपनी बुलेट बाइक पर चला करूंगा, तब लुक में चेंज में आयेगा। जल्दी आयेगा, जल्दी आयेगा।
सवाल 10: आपके व्यक्तित्व को चार लाइनों में डिस्क्राइब करने को कहा जाए तो वो चार लाइनें क्या होंगी ?
-व्यवस्थित आवारा, बहुधंधी फोकसकर्ता -सिर्फ चार शब्दों में ही खुद को डिस्क्राइब किया जा सकता है।

आलोक पुराणिक से सवाल करने के लिये मुझे मेल करिये anupkidak@gmail पर या फ़िर इनबॉक्स में सवाल भेजिये।
इसके पहले आलोक पुराणिक से पूछताछ पढने के लिये इन कडियों पर पहुंचिये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212484447839687 बाजार सबसे बड़ी विचारधारा है- आलोक पुराणिक
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